किसान, आंदोलन और साहित्य/ डॉ. भीम सिंह

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)

किसान विशेषांक

 किसान, आंदोलन और साहित्य/डॉ. भीम सिंह

            प्रस्तुत विषय को अध्ययन के हेतु निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

1.    किसान कौन ? ‘किसानशब्द की व्युत्पत्ति एवं कोशगत अर्थ
2.    आंदोलन के लक्षण और किसान का अंतःसंबंध
3.    भारत में किसान-आंदोलनों की प्रकृति एवं वर्गीकरण
4.    भारत में किसान-आंदोलनों के कारणों की पड़ताल
5.    किसान-आंदोलनों से संबंधित साहित्य की समीक्षा

सर्वप्रथम हमारे लिए यह जानना अपेक्षित होगा कि जिस किसान की बात जोरों-शोरों से हो रही है उस शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई है ? उसकी क्या-क्या विशेषताएँ कोशों में बतलायी गयी है ?
1.हिंदी शब्द सागरके द्वितीयभागमें किसानशब्द को संज्ञा वाची पुल्लिंग के रूप में रेखांकित किया गया है।“[सं.-कृषाणा,प्रा.-किसान]i.कृषि या खेती करनेवाला। खेतिहर। ii.गाँव में नाई, बारी आदि जिनके घर कमाते हैं उन्हें किसान कहते हैं'1


एक अन्य अर्थ भी किसानशब्द का इस कोश में दिया गया है जो है- किसान-पुं.-संज्ञा स्त्री.-[सं.-कृशानु] आग । ज्वाला । उ.-भूपति के सुनि के विचन उर में उठी किसान, उठी सभा मृग सिंह ज्यौं बुल्लिव नहीं जुबान । प. रासो, पृ.119।’’2

किसानशब्द का यह जो भिन्न अर्थ कम लोकप्रिय है आज के दौर में वही अर्थ सर्वाधिक प्रसार पा रहा है। किसान की ज्वाला, आग उगल रही है। यह सामाजिक-वर्ग आग के मानिंद खुद जल रहा है। इसकी पीड़ा को कौन समझे?

संस्कृत-हिंदी कोश’ (वामन शिवराम आप्टे) के अनुसार- कृषकः (कृष्+क्वन्) 1. हलवाहा, हाली, किसान 2. फाली 3. बैल ।

कृषाणः कृषिकः (कृष्+आनक् किकन् वा) हलवाहा, किसान ।’’3

अर्थात् खेती या कृषि से निर्वाह करने वाला वर्ग ही किसान है। भारत के परंपरागत मिथकों में राजाओं को भी कृषि या खेती से जोड़कर देखने का लोक और शिष्ट साहित्य में उल्लेख हुआ है। जैसे-राजा जनक, वीर बलराम को हलधरके रूप में, राजा भोज को डोकरी मालिन द्वारा शिक्षित करने के संदर्भ में।


मानक हिंदी कोशके अंतर्गत किसानशब्द के सामने निर्दिष्ट है कि किसान-पुं.-[सं.-कृषाण, पं. मरा. कियाण][भाव. किसानी] 1.वह जो खेती-बारी का काम करता हो। खेतों को जोतने, उनमें बीज बोने, होने वाली फसल काटने आदि का काम करने वाला व्यक्ति।

2. रहस्य-संप्रदाय में शरीर की इंद्रियाँ, जो पाप-पुण्य करके बुरे-भले फल प्राप्त करती हैं।’’4

इस कोश के अंतर्गत किसान को रहस्यात्मक शरीर की इंद्रियों के रूप में नवीन संदर्भ एवं अर्थ के साथ प्रस्तुत किया गया है। जबकि किसान शब्द का पहला वाला अर्थ हिंदी शब्द-सागरका ही विकास है।

आचार्य बच्चूलाल अवस्थी के अनुसार-सं.-कृषाण-कर्षक-वाच.।प्रा.-किसाण है. १/१२८, २६०>किसान-

तुलसी यह तन खेत है मन बच करम किसान’- बै.स.-५।


यह कह रोई एक अबला किसान की-साकेत-306।’’5

उपरोक्त कोशों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसान शब्द ने कृषि-संस्कृति से कृषक से किसान तक की यात्रा तय की है। किसान शब्द मूल रूप से प्राकृत भाषा का शब्द है। इसका मूल अर्थ कम ही परिवर्तित हुआ है। भक्तिकालीन कविता में इसका इंद्रियों के संदर्भ में व्यवहार हुआ है। जहाँ यह शब्द अपने मूल अर्थ से विचलित होकर रहस्यात्मक संदर्भों से जुड़कर नवीन अर्थ ग्रहण कर पाया। लेकिन ये अर्थ लोकप्रियता नहीं हासिल कर सके ऐसा क्यों ? यह अनसुलझा सवाल है।
समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया ने किसानके संबंध में लिखा है कि औद्योगिक मजदूर अब सही माने में सर्वहारा नहीं रह गया, भारत जैसे देश में तो गरीब किसान और भूमिहीन किसान ही सही अर्थों में क्रांतिकारी हो सकते हैं।’’6

सामाजिक-आर्थिक विश्लेषक सुनील ने किसानके आशय को स्पष्ट करते हुए किशन पटनायक को उद्धृत किया है-किसान व खेतिहर मजदूर में द्वंद्व तो है, लेकिन यह बुनियादी द्वन्द्व नहीं है। जो किसान आन्दोलन नव-औपनिवेशिक शोषण और आन्तरिक उपनिवेश के वैचारिक परिप्रेक्ष्य में चीजों को देखेगा, वह उससे संघर्ष के लिए खेतिहर मजदूरों को अपने साथ लेने का प्रयास करेगा। यदि किसान और खेतिहर मजदूर एक हो गए, तो बड़ी ताकत पैदा होगी, जो पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, ग्लोबीकरण और साम्प्रदायिकता का मुकाबला कर सकेगी।’’7

अर्थात् किसान के अंतर्गत खेत में काम करनेवाला मजदूर भी शामिल है। भूमि के मालिक किसान और भूमिहीन मजदूर के हित भिन्न-भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं या उनमें कोई एकता हो सकती है ? ये कुछ सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं। ये सवाल किसान आन्दोलन के सन्दर्भ में बार-बार सामने आते हैं।


सर्वप्रथम हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि किसानकौन ? ‘किसानऔर कृषकके लिए अंग्रेजी में दो शब्द प्रचलन में हैं- एक फार्मर’ (FARMER), दूसरा- पीजेन्ट’ (PEASANT) । क्या ये दोनों शब्द एक ही अर्थ को ध्वनित करते हैं या इनमें कुछ मूलभूत ऐतिहासिक रुप में अंतर भी हैइन दोनों शब्दों में अंतर है, ‘पीजेन्टका तात्पर्य है एक ऐसा खेतिहर मजदूर जो गरीब है और सामाजिक श्रेणी में हाशिए पर है जबकि फार्मरका कर्म भी खेती पर ही आधारित है। इसकी अपनी स्वयं की जमीन होती है और यह सामाजिक और आर्थिक आधार पर अपनी सामाजिक स्थिति को निर्धारित करता है। यूरोपिय समाज में सर्फ’ (SERF) जिसके लिए हिन्दी में कृषिदासशब्द प्रयुक्त होता है। यह वर्ग भी कृषि-कर्म से जुड़ा हुआ था। इस वर्ग के समानान्तर भारतीय समाज व्यवस्था में हाली’ (जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी कृषकदास ही था, इसके मूल में क़र्ज़ ही मुख्य कारण था) को रखा जा सकता है। 

किसान को परिभाषित करना इतना सरल नहीं है क्योंकि कृषि-कर्म में अनेक वर्गों की भूमिका होती है । पहला- भूमि किसकी, और उसका मालिक कौन ? इसका उत्तर है कि विश्व के स्तर पर, विभिन्न उत्पादन प्रणालियों में कहीं पर भूमि का मालिक उसका समुदाय/ तबका है, तो कहीं पर भूमि निजी सम्पत्ति है। भारत जैसे देश में एक साथ ही ये दोनों उत्पादन प्रणालियाँ देखी जा सकती हैं। आधुनिकता के प्रभावस्वरुप भी सामंतवादी-व्यवस्था का ढाँचा यथावत रहा और वह पूँजीवादी-व्यवस्था से पैबस्त हो गया। कृषि पर आधारित हमें चार वर्ग दिखाई देते हैं। वे हैं- 1. भूमिपति या जागीरदार, धनाढ्य-किसान या नवसामन्त, 2. मंझौले किसान, 3. छोटी जोत के किसान, 4. खेतिहर-मजदूर और कृषिदास।

 कृषि से जुड़े हुए वर्ग को किसान की श्रेणी के अन्तर्गत रखा जाता है। सवाल यहाँ उपस्थित होता है कि भूमिपति और कृषिदास के हित क्या एक हैं ? धनाढ्य किसान या नवसामंत, परंपरागत भूमिपति को चुनौती देते हुए अपनी नवीन छवि और अस्मिता का निर्माण करता है तो दोनों में वर्चस्व के लिए संघर्ष होना स्वाभाविक है। एक वर्ग परंपरागत यथास्थिति को बरकरार रखना चाहता है तो दूसरा नवीन उत्पादन प्रणाली के अन्तर्गत अपने को स्थापित करना चाहता है। इस रूप में यह संघर्ष केवल आर्थिक नहीं रहता, बल्कि इसमें सामाजिक वर्गों की राजनीति, प्रशासन और सत्ता से गठजोड़ की शक्ति भी कार्य करती है। जैसे- राजस्थान में राजपूत और जाटों के मध्य सत्ता-संघर्ष को देखा जा सकता है। हम लघु और सीमान्त कृषकों को, जो खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते हैं, कहाँ रखते हैं ? इस संदर्भ में इतिहासकार आर. एस. शर्मा और हरबंस मुखिया की अपनी-अपनी मान्यताएँ भारतीय और यूरोपिय सामंतवाद के संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं। इन दोनों ने पीजेन्ट और फार्मर में अंतर, बड़े किसान/ जागीरदार, मंझौले किसान, छोटी जोत के किसान, खेत-मजदूर/ मजूर, कृषिदास/ गुलाम/ हाली(SERFS) के मध्य संबंधों को अलगाते हुए विश्लेषण किया है।

आंदोलन के लक्षण और किसान का अन्तःसम्बन्ध

भारत में अनेक सामाजिक आंदोलन चल रहे हैं। सर्वप्रथम हमारे लिए यह जानना अपेक्षित होगा कि आंदोलन के लिए क्या आधारभूत तत्व या घटक होने चाहिए ? भारत में सामाजिक आंदोलनों के सम्यक् समीक्षक घनश्याम शाह के अनुसार-उद्देश्य, विचारधारा, कार्यक्रम, नेतृत्व और संगठन सामाजिक आंदोलनों के महत्वपूर्ण निर्णायक घटक हैं। ये अन्त: निर्भर हैं जो एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। फिर भी रणजीत गुहा की चेतावनी पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। उन्होंने कहा है कि यद्यपि ये निर्णायक तत्व तथाकथित स्वतः स्फूर्त विद्रोह सहित, सभी प्रकार के आंदोलनों या बगावतों में मिलते हैं, तथापि असंरचित से लेकर पूर्णतः संगठित आंदोलनों में इनके रूप भिन्न होते हैं। उन्होंने कुछ इतिहासकारों के इस विचार को चुनौती दी है, जिन्होंने यह मत व्यक्त किया है कि कृषक विद्रोह स्वतः स्फूर्त होते हैं और इनमें राजनीतिक चेतना और संगठन का अभाव होता है। इस प्रकार के विद्रोहों में न तो नेतृत्व का और न ही उद्देश्य का, न ही एक कार्यक्रम के कुछ रूढ़तत्वों का अभाव होता है, फिर भी ये सभी विशेषताएँ बीसवीं शताब्दी के ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक उन्नत आंदोलनों की परिपक्वता और परिष्कृत रूप की तुलना में उनके समकक्ष कहीं नहीं ठहर पाती हैं।’’8
हमारे समक्ष यह सवाल खड़ा होता है कि भारतीय किसान की छवि को कितने रूपों में देखा गया है ? किसानों को लेकर मार्क्सवादी विचार-दर्शन और उसका नेतृत्व हमेशा शंकालु बना रहा। जबकि लेनिन ने रूस में मध्यवर्गीय किसानों को शोषितों का हमसफर बनाने की वकालत की। इसके विपरीत चीन में माओत्से तुंग ने भूमिपति सम्पन्न किसानों को चीनी क्रांति से जोड़ा।


गाँधीवादी विचार-दर्शन जहाँ किसान को स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ने में सफल हुआ वहीं भारत में मार्क्सवादी विचार-दर्शन किसान को पेटी बुर्जुआ वर्ग की श्रेणी में देखने का अभ्यस्त हो गया।

भारत में किसान आंदोलनों की प्रकृति और वर्गीकरण -

भारत में किसान आंदोलनों की प्रकृति :

उपलब्ध साहित्य से यह उद्घाटित होता है कि कृषक आंदोलन स्वतन्त्रता के पूर्व और बाद की अवधि में व्यापक रूप में हुए हैं। आंदोलनों की तीव्रता और प्रकृति में अन्तर रहा है और कुछ क्षेत्रों में कृषक आंदोलनों की अच्छी परंपरा रही है। कैथलिन गफ लिखती हैं- ब्रिटिश शासन के समय से ही बंगाल ग्रामीण और नगरीय दोनों प्रकार के विद्रोहों का केन्द्र रहा है। कुछ जिले, जैसे बांग्लादेश के म्येनसिंह, दीनाजपुर, रंगपुर और पबना तथा बिहार और पश्चिमी बंगाल के संथाल प्रदेश में निरन्तर कृषक आंदोलन होते रहे हैं और अभी भी होते रहते हैं। आंध्रप्रदेश और केरल राज्य के जनजातीय और अन्य अल्पसंख्यक लोग अपेक्षाकृत स्वतन्त्र हैं, उनमें नृजातीय एकता और रणनीतिक कुशलता है और जो पहाड़ी क्षेत्र गुरिल्ला लड़ाई के लिए उपयुक्त हैं, वे क्षेत्र कृषक आंदोलनों के लिए विशेष रूप में सहायक होते हैं। किन्तु ये आंदोलन घनी आबादी के मैदानी क्षेत्रों जैसे तंजुवर में भी हुए हैं जहाँ कठोर लगान, जमीन की भूख, भूमिहीन मजदूर और बेरोजगारी व्यापक रूप में फैली हुई है।’’9


आंद्रे बेतई(1974) के अनुसार,अधिकांश खेतिहर विद्रोहों के क्षेत्र मुख्यतः चावल पैदा करने वाले प्रदेश रहे हैं। इन प्रदेशों में न केवल खेतिहर मजदूरों का अनुपात घना है अपितु जमीन का असमान विभाजन भी हुआ है। यह विभाजन न खेत को जोतने वाले, जो या तो किरायेदार या मालिक हैं, के बीच है।

किसान आंदोलनों का वर्गीकरण -

भारत में किसान आंदोलनों को सामान्यतः
1. पूर्व-ब्रिटिश
2. ब्रिटिश या उपनिवेशी
3. स्वतंत्रता के बाद के काल को नक्सलवाड़ी-पूर्व
4. नक्सलवाड़ी बाद के कालों या हरित-क्रांति के पूर्व और बाद के कालों में विभाजित किया जाता है।


ए.आर.देसाई के अनुसार- उपनिवेशीकाल के आंदोलनों को कृषक आंदोलनऔर स्वतंत्रता के बाद के आंदोलनों को खेतिहर आंदोलनकहना पसंद करते हैं। खेतिहर आंदोलनकी अवस्था का मंतव्य यह प्रकट करने के लिये किया गया है कि इस काल के आंदोलनों में न केवल कृषकों ने अपितु अन्य लोगों ने भी भाग लिया है। उन्होंने स्वतंत्रता के बाद के कृषक आंदोलनों को पुनः दो वर्गों में विभाजित किया है। वे आंदोलन जो उभरती हुई नव मालिकाना वर्गों द्वारा शुरू किये गये, उनमें सम्पन्न किसान, मध्य वर्गीय कृषक मालिकों का बड़ा वर्ग तथा कारगर भूस्वामी आते हैं और ऐसे आन्दोलन जिनकी शुरूआत खेतिहर गरीबों के विभिन्न वर्गों द्वारा की गई उनमें खेतिहर सर्वहारा वर्ग की केन्द्रीय भूमिका रही है।’’10

गेल ओमवेट ने इन आंदोलनों को पुराने और नये दो वर्गों में विभाजित किया है।पुराने को उन्होंने कृषक’ (peasant) आंदोलन और नये को किसान’ (farmer)आंदोलन कहा है।’’11
समयावधि और मुद्दों को लेकर विभिन्न आंदोलनों ने भिन्न वर्गीकरण, योजनाएँ प्रयोग की हैं। तथापि, राजा-महाराजाओं के अधीन या उपनिवेशी काल में ब्रिटिश क्षेत्र में, सम्पूर्ण भारत में कोई एक समान कृषिहर संरचना नहीं रही है। इसी प्रकार स्वतंत्रता के बाद के भारत में, यद्यपि केन्द्रीय राजनीतिक सत्ता और पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली मुख्य प्रेरणा स्रोत रही है, फिर भी खेतिहर संरचना संपूर्ण भारत में कोई एक एकीकृत प्रतिमान को जन्म नहीं दे पाई। बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश की अपेक्षा गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब में अधिक गहन और व्यापक पूँजीवादी कृषि व्यवस्था विकसित हुई है।

कैथलीन गफ़ (1974) ने कृषक आंदोलनों को उनके लक्ष्यों, विचारधाराओं और संगठन की विधियों के आधार पर विभाजित किया है। उनके अनुसार –“कृषक विद्रोह पांच प्रकार के हैं-

1. ब्रिटिश लोगों को बाहर निकालने के लिये बगावत और पुराने शासकों और सामाजिक संबंधों की पुनर्स्थापना।

2. नवीन प्रकार की सरकार के अधीन किसी नृजातीय समूह या क्षेत्र की स्वतन्त्रता के लिये किये गये धार्मिक आन्दोलन।

3. सामाजिक डाकाजनी।

4. सामूहिक न्याय प्राप्त करने के विचार से आतंककारी बदला लेना।

5. विशिष्ट शिकायतों के समाधान हेतु जन आंदोलन।’’12 यह वर्गीकरण यद्यपि उपयोगी है लेकिन विद्रोहों के ऊपरी लक्ष्यों पर आधारित है। इसमें राष्ट्रीय आंदोलन में कृषक वर्ग की उपेक्षा की गई है।
के.पी.कानन (1988-90) ने ग्रामीण मजदूर आंदोलनों, जो वर्ग आधार पर विकसित हो रहे थे, की ऐतिहासिक प्रक्रिया को तीन अवस्थाओं में विभाजित किया है। ये अवस्थाएँ हैं-

1. जाति या धार्मिक पहचान और चेतना पर आधारित विरोध आंदोलन, किन्तु ऐसे आंदोलन मूलतः नवीन उभरती हुई पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न होते हैं, अतः ये दमनात्मक सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं का विरोध करते हैं।

2. ऐसे धर्मनिरपेक्षवादी (लौकिक) आंदोलन जिनकी उत्पत्ति श्रेणी (1) के आंदोलनों से होती है, किन्तु जिनमें जाति पहचान और चेतना को अस्वीकार और विवेकसम्मतताऔर मानव के भ्रातृत्व-भाव को स्वीकार किया जाता है।

3. उग्र राजनीतिक चेतना द्वारा उत्पन्न राष्ट्रीय आंदोलन जिसने बीज श्रेणी (2) में होते हैं। ये वर्ग चेतनाऔर वर्ग-आधारित आंदोलनों में बदल जाते हैं।’’13

कानन को उस बात की जानकारी है कि ये श्रेणियाँ एक-दूसरे में घुली-मिली हैं लेकिन आंदोलनकारियों के लिए वर्ग-चेतनाऔर वर्ग-आधारित आंदोलनों को उभारने में यह वर्गीकरण कैसे उपयोगी है ?
पुष्पेन्द्र सुराणा (1983) ने कृषक आंदोलनों को आठ प्रकारों में विभाजित किया है जो मुख्यतः कुछ मुद्दों पर आधारित हैं । जैसे- किसी विशिष्ट प्रकार की फसल हेतु बलात् खेती, सूदखोरों द्वारा शोषण, कीमतों में वृद्धि, बाहरी हमलावरों या राजवंश के विरोध में किये गये आंदोलन।’’14

इस प्रकार के वर्गीकरण की सीमाएँ स्पष्ट हैं क्योंकि कई विद्रोहों में बहुधा एक से अधिक मुद्दे सन्निहित होते हैं।

सन् 1980 से पूर्व तक पीजेन्टअर्थात् कृषक शब्द का ही अधिसंख्यक व्यवहार हुआ लेकिन वैश्विक स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक स्थितियाँ बदलने की वजह से किसानशब्द केन्द्र में आ गया ।

घनश्याम शाह के अनुसार - रणजीत गुहा ने अपनी पुस्तक एलिमेन्ट्री आस्पेक्ट्स ऑफ पैज़ेन्ट इन्सरजेन्सी इन कोलॉनिअर इंडिया(1983) में कृषक आंदोलनों को देखने का एक भिन्न तरीका अपनाया है। उन्होंने कृषकों की बगावत को विद्रोह हेतु कृषक चेतना के परिप्रेक्ष्य से देखा है। उन्होंने कृषकों की जनजातीय चेतना में निहित संरचनात्मक विशेषताएँ बताई हैं, यथा प्रतिवाद, एकजुटता, संचरणता, प्रादेशिकता आदि। यह हमें यह समझने में सहायता कर सकती है कि कृषक क्यों और कैसे बगावत करते हैं। गुहा तथा अन्य विद्वान आंदोलनों को श्रेणियों में विभाजित करने के पक्ष में नहीं हैं। जिनमें अधिक निरंकुशता का तत्व विद्यमान होता है। सामाजिक यथार्थताएँ अत्यन्त जटिल होती हैं, उन्हें कृत्रिम रूप से विभाजित करना भ्रामक होता है। यद्यपि यह जटिल यथार्थ को समझने का एक अच्छा रास्ता है, किन्तु यह समस्या रहित नहीं है, फिर भी ऐसे प्रयास प्रशंसनीय हैं।’’15

भारत में किसान आंदोलनों के कारणों की पड़ताल-

ब्रिटिश अधिकरियों और इतिहासकारों की कुछ विद्रोहों को साम्प्रदायिक दंगे या केवल लूटपाट बतानेकी प्रवृत्ति रही है। जैसे- उन्नीसवीं सदी का मोपला विद्रोह और 1920 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में मलाबार और 1930 के दशक में बंगाल के वहाबी और फरीदी विद्रोहों को। जबकि ये आंदोलन जमींदारों और काश्तकारों के बीच आर्थिक हितों के संघर्ष से जुड़े हुए थे। इन आंदोलनों के मूल में बेगार, वेथ या वैथी(अर्थात्बलात् श्रम) की प्रथा’’16 ही आधारभूत कारक रही है। कई विद्वानों का यह मत है कि कृषकों ने दमन और शोषण के खिलाफ तब विद्रोह किया जब उनकी आर्थिक दशा खराब होती गई। इन परिवर्तनों को तीन शीर्षकों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. मूल्य-वृद्धि, अकाल आदि के कारण उनकी आर्थिक दशा का बिगाड़ना।

2. संरचनात्मक परिवर्तन, जिसके कारण कृषकों के शोषण में बढ़ोतरी होती है, परिणामतः       उनकी दशा बिगड़ती है।

3. कृषकों की अपनी दशा में सुधार लाने हेतु बढ़ती हुई आकांक्षाएँ।’’17

18वीं और 19वीं शताब्दी में ग्रामीण भारत में अकाल बहुधा नियमित रूप से पड़ा करते थे और कुछ सीमा तक स्वतन्त्रता के बाद भी यही क्रम चल रहा है, यद्यपि आजकल इसे अकालन कहकर सूखाकहा जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय कृषक सत्ता के विरोध में उस समय भी विद्रोह नहीं करते जबकि उनकी जिन्दगी दांव पर लगी होती है। एन.जी.रंगा और स्वामी सहजानंद ने कहा है-हमारे लोगों की राजनीतिक क्षमता के बारे में यह एक दुखद टिप्पणी है कि वृहत् लोगों के भीषण दुखों और अधिसंख्य मजदूरों तथा कृषकों की मृत्यु, तथा हैजे और अन्य महामारियों के फैलने, भूख से ग्रसित होने और भयावह वस्तुओं (जिसमें नरभक्षण भी सम्मिलित है) के सेवन जैसी घटनाओं के उपरान्त भी किसी भी व्यक्ति या संगठन द्वारा इस प्रकार की अमानवीय स्थितियों के विरोध में वास्तविक और प्रभावक जन आंदोलन नहीं किया जाता है।’’18

आजादी-पूर्व किसान-आंदोलनों के मूल में कारण था- साहूकारों, भूस्वामियों अथवा सरकारी अफसरों द्वारा काश्तकारों कीबेदखली। यह बेदखली भूराजस्व के एकत्रित नहीं होने के कारण हुई। जमीन की सार्वजनिक रूप से बिक्रीकी जाने लगी। एस.बी.चौधरी लिखते हैं-भूमि की सार्वजनिक बिक्री ने न केवल साधारण जन को अपनी जमीन से बेदखल कर दिया, अपितु इसने देश के कुलीन वर्ग को समाप्त कर दिया और ब्रिटिश सिविल कानून के शिकार दोनों ही आदेश 1857-58 के क्रांतिकारी काल में इस साझा प्रयास में एकमत थे कि जो कुछ उन्होंने खोया है, उसे पुनः प्राप्त किया जाये।...अपने धर्म के बारे में ग्रामीण वर्गों और भूस्वामियों को इतना डर नहीं था कि जो उन्हें विद्रोह करने के लिए उत्तेजित करता। यह अपनी जमीन और पुश्तैनी जोत में उनके अधिकारोंऔर हितों का प्रश्न था जिसने उन्हें इस खतरे की सीमा तक उत्तेजित किया।’’19

इस मत का खंडन करते हुए ऐरिक स्ट्रोक्स ने लिखा है कि-1857 में विद्रोह की प्रमुख लपेटें उन जातियों और क्षेत्रों से आईं जहाँ महाजनों की पकड़ कमजोर थी और भू-राजस्व सर्वाधिक था। संभवतः इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि ये क्षेत्र पिछड़े हुए और प्यासे थे।’’20

आजादी के पश्चात् किसानों की आर्थिक स्थिति में गिरावट देखी गयी। इसके पीछे मूल कारण तीन दिखाई देते हैं। पहला-कृषि और खेती की फसलों के दामों में आयी हुई गिरावट। दूसरा-खाद्यान्न-फसलों की जगह नकदी फसलों को बढ़ावा और उसके घाटे को न सह पाने के कारण किसानों का असंतोष और आत्महत्या को ओर प्रवृत्त होना। जैसे-महाराष्ट्र में गेहूँ की जगह कपास को बढ़ावा और लागत दर में वृद्धि। तीसरा-आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि और किसानों की सरकारी मशीनरी द्वारा उपेक्षा। इसके साथ ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा सेज(SEZ) के लिए सिंचित क्षेत्र की जमीन का अधिग्रहण। यह लोककल्याणकारी राज्य के स्वरूप में आये हुए बदलाव एवं कोरपोरेट स्टेट की नीतियों के परिणामस्वरूप फलीभूत हुआ।

किसान आंदोलनोंसे संबंधित साहित्य की समीक्षाः-

भारतीय किसान वर्ग की शक्ति और सीमाओं को लेकर विभिन्न विचार दृष्टियों और उनके समर्थक और विरोधियों में गहरी फाँक दिखाई देती है। इस संदर्भ में कवि व आलोचक राजेश जोशी ने उचित ही लिखा है कि सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई कोई भी कार्रवाई चाहे वह राजनैतिक हो, सामाजिक या साहित्यिक तभी कारगर हो सकती है जब उसमें देश की सामाजिक संरचना और उसके चरित्र की एक वयस्क समझ हो। इस देश का अधिकांश हिस्सा आज भी ग्रामीण है और सबसे बड़ा वर्ग किसान है। इसीलिए परिवर्तन की कोई भी शुरूआत और उसकी सफलता ग्रामीण क्षेत्र के चरित्र के बारे में हमारी समझ और जानकारी पर निर्भर करती है । ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भी देखें तो हर बड़े आंदोलन की सफलता या विफलता के कारण इसमें खोजें जा सकते हैं । राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन सबसे उग्र स्वरूप तब ही ग्रहण कर सका जब गाँधी ने उसे ग्रामीण क्षेत्रों से उकसाया और उग्र वामपंथी आंदोलन  तब विफल हुआ जब वह गाँवों से कटकर शहरों में आ बसा । इस देश के वामपंथी आंदोलन की विफलता का यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है कि उसने बार-बार शहरों की तरफ दौड़ लगाने की लाइन अख्तियार की है जबकि इस देश में क्रांति की सारी पहलें किसान आंदोलनों और हथियारबन्द किसान क्रांतियों से हुई। ऐतिहासिक जानकारी और वर्तमान स्थिति दोनों से ही यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सामाजिक परिवर्तन की किसी भी कार्रवाई में हरावल दस्ता इस देश का किसान वर्ग ही बन सकता है और परिवर्तन का उत्स ग्रामीण अंचलों से ही सम्भव है इसीलिए विद्रोह की समकालीन कविता की सही जमीन या शुरूआत भी वहीं से हो सकती है ।’’21

भारत में किसान-जीवन की सम्यक् अभिव्यक्ति को लोक और लिखित साक्ष्यों के हवाले से समझा जा सकता है। इसके अंतर्गत लोक-साहित्य के दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो किसान की तत्कालीन स्थिति को दर्शाते हैं। पहला उदाहरण- भूमिज (भूमि से उत्पन्न, भूमिपुत्र) समुदाय का है जो बंगाल, झारखंड और ओड़िशा राज्यों में निवास करता है। इन भूमिजों की लंबी लड़ाई ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ हुई, कारण-लगान की वृद्धि थी। जिससे जमींदारों व साहूकारों ने भूमिजों की जमीन हस्तगत कर ली। किसान की हृदयद्रावक अभिव्यक्ति इसमें हुई है-
भूमिज लोकगीत-

जमींदार बाबू मन हाम्हार भालो नाँइ
दूटा टाकार मद खाते दे
जमी लिलि वाडी लिलि
सादे हाम्हार बिटी लिलि’’22

अर्थात् जमींदार बाबू। हमारा मन ठीक नहीं है। आपने दो रूपया मद के वास्ते खाते में दर्ज किया। उसके बदले में जमीन ले ली, घर ले लिया और ऊपर से हमारी बेटी को भी ले लिया।
दूसरा उदाहरण माड़ीका एक लोकगीत है जिसमें भेजभरने का संदर्भ है। यह जमीन पर लगने वाला एक कर है जो आज भी चल रहा है।

बारह महीना मैंने चरखो कात्यो
बारह-बीस कुमायो
दस की लाई मोठ बाजरो
दस की लाई तल्ली
नपूता खेती कर रे।
अगल-बगल में बोयो बाजरो
बीच में बो दी तल्ली
नपूता ऐंया बो रे।
औरों के नपजो मोठ-बाजरो
मारूजी कै पड़ गियो टो-टो
नपूता भेज भर रे।
औरन तो भर दी भेज बाबड़ी
मारूजी कू ले गिया पकड़ के
नपूता जावड़ रे
चढ़ डागड़िया देखण लागी
मारूजी के पड़ रियां सोंटा रे
नपूता और दे रे।
अंगड़ी भी बेची मैंने बंगड़ी भी बेची
मारूजी कू लाई छुड़ा के रे नपूता घर चल रे।23’’

कवि घाघ की एक कहावत खेती की उत्तमता को रेखांकित करती है-

उत्तम खेती, मध्यम बान।
निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।।’’24

आज खेती उत्तम न होकर अधम हो गयी है। चाकरी-आधारित-व्यवस्था प्रधान हो गयी है। व्यापार सर्वोत्तम के साथ जोखिम का धंधा बना हुआ है। भीख मांगने वाला वर्ग सामाजिक-ऐतिहासिक विश्लेषण के बाहर खड़ा हुआ है।

गुरू गोबिन्द सिंह ने एक दोहा लिखा है जिसमें खेत की रक्षा करने वाले को शूरवीर बताया गया है। इस दोहे का उल्लेख कथाकार जगदीश चंद्र के कभी न छोड़ें खेत’ (1976) उपन्यास के प्रारंभ में हुआ है। जैसे-

सूरा सौ पहचानिए जो लड़ै दीन के हेत
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरै कबहूँ न छाड़ै खेत।25

आधुनिक काल से पूर्व किसान जीवन की गहनतम पीड़ा की अभिव्यक्ति गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में हुई है। विशेषकर कवितावलीके उत्तरकाण्डमें ।जैसे

खेती न किसान को, भिखारी न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एकएकन सोंकहाँ जाई, का करी?’”26

हे भगवान राम! आज आपके रचे संसार की कितनी बुरी दशा हो रही है। किसानों के पास खेती-बाड़ी नहीं रह गयी है। आज बेचारे भिखारियों को कहीं भीख तक भी प्राप्त नहीं होती ! व्यापारियों के पास करने को व्यापार नहीं रह गए और नौकरी पाने के इच्छुकों को कहीं नौकरी तक नहीं मिल पाती। यह व्यथा किससे मैं कहूँ ? कहाँ जाऊं ? क्याकरूँ? कुछ सूझ नहीं रहा है !

आधुनिक काल में लोक-साहित्य के अलावा किसानों की प्रथम बार गद्यात्मक -रूप में अभिव्यक्ति बांग्लाके नीलदर्पण’ (1860) नाटक में हुई है। यह नाटक 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम के एक वर्ष बाद अर्थात् 1858 के किसान विद्रोह पर आधारित है। इस नाटक पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसमें खेतिहर मजदूर, किसान और संभ्रान्त भू-स्वामी के रिश्तों को नये ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ़ में चित्रित किया गया है । इस नाटक के द्वितीय अंक के प्रथम गर्भांक में तोरापनाम के पात्र का संवाद है कि- चाहे मार क्यों न डालें, मैं नमकहरामी नहीं करूँगा...जिन बड़े बाबू की वजह से जान बची है, जिनकी जमींदारी में खेती करता हूँ, जो बड़े बाबू हल-बैल बचाने को परेशान हैं, झूठी गवाही देकर उन्हीं बड़े बाबू के बाप को कैद करा दूँ ? मुझसे कभी न होगा, चाहे जान चली जाए।27

इसी नाटक का एक पात्र गोपीनाथ का संवाद है कि-“...तुम्हारे चावल पर तो राख पड़ गयी। नील के यम का तुम पर आक्रमण हुआ। अब तुम नहीं बच सकते।28

नील की खेती के विरोध में भारत वर्ष का किसान 19वीं सदी से लेकर 20वीं सदी के दूसरे दशक तक रहा। चंपारण का किसान-आंदोलन’ (1917-18) भी तिनकठियाके नियम के विरोध में था। नील की खेती ने खाद्यान्न संकट को पैदा किया। अनाज की कमी, अकाल में अत्यधिक लोगों की मौत का कारण बनी। उसके मूल में खाद्यान्न फसलों की जगह नीली की खेती ही रही। इसके विरोध में किसान एकजुट हुए। उनमें अपनी अस्मिता का बोध और अस्तित्व की रक्षा का भाव पैदा हुआ। इस रूप में देखें तो नीलदर्पणनाटक का किसान आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में ऐतिहासिक महत्व है। अंग्रेजों के लिए तभी से नीलहेया नीलकरशब्द प्रचलन में आया। किसानों की प्रतिरोधी चेतना को तीव्र करने में नील को खेती मूल कारक रही।

इसके पश्चात् ओड़िआके प्रसिद्ध उपन्यासकार फकीर मोहन सेनापति का छह माण आठ गुण्ठ’ (1897) उपन्यास प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में परंपरागत कृषि आधारित समाज के बदलते रूप को अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। शोषित निरीह जुलाहा दम्पत्ति, भगिआ और सारिआ की शोकपूर्ण करुण गाथा इसका कथ्य है। गोविन्दपुर का जमींदार रामचन्द्र मंगराज संपदा और अधिकार के वशीभूत और चंपा के बहकावे में छह माण आठ गुण्ठजमीन पर गिद्ध दृष्टि डालता है। यह जमीन भगिआ और सारिआ की है। धर्म की आड़ और मंगराज की चाल ने हँसते-खेलते दम्पत्ति और नेत’ (भगिआ और सारिआ के कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने एक गाय पाल ली, उसका नाम नेत रखा) को भूमिहीन और पागल कर दिया। यह उपन्यास भू-संपदा की चाह को लेकर रचा गया है। इसके लिए नीति-अनीति को ताक पर रखा गया है। दंपत्ति की जमीन की कुर्की कराकर, घर को तुड़वा दिया गया। कर्ज़ कैसे मनुष्य की जिंदगी को लील लेता है ? इसकी भी इसमें सम्यक् प्रस्तुतिहुई है।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्धमें हिंदी में आर्थिक अधोपतन को जीर्ण-जनपदमें अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। इसके अलावा नाटकों में भी आर्थिक-संदर्भ उपस्थित हुए हैं।

20वींशताब्दी के प्रारंभ में इस देश का किसान संगठित रूप से आंदोलन करता है। इसका नेतृत्व पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद, जे.बी. कृपलानी, राजकुमार शुक्ला, पीर मुहम्मद और ब्रज किशोर प्रसाद चंपारन आंदोलन’(1917-18) के साथ जुड़ता है। उसी प्रकार खेड़ा आंदोलन’ (1917-18) से मोहनलाल पांड्या जुड़े थे, गाँधीजी मार्च,1918 में इस आंदोलन से जुड़े। इस आंदोलन की सम्यक् विवेचना करते हुए इतिहासकार सुमित सरकार ने लिखा है कि खेड़ा सत्याग्रह, जो भारत मेंपहला वास्तविक गाँधीवादी किसान सत्याग्रह था, एक छिटपुट आंदोलन बन कर रह गया। 559 में से केवल 70 गाँवों पर ही इसका प्रभाव पड़ा और जून में मामूली सी रियायत लेकर ही आंदोलन को स्थगितकर देना पड़ा।29

राजस्थान का बिजोलियाआन्दोलनप्रजा-शक्ति से उत्पन्न हुआ।गुजरात का बारदोली’ (1927-28) किसान आंदोलन गाँधीवादी तरीकों को अपनाकर सफलता प्राप्त करने वाला पहला किसान आंदोलन था। यह आंदोलन बारदोलीमें लगान मेंकी गई 22 प्रतिशत वृद्धि के खिलाफ 1927 में आरंभ हुआ। स्थानीय सत्ता पर उसके नेता कुंवर जी तथा कल्याणजी मेहता थे। उन्हीं के प्रयासों व अनुरोध से वल्लभ भाई पटेल ने संघर्ष का नेतृत्व अपने हाथ में लिया। डॉ. युवराज कुमार ने 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के कृषक आंदोलनों कीएक प्रमुख विशेषता की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि-कृषक-चेतना व जुझारूपन ने अपने को संगठित रूप से सुदृढ़ करने का प्रयास किया।30
इन्द्रनारायण द्विवेदी की संयुक्त प्रान्त किसान सभा(1918), जवाहरलाल, बाबा रामचन्द्र की अवध किसान सभा (1920), एन.जी. रंगा की रैयत एसोशियन, गुंटूर (1923), संयुक्त प्रान्त किसान संघ (1924), स्वामी सहजानन्द की बिहार प्रादेशिक किसान सभा (नव.1929) इसी प्रयास के द्योतक थे। बंगाल में फजलुलहक की प्रजा पार्टी (जुलाई 1929) तथा पंजाब में फज्ले हुसैन की युनियनिस्ट पार्टी किसान हितों को लेकर स्थापित किए गए राजनीतिक संगठन थे।31

इसी कालखंड में प्रेमचंद का लेखन युग-धर्म की प्रतिध्वनिबनता है। प्रेमचंद किसान को ग्रामीण-तंत्र और नई आर्थिक-व्यवस्था के तले दबते हुए देखते हैं। इसे वे महाजनी सभ्यताके नाम से संबोधित करते हैं। जिसमें पूँजीवाद का प्रेत पुराने मानों-प्रतिमानों को लीलता जा रहा है। नये सामाजिक-संबंध अर्थ की पिशाच भूमि पर अवस्थित हो रहे हैं। अर्थात् अर्थ ही युग-धर्म है। इस महाजनी सभ्यता में किसान की रंगभूमि का मसान होना तय है। यह मसान गोदान के साथ होगा। प्रेमचंद लिखते हैं कि पुरानी सभ्यता सर्वजन-सुलभ, प्रजातांत्रिक थी।...ज्ञान और उपासना का, गंभीरता और सहिष्णुता का सम्मान राजा भी करता था और किसान भी करता था।...आधुनिक प्रणाली ने जनसाधरण को अपनी परिधि से बाहर कर दिया है। उसने अपनी दीवार आडंबर पर खड़ी की है। भौतिकता और स्वार्थपरता उसकी आत्मा है। इसके बावजूद जनतांत्रिक ही आधुनिक सभ्यता का सबसे प्रधान गुण कही जाती है।32

प्रेमचंद की दृष्टि में सरकार’, ‘साहूकारऔर जमींदारये त्रिमूर्तिकाश्तकारों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। प्रेमचंद की पक्षधरता उत्पादक एवं मेहनतकश वर्गों के साथ थी। प्रेमचंद अपने वैचारिक-लेखन में एक ओर वास्तविकता या यथार्थ को रेखांकित करते हैं तो दूसरी ओर संभाव्य-यथार्थ या आदर्श को साथ लेकर चलते हैं। जैसे-क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे फ़ीसदी आबादी किसानों की हो उस देश में कोई किसान सभा, कोई किसानों की भलाई का आन्दोलन, कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो। सैंकड़ों मदरसे और कॉलेज बनवाये, यूनिवर्सिटियाँ खोलीं और अनेक आन्दोलन चलाये मगर किसके लिए ? सिर्फ़ अपने लिए, सिर्फ़ अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए। और शायद अपने राष्ट्र की जो कसौटी आपके दिमाग में थी उसको देखते हुए आपका आचरण ज़रा भी आपत्तिजनक न था। मगर नये ज़माने ने एक नया पन्ना पलटा है। आनेवाला ज़माना अब किसानों और मजदूरों का है। दुनिया की रफ्तार इसका साफ़ सबूत दे रही है।33

इसी लेख में प्रेमचंद कहते हैं कि ताल्लुकेदार और जमींदार समय की हवा का रूख पहचानें। किसानों से बेगारी लेना छोड़ दें, उनके साथ आदमियत का बर्ताव करें, इज़ाफा और बेदखली से परहेज करें, ताकि जनता के दिलों में उनकी इज्जत और उनके प्रति श्रद्धा हो। जनता यानी काश्तकारों की हिमायत का एक प्रोग्राम तैयार करें और उसे अपनी कार्य-प्रणाली बना लें।

पूँजीपतियों ने किसानों की खेती उजाड़ दी है। नई महाजनी सभ्यता (महाजनवाद या पूँजीवाद) के प्रेत से लड़ने के लिए एक नई समाज-व्यवस्था के स्वप्न के लेकर सिद्धांत पश्चिम से उदित हो रहा है जो नई संभावनाएँ पैदा करता है। यह अति आशावाद आज घनीभूत अँधकार में मिट-सा गया है।

आजादी के पूर्व तेभागा आंदोलन’ (‘ते’‘भागाका अर्थ है-एक-तिहाई)1946 के उत्तरार्ध में बंगाल में हुआ। जिसमें बटाईदारों ने ऐलान कर दिया कि वे भूस्वामियों को उपज का आधा हिस्सा नहीं, बल्कि एक-तिहाई हिस्सा देंगे और हिस्सा बँटने तक उपज उनके अपने खामारों (घर से लगे खलियानों) में रहेगी, जोतदारों के खलिहानों में नहीं। यह आंदोलन बंगाल के 19 जिलों में फैला और लगभग 60 लाख किसान इस आंदोलन के सहभागी बने। यह आंदोलन आजादी के बाद समाप्त हुआ। इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे- कृष्णविनोद राय, अवनिलाहिरी, सुनील सेन, विभूति गुहा, मोनी सिंह इत्यादि। त्रावणकोर का संघर्ष’,(1946), और वर्ली का संघर्ष’(1945) भी महत्वपूर्ण किसान आंदोलन थे, जिनको लेकर साहित्य मलयालम एवं मराठी भाषा में लिखा गया।

तेलंगाना-आंदोलन (1945-1951)को लेकर मा भूमिनाटक(वासी रेड्डीभास्कर  राव और सत्यनारायण सुन्कारा)  तेलुगु भाषा में लिखा गया है। जिसका हिंदी अनुवाद प्रो.वी. कृष्ण ने किया है। यह आंदोलन किसानों के भूमि-संघर्ष से जुड़ा हुआ है। मा भूमिनाम से वी.नरसिम्हा राव एवं कृष्ण चंदर ने फिल्म का निर्माण भी किया ।इसमें जमीदार, दोरा, निजाम और सेना के संघर्ष के मध्य प्रजा शक्ति को अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है ।तेलंगाना के किसानों का विद्रोह देशमुखों, पटेल-पटवारियों द्वारा जमीनों की लूट, गैर-कानूनी लेवी, वेट्टी(बेगार) एवं वेटी चाकरी(मुफ्त सेवायें) और निचली जातियों की नौकरानियों के साथ दुर्व्यवहार आदि कारणों से हुआ, जिसने अधिकांश जनता को समान रूप से प्रभावित किया। आन्ध्र महासभा के नेतृत्व में 1940 में किसानों के शोषण के विरुद्ध कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने सर्वप्रथम आवाज उठाई । लेकिनअसली संघर्ष 4 जुलाई, 1946 को आन्ध्र महासभा के कार्यकर्त्ता डोड्डी कुमारैया की हत्या के साथ शूरू हुआ जो एक गरीब धोबन की थोड़ी-सी जमीन को बचाने का प्रयास कर रहा था।...इसी समय पृथक् तेलुगु भाषी राज्य के लिए संघर्ष छिड़ा हुआ था। साम्यवादियों ने इस आंदोलन का समर्थन किया ताकि उस क्षेत्र में निजाम के प्रभाव को कमजोर किया जा सके।...1948 तक गुरिल्लाओं के प्रभाव में 25,000 गाँव आ चुके थे।34

आजादी के बाद बाँधों, राजमार्गों और कल-कारखनों के नाम पर किसानों की भूमि का अधिग्रहण किया गया। इससे किसानों में असंतोष फैला। उन्होंने 1960 के दशक से लेकर सन् 1990 तक भारतीय राजनीति को व्यापकता से प्रभावित किया। नक्सलवाड़ी-आंदोलन में भूमिहीन खेतिहर वर्ग के साथ, गरीब मजदूर और युवावर्ग भी शामिल हुआ। इसके ताप को कम करने के लिए विनोबा भावे का भूदान आंदोलनऔर गरीबी हटाओकार्यक्रम सामने आये। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने भारतीय जनमानस को व्यापकता से प्रभावित किया। इस आंदोलन पर व्यापक साहित्य लिखा गया। हिंदी में कुमारेन्द पारसनाथ सिंह ने बोलो मोहन गाँजूनाम से काव्य लिखा। नक्सलबाड़ी के बाद विभिन्न राज्यों की किसान से जुड़ी हुई प्रांतीय सभाओं और विभिन्न पार्टियों के किसान संबंधी संगठनों ने किसान के मुद्दों को प्रमुखता से सामने लाने का काम किया। जैसे-शेतकारीसंगठन’ (महाराष्ट्र में शरदजोशी के नेतृत्व में) और भारतीय किसान यूनियन (पश्चिमी उत्तरप्रदेश में, महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में) इत्यादि।

सन् 1980 के दशक तक किसान मुद्दे प्राथमिक हो रहे थे क्योंकि किसानों ने अराजनीतिक अर्थात् मौजूदा राजनीतिक दलों की संस्कृति और तिकड़म से अपने को अलग रखा। एक नई राजनीति कीशुरूआतकी। लेकिन 1990 के आसपास नयी आर्थिकी और नेतृत्व की चाह ने किसान आन्दोलन को कमजोर कर दिया।

किसान वर्गसे धैर्य की अपेक्षा सत्ताएँ करती रही हैं। आजादी-पूर्व धार्मिक-सत्ता किसान से गरीब में भी गोदानकरवाती है तो आजादी के बाद आधुनिक तीर्थ-स्थलोंके नाम पर उसके धैर्य की परीक्षा लेतीरही है। आधुनिक तीर्थ-स्थलउसके जीवन को स्वाहा और होम करने में लगे रहे। यह सब व्यवस्था के नाम पर हुआ। कल के नाम पर हुआ। किसान, भूत या कल बन गया। तब उसने साठ के दशक के उत्तरार्धमें अपनी ताकत से पहचान करायी। यह पहचान सत्ता को करवायी। इसी दौर को आधार बनाकर विनोद कुमार ने समर शेष हैउपन्यास लिखा तो महाश्वेता देवी ने 1084 वेंकी माँ' उपन्यास की रचना की। जिसमें नक्सलवाड़ी आंदोलन की दस्तक पूरी कथा भूमि के वातावरण परहावीहै। इसी दौर में सर्वाधिक सामाजिक आंदोलनों का स्वर तीव्र हुआ। इन आंदोलनों में मजदूर, दलित, स्त्री और जनजातीय या आदिवासी सामाजिक वर्गों का प्रमुख स्वर है। इनमें दलितों ने भूमिहीन वर्ग के रूप में और मजूरों ने भी भूमि की आकांक्षा की चाह में आंदोलन किये। ये सामाजिक, जातीय संघर्ष के साथ-साथ आर्थिक सवाल को विशेषकर भूमि के प्रश्न को प्रासंगिक बनाते हैं। जैसे-जिग्नेश मेवाणी का ऊना आंदोलन। यह सामाजिक के साथ-साथ आर्थिक आंदोलन भी है। इसी प्रकार छप्परउपन्यास में भीभूमि एक प्रमुखमुद्दा है।

इसी दौर में आदिवासी या जनजातीय आंदोलन भी अपनी पृथक नृजातीय सांस्कृतिक पहचान के साथ जल, जंगल और जमीन के मुद्दे को लेकर आगे आता है। आदिवासी आंदोलन का इतिहास सन् 1740 के आस-पास से लिखित रूप में मिलता है। इन आदोलनों में गोण्डों, मुंडाओं (तमाड़ विद्रोह 1766 से 1790 के आस-पास तक), कोलों, संथालों, भीलों और खासी समुदायों के आंदोलनों को देखा जा सकता है। ये सब आंदोलन भूमि से जुड़े हुए थे। इनको लेकर कथाकारसंजीव(जंगल जहाँ शुरू होता है’, ‘सावधान ! नीचे आग है’, ‘फाँस’),राकेश कुमार सिंह (पठार पर कोहरा’, ‘महाअरण्य में गिद्ध’)नाटककार हबीब तनवीर (हिरमा की अमर कहानी’) हृषीकेश सुलभ (धरती आबा’), कथाकार हरिराम मीणा(धूणी तपे तीर’) रोज केरकेट्टा और निर्मला पुतुल का साहित्य सामने आया है। इन जनजातीय आदोलनों में कुछ नारे भी बने। जैसे- मध्यप्रदेश में- जल, जंगल, जमीन, ये हों जनता के अधीन’ (भूमि,पानी और जंगल को लोगों के सामुदायिक नियंत्रण में रखा जाना चाहिए)।

राजस्थान में 1990 में बनी मजदूर-किसान-शक्ति-संगठन’ (एम.के.एस. एस.) ने ग्रामीण गरीबों के हेतु न्यूनतम मजदूरी, भूमि अधिकार, रोजगार और विकास कार्यक्रमों हेतु आंदोलन किया। यह आंदोलन जनता के लिए सूचना प्राप्त करने के अधिकार हेतु संघर्ष से जुड़ गया। इसका बड़ा योगदान रहा।

इंडियाके विरूद्ध भारतका नारादिया गया। भारतशब्द का प्रयोग इंडियाके लिए देशी नाम के रूप में किया जाता है जो कृषक समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है और इंडियापश्चिमीकृत नाम है जो औद्योगिक उत्पादन सहित नगरीय केन्द्रों का प्रतिनिधित्व करता है।

वीरेन्द जैन का उपन्यास “‘डूब’(1991) एशियाई कृषक समाज की गतिहीनता, शक्तिहीनता, आत्मग्रस्तता, बहुआयामी उत्पीड़न सहित विभिन्न प्रकार की पेचीदगियों का प्रतिनिधित्व करता है।35 इस उपन्यासको प्रकाश मनु, सुधीश पचौरी, पंकज, नईमऔर रामशरण जोशी ने नई आर्थिकीके अर्थशास्त्र के संदर्भ में महत्वपूर्ण बतलाया है।

एक उदाहरण द्रष्टव्य है जिसमें माते का अरविंद से संवाद है- यह हम क्या सुन रहे हैं महाराज। कोई समझाता क्यों नहीं इस सरकार को ? आदमियों की कीमत पर जानवरों की रक्षा करना चाहती है यह ? गरीबों के जीवन की बलि लेकर अमिरों की तफरीह का बंदोबस्त करना चाहती है यह सरकार ? और कोई इसका हाथ पकड़ने वाला नहीं बचा ? कोई नहीं, कोई भी नहीं ?”36

अर्थात् किसान के जीवन और जमीन से नई व्यवस्था कैसे भी खेल सकती है। किसान टैक्सपेयर वर्ग नहीं है। औद्योगिक-विकास में कृषि का प्रतिशत घटा है। उसका नेतृत्व कमजोर हुआ है। कारपोरेट दुनिया किसान की जमीन का अधिग्रहण करके नये फर्म बनाकर उन्हें बाजारोन्मुख करेगी। उन्हें हाशियाकृत करने की यह सोच इस उपन्यास के मूल में है। जो समकालीन किसान जीवन की वास्तविकता बन रही है। जहाँ वह डूब क्षेत्र में जमीन के साथ स्वयं डूब रहा है। उसका विस्थापन हो रहा है। पुनर्वास का सिर्फ वायदा है जो कभी भी धरातल पर आकर नहीं लेता है।

साहित्य अकादेमी पुरस्कृत राजस्थानी उपन्यास मेवै रा रूंखका हिंदी अनुवाद उपन्यासकार अन्नाराम सुदामा ने महाजनी महात्म्य’ (2007) नाम से किया है। इसमें जीसुख नाई, नत्थू गोदारा से किसान की अधोगति के बारे में बात करता है और उस जड़तक जाता है जो उसके लिए निरंतर संत्रास पैदा कर रही है- किसान के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है कोई, तो वह है क़र्ज़। घास, नाज, पाला, फलगटी मार सब में किसान को ही है। गाड़ीवाले अपने बैलों को घास की ढिगली पर खुला छोड़ देते हैं, वे भी जी भर चरते हैं और कुछ पैरों से निकाल रेत में मिला देते हैं-वह गया किसान का, भाव में दो-चार रूपए कम, वह जूता भी किसान के ही सिर पर, तोल में अधिक, मोल में कम, ब्याज तो अलग है ही, सिर किसान कासुरक्षित फिर कैसे रहे ?”37

राम-भणाईकी पुनरावृत्ति करते समय खेतिहर वर्ग उत्साहपूर्वक कार्य करता है। श्रम की पीड़ा जाती है और थकान का आभास नहीं होता। समवेत रूप में यह क्रिया होती रहती है। जैसे-
दही भैंस काराम ने।
हाँ-सा।
घी गायों का-राम ने।
हाँ-सा।
छाछ छाली की-राम ने।
हाँ-सा।’”38

उपन्यासकार ने स्त्री-शक्ति में विश्वास प्रकट किया है। सुगनी दादी गाँव और महानगरीय जीवन के अनुभवों के आधार पर कहती है कि “...आदमी ऐसे भी देखे, जिन्होंने पीठ कर रखी धरती की ओर और सीना कर रखा है सेठों की ओर।...अर्थात् उनके खेत यहाँ, पर इस रेत से हेत उनमें कहाँ ?”39
इस उपन्यास में किसान वर्ग की एकजुटता और साहूकारों, जमींदारों को तिनके केमानिंद काँपते हुए दिखाया गया है। साहूकार के शोषण का विरोध शिवनाथ करता है। इस उपन्यास में पटनाशब्द का देशज व्यवहार रूढ़ अर्थ से भिन्न रूप में किया गया है। इससे साहित्य में नयेपन की अवधारणा पल्लवित और पुष्पित होती है। जैसे- कल तो क्या बताएँ, हम भी खेत जाने की सोच रही हैं। मोठ झुलसने लगे हैं, पटना है उन्हें ?”40
        
विजयदान देथा ने नव-संभ्रांत किसान वर्ग को अनेकों हिटलरके प्रतीक रूप में चित्रित किया है। महाजनी महात्म्यउपन्यास में किसान वर्ग अपनी लड़ाई क्यों नहीं लड़ पा रहा है ? उस स्थिति के कारणों को भी रेखांकित किया गया है। जैसे- गरीब किसान अंदर-ही-अंदर रीं-रीं तो करते हैं, पर बल बिना बुद्धि बेचारी अकेली क्या करे। साथ में बल हो संगठन का तभी तो आगे बढ़े वह।41

यहाँ सामर्थ्यवान को दोष नहीं देना और कमजोर के माथे पर ठीकरा फोड़ने जैसी स्थिति के परिप्रेक्ष्य में गरीब किसान को चित्रित किया गयाहै। जो शोषण के चक्र से बाहर निकलना चाहता है लेकिन संगठन एवं बल के अभाव में निकल नहींपा रहा है। कथाकार सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने भी अधबुनी रस्सीःएक परिकथा’ (2009) में सामर्थ्यवान चौबे जाति के समकक्ष निर्बल किसुन को उपस्थित किया है। यह वास्तव है। आदर्श, वास्तव से कोसों दूर होता है। इस उपन्यास में चकबन्दी के ऐतिहासिक कार्यक्रम को बड़ी ईमानदारी से प्रस्तुत किया गया है। सरकार, सरकार के अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि कैसे लोकतंत्र को लूटतंत्र और लोभतंत्र में बदलते हैं और गाँधी जी का जंतर और स्वराज अपूर्ण ही रह जाता है। जैसे-उन दानों का अभाव अकाल और गृहयुद्ध का कारण बनता है। वे दाने कितनों को दाता और कितनों को भिखारी की संज्ञा दिलावा देते हैं। इतना ही नहीं, बमनन टोला और पूरब टोला के बीच का अन्तर भी वही दाने पैदा करते हैं।42

महाजनी महात्म्यमें पहेलीनुमा किसान और सरकार के बीच के संबंधों को दर्शाने के लिए कहा गया है कि- कुठौर लगी और ससुर बैद क्या करे उपाय बता कोई ?”43  किसान उस बहू के मानिंद है जिसके कुठौर लगी है, ससुर उसका वैद्य रूची सरकार है। जिसने उसे पीड़ा दी है और उपाय कहीं और जगह खोज रही है ! कथाकार संजीव का उपन्यास फाँसका किसान वर्ग सरकार के लिए फाँस ही बना हुआ है। न निकल पा रहा है और चुभन दे रहा है। रणेन्द्र का गायब होता देशखेतिहर समुदायों के अदृश्य होने की तस्वीर बयां करता है। इसी कड़ी में पंकज सुबीर का अकाल में उत्सव’ (2016) उपन्यास आता है जिसमें राजस्व प्रणाली जो कि किसान से राजस्व वसूलने के लिए बनाई गई थी को समझा जरूरी है। मतलब यह कि जागीरदार के बन गए गिरदावर और पटेल के बन गए पटवारी। और राजा ? है न अपना कलेक्टर, वह किसी राजा से कम है क्या। नाम बदल गए लेकिन काम वही का वही रहा।...चौकीदार, पटवारी और गिरदावर, यह तीनों कितने महत्वपूर्ण लोग हैं, यह केवल किसान ही बता सकता है। इनके पास होती है आर.आर.सी., जिसका पूरा नाम है रेवेन्यू रिकवरी सर्टिफिकिट। इन आर.आर.सी. में जान फँसी होती है किसानों की। हर छोटा किसान किसी न किसी का क़र्ज़दार है, बैंक का, सोसायटी का, बिजली विभाग का या सरकार का।...वसूली कितना खौफ़नाक शब्द है, यह कोई क़र्ज़दार ही बता सकता है। वसूली के ठीक बाद की प्रक्रिया है कुर्की। यह जो कुर्कीहै, यह अपने नाम से ही किसान को डराती है। कुर्की में वसूली से ज़्यादा डर इज़्ज़त उतरने का होता है। किसान, क़र्ज़ा,कलेक्टर और कुर्की चारों नामों को एकसाथ लेने में भले ही अनुप्रास अलंकार बनता है, लेकिन यह किसान ही जानता है कि इस अनुप्रास में जीवन का कितना बड़ा संत्रास छिपा हुआ है।44

रामप्रसाद इस वसूली और कुर्की के धोखाधड़ी में निरपराध आत्महत्याका शिकार बनता है। बैंकों की धांधलीऔर रेवेन्यू विभाग की गलती से निर्दोषकिसान आत्महत्या को विवश होता है। अकाल में उत्सवसरकारी तंत्र मनाता है और किसान को मुआवजा कागजों पर मिलता है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी पच्चीस चौका डेढ़ सौभी अशिक्षा और अज्ञानता के भँवर में पिसते भूमिहीन मजदूर की दास्तान है। लेकिन अकाल में उत्सवका रामप्रसाद इस तंत्र से नहीं जूझ पाता और असमय इसकी अनीतियों का शिकार होता है।

कृषक आंदोलन की प्रकृति बहु-वर्गीय रही है जिसमें धनाढ्य, मझौले किसानों के साथ-साथ गरीब किसानों ने भी भाग लिया। कृषक-आंदोलनों में स्त्रियों की सहभागिता को भी रेखांकित किया जाना चाहिए। तेलंगाना आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका को पी. सुन्दरैय्या ने रेखांकित किया।
आज भारत के किसान के समक्ष व्यापक चुनौतियाँ हैं। पहली वह जिस बीज पर इठलाता था, उसको बाजार की ताकतों ने अपने कब्जे में ले लिया। बीज महंगा, फसल सस्ती। दूसरा-रसायनिक खादों ने जमीन की उर्वरकता को बढ़ाने के साथ मिट्टी की गुणवत्ता में कमी ला दी है। उस का आधार ही हिल रहा है। स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ भी कीटनाशकों और रसायनिकोंकी वजह से है। तीसरा-किसान की फसल का थोक एवं समर्थित मूल्य में अंतर। चौथा सेज़ के नाम पर उसकी जमीन का अधिग्रहण । पांचवा-सरकार एवं कोरपोरेट का किसान विरोधी होना। यह कठिन डगर है किसान की। जहाँ हर स्तर पर मुश्किलें खड़ी की जा रही हैं। उसके अस्तित्व और अस्मिता पर गहराता संकट अधिक सघन हुआ है। अपेक्षा है उत्पादक श्रमिक और विचारशील मध्यवर्ग से जो इसकी लड़ाई में शामिल हो। इसको उचित नेतृत्व प्रदान करे। राजनीतिक नेतृत्व भी संवेदनशील होकर इस सामाजिक वर्ग के बारे में पूरी निष्ठा से जिम्मेदारी निभाये।


संदर्भ

1. हिंदी शब्द सागर, द्वितीय भाग [उ से क्वैलिया तक, शब्द संख्या 20000] मूल संपादक- श्यामसुन्दरदास बी.ए., काशी नागरी प्रचारिणी सभा, सं.-2023 विक्रम, पृ.सं.-656
2.  वही, पृ.सं. 656
3.  संस्कृत-हिंदी कोश, वामन शिवराम आप्टे, मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, सन् 1966, पृ.सं.-299
4.  मानक हिंदी कोश, [हिंदी भाषा का अद्यतन, अर्थ-प्रधानऔर सर्वांगपूर्ण शब्द-कोश] पहला खंड (अ-क) शब्द संख्या, 21948, प्रधान संपादक रामचन्द्रवर्म्मा, हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग, प्रथम संस्करण, 1981, विक्रम सं.-2019, पृ.सं.-534
5.  हिंदी व्युत्पत्ति कोश, आचार्य बच्चूलाल अवस्थी, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2005, पृ.सं.-929
6. किसान आन्दोलन: दशा और दिशा, किशन पटनायक, संपादकसुनील, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण 2006, पृ.सं. 66
7.  वही , पृ.सं.-15
8.  भारत में सामाजिक आंदोलन (संबंधित साहित्य की एक समीक्षा), घनश्याम शाह, अनुवादकः हरिकृष्ण रावत, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2009, पृ.सं. 06
9. वही , पृ.सं. 27
10. वही , पृ.सं. 28
11. वही , पृ.सं. 28
12. वही , पृ.सं. 28
13. वही , पृ.सं. 29
14. वही  पृ.सं. 29
15. वही , पृ.सं. 29
16. वही , पृ.सं. 34
17. वही , पृ.सं. 32
18. वही , पृ.सं. 34
19. वही , पृ.सं. 36                                 
20 .  वही , पृ.सं. 36
21. एक कवि की नोटबुक, राजेश जोशी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.-2004, पृ. सं.- 171.
22. भूमिज लोक-साहित्य : संकलन, हिंदी अनुवाद और विश्लेषण, वर्ष(2017), अप्रकाशित एम.फिल. शोध-प्रबंध, हिंदी विभाग, है.वि.वि., शोधार्थी-कृष्ण चंद्रसिंह, पृ.सं.-105
23. श्रीमती तुड़सादेवी से सुनकर लिपिबद्ध
24. www.kavitakosh.com
25. कभी न छोड़ें खेत, जगदीशचन्द्र, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1976, पृ.सं.-07
26. कवितावली सटीक, गोस्वामी तुलसीदास, आलोचना, मूल पाठ, विस्तृत व्याख्या, प्रो.राजेश शर्मा, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण,1995, पृ.सं.-353
27.  नीलदर्पण, दीनबन्धु मित्र, रूपान्तर नेमिचन्द्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2006, पृ.सं. 25
28. वही , पृ.सं. 17
29. भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवादः एक अध्ययन, संपादक-हिमांशुरॉय, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, प्रथम संस्करण, जनवरी 2013, पृ.सं. 241
30. वही , पृ.सं. 241
31. प्रतियोगिता दर्पण (मासिक पत्रिका), कृषक-श्रमिक संघर्ष एवं वामपंथी विचारधारा का उदय, मार्च, 1994, पृ.सं. 1042
32.  प्रेमचंद प्रतिनिधि संकलन, संपादक खगेन्द्र ठाकुर, प्रधान संपादक-नामवर सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2002, पृ.सं. 161-162
33. वही , पृ.सं. 170
34.  भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद : एक अध्ययन, संपादक-हिमांशुरॉय, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, प्रथम संस्करण, जनवरी 2013, पृ.सं.245
35.  डूब, वीरेन्द्र जैन, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 1991, पृ.सं. 02
36 . वही , पृ. सं. 279
37.  महाजनी महात्म्य, मूल एवं हिन्दी अनुवाद-अन्नाराम सुदामा, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2007, पृ.सं.105
38.  वही , पृ.सं. 110
39.  वही , पृ.सं. 144
40.  वही , पृ.सं. 106
41.  वही , पृ.सं. 103
42. अधबुनी रस्सीःएक परिकथा, सच्चिदानंद चतुर्वेदी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण, 2009, पृ.सं. 77
43. महाजनी महात्म्य, पृ.सं. 105
44. अकाल में उत्सव, पंकज सुबीर, शिवना प्रकाशन, सीहोर, प्रथम संस्करण, जनवरी, 2016, पृ.सं.26-27 

डॉ. भीम सिंह
हिंदी विभाग, मानविकी संकाय
हैदराबाद विश्वविद्यालय-500046
मो.9492024872,ई-मेल - bhimsingh46@gmail.com

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