---------------------------------------------------------------------------------------------------------
ग़ज़ल # 1
बागवाँ को कुछ जैसे तितलियाँ समझती
हैं
मायके को भी वैसे बेटियाँ समझती हैं
चीख गोलियों की हो, शोर हो धमाकों का
हेर-फेर मौसम का खिड़कियाँ समझती हैं
सायबान है, घर है और है जहाँभर
भी
कीमत उन दरख्तों की पंछियाँ समझती हैं
लोग सब अचंभित हैं देखकर धुँआ काला
रंग स्वेद का ऊँची चिमनियाँ समझती हैं
ज़िस्म बेधकर कुन्दन टाँगना सजावट को
दर्द ऐसी रस्मों का बच्चियाँ समझती हैं
रंग-रूप पाने को, ज़ायका बनाने को
किस डगर से गुजरी हैं रोटियाँ समझती हैं
वक़्त की कलाकारी आदमी के चेहरे पर
कैनवास पर बिखरी झुर्रियाँ समझती हैं
आग देने वालों को इल्म भी नहीं होता
ज़िस्म की जलन जलती लकड़ियाँ समझती हैं
ग़ज़ल # 2
चन्द सिक्के दिखा रहे हो क्या
तुम मुझे आजमा रहे हो क्या
मैं सिपाही हूँ कोई नेता नहीं
मेरी कीमत लगा रहे हो क्या
शहर लेता है इम्तिहान कई
लौटकर गाँव जा रहे हो क्या
फिर चली गोलियाँ उधर से जनाब
फिर कबूतर उड़ा रहे हो क्या
पत्रकारों ये ख़ामोशी कैसी
चापलूसी की खा रहे हो क्या
ग़ज़ल # 3
(२१ फरवरी,२०१३ को हैदराबाद के
दिलसुखनगर इलाके में हुए क्रमिक बम-धमाकों के बाद प्रतिक्रिया स्वरुप कही ग़ज़ल)
आँख जैसे लगी, ख़ाक घर हो गया
ज़ुल्म का प्रेत कितना निडर हो गया
कुछ दरिन्दों ने ऐसे मचाई ग़दर
खौफ की जद में मेरा नगर हो गया
थी किसी की दुकां या किसी का महल
चन्द लम्हों में जो खण्डहर हो गया
है नज़र में महज खून ही खून बस
आज श्मशान ‘दिलसुखनगर’ हो गया
थी ख़बर साजिशों की मगर बेख़बर
ये रवैया बड़ा अब लचर हो गया
कौन सहलाये बच्चे का सर तब ‘सलिल’
जब भरोसा बड़ा मुख़्तसर हो गया
ग़ज़ल # 4
(जून,२०१३ को केदारनाथ, उत्तराखण्ड
में हुई भीषण जल-तबाही के बाद कही ग़ज़ल)
पहाड़ों पर सुनामी थी या था तूफ़ान पानी में
बहे बाज़ार घर खलिहान और इंसान पानी में
बड़ा वीभत्स था मंज़र जो देखा रूप गंगा का
किसी तिनके की माफ़िक बह रहा सामान पानी में
बहुत नाज़ुक है इन्सानी बदन इसका भरोसा
क्या
भरोसा किसपे हो जब डूबते भगवान पानी में
इधर कुछ तैरती लाशें उधर कुछ टूटते सपने
न जाने लौटकर आएगी कैसे जान पानी में
बहुत मुश्किल है अपने आँख के पानी को समझाना
पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड)
कविता संग्रह ‘तिश्नगी’ २०१३ में प्रकाशित
संपर्क – 7032703496
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें