चौदह कविताएँ:सुशांत सुप्रिय

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन

दिल्ली में पिता


पिता से जब भी मैं कहता कि
बाबूजी, कुछ दिन आप मेरे पास आ कर
दिल्ली में रहिए
तो वे हँस कर टाल जाते

कभी-कभी कहते --

बेटा, मैं यहीं ठीक हूँ


लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था

आख़िर जब नहीं रहीं माँ तो

' व में अकेले कैसे रहेंगे आप ?'
यह कह कर
ज़िद करके ले आया मैं
दिल्ली में पिता को


किंतु यहाँ आ कर

ऐसे मुरझाने लगे पिता

जैसे कोई बड़ा सूरजमुखी धीरे-धीरे
खोने लगता है अपनी आभा


गाँव में पिता के घर के आँगन में

पेड़ ही पेड़ थे

चारों ओर हरियाली थी
किंतु यहाँ बाल्कनी में
केवल कुछ गमले थे
बहुमंज़िली इमारतों वाले
इस कंक्रीट-जंगल में तो
खिड़कियों में भी जाली थी

'बेटा, तुम और बहू

सुबह चले जाते हो दफ़्तर

लौटते हो साँझ ढले
पूरा दिन इस बंद मकान में
क्या करूँ मैं? '
दो दिन बाद उदास-से बोले पिता


' आप दिन में कहीं

घूम क्यों नहीं आते?'

-- राह सुझाई मैंने

किंतु अगली शाम

दफ़्तर से लौटने पर मैंने पाया कि

दर्द से कराह रहे थे पिता--
'क्या करूँ, लाख कहने पर भी
बस-ड्राइवर ने स्टाॅप पर
बस पूरी तरह नहीं रोकी ।
हार कर चलती बस से उतरना पड़ा
और गिर गया मैं '--
दर्द से छटपटाते हुए बोले पिता

कुछ दिनों बाद जब ठीक हो गए वे तो

पूछा उन्होंने-- " बेटा, पड़ोसियों से

बोलचाल नहीं है क्या तुम्हारी ?"
मैंने उन्हें बताया कि बाबूजी,
यह आपका गाँव नहीं है
महानगर है, महानगर
यहाँ सब लोग
अपने काम से काम रखते हैं । बस ।
यह सुनकर उनकी आँखें
पूरी तरह बुझ गईं

उनकी स्याह आँखें

जो कुछ तलाशती रहती थीं

वे चीज़ें यहाँ कहीं नहीं मिलती थीं

अब वे बहुत चुप-चुप

रहने लगे थे

कुछ दिन बाद एक इतवार

मैंने पिता से पूछा --

'बाबूजी , दशहरे का मेला देखने चलिएगा?
दिल बहल जाएगा ।'

वे मुझे कुछ पल एकटक देखते रहे

उनकी आँखों में संशय और भय के सर्प थे

किंतु मैंने उन्हें किसी तरह मना लिया

मैदान में बेइंतहा भीड़ थी

पिता घबराए हुए लगे

उन्होंने मेरा हाथ कस कर पकड़ रखा था

अचानक लोगों के सैलाब ने

एक ज़ोरदार धक्का दिया

मेरे हाथों से उनका हाथ छूट गया
लोगों का रेला मुझे आगे लिए जा रहा था
पिता मुझसे दूर हुए जा रहे थे

मुझे लगा जैसे ज़माने की रफ़्तार में

पीछे छूटते जा रहे हैं पिता

मैं पलटा किंतु तब तक

आँखों से ओझल हो गए पिता

महानगर दिल्ली में
खो गए पिता...
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वी. आइ. पी. मूवमेंट

                    

सड़क की धड़कनें

रोक दी गई हैं
साँस लेना बंद कर दिया है
वाहनों ने भी
राहगीर बेचारगी से
किनारे खड़े हैं
घड़ी की सुइयाँ भी जैसे
जहाँ थीं वहीं रुक गई हैं

एक अंतहीन प्रतीक्षा के बाद

बैरिकेड की लक्ष्मण-रेखा

के उस पार होने लगा है
वी. आइ. पी. मूवमेंट
लाल-बत्तियों के काफ़िले
से आती सायरन की आवाज़ें
रौंदने लगी हैं सबकी चेतना को

मुस्तैद खड़ा है

ट्रैफ़िक-पुलिस विभाग

चौकस खड़े हैं
हथियारबंद सुरक्षा-कर्मी
अदब से खड़ा है
समूचा तंत्र
सहमा और ठिठका हुआ है
केवल आम आदमी का जनतंत्र
यह कैसा षड्यंत्र ?

मित्रो

आम आदमी की असुविधा के यज्ञ में

जहाँ मुट्ठी भर लोगों की सुविधा का
पढ़ा जाए मंत्र
वह कैसा गणतंत्र ?

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उम्मीद

                

अपने क्षितिज का
अनुसंधान पूरा कर
साल का अंतिम सूरज
डूब रहा है

धीरे-धीरे

अस्त हो रहा है सूर्य

इस पुराने साल पर

यह दृश्य मुझे अच्छा लगता है

साल के अंतिम सूरज का डूबना

मुझे अच्छा लगता है

इस तरह एक उम्मीद-सी रहती है कि
शायद दुनिया कुछ बेहतर होगी
नए साल के पहले सूर्योदय के साथ

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सबसे ख़ौफ़नाक

( पाश को समर्पित )


समुद्री चक्रवात  की मार

सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होती

भूकम्प की तबाही
सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होती
छूट गई दिल की धड़कन
सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होती

सबसे पीछे छूट जाना -- बुरा तो है

एड़ी में काँटे का चुभ जाना -- बुरा तो है

पर सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होता


दुःस्वप्न में छटपटाना -- बुरा तो है

किताबों में दीमक लग जाना -- बुरा तो है

अजंता-एलोरा का खंडहर होता जाना -- बुरा तो है
पर सबसे ख़ौफ़नाक नहीं होता

सबसे ख़ौफ़नाक होता है

अपनी ही नज़रों में गिर जाना

देह में दिल का धड़कते रहना
पर भीतर कहीं कुछ मर जाना
सबसे ख़ौफ़नाक होता है
आत्मा का कालिख़ से भर जाना

सबसे ख़ौफ़नाक होता है

अन्याय के विरुद्ध भी

न उबलना लहू का
चेहरे पर पैरों के निशान पड़ जाना
सबसे ख़ौफ़नाक होता है
खुली आँखों में क़ब्र का
अँधेरा भर जाना ...

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 इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

         

देह में फाँस-सा यह समय है

जब अपनी परछाईं भी संदिग्ध है

'हमें बचाओ, हम त्रस्त हैं ' --
घबराए हुए लोग चिल्ला रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकाॅर्डेड आवाज़ उपलब्ध है --
' इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं '

न कोई खिड़की, न दरवाज़ा , न रोशनदान है

काल-कोठरी-सा भयावह वर्तमान है

' हमें बचाओ, हम त्रस्त हैं ' --
डरे हुए लोग छटपटा रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकाॅर्डेड आवाज़ उपलब्ध है --
' इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं '

बच्चे गा रहे वयस्कों के गीत हैं

इस वनैले-तंत्र में मासूमियत अतीत है

बुद्ध बामियान की हिंसा से व्यथित हैं
राम छद्म-भक्तों से त्रस्त हैं
समकालीन अँधेरें में
प्रार्थनाएँ भी अशक्त हैं ...
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

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   एक जलता हुआ दृश्य

  

वह एक जलता हुआ दृश्य था
वह मध्य-युग था या 1947
1984 था या 1992
या वह 2002 था
यह ठीक से पता नहीं चलता था
शायद वह प्रागैतिहासिक काल से
अब तक के सभी
जलते हुए दृश्यों का निचोड़ था

उस दृश्य के भीतर

हर भाषा में निरीह लोगों की चीख़ें थीं

हर बोली में अभागे बच्चों का रुदन था
हर लिपि में बिलखती स्त्रियों की असहाय
प्रार्थनाएँ थीं
कुल मिलाकर वहाँ
किसी नाज़ी यातना-शिविर की
यंत्रणा में ऐंठता हुआ
सहस्राब्दियों लम्बा हाहाकार था


उस जलते हुए दृश्य के बाहर

प्रगति के विराट् भ्रम का

चौंधिया देने वाला उजाला था
जहाँ गगनचुम्बी इमारतें थीं , वायु-यान थे
मेट्रो रेल-गाड़ियाँ थीं , शापिंग-मॉल्स थे
और सेंसेक्स की भारी उछाल थी

किंतु जलते हुए दृश्य के भीतर

शोषितों के जले हुए डैने थे

वंचितों के झुलसे हुए सपने थे
गुर्राते हुए जबड़ों में हड्डियाँ थीं
डर कर भागते हुए मसीहा थे

हर युग में टूटते हुए सितारों ने

अपने रुआँसे उजाले में

उस जलते हुए दृश्य को देखा था

असल में वह कोई जलता हुआ दृश्य नहीं था

असल में वह मानव-सभ्यता का

घुप्प अंधकार था
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' जो काल्पनिक कहानी नहीं है ' की कथा

                           

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं थी
कथा में मेमनों की खाल में भेड़िये थे
उपदेशकों के चोलों में अपराधी थे
दिखाई देने के पीछे छिपी
उनकी काली मुस्कुराहटें थीं
सुनाई देने से दूर
उनकी बदबूदार गुर्राहटें थीं

इसके बाद जो कथा थी, वह असल में केवल व्यथा थी

इस में दुर्दांत हत्यारे थे, मुखौटे थे,

छल-कपट था और पीड़ित बेचारे थे
जालसाज़ियाँ थीं, मक्कारियाँ थीं,
दोगलापन था, अत्याचार था
और अपराध करके साफ़
बच निकलने का सफल जुगाड़ था

इसके बाद कुछ निंदा-प्रस्ताव थे,

मानव-श्रृंखलाएँ थीं, मौन-व्रत था

और मोमबत्तियाँ जला कर
किए गए विरोध-प्रदर्शन थे
लेकिन यह सब बेहद श्लथ था

कहानी के कथानक से

मूल्य और आदर्श ग़ायब थे

कहीं-कहीं विस्मय-बोधक चिह्न
और बाक़ी जगहों पर
अनगिनत प्रश्न-वाचक चिह्न थे
पात्र थे जिनके चेहरे ग़ायब थे
पोशाकें थीं जो असलियत को छिपाती थीं

यह जो ' काल्पनिक कहानी नहीं थी '

इसके अंत में

सब कुछ ठीक हो जाने का
एक विराट् भ्रम था
यही इस समूची कथा को
वह निरर्थक अर्थ देता था
जो इस युग का अपार श्रम था

कथा में एक भ्रष्ट से समय की

भयावह गूँज थी

जो इसे समकालीन बनाती थी

जो भी इस डरावनी गूँज को सुन कर

अपने कान बंद करने की कोशिश करता था

वही पत्थर बन जाता था ...
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माँ



इस धरती पर
अपने शहर में मैं
एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में
एक छोटे-से शब्द-सा आया था


वह उपन्यास

एक ऊँचा पहाड़ था

मैं जिसकी तलहटी में बसा
एक छोटा-सा गाँव था


वह उपन्यास

एक लम्बी नदी था

मैं जिसके बीच में स्थित
एक सिमटा हुआ द्वीप था

वह उपन्यास

पूजा के समय बजता हुआ

एक ओजस्वी शंख था
मैं जिसकी गूँजती ध्वनि-तरंग का
हज़ारवाँ हिस्सा था


वह उपन्यास

एक रोशन सितारा था

मैं जिसकी कक्षा में घूमता हुआ

एक नन्हा-सा ग्रह था

हालाँकि वह उपन्यास

विधाता की लेखनी से उपजी

एक सशक्त रचना थी
आलोचकों ने उसे
कभी नहीं सराहा
जीवन के इतिहास में
उसका उल्लेख तक नहीं हुआ


आख़िर क्या वजह है कि

हम और आप

जिन उपन्यासों के
शब्द बन कर
इस धरती पर आए
उन उपन्यासों को
कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला?

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 बच्ची

  

हम एजेंसी से

एक बच्ची
घर ले कर आए हैं



वह सीधी-सादी सहमी-सी

आदिवासी बच्ची है


वह सुबह से रात तक

जो हम कहते हैं

चुपचाप करती है

वह हमारे बच्चे की

देखभाल करती है

जब उसका मन
ख़ुद दूध पीने का होता है
वह हमारे बच्चे को
दूध पिला रही होती है
जब हम सब
खा चुके होते हैं
उसके बाद
वह सबसे अंत में
बासी बचा-खुचा
खा रही होती है


उसके गाँव में

फ्रिज या टी. वी. नहीं है

वह पहले कभी
मोटर कार में
नहीं बैठी
उसने पहले कभी
गैस का चूल्ह
नहीं जलाया


जब उसे

हमारी कोई बात

समझ में नहीं आती
तो हम उसे
' मोरोन ' कहते हैं
उसका ' आई. क्यू. '
शून्य मानते हैं

हमारा बच्चा भी

अक्सर उसे

डाँट देता है
हम उसकी बोली
उसके रहन-सहन
उसके तौर-तरीक़ों का
मज़ाक़ उड़ाते हैं


दूर कहीं

उसके गाँव में

उसके माँ-बाप
तपेदिक से मर गए थे
उसका मुँहबोला  ' भाई '
उसे घुमाने के बहाने
दिल्ली लाया था
उसकी महीने भर की कमाई
एजेंसी ले जाती है

आप यह जान कर

क्या कीजिएगा कि वह

झारखंड की है
बंगाल की
आसाम की
या छत्तीसगढ़ की


क्या इतना काफ़ी नहीं है कि

हम एजेंसी से

एक बच्ची
घर ले कर आए हैं
वह हमसे
टाॅफ़ी या ग़ुब्बारे
नहीं माँगती है
वह हमारे बच्चे की तरह
स्कूल नहीं जाती है


वह सीधी-सादी सहमी -सी

आदिवासी बच्ची

सुबह से रात तक
चुपचाप हमारा सारा काम
करती है
और कभी-कभी
रात में सोते समय
न जाने किसे याद करके
रो लेती है

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दीवार



बर्लिन की दीवार
न जाने कब की तोड़ी जा चुकी थी
पर मेरा पड़ोसी
अपने घर की चारदीवारी
डेढ़ हाथ ऊँची कर रहा था


पता चला कि

वह उस दीवार पर

कँटीली तार लगाएगा
और उस पर
नुकीले काँच के
टुकड़े भी बिछाएगा



मुझे नहीं पता

उसके ज़हन में

दीवार ऊँची करने का ख़्याल
क्यों और कैसे आया
किंतु कुछ समय पहले
उसने मेरे लॉन में उगे पेड़ की
वे टहनियाँ ज़रूर काट डाली थीं
जो उसके लॉन  के ऊपर
फैल गई थीं


पर उस पेड़ की परछाईं

उस घटना के बाद भी

उसके लाॅन में बराबर पड़ती रही
धूप इस घटना के बाद भी
दो फाँकों में नहीं बँटी,
हवाएँ इस घटना के बाद भी
दोनों घरों के लॉन में
बेरोक-टोक आती-जाती रहीं ,
और एक ही आकाश
इस घटना के बाद भी
हम दोनों के घरों के ऊपर
बना रहा

फिर सुनने में आया कि

मेरे पड़ोसी ने

शेयर बाज़ार में
काफ़ी रुपया कमाया है
कि अब उसका क़द थोड़ा बड़ा
उसकी कुर्सी थोड़ी ऊँची
उसकी नाक थोड़ी ज़्यादा खड़ी
हो गई है

मैं उसे किसी दिन

बधाई दे आने की बात

सोच ही रहा था कि
उसने अपने घर की चारदीवारी
डेढ़ हाथ ऊँची करनी
शुरू कर दी

याद नहीं आता

कब और कहाँ पढ़ा था कि

जब दीवार आदमी से
ऊँची हो जाए तो समझो
आदमी बेहद बौना हो गया है
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दूसरे दर्ज़े का नागरिक
                 
उस आग की झीलों वाले प्रदेश में
वह दूसरे दर्ज़े का नागरिक था

क्योंकि वह किसी ऐसे पिछड़े इलाक़े से

आ कर वहाँ बसा था

जहाँ आग की झीलें नहीं थीं
क्योंकि वह ' सन-आफ़-द-सोएल '
नहीं माना गया था
क्योंकि उसकी नाक थोड़ी चपटी
रंग थोड़ा गहरा
और बोली थोड़ी अलग थी
क्योंकि ऐसे ' क्योंकियों ' की
एक लम्बी क़तार मौजूद थी

आग की झीलों वाले प्रदेश में चलती

काली आँधियों को नज़रंदाज़ कर

उसने वहाँ की भाषा सीखी
वहाँ के तौर-तरीक़े अपनाए
वह वहाँ जवानी में आया था
और बुढ़ापे तक रहा

इस बीच कई बार

उसने चीख़-चीख़ कर

सबको बता देना चाहा
कि उसे वहाँ की मिट्टी से प्यार हो गया है
कि उसे वहाँ की धूप-छाँह भाने लगी है
कि वह ' वहीं का ' हो कर रहना चाहता हूँ
पर हर बार उसकी आवाज़
बहरों की बस्ती में भटकती चीत्कार बन जाती

वहाँ की संविधान की किताब

और का़नून की पुस्तकों में

सब को समान अधिकार देने की बात
सुनहरे अक्षरों में दर्ज थी

वहाँ के विश्वविद्यालयों में

' मनुष्य के मौलिक अधिकार ' विषय पर

गोष्ठियाँ और सेमिनार आयोजित किए जाते थे

क्योंकि आग की झीलों वाला प्रदेश

बड़ा समृद्ध था

जहाँ सबको समान अवसर देने की बातें
अक्सर कही-सुनी जाती थीं
इसलिए उसने सोचा कि वह भी
आकाश जितना फैले
समुद्र भर गहराए
फेनिल पहाड़ी नदी-सा बह निकले

पर जब उसने ऐसा करना चाहा

तो उसे हाशिए पर ढकेल दिया गया

वह अपनी परछाईं जितना भी
न फैल सका
वह अंगुल भर भी
न गहरा सका
वह आँसू भर भी
न बह सका

उसकी पीठ पर

ज़ख़्मों के जंगल उग आए

जहाँ उसे मिलीं
झुलसी तितलियाँ
तड़पते वसन्त
मैली धूप
कटा-छँटा आकाश
और निर्वासित स्वप्न

दरअसल आग की झीलों वाले उस प्रदेश में

सर्पों के सौदागर रहते थे

जिनकी आँखों में
उसे बार-बार पढ़ने को मिला
कि वह यहाँ केवल
दूसरे दर्ज़े का नागरिक है

कि उसे लौट जाना है

यहाँ से एक दिन ख़ाली हाथ

कि उसके हिस्से की धरती
उसके हिस्से का आकाश
उसके हिस्से की धूप
उसके हिस्से की हवा
उसे यहाँ नहीं मिलेगी

इस दौरान सैकड़ों बार वह

अपने ही नपुंसक क्रोध की ज्वाला में

सुलगा
जला
और बुझ गया

रोना तो इस बात का है

कि जहाँ वह उगा था

जिस जगह वह अपने अस्तित्व का एक अंश
पीछे छोड़ आया था
जहाँ उसने सोचा था कि
उसकी जड़ें अब भी सुरक्षित होंगी
जब वह बुढ़ापे में वहाँ लौटा
तो वहाँ भी उसे
दूसरे दर्ज़े का नागरिक माना गया
क्योंकि उसने अपनी उम्र का सबसे बड़ा हिस्सा
आग की झीलों वाले प्रदेश को
दे दिया था ...
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फ़िलिस्तीन
                           

ऐटलस हमेशा पूरा सच

नहीं देता है
कुछ क़ौमों का जीवन
भिंची हुई मुट्ठी-सा होता है
कोई नाम साँसों में
रचा-बसा होता है
कोई नाम होठों पर
आयतों-सा होता है
इसे कहीं चेचेन्या
कहीं ईराक़
कहीं अफ़ग़ानिस्तान
कहते हैं
किंतु इसका मतलब
हर भाषा में
फ़िलिस्तीन ही होता है
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कैसा समय है यह
                        
कैसा समय है यह
जब हल कोई चला रहा है
अन्न और खेत किसी का है
ईंट-गारा कोई ढो रहा है
इमारत किसी की है
काम कोई कर रहा है
नाम किसी का है

कैसा समय है यह
जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं
सारी मशालें
और हम
निहत्थे खड़े हैं

कैसा समय है यह
जब भरी दुपहरी में अँधेरा है
जब भीतर भरा है
एक अकुलाया शोर
जब अयोध्या से बामियान तक
जब ईराक़ से अफ़ग़ानिस्तान तक
बौने लोग डाल रहे हैं
लम्बी परछाइयाँ
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कबीर
                             
एक दिन आप
घर से बाहर निकलेंगे
और सड़क किनारे
फ़ुटपाथ पर
चिथड़ों में लिपटा
बैठा होगा कबीर

' भाईजान ,
आप इस युग में
कैसे ? ' ---
यदि आप उसे
पहचान कर
पूछेंगे उससे
तो वह शायद
मध्य-काल में
पाई जाने वाली
आज-कल खो गई
उजली हँसी हँसेगा

उसके हाथों में
पड़ा होगा
किसी फटे हुए
अख़बार का टुकड़ा
जिस में बची हुई होगी
एक बासी रोटी
जिसे निगलने के बाद
वह अख़बार के
उसी टुकड़े पर छपी
दंगे-फ़सादों की
दर्दनाक ख़बरें पढ़ेगा
और बिलख-बिलख कर
रो देगा

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सुशान्त सुप्रिय:मेरा जन्म २८ मार्च, १९६८ में पटना में हुआ तथा मेरी शिक्षा-दीक्षा अमृतसर , पंजाब तथा दिल्ली में हुई ।  हिन्दी में अब तक मेरे दो कथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं:'हत्यारे' (२०१०) तथा 'हे राम' (२०१२)।मेरा पहला काव्य-संग्रह ' एक बूँद यह भी ' 2014 में  प्रकाशित हुआ है । अनुवाद की एक पुस्तक ' विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ' प्रकाशनाधीन है । मेरी सभी पुस्तकें नेशनल पब्लिशिंग हाउस , जयपुर से प्रकाशित हुई हैं ।


मेरी कई कहानियाँ तथा कविताएँ पुरस्कृत तथा अंग्रेज़ी, उर्दू , असमिया , उड़िया, पंजाबी, मराठी, कन्नड़ व मलयालम में अनूदित व प्रकाशित हो चुकी हैं ।पिछले बीस वर्षों में मेरी लगभग 500 रचनाएँ देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं ।मेरी कविता " इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं " पूना वि. वि. के बी. ए.    (द्वितीय वर्ष ) पाठ्यक्रम में शामिल है व विद्यार्थियों को पढ़ाई जा रही है । मेरी दो कहानियाँ , " पिता के नाम " तथा " एक हिला हुआ आदमी " हिन्दी के पाठ्यक्रम के तहत कई राज्यों के स्कूलों में क्रमश: कक्षा सात और कक्षा नौ में पढ़ाई जा रही हैं ।आगरा वि. वि. , कुरुक्षेत्र वि.वि. तथा गुरु नानक देव वि.वि., अमृतसर के हिंदी विभागों में मेरी कहानियों पर शोधार्थियों ने शोध-कार्य किया है ।

 'हंस' में 2008 में प्रकाशित मेरी कहानी " मेरा जुर्म क्या है ? " पर short film भी बनी है।आकाशवाणी , दिल्ली से कई बार मेरी कविताओं और कहानियों का प्रसारण हुआ है । मैं पंजाबी और अंग्रेज़ी में भी लेखन-कार्य करता हूँ । मेरा अंग्रेज़ी काव्य-संग्रह ' इन गाँधीज़ कंट्री ' हाल ही में प्रकाशित हुआ है । मेरा अंग्रेज़ी कथा-संग्रह 'द फ़िफ़्थ डायरेक्शन' प्रेस में है।मैंने 1994-1996 तक डी. ए. वी. काॅलेज , जालंधर में अंग्रेज़ी व्याख्याता के रूप में भी कार्य किया है।साहित्य के अलावा  मेरी रुचि संगीत, शतरंज , टेबल टेनिस और स्केचिंग में भी है।पिछले पंद्रह वर्षों से  मैं संसदीय सचिवालय में अधिकारी हूँ और दिल्ली में रहता।

 संपर्क:मार्फ़त एच. बी. सिन्हा,५१७४, श्यामलाल बिल्डिंग ,बसंत रोड , ( निकट पहाड़गंज ),नई दिल्ली - 110055,मोः08512070086 ,ई-मेलः sushant1968@gmail.com   

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