आलेख:भूमंडलीकरण के दौर में नये समाज की अवधारणा/रहीम मियाँ

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-22(संयुक्तांक),अगस्त,2016
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                                  भूमंडलीकरण के दौर में नये समाज की अवधारणा/रहीम मियाँ 


चित्रांकन
ऑक्सफोर्ड डिक्सनरी के अनुसार भूमंडल या ग्लोब शब्द लगभग 400 वर्ष पुराना है, पर ग्लोबलइजेशन शब्द का प्रयोग 1960 के पहले नहीं मिलता है। अमेरिका की साप्तहिक पत्रिका  इकोनोमिस्ट ने 4 अप्रैल 1959 के अंक में इटली द्वारा आयात की जाने वाली कारों ग्लोबलाइजड कोटा का जिक्र किया था। 1961 की वेबस्टर डिक्सनरी में पहली बार ग्लोबलाइजेशन या भूमंडलीकरण की परिभाषा दी गई। इसके 25 वर्ष बाद अमरिका में इस शब्द का इस्तेमाल शैक्षिक संस्थानों में शुरू हुआ। आज शब्दकोश में इसका यह अर्थ है कि ऐसा कोई भी कार्य या प्रसंग जिसका प्रभाव समूची दुनिया को अपने घेरे में लपेट लेता हो भूमंडलीकरण है। एन्थोनी गिडेन्स ने अपनी पुस्तक द कन्सेक्वेन्स ऑफ मॉडर्निटी में लिखा है कि भूमंडलीकरण का अर्थ विश्व भर के सामाजिक संबंधों को इतना प्रचंड बना देना है कि दूर दराज के क्षेत्रों में जो कुछ भी स्थानीय स्तर पर घटता हो उसे हजारों मील दूर घटने वाली घटनाएँ तय करें। आज यह माना जाता है कि ग्लोबलइजेशन एक सजग और सायास प्रक्रिया है जो मूलतः उत्पादों के लिए विश्व बाजार को हासिल करने और दुनिया को विभिन्न हिस्सों पर प्रभुत्व कायम करने की गतिविधियों से जुड़ी हुई है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि अब भारतीय अर्थ, समाज, संस्कृति को वैश्विक पृष्ठभूमि से अलग-थलग देखना ठीक नहीं है। उसके सूत्र अब वैश्विक परिवर्तनों से जुड़ चुके है, यह भले पीड़ादायक हो, किन्तु यथार्थ है।

भूमंडलीकरण  का अर्थ पूरे भूमंडल का एकीकरण करना है। अर्थात् मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए पूरे भूमंडल को एक विश्व ग्राम में परिवर्तित कर देना ताकि भूमंडल में कहीं कोई गरीब एवं पिछड़ा  न रहे। सभी देश हर रूप में पूरे भूमंडल पर उभर सके। आर्थिक ही नहीं, सांस्कृतिक समन्वय का माहौल कायम हो सके। भूमंडलीकरण का शाब्दिक तात्पर्य हमारे वासुदैव कुटुम्बकम् की धारणा के अनुकूल ही है जिसमें विश्व मानवता के कल्याण की कामना निहित है। आज का शब्द भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण  दोनो ही ग्लोबलाइजेशन, ग्लोबीकरण के लिए सर्वस्वीकृत शब्द है। यह भूमंडलीकरण हमारी इच्छा पर निर्भर न होकर हमपर थोपा जा रहा है जिसमें मानवता के कल्याण के नाम पर कुछ बड़े देशों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का स्वार्थ निहित है। कुछ लोग इसे एक आँधी के रूप में देखते है, किन्तु यह सब कुछ उजाड़ कर चले जाने वाली आँधी नहीं है, बल्कि किसी भी देश में जाकर पैर जमाकर बैठकर, सर्वदा उसका विनाश करते रहने वाली आँधी है। इसने परिवेशगत जो परिवर्तन उपस्थित किया है उससे पारंपरिक मूल्यों एवं श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को क्षरित होते देख कुछ कर भी नहीं पा रहे हैँ। इसका आर्थिक पक्ष हमें हमारी पुरातन मान्यता से अलग कर एक प्रच्छन्न और अघोषित आक्रमण का रूप दे डाला है।

यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें विश्व बाजार के मध्य पारस्परिक निर्भरता उत्पन्न होती है और व्यापार देश की सीमाओं में प्रतिबंधित न रहकर विश्व बाजार में निहित तुलनात्मक लागत लाभ दशाओं का विदोहन करने की दिशा में अग्रसर होता है। प्रभात पटनायक जैसे लोग इसे नये सम्राज्यवाद के संकट के रूप में देखते है। वास्तव में यह पूँजीवाद का एकछत्र राज्य है। रजनी कोठारी के अनुसार भूमंडलीकरण से तात्पर्य शीत युद्ध के बाद उभरे एक नये किस्म के सम्राज्यवाद से है। उनका मानना है कि यह एक अराजनीतिक प्रौद्द्योगिकी आधारित और राष्ट्र राज्य को कमजोर करने वाला एक नव पूँजीवादी सम्राज्य है। वे इसे कॉर्पोरेट पूँजीवाद की संज्ञा देते है। यह नव सम्राज्यवाद अपने साथ उदारीकृत बाजार, अर्थ प्रणाली, विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश, विश्व बाजार संगठन, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, जी-8 जैसे मजबूत हथियारों को लेकर आया है। इन हथियारों के बदौलत ही भूमंडलीकरण अपना पैर पसार रहा है।

भूमंडलीकरण से तात्पर्य एक तरह का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्पाद ही नहीं, देश की संस्कृति का विस्तार भी होता है। यह अपने पूँजी और प्रचार - तंत्र के द्वारा हमारे अंदर हमारी अपनी संस्कृति के प्रति हीन भावना पैदा करता है। इस आयात संस्कृति को हमारी संस्कृति पर थोपा जाता है। यह एक तरह से पुनः औपनिवेशीकरण है। यह पश्चिम के विकसित देशों द्वारा  मुक्त बाजार के नाम पर तीसरी दुनिया की अर्थ व्यवस्था को लूटने और उसे विकसित होने का सपना दिखाकर मटियामेट करने की साजिश है।

हेनरी किसिंजर भूमंडलीकरण को अमेरिकीकरण का पर्याय समझते है। भूमंडलीकरण के नाम पर अमरिकी विचार, जीवन-मूल्य, अमरिकी संस्कृति को पूरी दुनिया में जबरदस्ती थोपा जा रहा है। न्यूयार्क टाइम्स के एल. फिडमैन यह कहते है – हम अमेरिकी गतिशील विश्व के समर्थक है और उच्च तकनीक के पुजारी है। हम अपने मूल्यों और पिज्जाहट दोनों का विस्तार चाहते है। हम चाहते है कि विश्व हमारे नेतृत्व में रहे और लोकतांत्रिक और पूँजीवादी बने, प्रत्येक पात्र में वेबसाइट हो।"

भूमंडलीकरण के दौर में औधोगिक पूँजीवादी समाज का निर्माण हुआ। यह  समाज परम्परागत समाज से भिन्न है। भूमंडलीय परिदृश्य में उत्पादन एवं उपभोग दोनों की मात्रा विशाल हो गई। अतः नये औद्योगिक समाज मास सोसाइटी या झूंड समाज में बदल गई। इस समाज का कोई भी आकार निश्चित नहीं है और न इस पर व्यवस्था का पूरा नियंत्रण ही है। इस समाज के लोग अपने पारम्परिक परिवेश से अलग होकर केवल भीड़ का एक हिस्सा भर बनकर रह गये हैं। जहाँ पारंपरिक समाज धर्मों, रीति-रिवाजों द्वारा नियंत्रित व्यवस्था थी, वहीं नया समाज नियंत्रणहीन, उन्मुक्त एवं आकारहीन है। इस समाज के लोगों द्वारा स्थापित विचारधाराएँ एवं मूल्य पारंपरिक मूल्यों से अलग विकसित हुआ है। फलस्वरूप समाज में नये एवं पुराने मूल्यों के बीच द्वन्द्व एवं संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। नंद भारद्वाज का कहना लाजमी है- जीवन और जगत के बारे में हमारा अर्जित किया हुआ ज्ञान, सामाजिक आचरण और जीवन - मूल्य आज समय के कठघरे में निःशब्द खड़े है।

इस आधुनिक समाज के एवज में माँ – बाप का जीवन भी इतना व्यस्त हो चुका है कि वहाँ बच्चों से उत्पन्न व्यवधान भी उनमें चिड़चिड़ापन को बढ़ावा दे रहा है। संयुक्त परिवार तो बहुत पहले टूट चुका है। आज के एकल परिवार में किसी बुजुर्ग का न होना भी पारिवारिक अनुशासन के क्षय होने का कारण है। ऐसे परिवार में या तो बच्चा घर पर अकेला रह जाता है या माँ - बाप द्वारा अधिक दंड की क्रूरता झेलनी पड़ती है। बच्चे की जिन्दगी घर की चार दीवारी एवं खिलौने तक सीमित हो जाती है। माँ – बाप अपने बच्चों को समय नहीं दे पाते है जिससे बच्चें में अपराध बोध की भावना पनपने लगती है। इस झूंड समाज में जहाँ एक ओर बच्चे की मानसिकता से खिलवाड़ होता है, वहीं बुढ़े - बुजुर्गों की स्थिति दयनीय बन जाती है। उन्हें पुराना फर्नीचर समझ कर घर के कोने में ढ़केल दिया जाता है। वर्तमान समाज में वे चुँकि फिट नहीं बैठते है, अतः उन्हें घर का कुड़ा समझ कर फेंक दिया जाता है। व्यवसायिक मूल्य हम पर इतना हावी हो गया है कि हम समस्त सामाजिक मूल्यों को दर किनार करते चले जा रहे हैं। यहीं कारण है कि आज के औद्योगिक समाज में बुढ़े एवं बुजुर्गों के लिए कष्टहीन मौत (यूथोनेसिया) के प्रावधान की मांग उठने लगी है। इस समस्या पर प्रकाश डालते हुए डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा लिखते है – इसमें बचपन में वर्जना और प्रताड़ना है, जवानी में स्पर्धा और असुरक्षा का तनाव और बुढ़ापे में अर्थहीनता का अवसाद। इस तरह आधुनिक सभ्यता हासिल करने का अभियान हमें एक ऐसे मुकाम पर ला रहा है जहाँ हम संसार को जीत कर जीवन को हार रहे हैं।''

नये समाज का निर्माण अमरिकी संस्कृति के प्रभाव के कारण हुआ है। अतः नया समाज नस्लवाद, जातिवाद और हिंसा का समाज है। अमेरिका में नस्लवाद, जातिवाद और हिंसा उसकी संस्कृति में शामिल है। 17 वीं शताब्दी में अमरिकी घरों में अफरीकी दासों की उपस्थिति इसके नस्लवाद का प्रमाण है। 11 सितम्बर 2001 के बाद क्रूसेड कहकर धर्मयुद्ध का ऐलान जातीयतावाद को वैधता प्रदान करती है। द्वितीय विश्व युद्ध में परमाणु बम का प्रयोग मानवता के विरूद्ध हिंसा थी। अमरिका में पहले भी लाखों अमरिकी रेड इंडियनों को मौत के घाट उतारा गया हैं। 11 सितम्बर के बाद अमरिका हर मुसलमान को शक की निगाह से देखता है। ओसामा के नाम पर पूरे तालिबान में अमरिकी फौजियों का जमावड़ा लगा हुआ था और आज भी हैं। यह आज का साम्राज्य है जहाँ भूमंडलीकरण अपना नया विमर्श स्थापित कर रहा है। माइकेल हार्ट एवं एंटोनियो नेग्रो ने अपनी पुस्तक साम्राज्य’ (Empire) में लिखा है कि यह नई परिस्थिति एक संजाल है, जिसमें दुनिया की महत्वपूर्ण संस्थानों की परा-राष्ट्रीय पूँजी लगी हुई है। मानवधिकार का नारा वास्तव में उनकी सम्राज्यवादी आदमखोर नीयत को ढ़कने का बहाना मात्र है। जनतंत्र के जिस उदारवादी मंत्र का जाप ये दिन – रात करते हैं, उसकी आड़ में इनकी फौजी संस्कृति मजबूत होती है। यह वहीं पुराना सम्राज्यवाद है, जो नई – नई भूमंडलीय एकता और भाईचारा का नारा बुलंद कर फूट रहा है।

नये समाज में जी रहे मानव में मानवता का नाश हो रहा है। हमारी भावनाएँ वस्तुगत बन गई है, फलस्वरूप रिश्तों में बदलाव आने लगा है। चुँकि नया समाज भूमंडलीकरण की देन है और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के मूल में लाभ ही सब कुछ है। अतः इस लाभ को पाने के लिए हम सामाजिक सरोकार की तिलांजलि देकर किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते है, भले ही वह सीमा नृशंशता की सीमा क्यों न हो? भूमंडलीकरण का विरोध इसमें छीपे मानव संहारक तत्वों के कारण ही हुआ है। आज का सामाजिक संघर्ष स्थानीय न होकर वैश्विक बन गया है। श्याम चरण दुबे की चिन्ता जायज है – समकालीन भारतीय समाज तीव्र संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। परिवर्तन की आँधियाँ कई दिशाओं से आ रही है- एक ओर आधुनिकीकरण की अनिवार्यता है, दूसरी और परम्परा का आग्रह है। पश्चिम की आर्थिक और तकनीकी सहायता अपने साथ वहाँ की जीवन शैली और मूल्य ला रही है, जिन्हे अपनी जड़ से कटे भारतीय आधुनिकता समझ कर बिना तर्क के अपना रहे हैं। इस अंधानुकरण  ने एक नई चिंता को जन्म दिया है- अपनी अस्मिता और पहचान खोकर एक आकृति – विहीन भीड़ की गुमनामी में खो जाने की।

भूमंडलीकरण वंचित वर्गों एवं पिछड़े देशों के लिए वरदान न होकर अभिशाप बनकर आया है। इसीलिए भारत के अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने ठीक ही कहा है – भूमंडलीकरण के आलोचनात्मक मूल्यांकन को इस बात से परहेज नहीं होना चाहिए कि इतने आलोचक केवल हठकारिता या अपनी विरोधी प्रवृति के वजह से ही इसकी आलोचना नहीं करते। इस पर विचार करना आवश्यक है कि क्यों उन्हें इस बात को मानने में कठिनाई होती है कि यह दुनिया के वंचित लोगों के लिए वरदान है। अतः भूमंडलीकरण आज हमारे लिए अपरिहार्य प्रक्रिया है, जिससे हम चाहे भी तो नहीं बच सकते हैं। शायद इसीलिए अमेरिकी प्रेसीडेंट क्लिंटन और उनके सेक्रेटरी ने यह स्वीकारा था कि भूमंडलीकरण हमारे जीवन का अति आवश्यक तत्व है, हम लहरों को समुन्द्र  के किनारे से टकराने से रोक सकते है, परन्तु हम भूमंडलीकरण को और अधिक समय तक नहीं रोक सकते।

संदर्भ ग्रंथ

1.       ऑक्सफोर्ड डिक्सनरी
2.       इकोनोमिस्ट – विकली मैग़जीन – अमेरिका
3.       “The consequences of modernity” – Anthony Gidence
4.       “A manifesto for the fast world” – Thomas L. Fidman – 28th March, 1999
5.       संस्कृति, जनसंचार और बाजार – नंद भरद्वाज – सामयिक प्रकाशन – पेज- 52
6.       भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ – प्रो. सच्चिदानन्द सिन्हा – पेज- 146
7.       “ Empire” – Michael heart & Antoniyo Negro
8.       समय और संस्कृति – श्याम चरण दुबे – पेज- 

रहीम मियाँ
एसिसटेंट प्रोफेसर,बानारहाट कार्तिक उराँव गवर्नमेंट कॉलेज बानारहाट, जलपाईगुड़ी,
सम्पर्क सूत्र:-9832636020,8348121618

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