काव्य-लहरी:गौरव भाटी की कविताएँ

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
  ---------------------------------------
काव्य-लहरी:गौरव भाटी की कविताएँ

इंसानियत

नहीं समझ पाया हूँ
अपने देश को
राष्ट्रवाद को
लेकिन समझता हूँ
इंसानियत
और इससे परे मेरे लिए
कुछ मायने नहीं रखता
चाहो तो पिट सकते हो मुझे
मैंने जिन्दा रखा है
अपने भीतर एक बचपन
क्योंकि बड़ा नहीं होना चाहता मैं
नहीं बनाना चाहता दूरी
मोहल्ले के मोहम्मद चचा से
उनकी दिए हुए गुब्बारे
आज भी याद है मुझे
नहीं बनाना चाहता दूरी
शिवाला के पुजारी
दीनानाथ बाबा से
जो मुझे प्रसाद में मिश्री के टुकड़े
औरों से ज्यादा देते थे
नहीं बनाना चाहता दूरी
अपने उन यारों से
जो बड़े लोगो की नजर में
चमार भंगी दुसाध डोम धोबी
बनिया मुसहर पंडित जुलाहा
बढ़ई मियां होते है
मेरी नजर में वो मेरे यार है
जिनके संग बचपन जिया मैंने
क्रिकेट के बॉल खो जाने पर
घंटों ढूंढा है
जिनके संग चुराकर खाये है
किसी के खेत से टमाटर
तोड़े है चढ़कर पेड़ से बेर
नाचा हूँ बेतहाशा शादियों में
लड़ा भी हूँ रूठा भी हूँ
मुझे याद कैसे ननकू की माँ
बांध देती थी झोला भर सब्जी
और पटुआ का साग
क्योंकि उन्हें पता था
मुझे बेहद पसंद है वो
मुझे याद है मोहल्ले में होने वाली होली
जिसमे हम सब यार
कादो कीचड़ रंग अबीर
और जोगीरा के धुन में खोए रहते थे
एक दूसरे के घर का स्वाद चखते थे
कैसे दशहरा पर बनाता था असलम
रावण दस सिर वाला
मेरा असलम कलाकार था भाई
सब कुछ जिन्दा है मेरे भीतर
और जिन्दा रखे है मुझमें
जिसे आप बच्चा कहे
इंसानियत कहे
मेरे लिए सब एक ही है
नहीं चाहता मैं बड़ा होना
अगर वह छीन ले मुझसे मेरा बचपन
नहीं जानना मुझे देश को
अगर वह देखता है आवाम को आंकड़ों में
नहीं बाँटना मुझे लोगो को रंगों में
लाल हरा भगवा सफ़ेद
मुझे सब रंग प्रिय है
उसी तरह जैसे बारिश के बाद
इंद्रधनुष ।


लोग पूछते हैं

मुझसे लोग पूछते है
किस दल के समर्थक हो
मैं आगे पीछे दाएं बाएं देखने लगता हूँ
और हँसकर टाल देता हूँ
लेकिन सोचता हूँ
कभी- कभी
तो मालूम होता है
आज तक किसी दल का झंडा थामे
नारे तो लगाया ही नहीं
जिस सरकार की जो नीति अच्छी लगी
उसका समर्थन किया
जो बुरी लगी उसपर अपनी प्रतिक्रिया दी
मैंने पूछा लोगों से
दल में मिलना जरुरी है क्या
वो बोले भारत में तो जरुरी है
नौकरी चाहिए की नहीं
हर संस्था किसी न किसी दल से जुड़ी है
किसी में फिट होना है तो
जिससे मन मिले उससे दिल मिला लो
और फिर दिल का क्या है
जब उचट जाये
इश्क़ कहीं और फरमा लेना
देश में दलबदलू की कमी थोड़ी न है
लोग तो उन्हें डिबिया जला के खोजते है
अभी भी असमंजस में हूँ
ई सब जरुरी है क्या
सोच रहा हूँ
हो सकता है
किसी दिन आप मुझे देखे
भगवा, लाल,हरा,तिरंगा
इनमें से कोई झंडा लिए
चीख चीख कर नारे लगाते हुए ।



अब
कुछ नहीं दिखता
मेरी छत से
न वो जामुन का पेड़
न वो आकाश को छूता ताड़ का पेड़
झूलते थे जिसपर
बहुत से आशियाने
दूर से ही सही मगर
चखा है मैंने रस
वात्सल्य श्रृंगार का
अब नहीं दिखता
कहते हैं ताड़ बूढ़ा हो गया था
कोई कहता है बाँझ था वह
इसलिए काट दिया गया
अब दिखती है खिड़कियां
कुछ खुली कुछ बंद
और प्लास्टिक के गुलाब लत्तियाँ
जो कभी नहीं मुरझाती
न असर होता है इनपर मौसम का
न दिखता है वह चाँद
जो कभी मामा हुआ करता था
शायद वह भी बूढ़ा हो गया होगा
ताड़ की तरह।

  • गौरव भाटी,सम्पर्क:am.gaurav013@gmail.com

Post a Comment

और नया पुराने