आलेख:‘पचपन खंभे लाल दीवारें/डॉ.राजेश कुमारी कौशिक

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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                             ‘पचपन खंभे लाल दीवारें/डॉ.राजेश कुमारी कौशिक 
               (एक संवेदनशील नारी की प्रतिबद्धता जनित मानसिक यंत्रणा की करुण कहानी’)


                पचपन खंभे लाल दीवारेंउषा प्रियम्वदा का पहला उपन्यास है। यह प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित उपन्यास है जिसमें एक भारतीय नारी की सामाजिक एवं आर्थिक विवशताओं से उत्पन्न कुंठा एवं यंत्रणा का सजीव अंकन किया गया है। यह एक नायिका प्रधान उपन्यास है। सुषमा, इस उपन्यास की नायिका 33 वर्षीय सुशिक्षित महिला है। वह अपने कर्तव्य के प्रति सजग है और अपनी भलाई-बुराई भी बखूबी समझती है। वह बचपन से ही बुद्धिमान और पढ़ने-लिखने में होशियार थी। एम00 करने के पश्चात् वह एक कॉलेज के इतिहास विभाग में प्राध्यापिका के पद पर नियुक्त हो जाती है। वह बहुत परिश्रमी और ईमानदार है। प्रिंसिपल उस पर बहुत भरोसा करती है। अपने काम और व्यवहार की वजह से उसने अपने कॉलेज के हॉस्टल में वार्डन का पद भी प्राप्त कर लिया है।

चित्रांकन

                सुषमा एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखती है। जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। उसके परिवार में उसके माता-पिता के अतिरिक्त चार छोटे भाई-बहन भी हैं। पिता रिटायर एवं पक्षाघात की बीमारी से पीड़ित हैं। घर में माँ का ही शासन चलता है। पिता को काफी कम पेंशन मिलती है इसलिए घर की मुख्य आय का स्रोत सुषमा का वेतन है। भाई-बहनों की जिम्मेदारी सुषमा के कंधों पर है इसलिए घर से दूर हॉस्टल में रहते हुए वह कॉलेज में नौकरी करती है।

                सुषमा सुंदर एवं आकर्षक व्यक्तित्व की धनी है। वह अपनी उम्र से काफी कम उम्र की दिखाई देती है। नील जब पहली बार सुषमा से मिलता है तो उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता - ‘‘खुलता हुआ ऐसा रंग, जिस पर उसकी पतली, स्वाभाविक वक्र भौंहें और बड़ी-बड़ी दीप्त आँखें बहुत खिलती थीं। लम्बी नाक और सुघड़ पतले होंठ, आधे कान बालों से ढँके थे और उनकी लबों में मोतियों के कर्णफूल, बिना बाँहों का ब्लाउज और बिल्कुल उसी रंग की फीरोजी साड़ी।’’

                सुषमा हल्के-फुल्के मनोरंजक उपन्यास पढ़ने की शौकीन है। मीनाक्षी सदैव सुषमा की पठनीय सामग्री के निम्न स्तर का मजाक उड़ाया करती थी किन्तु सुषमा कभी भी उसका बुरा नहीं मानती। सारा दिन की माथा-पच्ची के बाद सुषमा को हल्के-फुल्के रौमेंटिक उपन्यास पढ़ना ही अच्छा लगता था।  सुषमा को प्रकृति से अत्यधिक प्रेम है। वह अपने एकांत क्षणों में पेड़-पौधों, फूल-पत्तों और आसमान को अपलक निहारती रहती है। ‘‘चहारदीवारी पर चढ़ी हुई मधुमाधवी की सुगन्ध कैफे तक जा रही थी। सुषमा को याद आया कि उसने माली से बंगले में गुलाब लगाने को अभी तक नहीं कहा। बरसात बीत जाएगी तो मुश्किल होगी।’’

                सुषमा की अभिरुचियाँ अत्यन्त कलात्मक हैं। घर की साज-सज्जा, परदे, मेजपोश सबमें कलात्मकता दिखाई देती है। इसी को लक्ष्य कर मीनाक्षी सुषमा के बारे में सोचती है - ‘‘सुषमा ने अपना कमरा बहुत सुरुचि से सजाया था। सफाई से सिले हुए खिडकी के फूलदार परदे रह-रहकर हिल उठते थे। उसके पलंग पर झालरदार पलँगपोश बिछा था, मीनाक्षी को लगा कि सुषमा का यह कला कौशल सब व्यर्थ जा रहा है। सुषमा के गोल-मटोल बच्चे हों, जिन्हें वह कढ़ी हुई फ्राकें पहनाए; अवसर आने पर वह बहुत स्नेहपूर्ण और कुशल माँ बनेगी, इसमें मीनाक्षी को सन्देह न था।’’

                सुषमा अपने काम के प्रति ईमानदार एवं कत्र्तव्यनिष्ठ है। वह अपना सारा काम लगन एवं ईमानदारी से करती है। कॉलेज  में अध्यापन से लेकर वार्डन तक की जिम्मेदारी का निर्वाह बखूबी करती है - ‘‘होस्टल की सारी बेतरतीबी में व्यवस्था लाने में ही उसका सारा समय निकल जाता। नौकरों के आपसी झगड़े, लड़कियों की विविध समस्याएँ, मेट्रन की परेशानियाँ, यह सब उसका अधिकांश समय ले लेती। उधर कॉलेज  में नए एडमिशन, लड़कियों के लिए ट्यूटोरियल तय करना भी कुछ कम झंझट न था।’’

                वह अपनी सहयोगियों से समायोजन करने में भी धैर्य से काम लेती है। लड़कियों के ट्यूटोरियल तय करते समय एक बजे के बाद के पीरियड़ स्वयं रख लेती है क्योंकि सबको घर जाने की जल्दी पड़ी रहती है। देर के पीरियड लेना कोई पसंद नहीं करती थीं। इस बात पर क्रोधित होते हुए मीनाक्षी सुषमा को कहती है - सब तुम्हारी भलमनसाहत का फायदा उठाते हैं। तुम बहुत उदार हो सुषमा।’’5  सुषमा सब कुछ समझती है लेकिन बात-बात में उसे लड़ना-झगड़ना पसंद नहीं - ‘‘बात तो ठीक है मीन, पर मुँह खोलकर कहा भी तो नहीं जाता। मैं तो कभी-कभी जिन्दगी से आजिज आ जाती हूँ’’

                कॉलेज  के काम में जिम्मेदार होने के साथ-साथ सुषमा अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी को भी खूब समझती है। माता-पिता के साथ-साथ अपने छोटे भाई-बहनों के प्रति अपने कत्र्तव्य को बड़ी संवेदनशीलता के साथ निभाती है। सुषमा की अपनी अभिलाषाएँ भी हैं। वह विवाह कर अपना घर बसाना चाहती है किन्तु भाई-बहनों की जिम्मेदारी के कारण वह विवाह नहीं कर सकती। उसकी जिंदगी में अकेलापन कुंठा की सीमा तक पहुँच गया है। यह कुण्ठा कभी-कभी बाहर भी निकलती है किंतु सुषमा तुरन्त अपने आपको सम्भाल लेती है। उसको पता है कि अपने भाई-बहनों की जिम्मेदारी अगर वह नहीं उठाएगी तो कौन उठाएगा और फिर उनके भविष्य का क्या होगा? इसलिए कृष्णा मौसी के बार-बार यह कहने पर भी कि भाई-बहन कोई किसी के नहीं होते, वक्त के साथ सब साथ छोड देते हैं, तुम्हें कुछ अपने बारे में भी सोचना चाहिए। सुषमा फिर भी अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी को नहीं नकारती - ‘‘पर इन सबको भी तो मद्द की जरूरत है मौसी। पिताजी को पेंशन मिलती ही कितनी है? उसमें तो दो वक्त दाल-रोटी भी न चले। मैं भी अगर न करूँ तो किसके आगे हाथ फैलाएंगे? लड़कों को पढ़ाना है ही, सड़क पर तो आवारा घूमने नहीं दिया जाएगा।’’

                सुषमा अपने भाई-बहनों से प्यार करती है, उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाती है। माता-पिता उसका विवाह नहीं कर पाए तब भी वह अपने पिता के प्रति कृतज्ञता का भाव रखती है - ‘‘अगर मैं सबसे बड़ा लड़का होती, तो क्या न करती? उसी तरह मैं अब भी करती हूँ। इन लोगों के लिए कुछ करके मन में बड़ा सन्तोष-सा होता है। अपने लिए तो सभी करते हैं, छोटे भाई-बहनों का कुछ कर सकूँ, उस योग्य भी तो पिताजी ने ही बनाया है।’’

                माँ के प्रति सुषमा को कभी-कभी गुस्सा आ जाता है क्योंकि विवाह न होने का ठीकरा वह कभी तो सुषमा के सिर पर फोड़ देती हैं और कभी भाग्य पर दोष डालकर स्वयं को बरी कर लेती हैं - ‘‘तुम जानो कृष्णा, सुषमा की शादी तो अब हमारे बस की बात रही नहीं। इतना पढ़-लिख गई, अच्छी नौकरी है और अब तो, क्या कहने हैं, होस्टल में वार्डन भी बनने वाली है। बंगला और चपरासी अलग से मिलेगा, बताओ, इसके जोड़ का लड़का मिलना तो मुश्किल ही है। तुम्हारे जीजा जी कहते हैं कि लड़की स्यानी है, जिससे मन मिले, उसी से कर ले। हम खुशी-खुशी शादी में शामिल हो जाएंगे।’’

                सुषमा के मन में इसी बात का दुख है कि अम्मा सब कुछ समझते हुए भी नासमझ बनी रहती हैं और ऊपरी तौर पर यह दिखावा करती हैं कि सुषमा ही विवाह के लिए कभी तैयार नहीं होती। लेकिन वास्तविकता सुषमा और अम्मा दोनों ही जानती हैं। इसलिए ऐसे अवसरों पर एक दूसरे से आँखें चुरा जाती हैं - ‘‘ऐसे अवसरों पर अम्माँ प्रायः दोष सुषमा के ही सिर डालकर बरी हो जाती थीं - अब मैं क्या करूँ? सयानी लड़की है, कोई बच्चा तो है नहीं जो समझाने-बुझाने से मान जाएगी। वह शादी करने को राजी ही नहीं होती तो मैं क्या करूँ?’’  किन्तु सुषमा अपनी माँ की मजबूरी भी समझती है इसलिए अन्दर से क्रोधित होते हुए भी वह अपनी माँ के कहे हुए समस्त कार्य करती चली जाती है।

                सुषमा विवाह की इच्छा को अपने मन में ही दबाकर रखती है। खासतौर पर अपने भाई-बहनों के सामने इस तरह की बात करते हुए उसे काफी झेंप महसूस होती है - ‘‘आप भी, मौसी, किस पचडे़ को ले बैठीं। जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण काम हैं, सिर्फ विवाह ही तो नहीं। और देशों में देखिए, बिना शादी किए ही औरतें कैसे मजे से रहती हैं।’’

                सुषमा के पास अच्छी नौकरी है, परिवार है लेकिन उसके बावजूद वह अकेली है। वह अविवाहित है। उसे लगता है कि उसके जीवन में आए बिखराव को समझने वाला कोई नहीं है। अपना कॉलेज  उसे कारागार सा प्रतीत होता है। आरम्भ से अन्त तक पूरे उपन्यास में सुषमा के अकेलेपन की घुटन और पीड़ा का वर्णन मिलता है। वह अपने एकरस जीवन से ऊब चुकी है। एकांत क्षणों में वह जिस मानसिक पीड़ा से गुजरती है उस पर नियंत्रण रखना अत्यन्त कठिन हो जाता है। सुषमा का विवाह समय पर नहीं हो पाया, इस विषय में जब वह गहराई से सोचती तो अपने माता-पिता को ही दोषी पाती - ‘‘ऐसे अवसरों पर सदा वह खिन्न हो उठती और उसे अपने माता-पिता ही दोषी प्रतीत होते। यदि कुछ परिस्थितियोंवश सुषमा का विवाह न टल गया होता तो आज उसके भी सब कुछ होता - एकान्त शामों का साथी, घर-मोटर, बच्चे-सुषमा ने सायास इन विचारों पर पूर्णविराम लगा दिया।’’

                सुषमा घर से दूर हॉस्टल  में रहते हुए नौकरी करती है। जब भी उसे एकांत मिलता, उसे अकेलापन घेर लेता और वह गहन मानसिक यंत्रणा से गुजरती। उसे लगता कि कोई उसका अपना होता जो उसके जीवन में आए बिखराव को समेटता - ‘‘सुषमा को प्रेमी नहीं चाहिए था। उसे पति की आकांक्षा भी न थी, पर कभी-कभी उसका मन न जाने क्यों डूबने लगता। अपने परिवार का सारा बोझ अपने ऊपर लिए, सुषमा काँपने लगती। तब वह चाह उठती कि दो बाँहे उसे भी सहारा देने को हों, इस नीरवता में कुछ अस्फुट शब्द उसे भी सम्बोधन करें।’’

                सुषमा के विवाह की उम्र बीत चुकी है। अपनी उम्र को लेकर सुषमा में अत्यधिक हीन भावना है। विवाह और उम्र ये दोनों बातें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सुषमा को जब भी विवाह न होने का दुख होता है तो अपनी उम्र की अधिकता उसे खटकने लगती है। नील से मिलने के बाद तो उसे अपनी उम्र को लेकर और भी अधिक हीन भावना होने लगती है - ‘‘जीवन में पहली बार उसे उन खोए हुए वर्षों का दुख था। जीवन की भाग-दौड़ और आजीविका के प्रश्नों में चुपचाप विलीन हो गए वे वर्ष-और अब तो उसके चारों ओर दीवारें खिंच गई थीं, दायित्व की, कुंठाओं की, अपने पद की गरिमा और परिवार की।’’

                सुषमा समाज के रीति-रिवाज और नियमों में बंधी नारी है। वह सुशिक्षित और आत्मनिर्भर है किन्तु स्वतंत्र होकर निर्णय लेने की क्षमता उसमें नहीं है। वह विवाह की इच्छुक है। उसके जीवन में प्रेम का अभाव है। सुषमा के मन में कभी-2 यह विचार आता है कि अगर उसके माता-पिता चाहते तो उसकी शादी अवश्य कर सकते थे। शुरू में उसने नारायण का सपना देखा और बाद में नील उसकी जिंदगी में आया। दोनों ही बार वह रिश्ते को आगे बढ़ाना चाहती थी किन्तु आर्थिक विवशता और सामाजिक मर्यादा ने दोनों ही बार उसके पैरों में बेडियाँ डाल दी। सुषमा का नारायण से विवाह नहीं हो पाया, उसमें माता-पिता का दोष है किन्तु नील से विवाह करने में उसकी पारिवारिक, आर्थिक एवं सामाजिक विवशताएं आड़े आ जाती है। नील विवाह के पश्चात मिलकर सुषमा के परिवार की जिम्मेदारी उठाना चाहता है किन्तु सुषमा का स्वाभिमान उसे इजाजत नहीं देता। वह अपना बोझ नील के कंधों पर नहीं डालना चाहती। दूसरे सुषमा नील से विवाह के पश्चात् की स्थितियों की कल्पना कर आशंकित हो जाती है। उसे लगता है कि उसकी बड़ी उम्र कभी न कभी दोनों के रिश्तों के बीच बाधक बन सकती है। बीस-इक्कीस वर्ष की कोई लड़की नील को उससे छीन भी सकती है - ‘‘प्रेमिका और पत्नी में बहुत फर्क होता है। फिर मैं यह नहीं चाहूँगी कि नील के मन में कभी भी यह विचार आए कि उससे गलती हुई।’’

                सुषमा बेहद ईमानदार है। वह ऐसा कोई भी काम नहीं करती जो सामाजिक मर्यादा और नैतिकता की दृष्टि से अनुचित हो। उसने जीवन में जो कुछ पाया है वह अपने परिश्रम और ईमानदारी के बलबूते पर ही प्राप्त किया है। एम00 करने के बाद उसे नौकरी के लिए भटकना पड़ा। पहली नौकरी छूटने के बाद वह चाहती तो अनैतिकता का सहारा ले सकती थी किन्तु उसने अभाव में भी कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। सुषमा की अम्मां पैसों की बचत करने के लिए जब उसे बेईमानी करने का परामर्श देती है तो सुषमा भड़क उठती है - ‘‘आखिर इतनी गृहस्थी फैलाने की जरूरत क्या है सुषमा? भौंरी को निकाल दो और होस्टल के नौकरों से काम करवाओ। होस्टल में कुरसी-मेजें बने तो घर के लिए कुछ सामान बनवा लो। पलंग है, अलमारी, खाने की मेजें - सब देने के काम आएगा - इतनी जम़ीन बेकार पड़ी है, साग-सब्जी लगवाओ।’’

                सुषमा ने कहा, ‘‘अब यही तो सिखाओगी अम्माँ। बहुत कुछ किया जिन्दगी में, यह बेईमानी नहीं की, लगता है तुम्हारे बाल-बच्चों की खातिर यह भी करना पडेगा।’’

                नील के द्वारा लाए गए उपहार भी सुषमा अत्यन्त संकोच के साथ स्वीकार करती है। अपने रिश्ते के प्रति वह पूरी तरह से ईमानदार है। वह लालची नहीं है। नील से प्रेम करती है इसलिए उसके द्वारा लाए गए उपहारों को ग्रहण कर लेती है।

                सुषमा में परदुखकातरता और संवेदनशीलता बहुत अधिक है। वह अपने दुख को भुलाकर दूसरों के दुख की कल्पना से अत्यधिक व्यथित हो जाती है। सुषमा स्वार्थी नहीं है। आत्म पीड़ा से दूसरों के प्रति और भी संवेदनशील हो गई है। वह अपने माता-पिता और भाई-बहनों के प्रति तो संवेदनशील है ही, इसके अतिरिक्त अपने सम्पर्क में आए प्रत्येक व्यक्ति के प्रति भी संवेदनशील है। अपने माता-पिता के प्रति उसे शिकायत है, वह मन ही मन उन पर क्रोधित भी हो जाती है किन्तु फिर थोड़ी ही देर में उसका मन पिघल जाता है - ‘‘दीवार से टेक लगाए बैठी सुषमा ने लम्बी पलकें उठाकर पिता को देखा। उनके थके, बूढ़े चेहरे को देखकर उसे लगा कि उसने उनके साथ अन्याय किया है। उन्होंने कभी न चाहा होगा कि उनकी बेटी अविवाहित रह जाए, पर उनकी अपनी विवशताएँ होंगी, जिन्हें वह समझ न पाई होगी। मन ही मन न जाने वह कितना घुले होंगे, अपनी विवशताओं में उलझ कर रह गए होंगे और सुषमा को उस असामथ्र्य की कचोट का आभास भी न हुआ होगा।’’17 इसी तरह से वह अपनी अम्मा पर भी झुंझला जाती है किन्तु थोड़ी ही देर में उसका मन पसीज जाता है - ‘‘सुषमा को लगा कि उसने अम्मां से बहुत कटु बातें कह दी हैं। वह भी तो विवश हैं। यह बात नहीं कि उन्हें सुषमा से प्यार नहीं। वह जिन विविध चिन्ताओं से घिरी रहती हैं, उन्हें किसी से तो कहंेगी ही।’’18 वह रिश्तों को अहमियत देती है। अपने छोटे भाई-बहनों के प्रति उसके मन में अत्यधिक दुलार है। वह उनकी इच्छाओं का ख्याल रखती है। संजय की मनपसंद जैकेट लाती है। उसके लिए स्वेटर बुनती है। प्रतिमा को उसकी पढ़ाई के खर्च के प्रति आश्वस्त करती है। अरविन्द के प्रति प्रतिमा के झुकाव की बात पता चलने पर वह उन दोनों के विवाह का निश्चय मन ही मन में करने लगती है - ‘‘अगर प्रतिमा अरविन्द से शादी करना चाहेगी तो मैं वह भी सम्भव कर दिखा दूँगी। प्रतिमा को कभी अपनी जीजी की तरह रातों को आँचल मुँह में ठूँस रोना नहीं पडेगा।’’19  सुषमा नहीं चाहती थी कि जिस तरह से उसे घुट-घुटकर जीना पड़ रहा है, उसके भाई-बहन भी पैसे के अभाव में ऐसे ही घुट-घुट कर जियें।

                अपने सम्पर्क में आए प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सुषमा में सहज मानवीय संवेदनाएं हैं - चाहे वह नील हो, स्वाति हो या ब्रजमोहन। नील का सुषमा के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। वह नील से प्रेम करती है किन्तु आर्थिक एवं सामाजिक विवशता के कारण उसे नील से अलग होना पड़ा। नील से अलग होने पर ही उसे अहसास होता है कि वह मन से उसके साथ कितनी गहराई से जुड़ी हुई थी। चाहकर भी वह उसे पा नहीं सकती थी और बिछुड़कर भी वह उसे भूल नहीं सकती थी - ‘‘वह जानती थी कि कुछ रेखाएं ऐसी भी होती हैं जिन्हें समय भी नहीं मिटा पाता। भूलना क्या होता है? मन समझाने की बातें, कायरों के बहाने। जो कुछ नील ने उसे दिया और जो कुछ नील ने उससे पाया, उस विनिमय ने उन लोगों को साधारण व्यक्तियों से अपांक्तेय कर दिया। दैनिक कार्यों में रत होकर, नाते-रिश्ते निभाते हुए भी, अब वे पहले-से नहीं हो पाएँगे, क्योंकि उनका कुछ अंश एक दूसरे के पास रह जाएगा........ किसी छोटी सी बात, किसी की हँसी, किसी के देखने के ढंग या किसी अपरिचित की कमीज के रंग से नील फिर जी उठेगा; अलग होने के बाद रहना, राख के ढँके कोयलों पर चलना होगा, न जाने कौन-सा अंगारा दहकता रह जाए और पाँव को जला दे।’’

                समाज में अधिकतर लोग मुसीबत में पड़े व्यक्ति पर कटाक्ष करते हैं, तरह-तरह की बातें करते हैं किन्तु सुषमा समझदार एवं सुशिक्षित है। उसके विचार में मुसीबत में पड़े व्यक्ति की पहले मद्द करनी चाहिए ना कि कटाक्ष। स्वाति को लेकर स्टाफ-रूम में सभी महिलाएँ तरह-तरह की चटपटी बातें करती हैं। सुषमा को उनकी बातें सुनकर अत्यधिक दुख होता है - मुझसे उनकी बातें सुनी न गई मीनाक्षी! स्वाति की आयु ही क्या होगी। मुसीबत में फंस गई है तो मद्द करना तो दूर उसकी दशा पर हँसना मुझे सह्य न हुआ।’’

                ब्रजमोहन के प्रति भी सुषमा के मन में अत्यधिक दुख है। ब्रजमोहन सुषमा की बहन नीरू को चाहता है किन्तु दूसरी बिरादरी का होने के कारण उनका विवाह नहीं हो सकता। नीरू के विवाह के पश्चात ब्रजमोहन सुषमा को अपनी भावनाएँ व्यक्त करता है - ‘‘नीरू के चले जाने पर बरामदे में अकेले खड़े ब्रजमोहन को आँखे पोंछते देख सुषमा के आँसू भी उमड़ पडे़। पकड़े जाने पर खिसियाया-सा ब्रजमोहन बोला, घर में बड़ा सन्नाटा लगेगा जीजी।’’

                इस प्रकार सुषमा सहृदय, सहज मानवीय संवेदनाओं से युक्त, परदुखकातर एवं दूसरों की मददगार है। तमाम कमियों के बावजूद वह रिश्तों को निभाने में विश्वास रखती है।

                सुषमा के व्यक्तित्व में आधुनिक जीवन का अकेलापन घुटन, ऊब और भविष्य के प्रति अनिश्चितता की भावना दिखाई देती है। उसके जीवन की परिस्थितियाँ एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें से वह चाहकर भी बाहर नहीं निकल सकती। नील ने ही सुषमा के नीरस जीवन में सौन्दर्य, प्रेम, पारस्परिक आकर्षण और संतुष्टि का बोध कराया था। नील के जीवन में आ जाने से सुषमा अपने मन में बहुत अधिक बदलाव महसूस करती थी। सामाजिक और आर्थिक विवशता के कारण सुषमा को नील से  सम्बन्ध विच्छेद करना पड़ रहा था किन्तु वह अन्दर तक टूट गई थी - ‘‘नील के बगैर मैं कुछ भी नहीं हूँ, केवल एक छाया, एक खोए हुए स्वर की प्रतिध्वनि; और अब ऐसी ही रहूँगी, मन की वीरानियों में भटकती हुई।’’
               
सुषमा के कंधों पर अपने छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी है। वह अपने परिवार का एकमात्र सहारा है। ऐसे परिवारों में जहाँ कोई बड़ा बेटा नहीं होता, बेटी ही आर्थिक दृष्टि से परिवार का बोझ उठाती है। बेटे को घर की जिम्मेदारी के साथ इस तरह के अकेलेपन का शिकार नहीं होना पड़ता। वह अपना विवाह कर सकता है। अपना परिवार बढ़ा सकता है। लेकिन हमारे समाज में बेटी का विवाह होने के पश्चात उसे पूरी तरह से पति के घर में ही समर्पित होना पड़ता है। इसलिए लड़की को सुषमा की तरह दोहरा त्याग करना पड़ता है। जब तक छोटे भाई-बहन बड़े होते हैं तब तक वृद्धावस्था आ जाती हे। सब भाई-बहन अपने-2 घर-परिवार में सिमट जाते हैं तो यह अकेलापन और भी अधिक भयावह रूप धारण कर लेता है। सुषमा को अपने भविष्य में यही अकेलापन, घुटन और पीड़ा दिखाई दे रही है - मेरी निष्कृति की कोई सम्भावना नहीं मीनाक्षी। पैंतालीस साल की आयु में मैं भी एक कुत्ता या बिल्ली पाल लूँगी - उसे सीने से लगाकर रखूँगी।’’ 

                सुषमा के जीवन की यही त्रासदी है। कॉलेज  के इन्हीं पचपन खंभे लाल दीवारों में वह बंदिनी की भाँति अपना जीवन जीते रहने को ही अपनी नियति मान चुकी है - ‘‘आज से सोलह साल बाद शायद तुम अपनी बेटी को लेकर इस कॉलेज  में आओ तब भी तुम मुझे यहीं पाओगी। कॉलेज  के पचपन खंभों की तरह स्थिर, अचल.............।’’  

                डॉ. पारुकान्त देसाई के शब्दों में कहा जा सकता है - मनुष्य सातत्य चाहता है। हम अपनी वृद्धावस्था में अपने युवा पुत्र-पुत्रियों, पोता-पोतियों या नातियों में अपने मन को रमा लेते हैं। परन्तु वह नारी जो किसी भी कारण से अविवाहित रह गई है अपनी उत्तरावस्था में घुटन, पीड़ा एवं संत्रास की अंधेरी अन्तहीन सुरंग से गुजरती है। वह महज एक क्राटन का पौधाबनकर रह जाती है। शनैः शनैः उसके भीतर की स्निग्धता, कोमलता, सरसता सूखने लगती है और उस रिक्त स्थान में भरने लगती है कर्कशता, कटुता, कठोरता।’’

                सुषमा एक विवेक सम्पन्न, सहृदय और संवेदनशील नारी है। अपनी पारिवारिक प्रतिबद्धता के कारण अपनी इच्छाओं का दमन करती रहती है। वह जो चाहती है कर नहीं सकती और जो नहीं चाहती, वह करती चली जाती है - यही उसके जीवन की विडम्बना है। इसलिए अन्तद्र्वन्द्व और घोर मानसिक यंत्रणा से उसे गुजरना पड़ता है। आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होते हुए भी वह अपनी इच्छाएँ पूरी नहीं कर सकती। उसे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए। यह एक आदर्श स्थिति है। उसे अपनी इच्छाएँ पूरी करनी चाहिए - यह एक यथार्थ स्थिति है। लेकिन स्वार्थ के वशीभूत होकर केवल अपनी इच्छाएँ पूरी करने में उसके भाई-बहनों की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी, तब वह अपराधबोध से ग्रस्त हो और भी अधिक भयावह स्थिति में फँस जाएगी। इसलिए वह घुट-घुट कर जीते रहने को विवश है। उसे बार-बार अनुभव होता है कि वह एक ऐसे चक्रव्यूह में फँसकर रह गई है जहाँ से उसका बाहर निकलना असंभव है। फलतः वह हार मान लेती है। डॉ. शान्ति भारद्वाज के शब्दों में - एक पूर्णतः निराश, स्थिर; जीवन जीने वाली सुषमा, एक टूटी हुई इकाई, एक खोये हुए स्वर की प्रतिध्वनी, जिसने जीवन के एक संघर्ष की पराजय को अंतिम पराजय स्वीकार कर लिया और तदनन्तर संभावित सुख की हर परिस्थिति को अस्वीकार कर दिया।27  इस प्रकार पचपन खंभे लाल दीवारेंउपन्यास एक संवेदनशील नारी की पारिवारिक प्रतिबद्धता जनित मानसिक यंत्रणा की करुण कहानी है

डॉ.राजेश कुमारी कौशिक
असिस्टेंट प्रोफेसर मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय (सांध्य)
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।ईमेल -rrajeshkaushikk4@gmail.com 

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