कविताएँ:डॉ स्वाति पांडे नलावडे

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                      
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जब मकान, घर था ...


जब खिड़कियों पर परदे
झूलते थे

दीवारों पर फ्रेम- दर – फ्रेम
हँसी छलकती थी

बरामदे में सुबह
आठ बज कर बीस मिनट पर खबरें,
अखबार के संग आ गिरती थी

ठण्ड में दुपहरी की धूप
काँची ,बैठ कुर्सी पे सेंकती थी

मोर के पीछे मोर के पीछे मोर
और हम सब उनके पीछे
दौड़ा करते थे

झूला झूलती सायली
शाम को जुगनू गिनती थी

मैं अपने गुलाबों और बुलबुलों में

सुबह – ओ – शाम उलझी रहती थी
वीराना सही

ज़िंदगी इन पहाड़ों पर
कभी मिलने भी आ जाती थी

मकान को घर बनाने में
हमने
एक अरसा लगाया था
लेकिन अब
यहाँ ना परदे बचे हैं
ना दीवारों पर फ्रेम ही
किताबों को बक्सों में
कैद कर
और
एक घर को
फिर एक बार
काँधों  पे लादे
दिल में बसाये
ये खाली मकान छोड़ चले हैं
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समिधा


बाल मन के वो छोटे छोटे सपने

भोली भोली बातें
आँखों ही आँखों में
सच्चे हो जाते झूठ और झुठलाते सच
मुझे तो याद हैं

याद आते हैं
आते रहेंगे
तुम मगर
उम्र की नकेल में मत फंस जाना 
मत बन जाना, 'जेनटिलमेन'
मत इतराना
ऊँचाइयों पर पहुँचकर
गर्वित ह्रदय ही हो, बस
क्यूंकि
मैंने सुना है,
बड़े हो जाने पर
इंसान
सपने भी बड़े ही देखता है
देखने लगता है
देखना चाहता है

और
इन सबमें
बाल मन के वो छोटे छोटे सपने
छोटी छोटी इच्छायें
जल कर ख़ाक हो जाती हैं

आहूति हो जाती हैं


वो इच्छायें जिन्हें
हम बाल पन में
बाल मन में
भोली भोली बातों में
एक दूसरे से कहते फिरते थे

वो छोटी छोटी बातें
कहते हैं
बड़े-बडों के भी 
परलोक सुधारने में
'समिधा'
बन जाया करती है



डॉ स्वाति पांडे नलावडे,
जन्मजबलपुर में 1969 में
शिक्षा जबलपुर और इंदौर। 
एम एससीएम बी ए (मार्केटिंग)
तथा बिज़नेस मेनेजमेंट में पी एचडी|
रंगमंचअभिनयवाद-विवाद में रूचि।
'रेवा पार से' नामक
प्रथम काव्य-संग्रह प्रकाशित
ई मेल:swati.nalawade@gmail.com
मो.9975457012

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