नवउदारवाद और किसानों की दुर्दशा/डॉ. अमृत प्रजापति

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
नवउदारवाद और किसानों की दुर्दशा/डॉ. अमृत प्रजापति

विश्व युद्ध बाजारवाद की देन है। बीसवीं सदी ने दो भयंकर विश्व युद्ध देखे और तीसरे विश्व युद्ध के दरवाजे पर दस्तक देकर संसार थोड़ा पीछे तो आ गया, किन्तु उसकी संभावनाएँ एक भयानक स्वप्न की तरह हमारे चारों ओर मँडरा रही हैं। बाजार के लिए उत्पन्न किये गये माल के वितरण के लिए ज्यों-ज्यों नये क्षेत्र और विशाल मात्रा में ग्राहकों की आवश्यकता पड़ी त्यों-त्यों एक देश दूसरे देश में अतिक्रमण का प्रयास करता रहा और इस तरह दो भयानक विश्व युद्ध हुए। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् विश्व पूँजीवाद के अंतर्विरोध इतने तीव्र हुए कि तीसरा विश्व युद्ध सबके विनाश का कारण बन सकता था। यही कारण है कि पूरा विश्व शक्ति-संतुलन के लिए दो महा गुँटों में विभाजित हो गया। और इस तरह अमेरीका तथा यु.एस.एस.आर. के नेतृत्व के बीच का तनाव तीव्र से तीव्रतर होता गया। और इस तरह विश्व एक भयानक शीत युद्ध में अनचाहे ही धकेल दिया गया। बीसवीं सदी के नवें दशक तक आते-आते विश्व पूँजीवाद अमेरीका के नेतृत्व में यु.एस.एस.आर. के तथाकथित समाजवादी आर्थिक राजनैतिक ढांचे को तोड़ने में सफल हो गया। और आर्थिक क्षेत्र में वैश्विकरण, उदारीकरण और निजीकरण की शुरूआत हुई।

लोहे के ये दरवाजें मरणासन्न पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था को नवजीवन प्रदान करने के लिए तोड़े गये थे। उदारीकरण और निजीकरण के परिणाम स्वरूप पिछली सदी के अंतिम दशक में अतिशय मरणासन्न अवस्था को पहुँच चुके विश्व पूँजीवाद को कुछ समय के लिए जीवन दान तो मिला, किन्तु श्रमिक, शोषित जनता, मज़दूर एवं किसानों की स्थिति भयानक हुई। मज़दूरों और किसानों का भयानक शोषण करके ही विश्व पूँजीवाद को जिन्दा रखा जा सकता है। इसलिए श्रम से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए किसानों की दशा और खराब हुई।

इक्कीसवीं सदी तक आते-आते सारे विश्व के किसान अपने तमाम प्रयत्नों के बावज़ूद तहस-नहस हो गये। हम जानते हैं कि भारत की अर्थ व्यवस्था ग्रामीण अर्थव्यवस्था है। अंग्रेजों ने आकर 18वीं और 19वीं सदी में ही भारतीय पूँजीवाद की भ्रूणहत्या कर दी थी। मुगल काल में जन्मा भारत का पूँजीवाद अभी विकास कर ही रहा था कि उसका गला घोंट दिया गया। परिणाम स्वरूप यहाँ पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति संपन्न नहीं हो पायी और भारत के समाज में सामंतवाद और पूँजीवाद का अजीब संमिश्रण अंग्रेजों के शासन काल में तैयार हुआ। उपनिवेश काल में भारतीय किसानों का भयंकर शोषण होता रहा और उनकी दशा बदतर होती गयी। कृषिप्रधान भारत देश की कमर तोड़ कर अंग्रेज वापस इंगलैण्ड गये, किन्तु भारत के एक ऐसे वर्ग को शासन सौंपते गये जो ना तो भारत के कृषक समाज की समस्याओं से परिचित था और ना उनके पास भारतीय किसानों की दुर्दशा का कोई अनुभव था। आज़ादी के पश्चात् धन और पूँजी का केन्द्रीकरण होता गया और कृषिप्रधान देश की रीढ़ किसानकंगाल होते गये। देश की कृषि नीतियाँ दरिद्र, अन्यायपूर्ण और अविवेकपूर्ण थीं। यहीं कारण है कि कारखानों में उत्पन्न छोटी-सी-छोटी चीज का मूल्य निर्धारण उसके उत्पादक कर सकते थे। किन्तु पूरे देश को भोजन पहुँचानेवाला अनाज का उत्पादक किसान अपने किसी उत्पादन का मूल्यनिर्धारण नहीं कर सकता था। जिस तरह श्रमिक अपने श्रम की कीमत नहीं तय कर सकता था ठीक उसी तरह कृषक अपने अनाज, सब्जियों एवं फलों का मूल्य तय नहीं कर सकता था।

21वीं सदी के प्रारंभ से ही पूँजीवाद के भयंकर अंतर्विरोधों का प्रभाव किसानों पर क्रूरता से  दिखाई पड़ता है। प्रकृति की कृपा पर निर्भर करता किसान आज भी इतना विपन्न और असहाय इसलिए है कि सरकार सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी अभी भी उन्हें मुहैया नहीं कर पाती। बीज के लिए किसानों को अभी भी सरकारी तंत्र और महाजनों, साहुकारों के कर्ज पर निर्भर रहना पड़ता है। खाद तथा जुताई, बुवाई के लिए मजदूरी देने के लिए उसे ऊँची ब्याज दरों पर कर्ज लेना पड़ता है। उसकी स्थिति तब सबसे ज्यादा खराब हो जाती है, जब वो अपने उत्पादन को बाजार में बेचने के लिए आता है। बाजार में उसे अपने उत्पादन की कीमत जो मिलती है वो उसकी लागत कीमत से भी कम होती है। कई बार किसान फलों और सब्जियों को बाजार तक पहुँचाने के लिए जो साधन किराये पर लेते हैं उनका किराया चुकाने भर को भी दाम उनके माल का नहीं मिलता।

पिछले दिनों हमने देखा कि महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश तथा अन्य कई क्षेत्रों के हजारों किसानों ने आत्महत्या कर लीं। उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों की स्थिति दुर्दांत है। किसान पूरे साल कठोर परिश्रम कर गन्ने का उत्पादन करते हैं। किन्तु गन्ने की बिक्री की व्यवस्था के लिए सरकार के पास कोई ठोस नीति न होने की वजह से उन्हें कारखानेदारों को औने-पौने भाव में गन्ना बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कारखानों के सामने पंद्रह-पंद्रह दिनों तक बैलगाड़ियों और ट्रैक्टरों में गन्ना लादकर उन्हें खड़ा रहना पड़ता है। फिर जब पूँजीपति उनका गन्ना खरीदता है तो तत्काल पैसे की अदायगी नहीं करता। दूसरी ओर उन्हें कर्ज की किस्त समय के अनुसार चुकाना ही पड़ता है। इस तरह आर्थिक दबावों में किसानों के पास मृत्यु से सरल कोई दूसरा मार्ग शेष नहीं बचता।

भारत के किसानों की इस दुर्दशा से कई साहित्यकार चिंतित हैं। शोषित, दलित एवं शासित वर्ग के प्रति निरंतर चिंतित रहनेवाले साहित्यकार तटस्थता से कृषकों की दशा का अवलोकन नहीं कर सकते। फूलचंद गुप्ता ऐसे ही एक साहित्यकार हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से किसानों और मज़दूरों की समस्याओं का चित्रण ही नहीं किया, अपितु सकारात्मकता से उनका पक्ष लिया है और किसानों के वर्गीय हित के लिए निरंतर संघर्ष किया है। इसी माहौल मेंनामक कविता-संग्रह में किसानों की दुर्दशा का सजीव चित्रण उनकी अनेक कविताओं में देखा जा सकता है। चील और चिड़िया’, ‘बैल-1’, ‘बैल-2’, ‘शनिवार वाली रात’, ‘जौहर’, ‘वह नहीं जानते बहुत सारी चीजों के बारे में’, ‘और क्या चाहा है मैंनेआदि कविताएँ किसानों की समस्याओं के प्रति फूलचंद गुप्ता की चिंता के प्रमाण हैं। कविता को मनुष्य का प्यार भरा सपना माननेवाले कवि फूलचंद गुप्ता किसानों के जीवन को बैल के जीवन की तरह देखते हैं। किसानों की स्थिति का वर्णन बैल के प्रतीक के माध्यम से व्यक्त करते हुए कवि कहता है

जुआ हमारे कंधों पर रखा जाता है
सारे के सारे घाव हमारे हिस्से आते हैं
हल हम खींचते हैं
पैना हमारी पीठ पर पड़ता है
फसल उगती है
हमारे बलबूते पर
मुँह हमारे बाँधे जाते हैं
मैं ज़ाहिर ज़हूर पूछता हूँ एक प्रश्न --
भूसा ही बार-बार क्यों आता है
हमारे हिस्से में
दानों का मालिक
कोई कैसे हो जाता है?” (इसी माहौल में, पृ.25-26)

खेतों में अनाज उत्पन्न करने के लिए जितना परिश्रम एक बैल करता है संभवतः उससे अधिक परिश्रम किसान को करना पड़ता है। बैल भले ही अपने कंधों पर जुआ थाम कर गाड़ी के बोझ को खींचते हुए खेत से बाजार तक लाता है, किन्तु किसान की छाती पर उससे कहीं अधिक चिंताओं का भार होता है। क्योंकि बैल का गंतव्य बाजार तो निश्चित है, किन्तु बाजार का निर्णय किसान के पक्ष में होगा यह किसान नहीं जानता। इस अनिश्चित परिस्थिति में भी किसान अनाज का उत्पादन करता है और इस पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व को सुनिश्चित करता है।

फूलचंद का सृजनकार जानता है कि कृषक वर्ग का अस्तित्व खतरे में है, किन्तु वह इसके परिणाम के प्रति भी सचेत है। अनाज के बिना मानव जाति जीवित नहीं रह सकती और अनाज किसान के श्रम के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। किसान एक बीज के हजारों दानों के रूपांतरण तक हर कहीं मौजूद होता है। वह किसान ही है जो अपने मनोबल के साथ खाली पेट होते हुए भी हल बनकर पथरीली जमीन का सीना चाक करता है। इस तरह बीज बनकर धरती के कोख में उतरता है। धरती के गर्भ से अंकुर बनकर बाहर निकलता है। और शरदी, गरमी, बरसात, धूप-छाँह, पाले-ओले हर परिस्थितियों का सामना करते हुए फसलों में बदलकर बाहर आता है। मनुष्य जीवन के लिए तथा समग्र मानवजाति के लिए किसान की इतनी अनिवार्यता होने के बावजूद यह व्यवस्था किसानों को बदले में भूसा भी उपलब्ध कराने में निष्फल हो गई है। हम देखते हैं कि जैसे काणी में मूसल के नीचे अनाज कूटा जाता है ठीक उसी तरह सरकार की नीतियों और साहुकारों की मनमानियों के बीच किसान कूटा जा रहा है। गेहूँ की तरह दो पाटों के बीच में किसान पीसा जा रहा है। और जब स्वादिष्ट रोटी की तरह किसान बाजार में पहुँचता है तो

बस उसके बाद
अँगूठे और तर्जनी के बीच
लोहे का चीमटा पकड़े हुए
एक बदसूरत हाथ आगे आता है
और दबाकर ले आता है
अनाज को
चीनी मिट्टी के बर्तनों में रख आता है
किसान
रह जाता है अकेला
लोहे के धिकते हुए तवे पर
झुलसने के लिए
खूबसूरत हाथ की तरह।” (इसी माहौल में, पृ.20)

फूलचंद अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। उनकी कविताओं में वर्तमान व्यवस्था के झूठे विकास की चकाचौंध नहीं है। और न ही असत्य को सत्य बताने वाली झूठी शक्तियों की अनुसंशाएँ उनकी कविता में कहीं दिखाई देती हैं। फूलचंद की कविताओं में वर्तमान समय की चुनौतियों को देखा जा सकता है। उनकी कविताएँ सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के नाम पर अनर्गल प्रलाप के विरोध में सन्नद्ध खड़ी दिखाई देती हैं। सत्य के प्रति कठोर आग्रह उनके अब तक प्रकाशित सातों कविता-संग्रहों तथा कहानी-संग्रह के साथ लगभग सभी कृतियों में पाठक बखूबी देख सकता है। यथार्थ के चित्रण के साथ-साथ किसानों एवं श्रमिकों के जीवन की विद्रूपताओं का चित्रण करते समय कवि का पक्ष स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वर्तमान व्यवस्था विश्व पूँजीवाद के अतिशय मरणासन्न काल की है। यह अनेक प्रकार की विसंगतियों से भरी हुई है। अपनी ही विसंगतियों के भार से चरमराती यह व्यवस्था चिरंजीवी नहीं है। जब कि खेतिहर मजदूर और किसान तब तक जीवित रहेंगे, जब तक इस पृथ्वी पर मनुष्य की जाति का एक भी प्रतिनिधि मौजूद रहेगा। कवि का स्वर इन्हीं श्रमजीवियों का स्वर है। वह निराश नहीं है। इसीलिए तो फूलचंद का किसान कहता है

ब्रह्मास्त्र हमारे हाथों में है
हम इसे चलाना नहीं जानते
इसीलिए यह व्यर्थ है
और हम कमजोर हैं
हमें इसे चलाना सीख लेने दो
फिर हम बतायेंगे
हम जो दीखते हैं
वही नहीं, कुछ और हैं।”(दीनू और कौवे, पृ.9)

डॉ.अमृत प्रजापति
एसोशियेट प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्याक्ष,गवर्मेण्ट आर्ट्स एवं कॉमर्स कॉलेज कडोली
ता. हिंमतनगर, जि. साबरकांठा (उत्तर गुजरात)पिन 383220, मो. 9426881267

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