प्रवासी दुनिया:प्रवासी विमर्श और सुषम बेदी का उपन्यास – डॉ. विशाला शर्मा

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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प्रवासी दुनिया:प्रवासी विमर्श और सुषम बेदी का उपन्यास – डॉ. विशाला शर्मा

चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 
प्रवास की क्रिया एक ही समय व्यक्ति, देश और विदेश से सम्बंधित है। कई बाद देश के लोग देश की आर्थिक अस्थिरता वाली स्थिति में प्रवास धारण करते हैं। प्रवास के कई कारण और आयाम रहे हैं। हमे ज्ञात है कि ’’उन्नीसवीं शताब्दी में मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, गयाना एवं ट्रिनिडाड आदि देशों में छल-कपट से हजारों की संख्या में भारतीय मजदूरों को गिरमिटिया प्रथा अर्थात शर्तबन्दी कानून के अंतर्गत भेजा गया था। ये सभी भारतीय मजदूर लगभग एक ही जैसी परिस्थितियों में कलकत्ता तथा मद्रास के बन्दरगाहों से जहाज पर जानवरों की तरह लादकर उपरोक्त देशों मे भेजे गए। कुछ तो रास्ते में ही मर गये, शेष बुरे हाल में पहुंचे और उन्हें गोरे मालिकों को सौंप दिया गया। ये अधिकांश भारतीय मजदूर पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा बिहार के थे। कुछ दक्षिणी भारत और महाराष्ट्र के भी थे। इनमें से कुछ लोग अपने साथ ’रामचरित मानस’, ’हनुमान चालीसा’, ’आल्हा’, ’सत्यनारायण कथा’, ’श्रीमद् भागवत कथा’ आदि लेकर गए, जिससे इनमें कष्टें को सहने का साहस, भाषा एवं संस्कृति के प्रति प्रेम बना रहा।’’१

ये सभी धार्मिक एवं सांस्कृतिक ग्रन्थ शोषण और अत्याचार को सहन करते हुए उनकी जीवन शक्ति के स्त्रोत थे। अपनी भाषा व संस्कृति की रक्षा इन गिरमिटिया मजदूरों ने की। विश्व में फैले इन भारतवासियों से सम्पर्क का रास्ता महात्मा गांधी ने खोला। १९ वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारतीयों की मदद के लिए वे दक्षिण अफ्रीका  तथा मॉरिशस भी गये थे। 

पराये देश में जाकर उनकी सभ्यता एवं संस्कृति के साथ तालमेल बिठाना सरल नहीं होता कई समस्याओं का सामना व्यक्ति को करना होता है। ऐसे में प्रवास कर विदेश गया व्यक्ति ’नास्ट्रेलिज्या’ का शिकार हो जाता है अर्थात् अपने घर, राज्य या राष्ट के प्रति एक मोहोविष्ट स्थिति। गृह वियोग और फिर अतीत की यादों में खो जाना, अपनी पहचान गंवाने का गम उसे घेर लेता है किन्तु कई ऐसे व्यक्ति हैं, जिनमें लिखने की प्रतिभा है, वे अपने परिवेश के यथार्थ को अपनी रचनाओं में उतारते हैं और विदेशों में रहकर भी साहित्य की सेवा करते हैं। इस तरह प्रवासी भारतीय साहित्य को हम भारतीयता के विस्तार के रूप में देखें। जिस तरह दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श को साहित्य में स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। उसी तरह प्रवासी साहित्य हिन्दी साहित्य की एक धारा है और नवयुग का साहित्यिक विमर्श है और इसकी खास विशेषता है विदेशी भूमि पर बैठ कर लिखने के बाद भी इसमें देशीपन है और यह इस बात का द्योतक है कि परायी संस्कृति और समाज के बीच रहकर हम अपनी मातृभूमि को नहीं भूलते। प्रवासी साहित्य के अवलोकन के पश्चात यह स्पष्ट होता है कि महिला साहित्यकारों की भागीदारी पुरुष साहित्यकारों से अधिक है और स्त्री द्वारा लिखित साहित्य में यथार्थ है, संवेदना है और अपना विशिष्ट कथ्य है। 

अमेरिका में सुषम बेदी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, अनिल प्रभा कुमार, सुधा ओम ढींगरा, रेनू राजवंशी गुप्ता, पुष्पा सक्सेना, प्रतिभा सक्सेना, इला प्रसाद, रचना श्रीवास्तव एवं आस्था नवल वहीं ब्रिटेन से जकिया जुबैरी, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, अचला वर्मा, नीना पॉल, उषा वर्मा का साहित्य सुन्दर ढंग से प्रस्तुत हुआ है। पराये देश में जाकर अपनी लेखनी द्वारा परिवेश के यथार्थ को उकेरने की कला में सिद्धहस्त एक नाम है सुषम बेदी का, जो कथा साहित्य की एक सशक्त हस्ताक्षर है, वह अमेरिका के शहर न्यूयार्क में रहती हैं। १९८५ से २००९ तक वह कोलंबिया यूनिवर्सिटी में हिन्दी और उर्दू प्रोग्राम के डायरेक्टर के पद पर कार्यरत रहीं। आज-कल वह कोलंबिया और न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं उनके कुल सात उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। तीस वर्षों के लंबे प्रवास के दौरान सुषम बेदी ने भारतीयों के जीवन को बड़ी नजदीकी से देखा और परखा है। 

’हवन’ १९८९ में लिखा गया सुषम बेदी का प्रथम उपन्यास है, साहित्यिक पत्रिका ’गंगा’ में धारावाहिक के रूप में प्रकाशित होने के साथ-साथ उर्दू तथा अंग्रेजी में इसका अनुवाद भी हुआ है। विदेशी सभ्यता की भौतिक चमक-दमक से आकर्षित होकर विदेश जाने वाले व्यक्ति वहां पहुंचकर उल्लास और आनंद को प्राप्त करने के प्रयास में अपने जीवन को कैसे होम कर रहे हैं, उनकी मनःस्थिति वैसी है इसका बेजोड़ चित्रण हवन में हुआ है। पिंकी जो न्यूयार्क में वास कर रही है, उसके पास रोजगार को तलाशती उसकी बहन गुड्डो अपने पति की मृत्यु के पश्चात जाती है। अपनी दोनों बेटियों को होस्टल छोड़ अपने बेटे राजू को साथ लेकर संघर्षमय जीवन की शुरुआत गुड्डो करती है। भारत में पला-बढ़ा राजू विदेशी परिवेश से अनभिज्ञ है, वह अकेलेपन का शिकार होता चला गया। बहन के परिवार के साथ ज्यादा समय वह नहीं रह पाती और सेल्सगर्ल का काम करते हुए जीवन का निर्वाह करती है। दोनों बेटियां जब अमेरिका छुट्टियां बिताने आती हैं तो वहां की चमक-दमक खुलेपन से प्रभावित होती है। भारतीय डॉक्टर से विवाह के पश्चात वे भी अमेरिका आ जाते हैं। सारा परिवार अमेरिका में इकट्ठा रहने लगता है और विदेशी रंग में खो जाते हैं। नतीजा एक बेटी का रिश्ता सदैव के लिए अपने पति से टूट जाता है। वही राधिका जैसी पात्र की दुखद गाथा भी उपन्यास में है, जो विदेशी चमक-दमक में इतना खो जाती है कि अंत में बलात्कार का शिकार होती है। निश्चय ही ’हवन’ में सभी की पूर्णाहुति स्पष्ट नजर आती है।
अपने जीवन को आर्थिक तंगी से बचाने के लिए प्रवासी भारतीयों को छोटी-छोटी नौकरियों में धक्के खाने पड़ते हैं। भारत में स्त्री चाहे काम करे या न करे किन्तु उसका रुतबा पति के ओहदे से ही होता है। किन्तु विदेश में इन बातों के कोई मायने नहीं है। यहां स्त्री हो या पुरुष उसकी पहचान केवल अपने व्यक्तित्व से होती है। शुरू-शुरू में विदेश पहुंचे भारतीयों को निम्न स्तर की नौकरियां करना बहुत मुश्किल लगता है बाद में मजबूरी उन्हें प्रत्येक कार्य करवाती है ऐसा ही गुड्डो के साथ होता है-

’’पिंकी के जान-पहचान के एक हिंदुस्तानी ने तभी-तभी पिंकी के घर से तीन-चार ब्लॉक दूर अंडरग्राऊंड ट्रेन स्टेशन के प्लेटफार्म पर एक अखबार मैगजीन और  सिगरेट आदि बेचने का स्टॉल लगाया था। उसे एक सेल्सपर्सन की जरूरत थी। तनख्वाह दूसरे स्टोरों की सेल्स की नौकरियों से कुछ ज्यादा थी, ओवरटाइम की भी सँभावना थी। स्टॉल सुबह से लेकर रात बारह-एक बजे तक खुला रहता था। मन विरोध तो कर रहा था कि अखबार बेचने का काम इतने बड़े अफसर की बीवी करेगी...पर हाथ में धेला तक तो था नहीं। शहर में आने-जाने का किराया तक तो वह पिंकी से लेती थी। गुड्डो ने शुरू कर दिया काम।’’ २

’लौटना’ सुषम बेदी द्वारा लिखित दूसरा उपन्यास है। ’लौटना’ एक औरत की अस्मिता की खोज की कहानी है, जो एक नए परिवेश में टिकने के लिए एक सही बिंदु तलाश रही है। नायिका मीरा का विवाह विजय से होता है अब वह अमेरिका पहुँचती है। वह एक नर्तकी है उसे अपने शौक को आगे बढ़ाना है, किन्तु मशीनी जिन्दगी में उसकी ख्वाहिशें पिस कर रह जाती है। पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए उसे अपनी इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता है। अब पति भी उसकी ओर से मुंह मोड़ लेता है। इस उपन्यास में बदलते रिश्तों के यथार्थ की पर्तों को खोला गया है। 

विदेशी शिक्षा को सदैव ऊँचा माना गया है। जबकि भारतीय शिक्षा के स्तर को निम्न माना जाता है। प्रवासी भारतीय लोग इस हीन भावना के शिकार हो जाते हैं। इस ज्वलंत समस्या को सुषम बेदी ने ’लौटना’ उपन्यास के माध्यम से स्पष्ट किया है। मीरा भारत से पीएचडी करके विदेश जाती है परन्तु यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर उसे कहते हैं देखो, हिन्दुस्तान से पीएचडी कर लेना कोई बड़ी बात नहीं। ’’यह सुनकर मीरा का सारा आत्मविश्वास जड़ से हिल गया अपनी भारतीय शिक्षा को लेकर एक अजीब हीन भाव उत्पन्न हो गया। मन में कहीं बैठता जा रहा था कि उसकी अर्जित विद्या यहाँ के स्तर से हीन है।’’ ३

’कतरा दर कतरा’ एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है, जिसमें कक्कू अपने पिता की उम्मीद पर पूरा न उतरने के कारण हीन भावना का शिकार हो जाता है और अन्त में उसकी मानसिक स्थिति पागलपन तक पहुंच जाती है। वही ’इतर’ उपन्यास अमेरिका में बसे भारतीयों के जीवन की पृष्ठभूमि पर आधारित है। साथ ही तथाकथित संत-महात्माओं और बाबाओं का भंडाफोड़ किया है, जो अपनी कुटिलताओं से मानवीय दुर्बलताओं का भरपूर लाभ उठाते हैं। माधव और उसकी पत्नी रूपा को बाबा पर बहुत श्रद्धा है परन्तु रूपा बाबा के आडम्बरों के घेरे में ऐसा फँसती है कि उसी की होकर रह जाती है, जिससे माधव की हालत पागलों जैसी हो जाती है। ’’’इतर’ में ढोंग का खोखलापन दिखलाने की मजबूरी थी तो साथ ही उन लोगों की तकलीफ भी जो जाल में फंसकर निकल नहीं पाते।’’ ४

इसी तरह जयंत भी अमेरिका में अपने बिजनेस को फैलाने में इतना व्यस्त है कि अपनी पत्नी विभूति को समय नहीं दे पाता। विभूति भी स्वामी रामानंद की ओर आकर्षित होती है और उनके शोषण और वशीकरण का शिकार हो जाती है। यह देख जयंत पागल हो जाता है। एक दिन आश्रम जाकर बाबाजी पर बरस पड़ता है। ’’आपको मालूम है यह औरत कितना काम करती थी? घर संभालने के बावजूद आठ घंटे रेस्तरां चलाती थी और हीरे के बिजनेस में भी मेरी मदद करती थी। अब न रेस्तरां है...न घर देखती है...मेरे रेस्तरां में घाटा पड़ रहा है...मेरा बिजनेस ..।’ ५

’गाथा अमरवेल की’ उपन्यास नारी मन की पड़ताल करता है। शन्नो का विश्वा से विवाह, विश्वा का शन्नो को आधुनिक नारी के रूप में देखने की इच्छा तथा विश्वा का अपाहिज हो जाना और फिर अपने पुत्र गौतम की पढ़ाई और घर की सारी जिम्मेदारी को संभालना ’शन्नो’ की मजबूरी है समय अंतराल के पश्चात गौतम अपनी पसंद की लड़की दिव्या से विवाह करता है और सभी पेरिस में सैटल हो जाते हैं। विदेशी जिन्दगी में शन्नो तालमेल नहीं बिठा पाती है और विश्वा की मृत्यु के बाद वह पूरी तरह से टूट जाती है। अपने पुत्र पर अधिकार की भावना के कारण गौतम और दिव्या का रिश्ता टूट जाता है और गौतम अपने जीवन का अन्त कर लेता है। उपन्यास की नायिका शन्नो अंत में खलनायिका प्रतीत होने लगती है। 

सदैव बहू की शिकायत करने वाली शन्नो को लगता है बहू दिव्या चौबीसों घंटे उसकी देखभाल करती रहें। ’’शन्नो के मुंह पर था कि तेरी बीबी खुशकिस्मत है जो बाहर ही रहती है इसलिए उसे इंतजार नहीं करना होता वरना सभी औरतें अपने पतियों का इंतजार करती हैं पर कह नहीं पायी। कहीं यह उसके बाहर रहने पर शिकायत करने जैसा न लगे। यूँ भी शन्नो को लगता था कि दिव्या वैसी कोई दफ्तर की नौकरी तो करती नहीं थी, फिर भी जब-तब घर से बाहर होती थी और यह बात वह बेटे तक पहुँचा ही देना चाहती थी कि अगर कुछ गलत हो रहा है तो उसे खबर तो होनी ही चाहिए। पर गौतम इस पर ज्यादा गौर नहीं करता था। उसमें उसकी सहमति थी। पर शन्नो को इसका कोई अंदाजा नहीं था। जहाँ तक वह जानती थी बेटा उसका अपना था, लड़की परायी। इसलिए बेटे को हर बाहर वाले से होशियार करना शन्नो का फर्ज बनता था।’’ ६

’नवाभूम की रस कथा’ आदित्य और केतनी की प्रेम कहानी है। अमेरिका में पेपर पढ़ने आई केतकी की आदित्य से मुलाकात और अपने पहले पति से अलगाव और फिर उपन्यास का तीन तरह से अन्त पाठक को स्वतंत्र करते हैं, अपनी तरह से सोचने के लिए।धीरे-धीरे आदित्य को केतकी में वह सारे गुण दिखाई देने लगते हैं, जो एक सफल गृहणी में होने चाहिए। वह केतकी के साथ गृहस्थ जीवन के रोमांस की सुखद कल्पना करने लगता है। जब वह अपने भाव केतकी को बताता है तो उसकी रोमांचिक बातें केतकी को कोई सुख नहीं पहुँचाती। वह घरेलू जिंदगी का विरोध करती है। वह शादी का अर्थ जीवन का रुकना मानती है। आदित्य केतकी की इन बातों से सहमत नहीं होता। वह जीवन को स्वयं बनाने में विश्वास रखता है। शादी को वह इसमें रुकावट नहीं मानता। उसे अपने और केतकी के रिश्ते में प्रौढ़ता दिखाई देती है। वह केतकी की बातों का विरोध करता हुआ कहता है, ’’पर जिंदगी के जिस पड़ाव पर हम दोनों हैं हमारी गृहस्थी बहुत अलग होगी। हम दोनों प्रोफेशनल काम करने वाले लोग हैं। वैसी अपेक्षाएं तुम से किसी को नहीं होंगी जो तुम्हारी पहली शादी में तुमसे रही होंगी, और मैं जिस तरह की गृहस्थी की कल्पना तुम्हारे साथ करता हूँ, उसमें खूबी यही है कि तुम्हारा पूरा स्पेस तुम्हें मिलता है।’ ७

’मोरचे’ २००६ में प्रकाशित हुआ। सुषम बेदी का नारी शोषण पर आधारित उपन्यास है। 

’’एक हिंसक पति के चक्कर में फंसी तनु न तो रिश्ते के बाहर निकल पाती है, न ही उसके बीच रहने के काबिल। तनु के पापा की मृत्यु उसे बहुत सदमा पहुँचाती है, माँ पर तीनों बच्चों की जिम्मेदारी है। तनु अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए भारत में रुक जाती है और माँ अमेरिका चली जाती है। अनुज का सपना अमेरिका जाने का है। अतः वह तनु से प्रेम करता है ताकि उसी के जरिए वह अपना सपना पूरा कर सकें। वह तनु से विवाह कर अमेरिका पहुँचता है और फिर वह दो बेटों की माँ बन जाती है। शादी के बाद से पति अनुज द्वारा सदैव वह पीटी जाती है, गालियाँ खाना उसके दिनक्रम में है अनुज के शोषण का पता माँ को लगता है किन्तु अपने बच्चों की खातिर वह घर छोड़ने को तैयार नहीं है। यहाँ तक कि कोर्ट में तनु को पागल सिद्ध किया जाता है और अनुज अपने बच्चों की कस्टडी को लेकर केसे जीत जाता है बाद में तनु की मुलाकात ’रजीनो’ से होती है और वह उसके साथ जिन्दगी व्यतीत करने का फैसला करती है। विदेश हो या भारत नारी पतिव्रता ही होनी चाहिए, वह चाहे सुन्दर हो अथवा नहीं। नारी की पवित्रता, नैतिकता, शील के प्रश्न सदैव उठाए जाते हैं। ’मोरचे’ उपन्यास में अमेरिका से भारत शादी कराने आई तनु को जब पति के अन्य औरतों से संबंध के बारे में पता चलता है तो वह चुपचाप सहती नहीं बल्कि इसके विरुद्ध आवाज उठाती है किन्तु बदले में उसे मारा जाता है और तनु के विद्रोह को रोकने का एक ही तरीका था मार-पीट। अर्थात विदेशों में गए भारतीय परिवारों में स्त्री का शारीरिक शोषण जारी है। 

सुषम बेदी के कथा साहित्य की नायिकाएँ शिक्षित और विद्रोही हैं किन्तु अपने पति के सामने लाचार है। ’’अमेरिका में कहानी और उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति में महिला लेखिकाओं का वर्चस्व है। संभवतः इसका कारण यह है कि प्रवासी भारतीय महिलाएँ जिस प्रकार स्वदेश-परदेश तथा दो भिन्न संस्कृतियों के द्वंद्व में जीती हुई घर-गृहस्थी को संचालित करती है, वह उनमें अनुभवों एवं संवेदनाओं को कथा एवं पात्रों में पिरोकर अभिव्यक्त करती रही हैं।’’ ८

सुषम बेदी का उपन्यास जगत प्रवासी समाज की स्थितियों को आधार बनाकर लिखा गया है। अपने अनुभवों को आधार बनाकर प्रवासी समाज की समस्याओं को व्यक्त करने के लिए वहां के जीवन का यथार्थ चित्रण आपके द्वारा किया गया है। इतना ही नहीं सिर्फ  सामाजिक समस्याएँ ही नहीं अपितु आर्थिक, भावनात्मक और सांस्कृतिक समस्याओं की तह में उतरकर उन्हें उजागर किया है, जिससे भारतीय पूर्ण रूप से अनभिज्ञ हैं।

संदर्भ :
१. हिंदी का प्रवासी साहित्य एक सर्वेक्षण : कमल किशोर गोयनका, पृ.२२
२. सुषम बेदी ’हवन’ १९९६, पृ.१४
३. ’लौटना’ सुषम बेदी, पृ.१३२
४. युद्धरत आम आदमी, रमणिका गुप्ता, जुलाई सितंबर २००६, पृ.१७
५. इतर, सुषम बेदी, पृ.१४४
६. गाथा अमरवेल की (१९९९) सुषम बेदी, पृ.१८१
७. नवाभूम की रस कथा (२००२) सुषम बेदी, पृ.९४
८. डॉ. कमकिशोर गोयनका, प्रवासी साहित्य जोहन्सबर्ग से आगे, पृ.४२

डॉ. विशाला शर्मा
सहयोगी प्राध्यापिका एवं विभागाध्यक्षा
चेतना कला वरिष्ठ महाविद्यालय, औरंगाबाद
मो नं. 09422734035
Vishalasharma22@gmail.com

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