‘बदलते सामाजिक परिदृश्य और किसान’/दिवाकर दिव्य दिव्यांशु

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
                                         बदलते सामाजिक परिदृश्य और किसान’/दिवाकर दिव्य दिव्यांशु

तुलसीदास ने लिखा है :
                                                “खेती न किसान को भिखारी को न भीख, भली,
                                                बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
                                                जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस
                                                कहें एक एकन सों कहाँ जाईं का करीं।।

                 
इन पंक्तियों के माध्यम से तुलसीदास ने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त समस्याओं पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। यहाँ पर जिन समस्याओं का उल्लेख हुआ है उन समस्याओं को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था और उसे झेला भी था। आज भी वे समस्याएँ हमारे समाज में ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। सभ्यता के विकास के इस दौर में हम एक ओर तकनीक की ऊंचाई पर पहुँच चुके हैं तो वहीं दूसरी ओर आज भी लाखों करोड़ों की संख्या में लोग भूखे-नंगे और बिना छत के रहने को मजबूर हैं। बेरोजगारों की भीड़ खड़ी हो गई है। तकनीक के विकास से रोजगार में वृद्धि तो हुई है किन्तु आबादी लगातार बढ़ते रहने से हम रोजगार के अवसर सब तक पहुँचाने में आज भी असफल साबित हुए हैं।  

                    यदि अकेले किसान की समस्याओं को ही लिया जाए और तब की सामाजिक व्यवस्था से आज की व्यवस्था में तुलना की जाए तो हम पाएंगे कि स्थिति पहले से ज्यादा भयावह हुई है। पहले भी किसान के पास खेती के लिए जमीन नहीं थी, आज भी नहीं है। यदि जमीन है तो खेती योग्य साधन और सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। बीज सर्वसुलभ नहीं है। बाजार में बीज उपलब्ध तो है किंतु इतने महंगे हैं कि छोटे और गरीब किसान उसे खरीदने में असमर्थ हैं। वे इधर-उधर से कर्ज लेकर उसे खरीद भी लें तो मौसम की मार की वजह से उनकी सारी फसलें बर्बाद हो जाती हैं। इससे वे उधारी और कर्ज के चंगुल में इस कदर फंस जाते हैं कि जीवन भर उससे उनका बाहर निकलना दुभर हो जाता है। फलतः आज किसानों की आत्महत्या जैसी प्रवृतियाँ बड़े पैमाने पर सामने आ रही हैं।

                   किसानों में आत्महत्या की प्रवृति किस हद तक बढ़ रही है उसे समझने के लिए हमें बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। सरकारी आंकड़ों की नजर से देखें तो पाएंगे कि सन् 1990 के बाद से अब तक लगभग 10 हजार किसानों ने प्रतिवर्ष आत्महत्याएँ की हैं। यह सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है। वास्तविकता इससे अलग ही होगी। 2009 में भारतीय अपराध लेखा कार्यालय ने सर्वाधिक 17,368 किसानों की आत्महत्या की रिपोर्ट दर्ज की थी। इनमें अधिकांश आत्महत्याएँ महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई थी।

              देश में ऐसी स्थिति क्यों उत्पन्न हो रही है कि यहाँ के किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं ? इस प्रशन का उत्तर है सरकारी तंत्र की विफलता। सरकारी योजनाओं एवं नीतियों का कार्यान्वयन ठीक ढंग से न होना। इसी के सन्दर्भ में बाबा नागार्जुन ने लिखा है :

                                “पाँच वर्ष की बनी योजना एक नहीं दो तीन,
                                कागज के फूलों ने ले ली सबकी खुशबू छीन।

अर्थात् सरकार योजनाएं तो खूब बनाती है किंतु नौकरशाही और अफसरशाही तंत्र इतने भ्रष्ट हैं कि कोई भी योजना शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाती है। योजना किसी तरह शुरू भी हो जाती है तो मंत्री से लेकर संत्री तक उसके धन को मिल बांटकर डकार जाते हैं और योजनाएं कागज पर ही रह जाती हैं।
                   हम बचपन से ही यह सुनते आ रहे हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। इस देश की आत्मा गाँवों में बसती है। यहाँ की अर्थव्यवस्था के विकास में कृषि का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कृषि इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। 2007 तक देश की GDP (सकल घरेलू उत्पाद) में 16.6% हिस्सा कृषि का था। अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिस देश को गाँवों का देश कहा जाता है, उस देश में आज किसान क्यों मर रहे हैं ? उनकी स्थिति इतनी फटेहाल क्यों है ? ये प्रश्न आज सिर्फ प्रश्न बनकर ही रह गए हैं। कोई भी सरकार इसका उत्तर देने की स्थिति में नहीं है। वर्तमान केंद्र सरकार ने भी किसानों की बदहाल स्थिति को सुधारने के तमाम वादे किए थे लेकिन यह भी इस मामले में पहले की सरकारों की तरह ही फिसड्डी साबित हुई है। तमिलनाडु के किसानों द्वारा दिल्ली के जंतर-मंतर पर किए गए विरोध प्रदर्शन को प्रमाणस्वरुप देखा जा सकता है। हालांकि वह दुर्भावनापूर्ण दृष्टि से विपक्षी पार्टियों द्वारा वर्तमान सरकार को बदनाम की साजिश थी जिसका खुलासा बाद में हो गया। बावजूद इसके किसानों की बदहाली को नकारा नहीं जा सकता। विपक्षी पार्टियों की चाहे जो भी मंशा रही हो, सरकार की जवाबदेही तब और भी बन जाती है जबकि चुनाव के वक्त इस सरकार ने कई वादे किए थे। इसने किसानों को उनकी स्थिति में सुधार के बहुत सारे सपने दिखाए थे। लेकिन अब तक उन सपनों को साकार करने का  कोई साधन या रणनीति सामने नहीं आई है। नागार्जुन के शब्दों में कहें तो,

                                “रामराज में अबकी रावन नंगा होकर नाचा है,
                                सूरत सकल वही है भैया बदला केवल ढांचा है।

                 इस सरकार में एक चीज अच्छी हुई है कि उत्तर प्रदेश में किसानों के कर्ज माफ़ कर दिए गए हैं। इससे उन्हें थोड़ी-बहुत राहत जरुर मिली है। महाराष्ट्र में भी इसकी प्रक्रिया चल रही है। यदि ऐसा हो जाता है तो वहाँ के किसानों को भी थोड़ी राहत जरुर मिलेगी। कर्ज माफ़ी से एक सवाल यह उठता है कि कर्ज माफ़ी जैसे कदम की जरूरत ही क्यों आती है ? सरकार उनके लिए वे साधन उपलब्ध करवाने की कोशिश क्यों नहीं करती कि वे स्वयं इतने सक्षम हो जाएं कि अपना कर्ज चुकता कर सकें ? इसका उत्तर न तो पिछली सरकार के पास था और न ही इस सरकार के पास है। मुझे ऐसा लगता है कि कर्ज माफ़ी जैसे कदम से समाज में एक गलत संदेश जाएगा क्योंकि बड़े और समर्थ किसान इसका नाजायज फायदा उठाएंगे। पहले तो वे सरकार से ज्यादा कर्ज लेंगे और फिर उस पर माफ़ी के लिए दबाव बनाएंगे। इससे छोटे और गरीब किसानों को नुकसान होगा। उनकी स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहेंगी और कर्ज में ही उनका सारा जीवन बीत जाएगा। किसानों की दयनीय अवस्था और कर्ज की विभीषिका का चित्रण प्रेमचंद ने इस प्रकार किया है – “अनाज तो सब का सब खलिहान में ही तुल गया। जमींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातोंरात ढोकर छिपा दिया था, नहीं तो तिनका भी न बचता। जमींदार तो एक ही है, मगर महाजन तीन-तीन हैं। सहुआइन अलग, मंगरू अलग और दातादीन पंडित अलग। किसी का भी ब्याज पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपये बाकी पड़ गए। सहुआइन से फिर रुपये उधार लिए तो काम चला।इस तरह से हम देख सकते हैं कि कैसे किसान की कुल उपज इधर-उधर चला जाता है और वे आजीवन कर्ज में डूबे रहते हैं।

          हिंदी साहित्य के इतिहास में सूर, तुलसी से लेकर निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और केदारनाथ सिंह तक के कवियों के साथ-साथ प्रेमचंद, सुदर्शन, और शिवमूर्ति इत्यादि साहित्यकारों ने किसान को केंद्र में रख कर उनकी समस्याओं और उनके जीवन-यापन के तौर-तरीकों को अपनी रचनाओं में गंभीरता से उकेरा है। प्रेमचंद ने किसानों की दशा का वर्णन करते हुए लिखा है कि, “कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ ? आदमी वह है जिसके पास धन है, अख्तियार है, इलम है। हमलोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं।इन पंक्तियों में किसानों की दारुण स्थिति को हम आसानी से देख और समझ सकते हैं। सुबह से लेकर शाम तक हाड़तोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें ठीक से दो वक़्त का भोजन भी नसीब नहीं होता। दिन-रात मेहनत करने वाली उनकी प्रवृति, उनकी दिनचर्या और अथक परिश्रम को सत्यनारायण लाल ने इन पंक्तियों में उकेरा है :
                                “नहीं हुआ है अभी सबेरा, पूरब की लाली पहचान।
चिड़ियों के जगने से पहले, खाट छोड़ उठ गया किसान।
खिला-पिला कर बैलों को, ले करने चला खेत पर काम।
नहीं कोई त्योहार न छुट्टी, है इसको आराम हराम।

                इस प्रकार, अनवरत काम करते रहने के बावजूद किसानों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि वे अपनी-अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को भी पूरी कर सकें। प्रेमचंद ने गोदान में होरी के माध्यम से गरीब किसानों की इस मज़बूरी को दिखलाया है कि एक गाय पालने की इच्छा भी वह पूरी नहीं कर पाता। उसके पास इतने पैसे ही नहीं है कि वह गाय खरीद सके और अपने परिवार तथा बच्चे को उसका दूध उपलब्ध करवा सके। इसे हम प्रेमचंद की निम्न पंक्तियों में देख सकते हैं - भगवान कहीं गौ से बरखा कर दें और डांडी भी सुभीते से रहे तो एक गाय जरुर लेगा। देशी गायें तो न दूध दे, न उसके बछवे ही किसी काम के हों, बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चलें। नहीं, वह पछाई गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पांच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तरस कर रह जाता है।इन पंक्तियों के द्वारा किसानों की बेबशी को बहुत हद तक समझा जा सकता है। किसान का बेटा दूध के लिए तरसे जबकि किसान पशुपालक भी होते हैं। मैनेजर पाण्डेयजी  ने लिखा है कि, “खेती के साथ-साथ किसान जीवन का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है पशुपालन। यह आज भी किसान जीवन की वास्तविकता है।लेकिन यह वास्तविकता सब पर लागू नहीं होती। होरी की इच्छा एक गाय पालने की थी जो वह चाहकर भी अपने जीतेजी पूरी नहीं कर सका था। यह प्रतीक मात्र न होकर भारतीय किसान के वास्तविक जीवन की सच्चाई है।

                हमारे देश के किसान बड़े-बड़े सपने नहीं देखते क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि वे अपने जीवन में रोजमर्रा की वस्तुएं भी नहीं खरीद सकते हैं। इसलिए वे छोटे-छोटे सपने देखते हैं। मसलन, भरपेट भोजन, दिन-भर के लिए दाना-पानी, भेड़-बकरियाँ, गाय-बैल और अच्छी फसल की पैदावार। इसलिए उन्हें मोटर-कार और ऐशों-आराम के सपने नहीं आते। इसके बावजूद वे खुश रहते हैं। उनकी दुनिया बहुत छोटी है। उसमें वे, उनके पूर्वज और आने वाले बच्चों तक ही शामिल होते हैं। इन सब से उनका घनिष्ठ लगाव होता है। वे शहरी और अमीर लोगों की तरह स्वार्थ से वशीभूत होकर रिश्ते नहीं बनाते। उनकी इस मानसिकता को उकेरते हुए केदारनाथ सिंह लिखते हैं :

                                               उसे मैं निकट से जानता था
                                                उसकी एक छोटी से दुनिया थी
                                                छोटे-छोटे सपनों
और ठीकरों से भरी हुई
उस दुनिया में पुरखे भी रहते थे
और वे भी
जो अभी पैदा नहीं हुए।

दूसरी ओर, विकास के नाम पर उनका बड़े पैमाने पर विस्थापन भी हो रहा है। जबरदस्ती उनकी खेती योग्य भूमि पर सरकार या पूंजीपति कब्ज़ा कर रहे हैं और बदले में जो मुआवजा उन्हें दे रहे हैं वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। ऐसी स्थिति में वे अपनी जगह से उठ कर दूसरी जगह जाने को मजबूर हैं। ऐसा नहीं है कि वे इन नीतियों का विरोध नहीं करते, करते हैं लेकिन इसके बदले में उन्हें या तो पुलिस की लाठी खानी पड़ती है या फिर गोली खानी पडती है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसानों के लिए आज पहली और दूसरी कोई भी स्थिति ठीक नहीं है। विस्थापन की विभीषिका का चित्रण समकालीन कवि केदारनाथ सिंह ने कुछ इस प्रकार किया है कि एक बूढा़ आदमी जो बरगद के पेड़ पर मचान बना कर रहता था और जिसे व्यवस्था ने काटने का हुक्म दे दिया था।यह जानते हुए भी कि पेड़ के कटने से उस पर रहने वाला वह इंसान बेघर हो जाएगा किन्तु इसकी चिंता किसी को नहीं थी। अंततः उस पेड़ को काट दिया जाता है और उसे विस्थापित कर दिया जाता है। अपने घर को उजाड़ने वालों का वह विरोध भी करता है लेकिन किसी पर उसका कोई असर नहीं होता। उस आदमी के विरोध का चित्रण इस प्रकार है :

                               चाये काट डालो मुझी को
                                उतरूँगा नईं
                                ये मेरा घर है !
                 ×    ×     ×             
                                सो जैसे-तैसे पुलिस के द्वारा
                                बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को
                                और हाथ उठाए-मानो पूरे ब्रह्मांड में-
चिल्लाता रहा वह-
घर है...ये...ये मेरा घर है।”          

इन पंक्तियों में अपना घर-बार, जमीन और जानवर सबकुछ के छूटने का दर्द आसानी से समझा जा सकता है।

निष्कर्षतः, यह कहा जा सकता है कि आज जरुरत है उन ढांचागत विकास कार्यों को अंजाम तक पहुँचाने का जिससे कृषि योग्य परिस्थितियाँ और सिंचाई के साधन विकसित हो सकें। उनकी सुरक्षा की गारंटी दी जा सके। साथ ही विकास कार्यों के लिए खेती योग्य भूमि का उपयोग न कर बंजर और मरुस्थलीय भूमि का उपयोग किया जाए। इससे किसानों का भी भला होगा और देश का भी। किसान खुशहाल होंगे तो देश खुशहाल होगा और बेरोजगारी, बेकारी तथा भुखमरी जैसी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाएंगी।
               
संदर्भ
1.            नागार्जुन ग्रंथावली, सं.- शोभाकांत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2003
2.            सृष्टि पर पहरा, केदारनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2012
3.            कविता कोश.कॉम
4.            गोदान, प्रेमचंद, मनोज पब्लिकेशन्स, दिल्ली, संस्करण-2008
5.            भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2001

दिवाकर दिव्य दिव्यांशु
शोधार्थी,हिंदी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्विवद्यालय, हैदराबाद,मो. 9441376548

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