समीक्षा:अम्बेडकरवादी चेतना का दस्तावेज/सोनटक्के साईनाथ चंद्रप्रकाश

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)
                                                                   
‘एक अम्बेडकरवादी सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन संघर्ष

चित्रांकन-मुकेश बिजोले
            मूल मराठी में जग बदल घालुनी घाव दूनिया बदलने को किया वार समकालीन प्रकाशन पुणे से 2011 में प्रकाशित हुई, अब तक इस आत्मकथा के चार संस्करण आ चूके है। आत्मकथा 211 पृष्ठ व 13 भागों में विभाजित है। एक सच्चा अम्बेडकरवादी संघर्षशील सामाजिक कार्यकर्ता की कहानी है। दलित साहित्य की गौरवशाली परपंरा को देखते समय सर्वप्रथम परम्परा आती है वे अम्बेडकरवादी आत्मकथाएँ जिसमें ;विशेष मराठी दया पवार, शंकर खरात, लक्ष्मन माने प्र.ई. सोनकांबले, दादासाहेब मोरे, लक्ष्मन गायकवाड़ डा.किशोर शांताबाई काले बेबीताई कांबले,उर्मिला पवार आदि अनेक अम्बेडकर लेखकों की आत्मकथाएँ यह आज दलित साहित्य में मील का पत्थर बन गयी है। दुनिया बदलने को किया वार' यह आत्मकथा दलित आत्मकथा परंपरा की अगली कड़ी को जोड़ती है। डा. बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों से प्रभावित होकर प्रेरणा लेने वाले एस सामाजिक कार्यकर्ता के जीवन के यथार्थ का दर्शन इस आत्मकथा में दिखाई देता है।

मानवीय हक्क अभियान के संस्थापक अध्यक्ष ग्रामिण विकास केंद्र के संस्थापक एकनाथ आवाड़ की आत्मकथा

       डा. बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों से प्रेरणा लेकर व प्रभावित होने के बाद मेरा जीवन किस तरह बदल गया मराठी साहित्य सम्राटदलित साहित्य के आधारस्तंभ अण्णा भाऊ साठे अपनी कविता में काव्यबद्ध वर्णन करते है ‘(जग बदल घालुनी घाव,मला सांगुन गले भीमराव) दूनिया बदलने को किया वारमुझे कहकर गये ,भीमराव अण्णा भाऊ साठे के इस कविता में से संघर्ष करने का विचार एकनाथ आवाड़ ने अपने मन में लिया और अपने कार्य की दिशा निश्चित की। डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारत देश के पीड़ित दलित बहुजन समाज को जो संदेश दिया शिक्षित बनो. संगठित बनोऔर संघर्ष करो इस संदेश को एकनाथ आवाड़  ने अपने जीवन का मूल सूत्र माना। अतिशय गरीबी में अपनी शिक्षा पूर्ण की एमएस. ड़ब्लु और एलएल बी किया। शिक्षा पूरी होने के बाद अपना लक्ष्य निश्चित किया और सामाजिक कार्य की शरुआत की।

       दुकडेगाव ता. माजलगाव जिला बीड़  के छोटे से गाव में पोतराज के घर दलित समाज के एक मांग जाति में जन्मे एकनाथ आवाड़  सीधे अफ्रिका के दरबन में युनो की सभा में सरचिटनिस कोफी अनान को वैचारिक आह्वान देते है वो भी हिम्मत के साथ। यह भारत देश के लिए गौरव की बात है। अर्थिक घोर गरीबी के परिस्थिति में से लेखक को बाहर आना पडा और अज्ञान,गरीबी से पीडित मांग,नवबौद्ध भटके विमुक्त,आदिवासी,पिछडों को राष्ट्रीय प्रवाह में लाने के लिए कठोर परिश्रम करना पडा। यह सब कैसे हुआ एकनाथ आवाड़  बताते है डा. बाबासाहेब अम्बेडकर के द्वारा बताया गया मार्ग ही कार्यकर्ताओं का मार्ग है। विधायक संसद और कासा में कार्य करनेवाले एकनाथ आवाड़  आगे चलकर मानवाधिकार अभियान संघटना के संस्थापक अध्यक्ष बनते है। अभियान के माध्यम से पच्चीस.तीस वर्ष में पचास हजार से अधिक दलित भूमिहिन समाज के लोग मुझसे जुड़ गए। हम सबने मिलकर एक संघर्ष का प्रवास किया इस प्रवास का सूत्र था दुनिया बदलने को किया वार,मुझे कहकर गए भीमराव। (पृ.12) लेखक अनेक देश.विदेश जाकर भारतीय दलित आदिवासी घुमंतु पिछड़े समाज का प्रतिनिधित्व करते है। अफ्रिका, जेनेवा आंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार परिषद में भी दलितों की भूमिका प्रमुखता से रखा, जहाँ भी गए वहाँ दलितों के वेदनाओं को न्याय देने के लिए आवाज उठाते रहे। कामगार लोगों के विद्यार्थियों के लिए छात्रावास खोला, संघर्ष के लिये प्रबोधन आवश्यक है . इस धारणा से अनेक जगहों पर शिविर आयोजित कियेकार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण वर्ग चलाया, मराठवाड़ा नामांतर का निष्ठा से संघर्ष किया। गायरान जमीन दलितों को मिलाने के लिए अभूतपूर्व मोर्चाएँ निकालासभाएँ लिए हजारों  महिला बचत गट की स्थापना की, भूमिहिन महिलाओं के लिए स्वतंत्र बैक की स्थापना की।

        एकनाथ आवाड़  एक आंदोलन का नाम है। डा.बाबसाहेब अम्बेडकर के विचारों को आगे बढानेवाला अम्बेडकर वादी आंदोलन का संघर्षशील क्रांतिकारी नाम है। दुनिया बदल ने को किया वार अनोठा एक संघर्षमय आत्मकथन है। आत्मकथाएँ तो बहुत सी लिखी गई है लेकिन एकनाथ आवाड़  का यह आत्मकथन प्रचलित व्यवस्था के विरुध्द एक संघर्षशील आंदोलन का लिखा हुआ,आत्मपीड़ा ,आत्मचिंतन मनुवाद के खिलाफ अंगार है। मानवता के लिये लड़ने वाला संघर्ष किसी जाति या धर्म का नहीं होता वह एक अन्याय विषमतावादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ा  हुआ संघर्ष होता है इस बाद की सच्चाई इस आत्मकथा में मिलती है। गरीबी, भूख, विद्रोह, जाति व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह खड़ा किया गया आंदोलन और आंदोलन को पूरे महाराष्ट्र से मिला समर्थन और उसमें अम्बेडकरवादी विचारधारा की प्रेरणा एकनाथ आवाड़  के आत्मकथन के हर एक पन्ने पर दिखाई देती है। मांग जाति में पुरानी प्रथा पोतराज के घर जन्में लेखक के पिताजी पोतराज थे। उनको लगता है कि अपना बेटा पोतराज बने। लेखक बचपन से ही विद्रोही प्रवृती के होने के कारण अपने पिताजी के प्रस्ताव का विरोध करते है  और शिक्षा लेने की इच्छा जाहिर करते है। लेखक के पिताजी कहते है  ठिक है पढ़ना है तो पढ़ो ,परंतु उस कुप्या के बापु महार के लड़के जैसे पढ़ना। मैं चार घर अधिक भीख माँगकर लाऊंगा,परंतु तुम पढ़ना  जरुर। उस समय कुप्या में एक नवबौध्द समाज का लड़का पढ़कर इंजिनियर बना था . लेखक आगे चलकर स्वंय अपने पिताजी के बाल काटकर उनको पोतराज से मुक्ति दिलाती है। जो भी पोतराज दिखाई देता है उसके बाल काटकर उस घोर अंधविश्वास सी प्रथा मुक्ती दिलाते है। लेखक समाज कार्य करते करते दलित आदिवासी भटका समाज पिछड़ा समाज स्त्री वर्ग में आत्मविश्वास आत्मसमान आत्मनिर्भर प्रतिष्ठा बनाने का संकल्प करके उनमें चेतना पैदा करते है, गुलाम को गुलामी का अहसास कराते है।

        लेखक बचपन से ही गौतम बुद्ध  के विचारों से प्रभावित थे। गौतम बुद्ध ने मानवीय जीवन को चार सत्य बताया है। जीवन में दुख है, उसके निर्माण का कारण है, दुख का नाश किया जा सकता है और नाश करने का उपाय है। यह चार सत्य बौद्ध तत्वज्ञान का मूलाधार है। लेखक लिखते है  मुझे उस समय बुद्ध का तत्वज्ञान समझने का कोई मार्ग नहीं था। परंतु मुझे लगता है, यह सत्य मुझे उस समय ही ऐसे ही समझ में आयी थी। मुख्यत: शिक्षा ही मुझे मूल दुख का कारण लगा था।  (पृ.38)’

दलितों का दु:ख है अस्पृश्यताकारण है यहाँ की धार्मिक जातीय.व्यवस्था और मनुवाद है। उसका निराकरण है मार्ग है, डा.बाबासाहेब अम्बेडकर और उस मार्ग को प्रतिपादन करने के लिए भगवान बुद्ध  है। इन चार सत्य को लेखक मे पहचाना था इसलिए वे लिखते है शिक्षा यह शेरनी का दूध है जो पिएगा वो गुरगुरायेगा। ऐसे डा.बाबसाहेब अम्बेडकर ने कहा था। यह शेरनी का दुध अब मेरे नसनस में बसने लगा था। और शिक्षा के कारण एक शेर मेरे अंदर संचार करने लगा। वो शेर जांति-पांति के दुख को कैसे खत्म करु ,यह प्रश्न करने लगता था। (पृ.39)’ एकनाथ आवाड़  स्पष्ट रुप से अपनी आत्मकथा में कहते है कि उनके आयु के सामाजिक जीवन की शुरुवात डा. बाबासाहेब अम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय नामांतर आंदोलन से शुरु हुई है। इस आत्मकथा में 20 वर्ष के दलित पैंथर के संघर्ष का कथन है। नामांतर के आंदोलन में कौन- कौन शहीद हुआ उनका सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है। लेखक दलित पैंथर के सक्रिय कार्यकर्ता थे। सवर्ण हिंदुवादी लोग किस तरह दलितों पर अन्याय-अत्याचार करते है का यथार्त वास्तववादी चित्रण प्रस्तुत किया है। पोचिराम कांबले मांग जाति के एक संघर्षशील दलित पैंथर कार्यकर्ता की हत्या की गयी। नांदेड़  जिले के टेंभुर्णी गाव में दलित समाज के लोग स्वाभिमानी जीवन जीते थे लेकिन यह हिंदु जातिवादियों को अमान्य था। पोचिराम कांबले एक कट्टर अम्बेडकरवादी अनुयायी था। आत्मकथा में दर्दनाक चित्रण प्रस्तुत है  पोचिराम कांबले के पेट में चाकु मारा गया। सौ.दो सौ लोग मिलकर पोचिराम को मारने लगे। पोचिराम भाग भाग कर थक गया। अर्धमरे पोचिराम को तुम जय भीम कहना छोड़  दो हम तुम्हे छोड़  देंगे ऐसे हिंदूवादी लोग कहने लगे। पोचिराम ने जय भीम कहना छोडा नहीं। अर्धमरे पोचिराम के हाथ-पांव बाँधकर लकडियों पर डालकर जिंदा जलाया गया। (पृ.46)’  इस प्रकार का यथार्थवादी चित्रण इस आत्मकथा में देखने को मिलता है,जो पढ़ने के बाद आँखों में आँसू और अन्याय के विरोध में संघर्ष की भावना निर्माण होती है। आगे चलकर पोचिराम कांबले के बेटे का न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उड़ जाता है और अपने पिताजी का बदला खून का बदला खून से लेता है क्योंकि वो अपने पिताजी का खून अपनी आँखों से देखा था।

      दलित पैंथर ने मराठवाड़ा विश्वविद्यालय को बाबसाहेब का नाम देने के लिए 20 वर्ष संघर्ष किया और हिंदूवादियों ने बाबासाहेब के नाम का विरोध किया और दलितों के घर जलाया, हत्या,किए बहुत अन्याय ,अत्याचार किया इससे दलितों को बहुत कुछ खोना पड़ा। लेखक इतने स्वाभिमानी है कि वे अपनी एलएलबी की डिग्री प्रमाणपत्र पर बाबासाहेब का नाम आने के लिए एक पेपर लिखना छोड़  देते है और जब 1994 को डा. बाबासाहेब अम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय नाम दिया गया तब लेखक परीक्षा देते है। जब तक मराठवाड़ा विश्वविद्यालय को डा.बाबासाहेब अम्बेडकर का नाम नहीं मिलता तब तक पेपर नहीं लिखुंगा। ऐसे मैने निश्चित किया क्योंकि मुझे लॉ की डिग्री के प्रमाणपत्र पर डा. बाबासाहेब अम्बेडकर का नाम चाहिए था। 1994 के वर्ष मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नामांतर हुआ। उसके बाद ही मैने अपना विषय तुरंत पूर्ण किया। आज मेरे लॉ की पदवी प्रमाणपत्र पर डा. बाबासाहेब अम्बेडकर का नाम है। (पृ.116)’  इस नाम से लेखक को कितनी खुशी है इसकी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।

     एकनाथ आवाड़  कासा संस्था के द्वारा सेवा करते है और बाद में स्वयं की संस्था ग्रामिण विकास केंद्र’  निकालकर निराधार लोगों को आधार देते है। कार्यकर्ताओं को जाग्रत करते है,शिविर ,व्याख्यानों का आयोजन करते है,अन्याय, अत्याचार के खिलाफ मोर्चा निकालते है, आंदोलन करते है और रणनीति बनाते है। जनपद गीत ,लोगगीत, नाटक, कव्वाली के द्वारा प्रबोधन करते है उसी शिविर में उनका कार्यकर्ता भीमशाहिर सुधाकर क्षीरसागर गीतों के माध्यम से प्रबोधन करते है सुबह की लाली दलितों के लहू की होती है, उनकी होली भी दलितों के लहू की होती है, शाम भी होती है दलितों के लहु से रंगकर, निकलो घर-घर से तुम भीमजी के शिपायी बनकर ......। ‘(पृ 130)”  इस प्रकार से वे दलित आदिवसी भटके पिछडे स्त्री वर्ग में आत्मसंघर्ष निर्माण करते है और गुलामगिरी के खिलाफ तैयार करते है। आगे  चलकर 1989 में मानवाधिकार अभियान नाम की संगठन बनाते है और इस संगठन के माध्यम से आज तक 50 हजार से अधिक भूमिहिन लोगों को गायरान जमीन यानी सरकरी जमीन पर कब्जा करवाया और भूमिहिनों को किसान बनाया। महिलाओं को सक्षम बनाया। केवल दलित समाज से ही नहीं बल्कि अनेक जाति-धर्म के लोग इस संघटना से जुड़ते है और मानवीय आधिकारों के लिए संघर्ष करते है। आदिवासियों को बिगारी मुक्त करते हैभूमिहिनों को गायरान दिलाते है, भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करते है, भुकंपग्रस्त लोगों की सहायता करते है, किसान कृषि मजदूरों के लिए सफलतापूर्वक आंदोलन चलाया,अनुसूचित जाति, अनुसिचित जनजाति अत्याचार प्रतिबंधक अधिनियम के आंदोलन चलाया,नवबौ व मांग जाति में चल रहे द्वेष को दूर कर देते है और दोनों समाज में भाईचारा लाने का सफल प्रयास करते है और दोनों समाज में रोटी-बेटी व्यवहार कराते है।

     लेखक महिला सशक्तीकरण के प्रबल समर्थक है। लेखक ने एक ऐतिहासिक कार्य किया है जो गौरव करने लायक है। दुकडेगाव की ग्रामपंचायत के सूत्र लेखक के हाथों सौंपने की जिम्मेदारी देने की गांववालों ने विचार किया और गांववालों ने कहा कि पूरा गांव आपको निर्विरोध  सरपंच बनाना चाहते है। लेखक ने अलग प्रस्ताव रखा और लेखक ने कहा. ''अपनी ग्राम पंचायत महिला सदस्यों की बनायेंगे, सात सदस्य महिला,सरपंच महिला,एक भी पुरुष सदस्य नही चाहि,। स्त्रियों को गांव की जिम्मेदारी चलाने दो। गांववाले ने मेरे प्रस्ताव का स्वीकार किया। पद्रह वर्षों से दुकडेगाव की ग्रामपंचायत महिलाओं के हाथ में है।‘(पृ.170)” लेखक अपने गांव में महिलाओं के लिए पतसंस्था स्थापना करते है ,रमाबाई अम्बेडकर बिगरकृषि पत संस्था। इस संस्था में सभी जाति धर्म की महिला काम कर रही है। लेखक मानवाधिकार अभियान के माध्यम से जागरण  यात्रा निकालते है। जागरण यात्रा की शुरुवात नगर जिला के खंडाला गांव से करते है। 24 सितम्बर के दिन मानवाधिकार अभियान के नीला लाल रंग के झेंडे का ध्वजारोहण एक पारधी समाज के महिला द्वारा किया गया। कुछ महिने में यह जागरण यात्रा गांव-गांव से आगे बढ़ती  रही और जनाधार बढता गया। गांव-गांव से अनेक जाति.धर्म के लोग शामिल हो रहे थे और बाबसाहेब अम्बेडकर का कारवाँ आगे बढ़ा  रहे थे। अभियान का नारा था हम निकले भीम के रास्ते पर.... तुम भी आओ तुम भी आओ ...। वाड़ वाना गांव की मुस्लिम बस्ती को गांव के हिंदूवादी जातिवादी लोग पाकिस्तान कहते है। जागरण यात्रा को इस गांव में शिवसेना के लोगों ने विरोध किया। लेखक लिखते है ''जलीलभाई गोलंदाज इस मुस्लिम समाज के कार्यकर्ता ने इस गांव में हमारा भव्य स्वागत किया। मुस्लिम बस्ती में बाबासाहेब के विचारों के गीत सुनने के लिए पूरा मुस्लिम समाज इकट्टा हो गया था। मुस्लिम समाज के कार्यकर्ताओं ने हमारे कार्यकर्ताओं की अच्छी सेवा की। निकलते समय जलीलभाई को जय भीम कहा उन्होनें उत्तर में कहा इन्शाअल्ला मिलते रहेंग.. खुदा हाफिज......जय भीम।पृ.182” तीन महिने बाद यह जागर यात्रा नांदेड़  पंहुचती है। बंजारा समाज के युवा कार्यकर्ता डाण्बीण्डी. चव्हान ने भव्य स्वागत किया और बाद में बहुत बडी जंगी सभा हुई। लेखक कहते है कि जागरण यात्रा से क्या प्राप्त हुआ , हमने संगठन  के विचार विविध जाति.धर्म के लोगों तक पहुंचाया। भटके, आदिवासी, गरीब, मुस्लिम समाज को बाबसाहेब अम्बेडकर विचार ही आगे ले जा सकते है। यह अमने संगठन के माध्यम से सफल बनाया है। अनेक जाति-धर्म के लोग मुझसे जुड़ते गए औऱ बाबासाहेब अम्बेडकर का कारवाँ आगे बढता गया है। रमाबाई अम्बेडकर बिगरकृषि पतसंस्था के माध्यम से अनेक गरीब बभूमिहिन लोगों को कर्ज दिया जाता है। लेखक को लगता है कि दलित समाज स्वाभिमान से जीवन जीये किसी के सामने हाथ न फैला, 10 दिसम्बर 2009 में सावित्रीबाई फुले म्युच्युअल बेनिफिट्स ट्रष्ट महिला बचत गट की स्थापना की। लेखक किसी कार्यक्रम जा रहे थे। रास्ते में संगम नाम का गांव आता है। गांव के प्रवेश में ही मानवाधिकार अभियान नाम की पाटी थी। मानवाधिकार अभियान संगठन महाराष्ट्र के मराठवाड़ा भाग में गांव-गांव में शाखा है। लेखक को किसी ने रोकने की कोशिश की लेखक को जय भीम कहकर संबोधन किया वो था महादेव सौंदरमल एक दलित किसान। एक समय उसे मजदूरी करने के अलावा कोई पर्याय नहीं था। 1972 में सरकार की ओर से 2 एकड़ जमीन मिली थी परंतु बैल न होने के कारण जमीन खाली थी, महादेव भूखमरी से परेशान था। लेखक कहते है कि हमारे संघटना के माध्यम से धान्य बैंक प्रकल्प आयोजित किया गया था जिससे हजारों दलित आदिवासी भूमिहिनों की रोजी.रोटी की समस्या दूर हुई थी। महाराष्ट्र में लेखक जीजा के नाम से जाने जाते है। लेखक भूमिहिन महिलाओं के लिए बैंक की स्थापना की है। महादेव की पत्नी इस बैंक से कर्ज लेती है और पति पत्नी खेती का काम करते है। जीजा महादेव को पुछते है 'क्या महादेव काम कैसे चल रहा है? जीजा इस वर्ष 23 क्विंटल कपास हुआ,तीन पोती बाजरी हुई है,एक किंटल तुअर,दोन पायली मुंग,छह पायली तील हुई है .अब कोई परेशानी नहीं है। महादेव की पत्नी कहती है जीजा आप के कारण ही हमें खेती करने का मौका मिला, लड़ के स्कूल जा रहे है, अच्छे घर में रहना हुआ, मेरे पति अब गांव के पोलिस पटेल बन गए है पत्थरों के देवी-देवताओं ने हमारे लिए किया ही क्या है जीजा हमारे लिए तो आप ही माँ.बाप से भी अधिक बढ़कर आधार हो गए है। ‘(पृ.12)” एक समय इसी गांव में पानी के लिए आंदोलन किया था और लेखक ने महादेव को ही आगे किया था। वहीं महादेव आज उसी गांव का पोलिस पटेल है। लेखक कहते है, मेरा हृदय स्वाभिमान से भर आया है। पच्चीस तीस वर्ष में महादेव जैसे 50 हजार से अधिक भूमिहिन दलित समाज के लोग जूड़ गए हम सबने मिलकर एक संघर्ष का प्रवास किया। इस प्रवास के सूत्र का नाम है दुनिया बदलने को किया वार, मुझे कहकर गए भीमराव ‘(पृ.12)”

     मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नामांतर के बाद भी दलितों के घर जला दिए। परभणी जिला के गिरगाव में दलितों के घर जलाए गए दो मंजिला घर पूरी तर जलकर खाक हो गया था। दलित बस्ती जलकर खाक हो गई थी। जले हुए घर की ओर एक अधिक उम्र की महिला देख रही थी उस महिलाने जाडे में चष्में से मेरी ओर देखा आँसुओ से से उसकी आँखे चमक रही थी। लेखक कहते है माई बहुत नुकसान हुआ है ना। महिला ने आक्रोश में कहा अरे बेटा, जलाने दे, मेरा घर जलाने दे, पैसा जलाने दे, ज्वार जलाने दे ....परंतु मेरे सीने में जो बाबासाहेब का स्वाभिमान रेखांकित है वो कोई भड़वा जला सकेगा क्या है किसी में हिम्मत? मेरे बाबासाहेब को कोई नहीं जला सकता...महिला अपने सीने पर हाथ रखकर कह रही थी। मेरे आँखों में पानी आया मैने कहा माई आपने सच ही कहा है,हमारे बाबासाहेब को कोई नहीं जला सकता.....पुन: तुम्हारे गांव आउंगा........जय भीम माई। ‘(पृ.185)” आगे चलकर लेखक ने संगठन के माध्यम से अन्याय.अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाया है। स्वजाति व स्वर्ण हिंदू लोगों द्वारा लेखक पर जानलेवा हमला हुआ। बीड़ में जिस अस्पताल में लेखक पर उपचार चालू था उस अस्पताल के डाक्टर अपने पत्नी से कहते है हम शेर पर उपचार कर रहे है। ऐसी ही एक ग्रामसभा में जातिवादी लोग लेखक पर पत्थरबाजी करने लगे गांव की दलित समाज की महिला लेखक का बचाव करने लगी। लेखक लिखते है. 'भोजने नाम की एक वयोवृद्ध महिला अम्बेडकरवादी नव बौध्द समाज की थी। उसने मेरे सिर पर कपड़ा रखा और कहने लगी जीजा आप के शरीर  को धक्का तक लगने नहीं दुंगी। पहले मैं मरुंगी परंतु आपके बाल को धक्का तक पंहुंचने नहीं दुंगी। ‘(पृ.187)”

      लेखक ऐसे अनेक स्वाभिमानी चेतना के चित्रण अपने आत्मकथा में प्रस्तुत करते है अन्य दलित आत्मकथाओं में इतनी स्वाभिमानी चेतना नहीं मिलती। 1965 के दौरान रिपब्लिकन पार्टी के माध्यम से गायरान आंदोलन चलाया गया था,उस समय लाखों दलितों ने गायरान जमीन पर कब्जा किया था। हिंगोली जिला के औंढा तालुका में दुधाला नाम का गांव है। इस गांव में 150 के आसपास मुस्लिम फकिरों की बस्ती है। यह फकिर लोग मुंबई, पुणे, नागपुर, गुजरात, कर्नाटक, नाशिक आदि जगहों पर भीख मांगने के लिए जाते थे। रिपब्लिकन कार्यकर्ता 1964 में इस गांव को भेंट देते है और जमीन का महत्व समझाते है परंतु फकिरों ने जमीन को महत्व नही दिया था। केवल एक ही फ़कीर ने हिम्मत करके जमीन पर कब्जा किया था और वही सुखी जीवन जी रहा था परंतु अन्य लोग आज भी भीख  मांगने लगे थे। लेखक लिखते है ‘2002-2003’ के दौरान जमीन आधिकार आंदोलन के कार्यकर्ता उस गांव गए मुस्लिम फकिरों को गायरान जमीन में फसल उगाने की प्रेरणा दी। दूर-दूर भटकनेवाले फकिरों को एक.दूसरे के माध्यम से संदेशा पहुंचाया गया, जहाँ वहाँ से हर कोई अपने गांव आया   और गायरान जमीन पर पुन: फसल उगाई गई। अब सर्व मुस्लिम फकिर किसान बन गए। जिस धान्य के लिए घर-घर भटकते हुए भीख मांगते थे आज वहीं धान्य फकिरों के घर बहुत प्रमाण में है। अब फकिरों के लड़के स्कूल जाने लगे

      लेखक किसी विशिष्ट जाति या धर्म के लिए नहीं बल्कि मानवता के लिए कार्य करते है। ऐसे अनेक उदाहरण इस आत्मकथा में भरे पड़े है। लेखक का जीवन ही संघर्षमय जीवन है। वे संघर्ष करते समय मार खाते है और मार देते भी है और राजनीति में कुटनीति का भी प्रयोग करते है। लेखक को स्वाभिमान और अर्थिक उन्नति चाहिए लेखक के विचारों स प्रभावित होकर अनेक लोगों का अर्थिक विकास होने पर स्वाभिमानी बाणा दिखाते है। सेलु तालुका के सवने पिंपरी की राजमति ऐसे ही एक स्वाभिमानी पात्र है। राजमति 10 बचत गट की प्रमुख है। गांव से निकलते समय जीप में राजमति आगले सीट पर बैठती है उसी समय गांव का सरपंच आता है, जीप ड्राईवर  राजमति को कहता है आप पीछे जाकर बैठिए राजमति ने पूछा क्यो? उत्तर मिला। सरपंच साहब को आगे बैठने दो,राजमति ने कहा मैं पीछे नहीं बैठुंगी, मैं भी पैसे देती हूँ, सरपंच भी पैसे देते है, फिर मै पीछे क्यों? ड्राईवर कहने लगा आप दूसरे गाड़ी में आईये, राजमति को घुस्सा आया और कहने लगी तेरे गाड़ी की किमत बता अभी के अभी तेरी जीप खरीद लेती हूँ, परंतु मैं इसी जीप में और आगे की सीट पर ही बैठकर जाउंगी। राजमति ने अपने पिशवी में ड्राईवर पैसे दिखाये। आखिर सरपंच पीछे हट गया। राजमति आगे के सीट पर बैठकर ही मिंटिग को आयी।‘(पृ.208)” ऐसे अनेक स्वाभिमानी पात्र इस आत्मकथा में हमें देखने को मिलते है। आगे चलकर लेखक बहुजन समाज पार्टी से लोकसभा का चुनाव लड़ते  है। 1996 में बहुजन नायक कांशीराम ने लेखक को कहा था तुम लड़ो , लड़के हारना आज की जरुरत है, आज हम हरेंगे तो कल की जीत हमारी होगी। बाबसाहेब अम्बेडकर जिस हाथी के चिन्ह पर चुनाव लड़ा था मैं उसी हाथी के चिन्ह पर चुनाव लड़ा।ऐसे ही एक समय लेखक एक पुस्तक स्टाल पर किताबें देख रहे थे। एक वयोवृद्ध  महिला अशिक्षित, अनपढ़  दिखती थी। एक किताब के मुखपृष्ठ पर बाबासाहेब अम्बेडकर का फोटो था। उस किताब को आगे -पीछे देखती है। स्टाल का मालिक कहता है किताब को नीच रखिये। महिला कहती है किताब की किंमत कितनी है ? स्टाल मालिक कहता है 250 रुपये। महिला अपने पर्स  से 250 रुपये निकालकर देती है, स्टाल मालिक कहता है माते 200 रुपये ही दीजिए आपको पच्चास रुपये डिस्काउंट। महिला कहती है मेरे बाबासाहेब के किताब का मोलभाव करु क्या रे बेटा? मुझे पढ़ना नहीं आता मेरे पोते की ओर से इस पुस्तक के शब्द-शब्द पढकर सुनुंगी,ये ले 250 रुपए। महिला वहाँ से निकल जाती है। मै उसे पीछे से देखता रहता हूँ। कई समय तक समझ में नही आया....कई समय तक आँखे भर आयी। ऐसे सुवर्ण क्षणों के लिए ही तो मैं जीवन जी रहा हूँ।‘ 2006 में प्रसिद्द लेखक लक्ष्मन माने ने भटके लोगों का बौद्ध धर्मांतरण के लिए प्रेरित किया था। लेखक ने प्रस्ताव रखा कि हम सब मिलकर धर्मांतरण करेंगे। पारधी, कैकाडी, भिल्ल, जोशी, बेलदार आदि अनेक भटके जातियों के साथ लेखक और उनके हजारो कार्यकर्ता बौद्ध धम्म को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते है। वो दिन था 2 अक्टूबर 2006 स्थान मुंबई। जपान के भंते सुरई ससाई ने 2 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धम्म की दीक्षा देते है। बुद्धं शरणम् गच्छामिधम्मम् शरणम् गच्छामिसंघम् शरणं गच्छामि।

       लेखक एक कार्यकर्ता बायजा अपने गायरान खेती के लिए कोर्ट में जाता है। न्यायालय में जज के सामने खड़ा हो जाता है। न्यायालय का सेवक कहता है कि कहो ईश्वर की शपथ लेता हूँ सच बोलता हूँ झूठ नहीं बोलूँगा। बायजा कहता है मेरा ईश्वर पर विश्वास नहीं है। मैं भारतीय संविधान की शपथ लेता हूँ। सच बोलता हूँ झूठ नहीं बोलूँगा। यह था बौद्ध धम्म स्वीकार करने के बाद का अम्बेडकरवादी स्वाभिमानी माना। ऐसे अनेक उदाहरण आत्मकथा में है।

       इस आत्मकथा का अंत करते समय लेखक अपने पिताजी के एक वाक्य को संबोधित करते है। पोतराज बनकर भीख  माँगते समय बाबा कहते थे पाँच का पचास होने दे गाय.गुरे वाडा भरने दे,वेल झोपडी तक जाने दे। बाबा के इस वाक्य के अनुसार फुले अम्बेडकर का बीज मुझ में आया, उसका अंकुर मेंरे मन में बढता गया, कालांतर से बेल बढ़ता गया आखिर बेल लक्ष्य तक पहुंच गया। एकनाथ आवाड़ की कहानी जितनी संघर्षशील है उतनी ही विचारोत्तेजक भी है। मराठवाड़ा के 1950 से 2010 तक का यह सामाजिक, धार्मिक ,राजनीतिक, अर्थिक कार्य कारणों  का लेखाजोखा लेनेवाली यह पुस्तक केवल लेखक का जीवन चरित्र ही नहीं बल्कि वह 60 साल का ऐतिहासिक सामाजिक दस्तावेज है।     

                                       सोनटक्के साईनाथ चंद्रप्रकाश,पीएच. डी.(हिंदी)
                            अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय,हैदराबाद,मो.9550258826       

2 टिप्पणियाँ

  1. ‘एक अम्बेडकरवादी सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन संघर्ष’.This is superb. sanghash ki biography

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