नाटक:तमाशा मिरे आगे (दूसरी कड़ी) - धीरज कुमार

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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नाटक:तमाशा मिरे आगे  (दूसरी कड़ी)
जब चच्चा ग़ालिब और मियाँ मंटो कबीर से मिले 

किरदार 

कबीर बनारसवाले 
सआदत हसन मंटो 
मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ 'ग़ालिब'
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 



पहला दृश्य 

सुबह-सुबह का आलम है और मौसम थोड़ा ख़ुशनुमा है। पत्ते आपस में अठखेलियाँ कर रहे हैं और परिंदे अब भी गा रहे हैं, जैसे कोई बिछड़कर गया हो पर उसकी विरह की आग अभी भी धीमी आंच पर जल रही हो। ऐसे में इक और आवाज़ सुबह की रागिनी से आकर जुड़ जाती है। 

साधो! साधो! देखो, जग बौराना 
साधो! साधो!
साँच कहो, तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना
साधो! साधो! देखो, जग बौराना
एक उम्रदराज़ इंसान (कबीर) मदमस्त होकर गाते हुए चला जा  रहा है और ऐसे में  इक आवाज़ की आमद।  

मंटो- (हाँफते हुए) बाबा! अरे! रूक भी जाओ। अब हमसे चला नहीं जाता है। 

ग़ालिब- हाँ,चलते हुए कहीं अब दम ही न निकल जाए भला!

मंटो- ज़िंदगी थम जाए हमारी, इससे पहले तुम थम जाओ, तो मेहरबानी हो बाबा।  

ग़ालिब- इतने दिनों से तुमको ढूँढ-ढूँढ कर थक गए हैं, तो अब जाके आज तुम इस सुबह के आलम में गुनगुनाते हुए नज़र आए हो। 

मंटो- और नहीं तो क्या? ऐसा लगा तुमको ढूँढते हुए इस जगह पर भी ज़माने न गुज़र जाए। 

कबीर- तुमदोनों तबसे बोले ही जा रहे हो? मुझे कुछ कहने का मौक़ा भी दोगे भला। 

 (मंटो-ग़ालिब दोनों एक साथ बोल पड़ते हैं  - इसी का तो हमें इंतिज़ार था कि तुमसे मुलाक़ात हो और तुम कुछ कहो। )

कबीर- कौन हो तुमदोनों? और भला मुझे कैसे जानते हो? मैं तो दिमाग़ पर कितना भी ज़ोर डालूँ, तुमदोनों का चेहरा याद नहीं आता है। ऐसा नहीं लगता है कि मैंने तुम्हें कभी देखा भी हो। और फिर तुम्हारी दुनिया से आए हुए, तो सदियाँ गुज़र गयीं। 

मंटो- हाँ, सो तो है मगर अब भी तुम्हें वहाँ याद किया जाता है। 

ग़ालिब- बनारस से लेकर दिल्ली तक, लखनऊ से लेकर कलकत्ते तक। 

मंटो- अरे! चच्चा, यूँ कह लीजिए कि हिंदुस्तान से लेकर पाकिस्तान तक। कितना हर शहर का नाम लें भला, जीभ ही दुखने लगेगी। 

ग़ालिब - हाँ ये भी ठीक ही है कि तुम्हें (कबीर की तरफ़ इशारा करते हुए) कौन नहीं जानता है!

कबीर - कुछ देर ठहरो ज़रा। क्या कहा तुमने हिंदुस्तान से लेकर पाकिस्तान? 

मंटो - हाँ!

कबीर - ये पाकिस्तान कौन से भूत का नाम है? हिंदुस्तान में कोई नया शहर बना है क्या? मेरे जीते जी, तो ऐसा कोई नाम मैंने कभी नहीं सुना। 

ग़ालिब (आह भरते हुए और और थोड़े उदास लहज़े में) - देखा तो मेरी आँखों ने भी नहीं था और सुना तो मेरे कानों ने भी नहीं था। पर मंटो कहता है कि अब ये हक़ीक़त है। 

कबीर - अब ये मंटो कौन है भैया? कभी मंटो, कभी पाकिस्तान? ये नया-नया नाम क्या है? तुमलोग शब्दों से खेलना बंद भी करोगे?

मंटो- जी! मेरा नाम सआदत हसन मंटो है पर लोग मुझे बस मंटो कहते हैं? 

(ग़ालिब किसी ध्यान में खो से गए नज़र आते हैं और मंटो उनकी जानिब कबीर को बताते हुए कहते हैं।)

मंटो (ग़ालिब की तरफ़ इशारा करते हुए) - और ये हैं मिर्ज़ा असदुल्लाह खां 'ग़ालिब'!

ग़ालिब - जी! बदनसीब ग़ालिब जिसके काँधे 1857 की जंग में अपने ही लोगों की लाशों का बोझ उठाए घूमते रहे मगर कमबख़्त को मौत भी न आई और दिल्ली!  
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता।


कबीर - क्या हुआ दिल्ली को? दिल्ली तो बड़ी बोलती है। वैसे बनारस भी किसी से कम नहीं है भैया, ई बात भी मान लो। 

ग़ालिब (याद की किसी गहरी गुफा में जाते हुए)  -  बनारस! बनारस तो चराग़-ए-दैर है। बनारस तो भई काबा-ए-हिंदुस्तान है। बनारस जाओ, तो यूँ लगता है, जैसे मंदिरों की किसी घाटी में क़दम पड़े हों और गंगा! गंगा तो बस इन सबका ख़्याल रख रही हो जैसे, बिना कुछ कहे, बिना कुछ माँगे।   

कबीर- तुम बड़ा जानते हो बनारस को भाई।  

ग़ालिब - हाँ, कलकत्ते जाते हुए बनारस से गुज़रना पड़ा था। पर जब गुज़रा, तो यूँ लगा की लम्हें ठहर सकते थे, तो कितना अच्छा होता पर ऐसा होता नहीं न और फिर ग़म-ए-रोज़गार के लिए वहाँ से आगे कूच करना ही पड़ा। और ज़िंदा होता, तो बनारस और जाता। बनारस और वहाँ की सुबह बस पूछो मत। 

कबीर - अच्छा, एक बात समझ में आ गयी कि तुम मंटो (मंटो की ओर इशारा करते हुए)  और तुम ठहरे ग़ालिब(ग़ालिब की ओर इशारा करते हुए)।

(ग़ालिब और मंटो दोनों एक साथ बोल पड़ते हैं - जी! जी! बिलकुल सही)

कबीर - अच्छा! ये बात समझ आ गई मगर ये 'पाकिस्तान' क्या है और लोग मुझे वहाँ कैसे जानते हैं, जबकि मैं तो किसी पाकिस्तान-वाकिस्तान को नहीं जानता हूँ भला। 

ग़ालिब - भाई मंटो, अब तुम्हीं बताओ ये दर्दनाक हादसा। मैं क्या कहूँ, जो मैंने देखा नहीं। मगर महसूस कर पाता हूँ तुम जब भी तुम बताते हो मुझे। 

मंटो - जैसा आप ठीक समझें चच्चा! (कबीर से मुख़ातिब होते हुए)  बाबा पाकिस्तान एक नया मुल्क बना है, एक नया देस। हिंदुस्तान के अब टुकड़े हो गए हैं। कई साहिबान को एक नया मुल्क चाहिए था, जहाँ मुसलमान अपनी आज़ादी को पूरे तरह से महसूस कर सकें और उन्हें किसी और का कोई ख़ौफ़ न हो। मगर अफ़सोस कि अब वही सियासत के तवे पर भुन रहे हैं। 

कबीर -  हिन्दू कहत, राम हमारा, मुसलमान रहमाना 
        आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।
        साधो देखो जग बौराना। 
(कबीर ये गाते-गाते मदमस्त होकर नाचने लगता है, और इस तरह कब वक़्त कब निकल गया, न मंटो, न ग़ालिब और न ही कबीर को पता चला। कबीर गाते-झूमते वहाँ से धीरे-धीरे ओझल हो जाता है और मंटो-ओ-ग़ालिब उसके पीछे बाबा-बाबा पुकारते हुए चले जाते हैं।)

दूसरा दृश्य 
(इस तरह मंटो, कबीर और ग़ालिब का एक दिन यूँ ही गुज़र गया और फिर अगले दिन यूँ भटकते हुए तीनों फिर से टकरा जाते हैं और इस दफ़े उनकी मुलाक़ातजन्नतनगर और जहन्नमपुर के बीच से गुज़रनेवाली वाली राह पर होती है, जहाँ एक दरख़्त के नीचे बैठा कबीर परिंदों को कुछ सुना रहा था और इसी आवाज़ को सुनते हुए ग़ालिब और मंटो कबीर तक पहुँच जाते हैं और कबीर अब भी गा रहा था -

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या 
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या।

और गाते-गाते कबीर यूँ ही चुप हो जाते हैं)

मंटो - तुम चुप क्यों हो गए?

ग़ालिब - हमदोनों तो क्या परिंदे भी तुम्हें कान लगाकर सुन रहे हैं। 

कबीर - भाई मंटो चुप्पी तो शाश्वत सत्य है और हम सबको एक दिन चुप ही हो जाना होता है। यूँ लगता है जैसे जीवन एक मुँह है, जो बोलते-बोलते बस एक दिन चुप्पी साध लेता है, जैसे वो बोलकर थक जाता है और फिर हमसब यहाँ इस दुनिया में जमा हो जाते हैं। इन राहों पर आकर भटकना पड़ता है।  

(कबीर की इतनी बात सुनकर मंटो-ओ-ग़ालिब पल भर के लिए चुप से हो गए।)

कबीर - अच्छा! कल से एक बात मेरे दिमाग़ में मधुमक्खी की तरह मंडरा रही है कि तुमदोनों यहाँ जन्नतनगर और जहन्नमपुर के बीच में क्या कर रहे हो? 

मंटो - जन्नतपुर और जहन्नमपुर वालों ने अंदर जाने की हमारी अर्ज़ी ठुकरा दी है। चच्चा तो न जाने कितने सालों से यहाँ यूँ ही दोनों दरवाज़े के बीच चक्कर काट रहे हैं। मेरे तो कम-अज़-कम अभी कुछ ही साल हुए हैं। 

ग़ालिब - अब इन रास्तों पर भटकते रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं है।  
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ। 

मंटो - पर यहाँ तो मौत के बाद भी कहीं निजात का नामोनिशाँ नहीं है। 

कबीर - उनलोगों ने तुमदोनों की अर्ज़ी ठुकराने की वजह क्या बताई?

ग़ालिब - जन्नतनगर में हमसे बोला गया कि हमदोनों लिखनेवालों की फ़ेहरिस्त में आते हैं इसलिए हमारा पत्ता काट दिया गया। 

कबीर - एक बात बोलूँ?

मंटो - बोलिए-बोलिए। 

कबीर - ये जन्नतवाले हम दुनियावालों से बहुत ख़ौफ़ खाते हैं। बहुत ही ज़्यादा डर है इनमें। ये डर कुछ ऐसा ही है, जैसे ज़मीं पर किसी मौलवी, किसी पंडित के ख़िलाफ़ बोल दो, तो वो धर्म के ख़िलाफ़ समझा जाता है और फिर तुम्हारा क्या होगा, पता नहीं। अगर तुमने धर्म ही के ख़िलाफ़ कुछ बोल दिया, तो फिर तुम्हारे दिन लद गए समझो। नहीं लदे, तो ये सब धर्मवाले लाद देंगे या लदवा देंगे। 

ग़ालिब - इस जन्नत में वही रह सकता है, जो अपना मुँह सीलकर रख ले वरना आदम की तरह बाहर भेज दिया जाएगा। 

मंटो - इससे अच्छी तो अपनी ही दुनिया थी। परेशानियाँ थीं, तो लड़नेवाले भी थे। यहाँ तो तनाशाही है। कोई कुछ बोलनेवाला नहीं है इनको। न ये सुनते हैं, न कुछ जवाब ही देते हैं ढंग का। यहाँ की अदालत, तो हमारी दुनिया की अदालत से भी गई-गुज़री है। 

कबीर - अच्छा ये बताओ कि जहन्नमपुर गए, तो वहाँ उन्होंने क्या कहा?

मंटो - उन्होंने यूँ फ़रमाया कि हमारे ज़िंदगी की रसीद पर ख़ून-ख़राबे जैसी कोई चीज़ दर्ज़ नहीं है, तो अन्दर आने की इजाज़त भला कैसे दी जा सकती है।  

ग़ालिब - बीच का तो कोई रास्ता नहीं छोड़ा इन्होंने। हम तो इंसान हैं, तो ग़लतियाँ हुई ही होंगी मगर न तो जन्नतवालों को ये समझ आया और न ही जहन्नमवालों को। 

मंटो - एक बुद्ध थे, जो मध्यम मार्ग की बात करके चले गए, बीच के रास्ते की बात कहके चले गए और यहाँ इन्हें ये बात आजतक समझ न आई। 

कबीर - कहाँ समझ आनी थी ये बात कि हर बात ‘ये’ या ‘वो’ की तरह नहीं होता है, बल्कि बीच में बचे रहने की गुंजाइश भी होती है।

ग़ालिब - लेकिन ये बात इन कमबख़्तों को समझाए कौन! 

कबीर - पर तुमलोग मुझे क्यों ढूँढ रहे हो भाई?

मंटो - क्योंकि जब हमारा ये हाल है, तो तुम्हारे साथ क्या किया होगा इनलोगों ने? यही सोचकर ढूँढते हुए आ गए। एक से भले दो, दो से भले तीन। तुमको तो जीते जी पंडितों ने गालियाँ बख़्शीं और मौलवियों ने लानतें भेजीं। तुम्हारे ख़िलाफ़ उन कमबख़्तों ने यहाँ भी शिकायत ज़रूर दर्ज़ करवाई होगी, है न!

(कबीर थोड़ी देर ख़ामोश रहा और हौले-हौले मुस्कुराता रहा। सब ख़ामोश हो गए और ये चुप्पी फिर से टूटी, कुछ यूँ) 

मंटो - तुम्हारी अर्ज़ी का क्या हुआ? क्यों ठुकराई गई थी वैसे?

कबीर - मेरी अर्ज़ी? काहे की अर्ज़ी? 

ग़ालिब - अरे! वही अंदर जाने की अर्ज़ी।

मंटो - जन्नतनगर या जहन्नमपुर में अंदर घुसने की अर्ज़ी। 

ग़ालिब - इंसानों के लिए इन बंद दरवाज़ों में दाख़िल होने की अर्ज़ी। 

कबीर - अरे! भाई शांत भी हो जाओ। मैं ठहरा निपट अनपढ़। अर्ज़ी-वर्ज़ी नहीं दी मैंने कोई? 

ग़ालिब - फिर अब तब से यूँ ही चक्कर काट रहे हो। 

कबीर - भटकना मेरी फ़ितरत है और चलते जाना मेरी आदत।  

मंटो - फिर भी एक बार कोशिश तो करनी ही थी। 

कबीर - मैंने कोई कोशिश नहीं की क्योंकि मुझे कहीं किसी छत्त की ज़रुरत नहीं है, जहाँ शाम होती है, वहीं सुबह कर लेता हूँ और ऐसे ही ज़िंदगी काट ले रहा हूँ।  

ग़ालिब - पर कुछ तो कहा होगा इन्होंने ?

कबीर - वैसे कहा तो कुछ भी नहीं मगर ये डिबिया थमा दी थी मुझे, ये कहते हुए कि मुझे अंदर जाने को मना किया गया है।   
 (इतना कहकर कबीर पत्थर की छोटी से संदूक जैसी डिबिया ग़ालिब को थमा दी।)

मंटो - क्या है इसमें चच्चा?

ग़ालिब - (खोलते हुए) कोई पर्ची है शायद!

मंटो - दिखने से ऐसा लग रहा है कि कुछ लिखा है इसमें। 

ग़ालिब - हाँ, लिखा तो है। 

मंटो - फिर पढ़िए ज़रा। बुलंद आवाज़ में। 

ग़ालिब - (बुलंद आवाज़ में पढ़ते हुए) 
                             “कबीर बनारसवाले, जिन्हें मगहर में मरने का बड़ा शौक़ पैदा हुआ था, को इत्तिला किया जाता है कि ज़मीन पर रहकर तुमने पवित्र पंडितों और पाक मौलवियों का मज़ाक़ उड़ाया है। तुमने उनपर अपने तेज़ ज़बान की छुरी चलाई है। तुमने उनकी भावनाओं को घायल किया है और उनके एहसासों को आहत। सारे काम इंसानी हक़ में किए और उन बेचारे 'मासूम' ब्राह्मणों और मौलवियों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की। इससे धर्म को ख़तरा पैदा हुआ और मज़हब का नुक़सान हुआ। तुम्हारा सारा काम धर्मवालों के ख़िलाफ़ था। सारे पंडित और मौलवी तुमसे आजतक नाराज़ चल रहे हैं। धर्म की जो ठेकेदारी उन्हें सौंपी गई थी, उस ठेकेदारी को चलने में तुमने दिक़्क़त पहुँचाई है। इससे यही ज़ाहिर होता है कि तुम अपने ऊपर के रहनुमाओं की सुनते नहीं हो, इससे समाज का ताना-बाना बिगड़ जाता है। तुमने उनके कर्मकांडों पर हमला किया, इससे समाज में ‘धर्म की हानि’ होती है। तुम तो ठहरे अनपढ़, तुम इन बड़ी-बड़ी किताबों का मतलब क्या जानो। हाँ, उन किताबों का मतलब तुम क्या समझोगे, जो इन 'महान' पंडितों और मौलवियों ने पढ़ी हैं।  
इसलिए ये फ़रमान जारी किया जाता है कि तुम्हें कहीं भी जगह न दी जाए क्योंकि तुम ‘राज्य’ और ‘धर्म’ के ख़िलाफ़ बातें करते हो। जिन पंडितों और मौलवियों को जीते जी परेशान किया, जिनके नाक में दम करके रखा, उन 'महान रूहों' को कम-से-कम यहाँ तुमसे राहत दी जा जाए। 
पंडितों और मौलवियों के जमघट का मुखिया” 

( कबीर इतना सुनते ही खिल-खिलाकर हँस पड़ता है और कहता है) 

कबीर- ये मुखिया नहीं है, मूर्खानंद है। 
      बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना  
      करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना।
                     साधो! साधो! देखो, जग बौराना 
साधो! साधो!
साँच कहो, तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना
साधो! साधो! देखो, जग बौराना


मंटो - अरे! अहमक़ हैं सबके-सब। 

ग़ालिब - पर ये बनारस और मगहर का चक्कर क्या है और इस फ़रमान में 'मगहर' में मरने पर ताने क्यों मारे जा रहे हैं?

कबीर - भाई ग़ालिब! कहा जाता है कि बनारस में मरोगे, तो मोक्ष मिलेगा, मुक्ति मिलेगी और मगहर में मरोगे, गधे बन जाओगे। अब तुम बताओ ऐसा होता है भला? जगह तो बस जगह होती है। इनलोगों ने उसे भी छुआछूत का शिकार बना दिया।

मंटो - और नहीं तो क्या! ऐसा लगता है मगहर जैसे शापित जगह हो। 

कबीर - मेरे ज़माने में किसी बनारसी से बनारस की कोई बुराई कर दो, तो पता है क्या ताने मिलते थे?

ग़ालिब - ताना? कैसा ताना? हमें भी तो पता चले। 

कबीर - यही कि बनारस पसंद नहीं है, तो मगहर क्यों नहीं चले जाते।  
 (इतना सुनते ही तीनों ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।)  

कबीर - ख़ैर, अब ये मजमा हटाओ और चलो अब चलते हैं।  




(कबीर उठता है और गाते हुए निकल जाता है -
           रहना नहीं देस बिराना है। 
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।) 

(कबीर के साथ मंटो और ग़ालिब भी गाते हुए चलते हुए नज़र आ रहे हैं।)

- अगली कड़ी में पढ़िए क्या हुआ जब अचानक एक दिन इन्हीं राहों में इन सबसे फ़ैज़ टकरा गए। 



धीरज कुमार
शोधार्थी (फ्रेंच विभाग)
अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद
संपर्क 09618544072,dheeru.ghazal@yahoo.com

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