आलेख:प्रेमचन्द की कहानियों में दलित:एक विवेचनात्मक विश्लेषण – डॉ.संजय बी असोदरिया

    चित्तौड़गढ़ से प्रकाशित ई-पत्रिका
  वर्ष-2,अंक-23,नवम्बर,2016
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आलेख:प्रेमचन्द की कहानियों में दलित:एक विवेचनात्मक विश्लेषण – डॉ.संजय बी असोदरिया

`प्रेमचन्दजी हिन्दी के प्रगतिशील साहित्यकार माने जाते हैं। हिन्दी समीक्षकों ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहा है, लेकिन मैं उन्हें कहानी सम्राट ही कहूँगा, क्योंकि प्रेमचन्दजी ने उपन्यास की तुलना में कहानियाँ ज़्यादा लिखी हैं। मूलतः यह कहानियाँ आम आदमी को केन्द्र में रखकर ही लिखी गई हैं। प्रेमचन्दजी ने दीन-दलित पर होने वाले अत्याचारों के  साक्षी रहे हैं। इसलिए उनकी कहानियों में उभरी चिन्तन की भूमि बिलकुल स्वाभाविक और हर युग में प्रासंगिक है। इसमें कोई शक नहीं कि उनकी 300 से भी ज़्यादा कहानियाँ हिन्दी साहित्य की अमर और अमूल्य निधि है।

21वीं सदी के प्रारंभ में ही विमर्श के दौर में दलित विमर्शअधिकांश साहित्यकारों का प्रिय विषय बन गया। आज के दौर में दलित सबसे अधिक चर्चा में रहा है। किन्तु आज दलित विमर्श को लेकर चर्चा में उतरे रचनाकारों को पता होना चाहिए कि इस चर्चा की नींव वर्षों पहले मुंशी प्रेमचन्दजी ने रख दी थी। प्रेमचन्दजी एक ऐसे प्रगतिशील लेखक थे, जिन्होंने नायक के परंपरागत मानदण्डों को खण्डित कर एक आम आदमी को नायक का दर्जा दिया है। उन्होंने प्रसंगानुसार दलितों को अपनी कहानियों में स्थान दिया। उनके अधिकांश पात्र दलित वर्ग से संबंधित हैं। दलित अर्थात मसला’, ‘कुचलाया रौंदा हुआ होता है। समकालीन युग में दलित विमर्शसाहित्य के क्षेत्र में एक बहुचर्चित मुद्दा रहा है। इसलिए यहाँ पर प्रेमचन्दजी की कहानियों में दलित वर्ग का एक विवेचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत करना मेरा प्रमुख लक्ष्य है।

प्रेमचन्दजी कहानी लेखन कला के अग्रदूत थे। उनकी कहानियाँ मानसरोवर के आठ भागों में निहित हैं, जिसमें से कुछ कहानियों में दलित पात्रों की दयनीय झाँकी का वर्णन पाया जाता है। वर्ग संघर्ष से संबंधित ठाकुर का कुआँ’  प्रेमचन्दजी की प्रथम दलित कहानी है। इसमें जोखू एवं उसकी पत्नी गंगी निम्न जाति के पति-पत्नी हैं। बीमार जोखू के लिए उसकी पत्नी गंगी सड़ा-गंदा पानी भर आती है, किन्तु जोखू तीव्र बदबू के कारण पानी नहीं पी सकता। प्यास से उसका गला सूखा जा रहा है, लेकिन गंगी दलित और अस्पृश्य होने के कारण ठाकुर और साहू के कुओं से पानी नहीं भर सकती। जोखू की तड़प गंगी से देखी नहीं गई और वह ठाकुर के कुएँसे पानी लाने का निर्णय करती है, परंतु जोखू अपनी पीड़ा और लाचारी को व्यक्त करते हुए कहता है -‘‘हाथ-पाँव तुड़वायेगी और कुछ न होगा, बैठ चुपके से। ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे,  ठाकुर लोग मारेंगे, साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है ? हम तो मर भी जाते हैं, तो कोई द्वार पर झाँकने नहीं आता,  कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे।’’1

जोखू के इन शब्दों में समाज की कड़वी सच्चाई छिपी है। अस्पृश्यता दलितों के लिए अभिशाप बन गया है। इस सामाजिक व्यवस्था से पीड़ित, शोषित गंगी ठाकुर के कुएँ पर पहुँचकर अपना घड़ा तो कुएँ में डाल देती है, लेकिन अचानक ठाकुर का दरवाजा खुलते ही हाथ में पकड़ी रस्सी को छोड़कर भाग जाती है। इस प्रकार कहे तो दलित नारी कितनी ही संकल्पबद्ध और विद्रोही क्यों न हो जाये किन्तु परंपरागत हिन्दू रिवाजों के विरूद्ध कभी नहीं जा सकती। उच्चवर्ग के सामने दलित वर्ग की हिम्मत आखिर टूट ही जाती है।

प्रेमचन्दजी की कहानी घासवालीदलित जीवन संदर्भों को एक नवीन दृष्टिकोण से देखने और उभारने वाली कहानी है। इस कहानी में घासवाली मुलिया और उसका पति महावीर दोनों चमार जाति के हैं। महावीर लारी चलाकर अपने परिवार का पेट पालता था, किन्तु नये इक्के के आगमन से अब लारी वाले को कोई नहीं पूछता। गाँव में गुजारेभर की मज़दूरी मिलना भी मुश्किल हो गया है। इक्के और घोड़े की दशा भी खराब हैं। घोड़ा दुबला पड़ गया था और इक्के की गद्दी मैली और फट गयी थी जिस पर चैनसिंह को बैठने में भी शर्म आती है। फिर भी चैनसिंह बाहर जाने के लिए महावीन का इक्का ही मँगवाता है। महावीर मालिक के एहसान तले दब जाता है। वह लाचार होकर कहता है -‘‘मालिक आप ही का तो खाता हूँ। आपकी परजा हूँ। जब मरजी हो पकड़वा मँगवाई।’’2

            मुलिया एक निर्भीक एवं साहसी युवती है। ठाकुर युवक चैनसिंह द्वारा किये दुर्व्यवहार को चुपचाप सहने की अपेक्षा उसका मुकाबला करती है। मुलिया दलित है, किन्तु गिरी हुई नहीं है। वह चैनसिंह की अवहेलना करते हुए कहती है। कि -‘‘वह चमारिन है, इसके कारण उसकी उसे छेड़ने की जुर्रत हुई। ऊँची जाति की किसी औरत को छेड़ने की हिम्मत भी उसे नहीं होगी। नीची जाति के लोग कमजोर और बेबस है इसी नाते उसकी दृष्टि में उनकी इज्जत-आबरू का कोई महत्त्व नहीं। वे तो उसके खेलने के खिलौने मात्र हैं।’’3

            इस प्रकार प्रेमचन्दजी की दलित मुलिया वर्गगत चेतना के लिए संघर्षरत है। मुलिया के जरिए प्रेमचन्दजी ने वर्ग भेद एवं सभ्यता के आवरण में छिपी विलासी प्रवृत्ति पर प्रहार किये हैं। प्रेमचन्दजी मानते है कि ऊँच-नीच सभी का आत्मसम्मान एक होता है और उसकी रक्षा करना हर मनुष्य का धर्म है। ‘दूध का दामकहानी में चित्रित पात्र गूदड़, भूँगी और मंगल या मंगलू भंगी जाति के हैं। छोटे और नीच जाति के होते हुए भी उसका त्याग और समर्पण बड़ी जाति वालों को भी मात कर देता है।

            बाबू महेशनाथ के घर जब चौथी बार में लड़के का जन्म हुआ तो हर कोई खुशी से झूम उठे परंतु यह खुशी ज़्यादा वक़्त नहीं टीकती। मालकिन अपने बच्चे पर ममता तो बरसा सकती है लेकिन दूध की कमी के कारण अपना दूध नहीं पीला सकती। अतः उसे भूँगी की सहायता लेनी पड़ती है। मालकिन भूँगी को गिड़गिड़ाते स्वर में कहती है -‘‘भूँगी, हमारे बच्चे को पाल दे, फिर जब तक तू जिए,  बैठी खाती रहना पाँच बीघे माफी दिलवा दूँगी। नाती पोतें तक चैन करेंगे।’’4 

भूँगी अपने बच्चे के लिए ऊपर से दूध का प्रबन्ध कर खुद के दूध का दान कर देती है। लेकिन भूँगी के दलित होने से कई सवाल खड़े हुए और आखिरकार उसका दूध छुड़वा दिया जाता है। फलतः उसके सच्चे दान का बुरा अंजाम होता है। जैसे ही दूध छुटा उसकी खुशियाँ चली गईं, राज छिन्न लिया गया। गूदड़ और भूँगी मात्र भंगी होने कारण फिर से त्रासदी को झेलने के लिए मज़बूर हो गए।

            गूदड़ ओर भूँगी के अभागे बेटे मंगल की दास्ता अमंगल रही। बचपन में ही माता-पिता की छत्रछाया खो बैठे मंगल कुत्ते की भाँति क्षुधा पूर्ति के लिए महेशनाथ के जूठन के लिए इन्तजार करता है। उसकी माँ के द्वारा महेशनाथ के बेटे को पिलाए गए दूध का यह इनाम था। इस तरह दलितों की सेवा का झूठी थाली से अधिक कोई मूल्य नहीं है।

            ‘शूद्रानामक कहानी में गंगा और गौरा दो नारी पात्र हैं। दोनों शूद्र नारियों के बीच माँ-बेटी का रिश्ता है। गंगा कहार जाति की विधवा औरत है, तो गौरा उसकी सुंदर और जवान बेटी। पड़ोस के गाँव का मँगरू गौरा को पसंद कर के विवाहसुत्र में बांध लेता है और बाद में गौरा की जाति को लेकर पछताता है। एक बार अपने बहनोई के द्वारा इस बारे में धिक्कार जाने पर मँगरू गौरा को छोड़कर चला जाता है।
            गौरा की त्रासदी का आरंभ तो उस समय होता है जब कलकते में एक बूढ़ा ब्राह्ण उसे जहाज में बैठाकर ऐसे स्थान पर पहुँचा देता है, जहाँ स्त्री को मात्र भोग-विलास का साधन ही समझा जाता है। जहाज पर यात्रियों के नाम लिखने वाला मँगरू है। मँगरू की नज़रों में गौरा आज भी देवी है। इसलिए गौरा को अंग्रजों की नज़र से बचाना चाहता है, परंतु एजेन्ट साहब की सत्ता और हंटर की मार उसे मजबूर बना देती है। गौरा आज भी मँगरू को अपना पति मानती है। इसलिए उसका भला चाहते हुए गोरे एजेन्ट के साथ रहना मंजूर कर लेती है। मँगरू इस बात को समझ नहीं सका और फिर से दलित गौरा के प्रति मन में संदेह करता है। अतः मँगरू गौरा को शूद्रा करार देता है। दूसरी ओर मँगरू के संदेह से गौरा का मन आहत होता है। इस आक्षेप से आहत गौरा वहीं नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेती है।

            किसी के अन्तर्मन को पढ़ने की भी पात्रता चाहिए, मात्र अभिजात वर्ग में जन्म लेने से पात्रता नहीं आ जाती। शूद्र गौरा में कितनी स्वच्छ एवं भावात्मक ऊँचाई है, लेकिन मँगरू का मलिन अन्तर्मन गौरा के मन पर संदेह का ऐसा आघात पहुँचाता है कि इसका कोमल हृदय सह नहीं सकता और अंत में गौरा आत्महत्या को मज़बूर हो जाती है।

            ‘सौभाग्य के कोड़ेकहानी की भंगी नथुवा अपनी जाति की दुहाई देता पड़ा नहीं रहता बल्कि कठिन परिश्रम करता हुआ इतना आगे बढ़ जाता है कि वहाँ उसकी जाति पूछनेवाला कोई नहीं होता। अर्थात रुपयें-पैसें और प्रतिष्ठा के आगे उसकी जाति गौण हो जाती है।

            नथुवा राय साहब के घर झाडू-पोछा करने का काम किया करता था। एक दिन रत्ना के पलंग पर लेटने के गुस्ताखी कर बैठता है। परिणामस्वरूप रायसाहब उसे हंटर से इतना मारते है कि नथुवा को अपने प्राण बचाने के लिए वहाँ से भागना पड़ता है। नथुवा सोचता है कि -‘‘कहाँ जाऊँ ? कहीं कोई सिपाही पकड़ कर थाने ले जाये। मेरी बिरादरी के लोग तो वहाँ रहते हैं। क्या वह मुझे अपने घर रखेंगे। कौन बैठकर खाऊँगा, काम तो करूँगा। बस, किसी की पीठ पर रहना चाहिए।’’5 यह सोचकर वह भंगियों के मुहल्ले में पहुँच जाता है। वहाँ उसे आश्रय भी मिला और उन्नति का अवसर भी। फिर उसने पीछे मुड़ के कभी नहीं देखा। अठारह साल की कड़ी महेनत ने उसे ना. रा. आचार्य बना दिया। यूरोप यात्रा के बाद लखनऊ में उसकी मुलाकात रायसाहब और रत्ना से होती है। उसकी प्रगति को देखकर रायसाहब नथुवा को अपना जामाता बना लेते हैं। अब रायसाहब के मन में नथुवा की जाति को लेकर कोई छोछ नहीं है।

            इस कहानी में प्रेमचन्दजी ने दलित जाति को कड़ी मेहनत के द्वारा ऊपर उठने का संदेश दिया है, नई आशा जगाने का प्रयत्न किया है। वर्ण व्यवस्था जन्म पर नहीं, कर्म पर आधारित होती है। हम अच्छे कर्मो से समाज में पद-प्रतिष्ठा पा सकते हैं और आज के युग में यही सबसे बड़ी आवश्यकता है।   प्रेमचन्दजी ने आगा-पीछाकहानी में दलित समस्या, शोषण या अस्पृश्यता को न उठाते हुए खुद चमार युवक भगतराम को समाज की वेश्या उद्धार के लिए प्रयत्नशील बताया गया है। जिस प्रकार हमारे लिए छोटी जाति वाले अस्पृश्य होते हैं, ठीक उसी प्रकार दलित भी अपनी जाति या बिरादरी की दृष्टि से भिन्न लोगों को तुच्छ और निम्न समझते हैं।

            दलित भगतराम के माता-पिता चौधरी और चौधराइन बिरादरी के रिवाजों को मानते हैं इसीलिए उनका मानना था कि उसकी संतान परंपरागत विवाह को स्वीकारे। वे दोनों भगतराम का विवाह तय करते हैं, किन्तु भगतराम इसका विरोध करते हुए कोकिला रंड़ी की बेटी श्रद्धा से विवाह करने की इच्छा जाहिर करता है। इस बात से नाराज़ चौधरी जान देने की धमकी देता है। किन्तु कुछ दिनों में सबकुछ ठीक हो जाता है। विवाह के एक दिन पहले ही भगतराम के मन में परंपरागत नियमों और रूढ़ियों को लेकर भ्रम पैदा होता है। वैचारिक दुनिया उसे निस्तेज बना देती है। अंततः पढ़ा लिखा भगतराम परंपरागत प्रभाव के सामने परास्त होकर अपने जीवन का अंत कर देता है।

            दलितों के पीछड़ेपन का एक कारण अज्ञानता और अंधविश्वास भी है। जब भगतराम बीमार पड़ता है तो उस वक़्त डॉक्टर के बुलाने के बजाय चौधरी मंत्र-तंत्र फूँककर इलाज करता है। वह देवता को मनाने का प्रयास करते हुए कहता है कि -‘‘डॉ. बीमारी की दवा करता है कि हवा बयार की ? बीमारी उन्हें कोई नहीं है, कुल के बाहर ब्याह करने ही से देवता लोग रूठ गये हैं।’’6

            इस प्रकार प्रेमचन्दजी ने दलितों में जन जागरण लाने का एक माध्यम शिक्षा को मानते हैं। उनके विचार में शिक्षा से ही दलित समाज में सामाजिक चेतना का उन्मेश हो सकता है। दलितों के वैचारिक उद्धार के लिए शिक्षा ही सबल माध्यम है।प्रेमचन्द युग में अस्पृश्य जाति के लिए मंदिर प्रवेश निषेध था। प्रेमचन्दजी ने इन प्रश्नों को अनेक जगह उठाया है। मंदिरों में दलितों के प्रवेश के प्रति सवर्ण का अमानवीय और कुत्सित व्यवहार इस कहानी का मूल विषय है।
    
            इस कहानी में बालक जियावन और इसकी माता सुखिया दो दलित पात्र हैं। पति की मृत्यु के पश्चात् सुखिया काफी दुःखी होती है। वह केवल अपने बच्चे के लिए ही जीती है। छोटा बच्चा उसके जीवन का संबल है। एक दिन जियावन का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। अचानक बीमार पड़े जियावन को बचाने के लिए मृत पति की स्वप्नकथानुसार सुखिया ठाकुरजी की पूजा करने का प्रयत्न करती है। मातृप्रेम में अंधी सुखिया यह भी भूल गई कि वह दलित और अस्पृश्य है। उसके लिए मंदिर प्रवेश निषेध है। यहाँ जमा लोगों ने नाराज़ होकर सुखिया को पीटना शुरू कर दिया। लातों और घूसों का मार सहती सुखिया के हाथों से बच्चा गिरकर मर जाता है। इस हादसे को सुखिया बर्दास्त न कर सकी और अंततः मूर्छितावस्था में ही उसकी मृत्यु हो जाती है।

            सुखिया चमारिन नियतिवादी न होकर साहसी और प्रतिक्रियाशील नारी है। सुखिया का पात्र दलित स्त्रियों में नयी चेतना जगाने का काम करता है। कुप्रथा का डट कर मुकाबला करते हुए अपने प्राण भी दे देने पड़े तो दे देने चाहिए। यही संदेश प्रस्तुत कर कहानी का अंत होता है।

            ‘लाछनकहानी में मुन्नू नामक एक दलित चरित्र का जिक्र है। यह ऐसा पात्र है जो दलित होने पर भी फरेबी और धोखा-धड़ी जैसे कुत्सित व्यवहार के कारण पाठकों की सहानुभूति खो बैठता है। मुन्नू मेहतर मुंशी श्याम किशोर एवं देवरानी के घर में साफ़ सफ़ाई का काम किया करता है। श्याम किशोर की गैरहाज़री में एक ओर देवरानी की खूबसूरती की प्रशंसा करता है तो दूसरी ओर किशोर के दालमंड़ीगमन के बारे में उससे झूठ बोलकर देवीरानी को रजा मियाँ के जाल में फँसाने तथा उस पर भ्रष्ट आचरण का लांछन लगाने में भी उसे शर्म नहीं आती। कभी-कभी दलित व्यक्ति के कुत्सित व्यवहार से दूसरे व्यक्ति के लोगों को काफी नुकसान झेलना पड़ता है। ऐसी घिनौनी प्रवृत्ति में बदलाव तब आता है जब वह संस्कारी और पढ़े लिखे लोगों के बीच रहने लगता है। यह तब संभव होगा जब जाति-पाँति की दीवार को गिराकर हम उसे अपनी बिरादरी में शामिल कर लेंगे।
            अशिक्षित ग्राम्य वर्ग में ही अंधविश्वास का प्रचलन हो ऐसा मानना गलत होगा। कहीं-कहीं तो अभिजात सुशिक्षित वर्ग में भी इस तरह की मानसिकता देखने को मिलती है। मूठकहानी में एंसे ही सभ्यवर्ग की मानसिकता उद्घाटित हुई है। इसमें बुद्धू चौधरी चमार है लेकिन काम ओझे का करता है। इस कार्य में बुद्धू की बूढ़िया माहिर है। वह अच्छे-अच्छों को देवता के कोप का भय बताकर अपने वश में कर लेती है। गाँव के डॉक्टर जयपाल मूठमें विश्वास करते हैं। बूढ़िया उसका फायदा उठाकर पाँचसो रुपयें वसूल करना चाहती है। वह डॉक्टर से कहती है -‘‘आप बहुत देंगे, सो-पचास रुपयें देंगे। इतने हमें कै दिन तक खाएँगे। मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है।’’7 बूढ़िया को आर्थिक चिन्ता है इसलिए डॉक्टर की मज़बूरी का फायदा उठाकर ज़्यादा से ज़्यादा पैसा ऐठना चाहती है।

            ‘कफ़नप्रेमचन्दजी की यथार्थवादी दृष्टिकोण से लिखी सर्वश्रेष्ठ कहानी है। प्रेमचन्दजी ने इस कहानी के पात्र घीसू और माधव के द्वारा चमार जाति की आर्थिक दुर्दशा का जीवन्त चित्र खींचा है। चमारों का कुनबा गाँव भर में बदनाम है। माधव की पत्नी प्रसव वेदना से पछाड़ खा रही है, चीत्कार रही है जिससे माधव और घीसू का कोई लेनादेना नहीं है। बुधिया को जीवनपर्यन्त तो नवीन वस्त्र प्राप्त न हो सका किन्तु मृत्युपरान्त भी उसके लिए कफ़न की व्यवस्था न हो सकी। इस प्रकार कहे तो बुधिया बदकिस्मत दलित नारियों का प्रतीक है, जिन के लिए कफ़न खरीदने की शक्ति भी दलितों में नहीं होती।

            भूख व्यक्ति का ज्वलंत और सभी भावनाओं से महत्त्वपूर्ण समस्या है। भूख मनुष्य की पहली चिन्ता का कारण भी है इसलिए दोनों कफ़न के पैसे से मदिरालय में भरपेट खाना खाते है। दरअसल उनकी दीनता के लिए हमारी समाज व्यवस्था को कारणभूत मानते हुए प्रयागराम मेहता लिखते हैं -‘‘घीसू और माधव के जीवन की स्थितियाँ ही उनको मनुष्यता से वंचित कर रही है। युगों से शोषण, युगों की भूखमरी और शताब्दियों के दारिद्रय ने इनके दिलों की कोमलतम धड़कन को दबा दिया है। प्रेम, दया, करूणा, आत्मसम्मान, मातृत्व आदि समस्त मानवीय गुण इनकी दोज़ख की आग में भस्म होते जा रहे हैं। सामाजिक व्यवस्था ने घीसू और माधव से उनकी मनुष्यता को छीनकर, इन्हें पशु से भी बदत्तर बना दिया है।’’

विध्वंसहमारे आसपास हो रहे दमन के खिलाफ संघर्ष की कहानी है। इस कहानी के अधिकांश पात्र चमार जाति के हैं। इसमें स्वाधीनतापूर्व हो रहे जमींदार और महाजनों के अत्याचारों को रेखांकित किया गया है। ‘विध्वंसकी नायिका विधवा भुगनी गोंडिन है। भुगनी गोंडिन भूमिहीन और बेघर है। उसने दाना भूनने का व्यवसाय अपना रखा है। इस काम से भुगनी को दो वक़्त की रोटी मिल जाती है। गाँव के जमींदार पण्डित उदयभान के कारिन्दे बेगार न देने के अपराध में भुगनी का भांड़ खोद डालते हैं। भुगनी निरावलंबन हो जाती है। भूख-प्यास से परेशान बुढ़िया निडर होकर एक दिन अपना भांड़ पुनः बनाना शुरू करती है कि जमींदार की नज़र उस पर पड़ जाती है। गुस्से से बेकाबू जमींदार भुगनी द्वारा जमा किए पत्तियों के ढेर में आग लगा देने का आदेश देता है। अंत में वह भांड की आग मे स्वयं भी मर जाती है।

            कहानीकार ने यहाँ पर तत्कालीन समाज का यथार्थ चित्रण किया है। जमींदार वर्ग का उस समय इतना अधिक आतंक रहा होगा कि कोई भी दलित उनकी अवज्ञा नहीं कर सकता। दलित भुगनी जमींदार की गुलामी न कर स्वतंत्र जीवन जीना चाहती थी, किन्तु जमींदार उसे गुलाम ही बनाये रखना चाहते थे। आखिरकार भुगनी अपने जीवन को समाप्त कर हमेशा के लिए आज़ाद हो जाती है। ‘सद्गतिअभिजात वर्ग की दलित वर्ग के प्रति कुत्सित सोच की यथार्थ कहानी है। इस कहानी के पात्र दुःखी और झुरिया चमार होने के कारण गाँव के ब्राह्मण देवता के द्वारा शोषित एवं अछूत हैं। दुःखी अपनी बिटिया की सगाई का मुहूर्त निकलवाने पण्डित के घर जाता है। वहाँ उसे भूखे पेट बेगार करना पड़ता है। दुःखी पण्डितजी से इतना दब जाता है कि उनका काम करते करते सद्गति को प्राप्त हो जाता है।

            वर्ण व्यवस्था और अस्पृश्यता के आधार पर दुःखी की बली चढ़ जाती है। चरमसीमा तो तब आती है जब नेमधरम से रहनेवाले ब्राह्मण चमार की खटोली पर न बैठ सकता है और न ही सीधे भरी थाली को स्वीकार सकता है। वहीं ब्राह्मण आँगन में पड़ी दुःखी की लाश के पैर में फँदा डालकर रस्सी को पकड़कर लाश को घसीटते गाँव के बाहर फेंक आता है। इस प्रकार सद्गतिकहानी दलित की दुर्गति का द्योतक है।

              प्रेमचन्दजी द्वारा लिखी कहानियाँ भले ही दलित कहानियाँ न कही जाये, परंतु दलित संवेदना की कहानियाँ जरुर कही जा सकती है। प्रेमचन्दजी खुद ग्रामीण परिवेश से संबंधित हैं और उन्होंने दलित एवं गरीब लोगों की दशा एवं शोषण को बहुत निकट से देखा है। प्रेमचन्दजी के दलित चिन्तन के आधार पर कहें तो दलितों की दयनीय ज़िन्दगी और दुर्गति के जितने भी कारण मिलते हैं उनमें शोषण, अज्ञानता और अशिक्षा प्रमुख हैं। 
   
संदर्भ सूची :
1. प्रेमचन्द, मानसरोवर भाग : 1, ठाकुर का कुआँ, पृ. 107
2. प्रेमचन्द, मानसरोवर भाग : 1, घासवाली, पृ. 112
3. प्रेमचन्द, मानसरोवर भाग : 1, घासवाली, पृ. 114
4. प्रेमचन्द, मानसरोवर भाग : 2, दूध का दाम, पृ. 153
5. प्रेमचन्द, मानसरोवर भाग : 3, सौभाग्य के कोड़े, पृ. 175
6. प्रेमचन्द, मानसरोवर भाग : 4, आगा-पीछा, पृ. 91
7. प्रेमचन्द, मानसरोवर भाग : 8, ठाकुर का कुआँ, पृ. 97
संदर्भ ग्रंथ :
1. प्रेमचन्द का कथा साहित्य : दलित चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में, डॉ. अर्चना घोटे, अमन प्रकाशन,  
    कानपुर
2. दलित साहित्य का मूल्यांकन, प्रो. चमनलाल, राजपाल प्रकाशन, कश्मीरी गेट, दिल्ली

3. प्रेमचन्द एक विवेचन,  डॉ. इन्द्रनाथ मदान,  राधाकृष्ण प्रकाशन, इलाहाबाद

 डॉ.संजय बी आसोदरिया
एसोसिएट प्रोफेसरहिन्दी विभाग,पटेल महिला कॉलेज, ऊँझा
जिला-महेसाना,गुजरात
संपर्क-9586505380,sasodariya@gmail.com

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