भारतीय किसान जीवन और समकालीन परिदृश्य/प्रदीप कुमार

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
भारतीय किसान जीवन और समकालीन परिदृश्य/प्रदीप कुमार

              
मानव सभ्यता के विकास में कृषि की अमूल्य भूमिका रही है। मानव का अस्तित्व ही कृषि और शिकार पर टिका रहा। रेमंड विलियम के अनुसार तो कृषि से ही संस्कृति का जन्म होता है। कृषि ने ही हमे संस्कारित बनाया। प्रारम्भिक खेती ,पशुपालन व शिकार की प्रक्रिया प्रकृति द्वारा नियंत्रित होती रही ,जिसमें संघर्ष था, मानवीयता थी और त्याग की भावना थी। प्रकृति के विरुद्ध उसमे कुछ भी नहीं था। जैसे-जैसे मानव के अन्दर संग्रह की प्रवृत्ति ने जगह बनाई मानव अधिक लालची, द्वेषी और दम्भी बनने लगा। सुखभोग की अपार लालसाएं अपने स्वाभाविक विकास की सीमा को पार कर कुलांचे मारने लगीं। विज्ञान और सभ्यता के विकास ने मनुष्य के अंदर श्रम के प्रति घृणा का भाव भर दिया।  तमाम बुराइयों से भरे सभ्य और सुसंस्कृत दिखने वाले लोग अपने ही साथी सहयोगी किसान ,मजदूर व अन्य को हेय दृष्टि से देखने लगे। लोगों ने ऐसी सामाजिक संरचना बनाई जिसमे अधिक मेहनत करने वाले वर्ग का अपने ही उत्पादों पर कोई अधिकार नही। इस प्रकार उत्पादक वर्ग की आर्थिक स्थिति दिन प्रति दिन गिरती गयी और संचालक वर्ग की आर्थिक स्थिति दिन दुनी रात चौगुनी होती गयी। इस तरह से बढ़ी अमीरी गरीबी की खायीं का दंस हमारा समाज आज भी झेल रहा है , जो घटने का नाम ही नहीं ले रहा है।

         उत्पादक वर्ग शोषण ,अत्याचार व गुलामी का शिकार हुआ तथा संचालक वर्ग के सुख का साधन बना। मगर समय और परिस्थितियाँ हमेशा एक जैसी नहीं होती ,समय समय पर वह करवटें बदला करती हैं। कोई भी समाज हो उसमें अच्छे-बुरे लोग व अच्छे बुरे कार्य हमेशा होते रहते हैं। जरूरत है अच्छाई को बढ़ावा देने की और बुराई की निंदा करने की जिसे हम संचालक वर्ग कहते हैं , जो हमारे लिए अंधकार का प्रतीक बन चुका है, समय समय पर उसी में से रौशनी की किरण भी फूटती है। कवि वशिष्ठ अनूप ने ठीक ही कहा है कि-

                  कड़ी चट्टान के सीने से ही निर्झर निकलता है .
                  घनी रातों के पीछे भोर का मंजर निकलता है।

      इतिहास गवाह है - फ़्रांस में बाल्जाक,मादाम स्तेल,चीन में लेनिन ,माओ,रूस में टालस्टाय व भारत में बुध्द, कबीर, रवीन्द्रनाथ, प्रेमचंद, महात्मा गाँधी , सहजानंद सरस्वती, बाबा साहेब अम्बेडकर, फुले आदि कहाँ से निकल कर आते हैं। ये सभी लोग मानवता की लड़ाई लड़ते हैं ,शोषण को ख़त्म करना चाहते हैं तथा बुराइयों का अंत करना चाहते हैं। लेकिन क्या इनके लड़ने से बुराइयाँ समाप्त हो पायीं ?क्या उनके सपने पूरे हुए ? अगर बुराइयाँ नहीं समाप्त हुईं ,सपने नही पूरे हुए तो क्या हमें इन सबके खिलाफ लड़ना छोड़ देना चाहिए ? नहीं , ऐसी परिस्थिति में हमारा कर्त्तव्य बनता है इनसे (बुराइयों विडम्बनाओं ) से लड़ना ,समाज को अच्छा से अच्छा बनाने का सतत प्रयास करना और उनके सपनों का वाहक बनना। कर्मणेवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचनःके अनुसार हमे कर्म करते रहना है। वह भी अच्छा कर्म और उसके फल की आशा बिलकुल नहीं करना है। हम सबका मानना है कि हमारे थोड़े-बहुत प्रयास से शोषित ,उपेक्षित,पीड़ित समाज के दर्द का सिलसिला थोड़ा कम जरुर हो जायेगा।

               दर्द का सिलसिला थोड़ा थम जायेगा ,
               सारी दुनिया से जुल्मो सितम जायेगा।
               जायेगा धीरे धीरे बुरा वक्त भी ,
               पर न सम्भव की वह एकदम जायेगा।

                    इस प्रकार समकालीन परिदृश्य को समझने के लिए हमे फ्लैशबैक का भी सहारा लेना पड़ता है। जब तक हम सहजानंद सरस्वती व प्रेमचंद के समय के किसान आन्दोलन को नही समझेगे  तब तक हम समकालीन किसान जीवन की चुनौतियों से लड़ने की ताकत नहीं ग्रहण कर सकते। किसान हमेसा से अभावग्रस्त रहा है ,समस्याओं से जूझता रहा है लेकिन इसके बावजूद भी वह अपनी मेहनत और कर्तव्य के प्रति इमानदार रहा है। बच्चे जैसा भोला हृदय रखने वाले किसान को आज भी राजनेता ,साहूकार ,पटवारी व प्रशासनिक अधिकारी खिलौना देकर बझाते आये हैं। कभी भी दिल से किसानों की समस्याओं को समाप्त करने का संकल्प कोई नही लेता है।

              “1960-70 के दशक में हरित क्रांति आयी ,जिसमें खेती के क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़े। पंचवर्षीय योजनाओं के तहत नई कृषि नीति को बढ़ावा मिला। कृषि के उत्पादों में वृद्धि हुई। इसका फायदा कमोवेश हर श्रेणी को प्राप्त हुआ। वर्ष 1969 में इंदिरा गाँधी द्वारा बड़े बैंकों ,वीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण से गांवों में ऋण आसान शर्तों पर उपलब्ध होने लगा। नाबार्ड ने  वाणिज्यिक बैंकों की सहायता से ग्रामीण बैंकों की देशव्यापी श्रृंखला स्थापित की। मृतप्राय दस्तकारियों को जिन्दा किया गया। अनाज ,उर्वरक ,बिजली आदि पर सरकारी सब्सिडी तथा जवाहर रोजगार योजना से काम के अवसर पैदा हुए। इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत दलितों तथा अन्य कमजोर श्रेणियों को सस्ते मकान उपलब्ध कराए गये।

              यह समय किसानों के लिए शुभ संकेत रहा। किसान खुशहाली की ओर बढ़े ,शहरों की ओर किसानों का पलायन रुका। किसान मजदूर न बनकर अपने मर्याद की ओर लौटा। किसान की इच्छाएं सीमित होती हैं। वह प्रकृति के साथ ताल-मेल बैठाकर चलता है। वह प्रकृति के मार को झेलने के लिए तैयार भी रहता है। मगर कब ? जब वह अपने स्वाभाविक विकास की गति से अपनी क्षमता के अनुसार चलता है। मुनाफा की होड़ में इतना दम लगाकर नही दौड़ता है कि मर जाये। यह गुण पूंजीपतियों का है , जो बड़े किसानों के साथ-साथ छोटे किसानों के अंदर इस जीन को बायो टेक्नोलाजी के माध्यम से भर रहे हैं। यही वह कारण है जो उनके जीवन में चुनौती बनकर सामने आ रहा है।

             विदर्भ के किसान इसी मुनाफा संस्कृति के शिकार हो आत्महत्या कर रहे हैं। महावीर प्रसाद द्विवेदी को 1908 में ही इस समस्या का भान हो गया था , तभी तो वह लिखते है कि – “ जहाँ तक जमीन की उर्वरा या उत्पादक शक्ति की सीमा का अतिक्रमण नहीं होता वहीं तक अधिक खर्च करने से लाभ हो सकता है। आगे नहीं। उत्पादकता की सीमा पर पहुँच जाने पर खर्च बढ़ाने से लाभ के बदले उलटा हानि होती है। ... अंततः फल यह होगा कि पैदावार बढ़ाने की कोशिश में , अधिक पूंजी लगाने और अधिक मेहनत करने पर भी , फी आदमी हिस्सा कम पड़ेगा। धीरे-धीरे यह हिस्सा और कम होता जायेगा। यहाँ तक कि दो-चार वर्ष पैदावार की अपेक्षा खर्च बढ़ जायेगा और उन पन्द्रह आदमियों का गुजारा मुस्किल से होगा। उन्हें जमीन छोड़कर भागना पड़ेगा। ”  यही तो हो रहा हैं आज देश के किसानों के साथ। कम्पनियों के बहकावे में आकर किसान महंगे खाद , महँगे बीज , महँगे कीटनाशक का प्रयोग अंधाधुंध कर रहे हैं , जिससे खेती का खर्च तो बढ़ रहा है लेकिन उत्पादन उतनी मात्रा में न मिलने पर किसान कर्ज में हो जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है। वास्तव में किसान अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए नही मरता वह तो इन भस्मासुरों का उदर भरते-भरते अपने आपको मिटा लेता है ,और भर भी नहीं पाता है।

               समकालीन किसान जीवन के चुनौतियों की लड़ियाँ तो 1990 के बाद नई आर्थिक नीति के आने से लगने लगी। जब वाशिंगटन आम राय पर आधारित भूमंडलीकरण को नरसिंह राव सरकार ने अंगीकार किया। वाशिंगटन आम राय के तहत दस बातें हैं जिनके अनुसार सब्सिडी में कटौती और गरीबी निवारण के कार्यक्रमों की लगभग समाप्ति ,निजीकरण ,विनियमनों और नियंत्रणों का खात्मा ,वित्तीय उदारीकरण ,व्यापार का उदारीकरण और विदेशी पूंजी के प्रवेश के लिए मार्ग प्रशस्त करना प्रमुख हैI

              यह अनायास नही है कि किसान बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। फर्क यही है कि जहाँ आजादी की लड़ाई के दौरान एकजुट होकर सारे किसान संघर्ष के लिए आगे आये थे। वही आज घोर हताशा के शिकार हो अपनी जान दे रहे हैं। अगर हम कतिपय तथ्यों को देखें तो स्पष्ट हो जायेगा कि इन आत्महत्याओं के लिए वाशिंगटन आम राय द्वारा अनुप्राणित सरकारी नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं। इस समझौते ने राज्य को एक गार्ड की भूमिका में खड़ा कर दिया है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां नियम बनाएंगी ,उत्पादों का दाम तय करेंगी, सामान बेचेंगी राज्य का काम केवल उन्हें भूमि और इन्फ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराना तथा उनकी रक्षा करना ही रह जायेगा। सोचिये जब राजा अपने ही देश में गुलाम बन जाये तो प्रजा की क्या स्थिति होगी ?

            “ 1991 में नयी आर्थिक नीति के आने के बाद W T O ने 1995 में कृषि क्षेत्र में नियम बनाने के लिए दबाव डाला। जिससे उत्पादों के दामों में वृद्धि और खेती की साख में गिरावट ने किसानों के उपर कर्ज का बोझ बढ़ाया। इस बोझ ने किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया। वर्तमान कृषि व्यवस्था आत्महत्या की प्रतीक बन चुकी है। Lee kyunghai  की आत्महत्या हजारों किसानों के आत्महत्या की प्रतीक है। वन्दना शिवा ने किसानों की आत्महत्या के दो प्रमुख कारण मानी है –(1) बीज पर कम्पनियों का नियन्त्रण  (2)WTO की मुक्त व्यापर नीति

           देविंदर शर्मा के अनुसार  - हमारी सरकार का मानना है कि रिटेल में एफ डी आई के आने से कृषि व्यवस्था व कृषक जीवन में सुधार होगा। किसानों की आमदनी बढ़ेगी ,बिचौलिए खत्म होंगे ,उपभोक्ताओं  को कम कीमत में सामान मिलेगा। साथ ही कृषि उपज की आपूर्ति में होने वाली बर्बादी पर अंकुश लगेगा। ”  मगर यह सब आंकड़ा झूठ है। वालमार्ट खुद एक बड़ा बिचौलिया है। पचास साल पहले अमेरिका में इसी वालमार्ट के प्रभाव से बड़ी संख्या में किसान गायब हो गये ,गरीबी बढ़ गयी ,भुखमरी ने चौदह सालों का रिकार्ड तोड़ दिया। अमेरिकी सरकार द्वारा किसानों को पर्याप्त सब्सिडी देने के बावजूद यह स्थिति है तो भारत का क्या होगा , जो राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए दिन प्रति दिन सब्सिडी घटा रहा है। यूरोप अमेरिका में उच्च कृषि आय बड़ी रिटेल चेन के बजाय सरकारी सब्सिडी के कारण है। वालमार्ट का भारत में यह प्रभाव है कि वह रोजगार बढ़ाने की बजाय बेरोजगारी बढ़ा रही है।

         वर्तमान समय में देश ऐसी स्थिति से गुजर रहा है जो हमे बार-बार 1757 से 1857के पूरे परिदृश्य की तरफ मुड़ने और वहाँ से भविष्य को देखने ,सोचने ,समझने तथा निर्णय लेने को मजबूर कर रही है। ऐसा लग रहा है कि भारत का इतिहास अपने आपको दोहराने की प्रक्रिया में है I वहीं जमीदारी अपने नये रूप में आ रही है ,गोरों की भूमिका में अमेरिकी तथा काले अंग्रेजो की भूमिका में भारतीय अमेरिकी दिखने लगे हैं। इनके लिए स्कूल ,कालेज व विश्वविद्यालयों को विलासिता का मंदिर बनाया जाने लगा हैं। गरीब बहुसंख्या जिनकी जो चिंता तब थी वह आज भी है को टपक बूंद’(ट्रिकल डाउन) सिद्धांत के भरोसे छोड़ दिया गया है। देश के जिम्मेदारों को देखकर तो लगता है कि सब अवसरवादी हैं। सबको अपनी-अपनी पड़ी है। बहुत कम ही लोग बचे हैं , जिन्हें देश और जहान की चिंता है। यही छोटी सी संख्या हैं जो मशाल जलाये हुए है जिससे कुछ उम्मीद जगती हैं। निराला की ये पंक्तियाँ तब भी प्रासंगिक थीं और आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं

               है अमा निशा उगलता गगन घन अंधकार।
               खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन चार।
               अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल।
               भूधर जो ध्यानमग्न केवल जलती मशाल।

आज आजादी के सत्तर साल बाद भी जहाँ रौशनी नही पहुंची। मुझे उम्मीद है कि मशाल से मशाल जलाये जा रौशनी फैलाये जा के सिद्धांत पर हर घर रौशनी पहुंचेगी।

         “1757 में प्लासी का युद्ध जितने के बाद ईस्ट-इण्डिया कम्पनी की गिद्ध दृष्टि भी सबसे पहले पारम्परिक ग्राम समाजों की सामूहिक सम्पत्ति और किसानों की जमीन पर ही पड़ी थी। तब भी कृषि का पूरा ढांचा और उत्पादन चक्र ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुरूप बदलने का प्रयत्न किया गया था। विडम्बना यह है कि वही सब कुछ लगभग दो शताब्दी बाद एक बार फिर दोहराया जा रहा है।

             आज स्थिति यह है कि लगभग 16 या 17 पूंजीपति घराने पूरे विश्व को चला रहे हैं। जिनमे सबसे अधिक अमेरिका के हैं। उनका सौभाग्य या रणनीति ही कह लीजिये कि विश्वबैंक और WTO जैसी वैश्विक संस्थाएं भी अमेरिका में ही हैं। जो उन्ही के इशारों पर संचालित होती हैं। फिर किसकी हिम्मत है उनसे टकराने की। डब्लूटीओ के तीन ऐसे दस्तावेज हैं जो सीधे सीधे कृषि से जुड़े हुए हैं पहला है व्यापार सम्बन्ध बौद्धिक सम्पदा अधिकार समझौता’ (ट्रिप्स )। दूसरा है –‘स्वच्छता एवं वानस्पतिक स्वच्छता समझौता’ (एस.पी.एस.ए.)। तीसरा है – ‘कृषि पर समझौता’ (ए. ओ.ए.)।

ट्रिप्स के तहत बीजों को बौद्धिक सम्पदा घोषित कर इनके आदान प्रदान पर रोक लगाने की व्यवस्था तथा पेटेंट की व्यवस्था करना है जिसका लाभ उठाकर मोसेन्टो और सिजेंटा जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दुनियां भर में बीजों पर एकाधिकार जमा रही हैं। इनका मकसद है परम्परागत खेती को नष्ट करना और हर बार किसान को नये बीज खरीदने के लिए बाजार में आने पर बाध्य करना तथा बीजों के बाजार पर एकाधिकार स्थापित करना।

            एस.पी. एस.ए. के तहत विश्वव्यापी स्तर पर खाद्यान्न की गुणवत्ता के अंतराष्ट्रीय मानकों को लागु करने के नाम पर देशी उत्पाद के तौर-तरीकों पर सीधा हमला है। परम्परागत देशी खाद्यानों को असुरक्षित बताकर कम्पनियों के चमचमाते खाद्यानों के लिए बाजार उपलब्ध कराया जा रहा हैं। तमाम विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद जैव तकनीकी से विकसित सब्जियों को बाजार में लाने की तैयारी चल रही है। इन्ही नीतियों के चलते पिछले एक दशक से देश भर में हजारों तेल मिलें तथा अन्य ग्रामीण उद्योग तबाह हो रहे हैं और लाखों लोगों का रोजगार छीनता जा रहा है। अब अगला निशाना ढाबों ,ठेलों आदि तथा पारम्परिक खाद्य पदार्थ बनाकर बेचने वाले गरीब लोगों पर है। जिससे यह पूरा बाजार केंटुकी ,मैकडोनाल्ड जैसे बहुराष्ट्रीय रेस्तराओं के हवाले किया जा सके।

          बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि भारत सरकार की योजनायें भारत के गांवों तक पहुंचते-पहुँचते मृतप्राय हो जाती हैं। जबकि ये अमेरिका से संचालित होने वाली योजनायें भारत के गाँवों में न चाहते हुए भी घर-घर में घुस जा रही हैं। बड़े शहर की तो बात ही छोड़ दीजिए।

          ए.ओ.ए. के तहत कृषि पर समझौते के तीन प्रमुख अंग है पहला व्यापार  उदारीकरण  दूसरा आयत उदारीकरण और तीसरा घरेलू सब्सिडी में कटौती। व्यापार  उदारीकरण का अर्थ है कि कल्याणकारी राज्य के नाम पर किसानों के प्रति बरती जा रही समस्त उदारताओं को समाप्त कर सम्पूर्ण कृषि अर्थव्यवस्था को बाजार के अनुदार हाथों में सौप देना। इसी की देन है कि आज सिजेंटा,मोसेन्टो , कारगिल, आई.टी.सी.जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को शासकीय संरक्षण में भारतीय कृषि बाजार में प्रवेश की खुली छुट है।

         आयात उदारीकरण के अंतर्गत विकसित देशों के लिए सभी देशों से आयात शुल्क तथा आयात प्रतिबन्ध हटाने के लिए समझौता किया गया। भारत के लिए यह समर्पण कंधार से कम नहीं है।
          घरेलू सब्सिडी में कटौती के अंतर्गत किसानों को खाद, बीज ,डीजल,पानी तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के रूप में मिलने वाली सब्सिडियों को बाजार के खुले खेल में अवरोध बताकर धीरे-धीरे खत्म करने की बात की गयी है।

इन तीनो समझौतों की वजह से किसानों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। चारो ओर चोरी,हत्या,छिनैती,भुखमरी व बेरोजगारी का तांडव मचने लगा  हैं। यही वह दौर है जहाँ से शुरू होता है किसान आत्महत्या का लगातार बढ़ते जाने वाला सिलसिला। अब किसान आन्दोलन करने की स्थिति में नही है तो आत्महत्या से ही वह प्रतिरोध जता रहा है।

             अभी ताजे आकड़े के अनुसार – “एक तरफ देश में लोग भूख से मर रहे हैं , वहीं दूसरी तरफ 670 लाख टन खाद्य पदार्थ बर्बाद हो रहा है। एक सरकारी अध्ययन के अनुसार ब्रिटेन के कुल उत्पादन के बराबर भारत में अनाज बर्बाद हो रहा है I खाद्य पदार्थों की जितनी बर्बादी इस देश में प्रतिवर्ष हो रही है उससे पूरे बिहार की आबादी को एक साल खिलाया जा सकता है। भारत सरकार के सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ पोस्ट हार्वेस्टिंग इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलाजीके एक अध्ययन के मुताबिक उचित भंडारण की कमी ने खाद्यान की बर्बादी को बढ़ाया है ,जिससे एक तरफ महगाई बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ किसानों को निवेश पर लाभ तो क्या , लागत की वसूली भी नहीं हो पा रही है।
           देश के कई राज्यों में किसान घाटे की खेती के कारण आत्महत्या करने को बाध्य हो रहे हैं। महाराष्ट्र ,पंजाब ,गुजरात जैसे राज्यों से किसानों के आत्महत्या की खबरें लगातार आ रही हैं। ”  संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में कुल खाद्यान उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद होता है ,जो समूची विश्व अर्थव्यवस्था का 750 अरब अमेरिकी डालर (लगभग सैतालिस लाख करोड़ रूपये )है। रिपोर्ट में भारत और चीन पर विशेष रूप से अंगुली उठाई गयी है। दुनिया में सबसे ज्यादा भुखमरी से ग्रस्त आबादी अफ्रीका और भारत में ही है।

            बिहार, बंगाल, ओड़िसा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से अक्सर भूख से मरने की खबरें आती रहती हैं। मगर चिंता की बात यह है कि औद्योगिक रूप से विकसित राज्य महाराष्ट्र और गुजरात से भी भूख से मरने की खबरें आ रहीं हैं। क्या यह इन राज्यों के विकास माडल पर चुनौतीपूर्ण सवाल नहीं है एक खबर के मुताबिक यह ज्ञात हुआ कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सड़े हुए गेहूँ से शराब बनातीं हैं, तो बताइए कि इन कम्पनियों की हितैसी हमारी सरकार को क्या पड़ी है भण्डारण गृह बनवाने की। वह तो उन्हीं के इशारो पर जानबूझ कर गेहूँ सड़वा देती है ताकि कम्पनियों को सड़ा हुआ गेहूँ कौड़ी के भाव में दिलवा सके। क्या यह किसानों के सीने पर छुरी रखकर पूंजीपतियों को मालपुआ खिलाने वाली बात नही हुई ?

             अभी हाल ही की खबर है कि बंगाल में आदिवासी किसानों का संघर्ष कुछ रंग लाया है। बुद्धदेव भट्टाचार्य की वाम मोर्चा सरकार द्वारा 2006 में टाटा की नैनो कार परियोजना के लिए सिंगुर में किये गये हजार एकड़ के जमीन के अधिग्रहण को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ख़ारिज कर दिया गया है। रांची से करीब 20 किलोमीटर दूर नगड़ी गाँव 2011-12 में काफी सुर्ख़ियों में आया था। गाँव के लोगों से बिना परामर्श किये (सिंगुर की ही तरह ) झारखण्ड की भाजपा सरकार ने 227 एकड़ की जमीन को केन्द्रीय विधि विश्वविद्यालय ,भारतीय प्रबंध संस्थान और सुचना प्रौद्योगिकी के कई केंद्र स्थापित करने के लिए अधिग्रहित कर लिया। आदिवासी महिला नेता दयामनी बरला के नेतृत्व में आन्दोलन चला ,जिसमे अगली कतारों में आदिवासी औरतें और बच्चे थे। उनकी मांग थी नगड़ी रैयतों की जमीन वापस करो। ”  “झारखंड के आदिवासियों के मध्य काम करने वाली मलयाली महिला सिस्टर वालसा का मर्डर व मध्यप्रदेश के गोंड आदिवासियों के बीच काम करने वाली दयाबाई की लड़ाई हमारी सरकार व कम्पनियों के दोगले चरित्र का पर्दाफास करती है। छत्तीसगढ़ के बस्तर से हल ही में बढ़ते स्थानीय विरोध के कारण टाटा स्टील का अपने संयंत्र को वापस लेना बेशक तमाम आन्दोलनकारी ताकतों को सुकून देने वाला है।

          अंग्रेज कवि W. H. आडेन ने लिखा था कि प्रेम के बिना तो बहुत से लोग जिन्दगी जी गये लेकिन पानी के बिना कोई भी जी नहीं पाया। यह बात उन्होंने करोड़ो खेतिहर परिवारों को ध्यान में रखकर कहा होगा ,जिन्होंने इस सभ्यता और संस्कृति को गढ़ने में सदियों से अपना योगदान दिया है। औद्योगीकरण ने आज किसानों से केवल जमीन ही नही छिना है बल्कि पानी से भी उन्हें मरहूम किया है। शरत और बाबूराज के निर्देशन में बनी फिल्म केरल में चलने वाले प्लाचीमाड़ा आन्दोलन का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है ,जिसमे आन्दोलनकारियों ने कोका कोला जैसी पानी चोर कम्पनी से लड़ाई ली है। मयिलाम्मा इस आन्दोलन के पीछे की अहम ताकत थी। फिल्म ए थाउजेंड डेज एंड ए ड्रीम प्लाचीमाड़ामें यह दिखाया गया है कि कम्पनी ने कैसे गाद जैसी मोटी चीज को उपयोगी खाद बताकर किसानों के खेतों में डलवा दिया जिससे पूरी भूमि अनुर्वर हो गयी और लोगों को कम्पनी को जमीन देने के लिए मजबूर होना पड़ा। किसानों के साथ कम्पनियों का यह नये किस्म का धोखा सामने आया है, जिसे किसानों को समझने की जरूरत है। निम्नलिखित पंक्तियाँ इस पूरे परिदृश्य को अभिव्यक्त करती है

हम खेत न हरगिज छोड़ेंगे ,यह खेत है पुरखों की थाती।
इसमें है हमारी परिपाटी , इससे ही सुबह  हमारी है।
इससे है हमारी सझवाती , सिंगुर की हो या नोयडा की।
सब की बस एक कहानी है ,हर जगह वही हिटलरी ऐंठ।
हर जगह वही मनमानी है , हमने ही तुम्हे बनाया है।
और तुम हमसे ही खेलोगे , हम अगर नहीं देना चाहें।
तो जबरन कैसे ले लोगे  , तुम साथी दौलत वालों के।
यह भेद तुम्हारा खोलेंगे ,सत्ता के रंगे सियारों की।
यह चाल न चलने पायेगी ,जो दाल गलाई थी अब तक।
इस बार न गलने पायेगी , हमने भी हैं यह ठान लिया।
                  अब खूनी जबड़े तोड़ेंगे , हम खेत न हरगिज छोड़ेंगे।

           ‘मद्रास इंस्टिट्यूट आफ डेवलपमेंटल स्टडीजके प्रो.नागराज द्वारा राष्ट्रीय आपराध अभिलेख ब्यूरो के गत वर्षों में भारत में दुर्घटना तथा आत्महत्या से होने वाली मौतों पर जारी अधिकारिक आंकड़ो के आधार पर किसानों की आत्महत्या से सम्बन्धित अध्ययन यह बताता है कि 1997 से 2005 के बीच भारत में कुल 977170 लोगों ने आत्महत्या की,जिनमे से 149244 किसान थे। 1995 से 2005 तक सभी प्रकार की आत्महत्याओं की दर 2.18 फीसदी थी तो अकेले किसानों की आत्महत्या दर 2.91 फीसदी थी। प्रो.नागराज किसान आत्महत्याओं की लगभग 1.5 लाख संख्या को भी वास्तविक नही मानते क्योंकि इसके दो प्रमुख आधार है पहला यह कि आत्महत्या की प्राथमिकी दर्ज किये जाने के प्राथमिक स्तर पर किसानशब्द की अत्यंत संकुचित परिभाषा अपनाई जाती है। जिसके तहत भूमिहीन श्रमिकों ,महिलाओं तथा कृषि कार्य में आंशिक रूप से संलग्न द्वितीयक किसानों को सम्मिलित नही किया जाता। जबकि जनगणना के दौरान अपनाई जाने वाली परिभाषा काफी व्यापक है। जिसमे प्राथमिक ,द्वितीयक किसानों तथा कृषि श्रमिकों सभी को किसान माना जाता है। ऐसे में किसान आत्महत्याओं की संख्या इन दिए गये आंकड़ों से कहीं ज्यादा हो सकती है।
         प्रो. नागराज इन आंकड़ों के आधार पर देश को चार समूहों में बाँटकर देखते है –(1)-वे राज्य जहाँ सामान्य आत्महत्या की दरें अत्यंत ऊँची हैं इनमे क्रमशः केरल ,तमिलनाडु ,पाण्डिचेरी ,प.बंगाल और त्रिपुरा शामिल हैं। (2)-इस समूह में उच्च कृषक आत्महत्या दर वाले राज्य क्रमशः हैं कर्नाटक ,महाराष्ट्र ,गोवा ,मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ़ ,आंध्रप्रदेश ,तेलंगाना। (3) – असम,गुजरात ,हरियाणा तथा उड़ीसा तीसरे समूह में हैं जहाँ दोनों दरें सामान्य स्तर पर है। (4)- इस समूह में बिहार , झारखण्ड, हिमांचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, राजस्थान तथा उत्तर-प्रदेश शामिल हैं जहाँ दोनों दरें काफी कम हैं। इधर हाल ही में नोयडा प्रकरण व भूमण्डलीकरण की वजह से उ.प्र. व पंजाब में आत्महत्या की दरें बढ़ी हैं।  2001 के पहले दूसरी श्रेणी के प्रदेशों में हर तिरपनवे मिनट में कृषि संकट ने औसतन एक किसान की जान ली है। 2001 के बाद यह अन्तराल घटकर अड़तालीस हो गया। इन राज्यों में सबसे खराब स्थिति महाराष्ट्र की है जहाँ 1997 में यह संख्या 1917, 2001 में 3536, 2004 में 4147, 2005 में इसमें थोड़ा सुधार आया और यह घटकर 3926 हो गयी। मध्यप्रदेश महाराष्ट्र से थोड़ा ही पीछे रहा लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इतने भयावह आंकड़ों के बावजूद इस राज्य के कृषि संकट की कोई विशेष चर्चा मीडिया में सुनाई नहीं दी।

        2016 में प्रकाशित पंकज सुबीर के उपन्यास अकाल में उत्सवके माध्यम से मध्यप्रदेश के किसानों की समस्या भी सामने आई है। यह उपन्यास सरकार व उसकी व्यवस्था तथा मीडिया के काले करनामों की पोल खोलने में सक्षम जान पड़ता है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड व्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक किसान आत्महत्याओं में 42%की बढ़ोत्तरी हुई है। आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में सामने आये हैं। 30 दिसम्बर 2016 के रिपोर्ट एक्सीडेंटल ड़ेथ्स एंड सुसाइड इन इंडियामें 2015 के मुताबिक 12602 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की हैं। 2014 में 12360 ने आत्महत्या की थी। इस प्रकार 2014-15 में आत्महत्या में 2.00 %की बढ़ोत्तरी हुई है। ”  8 नवम्बर 2016 को हुई नोटबंदी की घटना ने ग्रामीण जीवन को अस्त-व्यस्त कर डाला लेकिन फिर भी तमाम परेशानियों के बावजूद ग्रामीण जनता ने देश के हित में निर्णय लेने वाले प्रधानमन्त्री की नेक इरादा को जानकर कहीं भी दंगा-फसाद नहीं मचाया , सारे कष्टों को हँसते-हँसते झेल लिया। पर दुःख है कि इसी दौरान कुछ किसान भाइयों को  आत्महत्या भी करनी पड़ी ,औने-पौने दामों में फसलों को बेचना पड़ा तथा साहूकारों से कर्ज भी लेना पड़ा तमाम विपत्तियाँ एक साथ आ पड़ी। इनका प्रभाव 2017 की आगामी रिपोर्ट में देखने को मिल सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की आलोचनात्मक टिप्पणियाँ उचित ही जन पड़ती है --- लम्बी अवधि में अगर नोटबंदी अच्छी भी निकलती है तो उस वक्त तो हम मर चुकें होंगे। ”  (डा.मनमोहन सिंह) नोट बंदी ने अर्थव्यवस्था को अस्थाई तौर पर धीमा कर दिया है। हालाँकि विकास गति आखिरकार लौट आयेगी लेकिन गरीब लम्बा इंतजार नहीं कर सकते। उन्हें राहत यहीं और अभी चाहिए। ” - राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति का यह कहना एकदम सही है कि गरीबी उन्मूलन को बेहतर व स्थाई तौर पर विकास व रोजगार की उपलब्धता से सम्बोधित किया जा सकता है , बजाय सब्सिडी व रियायतों के। 1990 के बाद प्रतिवर्ष 10000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। 1997 से 2006 के बीच 166304 किसानों ने आत्महत्या की। 1990 से द हिन्दूके सम्पादक पी.साईनाथ ने किसान आत्महत्याओं की लगातार सूचना दी। इन आत्महत्याओं को केंद्र में रखकर एक डाकुमेंट्रि भी बनाई जो विदर्भ के किसानों की समस्या को समझने में काफी मददगार है। अधिकांश आत्महत्याएं महाराष्ट्र  के विदर्भ क्षेत्र के कपास उत्पादक किसानों ने की है। महाराष्ट्र के अपराध लेखा कार्यालय के अनुसार नकदी फसलो के किसानों के आत्महत्या की दर अधिक रही हैं। आत्महत्या केवल छोटी जोत वाले किसान ही नहीं बल्कि बड़ी जोत वाले किसानों ने भी की है। 2009 अब तक का सबसे खराब वर्ष था। जिसमे राष्ट्रीय अपराध लेखा कार्यालय ने सर्वाधिक 17367 किसानों के आत्महत्या की रिपोर्ट दर्ज की थी। NCRB के आंकड़ो के अनुसार भारत भर में 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्या की 2009 में 1172 की वृद्धि हुई। महाराष्ट्र में आत्महत्या का आंकड़ा 50860 तक पहुँच चुका है। 2011 में मराठवाड़ में 435,विदर्भ में 226 और खानदेश (जलगाँव क्षेत्र में )133 किसानों ने आत्महत्या की। 2004 के पश्चात किसानों की स्थिति बद से बदतर होती गई। 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ो का तुलनात्मक अध्ययन कर देखें तो पता चलता है कि 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया है।

               किसानों को आत्महत्या की दशा तक पहुँचाने के मुख्य कारणों में खेती का आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक होना ,भारतीय कृषि का मानसून पर निर्भर होना, मानसून की असफलता, सूखा, ऋण का बोझ तथा सरकार की किसान विरोधी नीतियाँ आदि जिम्मेदार कारक हैं। उदारीकरण की नीतियों के बाद नकदी खेती को बढ़ावा मिला। सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के कारण पिछड़ी जाती के किसानों के पास नकदी फसल उगने लायक तकनीकी जानकारी का अक्सर आभाव रहा है। यही कारण है कि आज का किसान नकदी फसलों की लालच में परम्परागत फसलों को छोड़कर कर्ज में डूब गया है।     

            अभी हाल ही में जनवरी 2017 में छपी द हिन्दूकी खबरों व तेलंगाना के आदिलाबाद तथा महाराष्ट्र के यवतमाल जिलों में शोधार्थी द्वारा किसानों से लिए गये साक्षात्कार में किसानों ने  यह कहा कि - सरकार हमारे साथ छल कर रही है , सरकार अगर हमे पानी की समुचित व्यवस्था कर दे तो हमे सरकार से किसी भी प्रकार की भीख की आवश्यकता नहीं है। भौगिलिक विषमता के कारण इन क्षेत्रों की आबादी को कोई भी काम करने के लिए दूर-दूर की सफ़र करना पड़ता है। जिसके कारण किसान के समय व धन की बर्बादी होती है तथा विचौलियों को बढ़ावा मिलता है और किसान लूट का शिकार बन जाता है। अभी-अभी तेलंगाना की नई सरकार ने किसानों का ऋण माफ़ किया तो उसे कई इन्स्टालमेन्ट में धीरे-धीरे करके माफ़ करने का प्रावधान बनाया। जिससे किसानों ने जितना का ऋण माफ़ नहीं कराया उससे अधिक तो बैंक और विचौलियों का चक्कर लगाने में बर्बाद कर दिया। ऋण माफ़ी किसानों की समस्या का सही समाधान कत्तई नहीं हो सकती, इससे दलालों को बढ़ावा मिलता है। जरूरतमंद किसान को ऋण माफ़ी फायदा ही नहीं मिल पता है। दूसरी बात यह कि सरकार ने इस बार 4000 रुपये /कुंतल के हिसाब से कपास लिया जबकि प्राइवेट कम्पनियां 6000 रुपये /कुंतल के हिसाब से ले रही हैं। इस प्रकार मजबूर किसान को इन मंडियों तक पहुंचने की असमर्थता के कारण दलालों को ही अपनी फसल औने-पौने दामों में बेचना पड़ा। देश में दाल संकट के समाधान हेतु केंद्र व राज्य सरकारों ने किसानों को प्रोत्साहित किया कि आप पूरे खेत में कपास की खेती न करके दलहनी व अन्य फसलें अधिक पैदा करें तो हम उसको अधिक दाम में खरीदेंगे। वारंगल का एक किसान इस बार कपास न लगाकर मिर्चा की खेती की। जब मिर्चा तैयार हो गया तो सरकार ने उसका दाम 11000/कुंतल से घटाकर 6000/कुंतल कर दिया। ”  अब किसान के पास गोदाम व तकनीकी तो है नहीं कि वह फसल को संरक्षित करे और जब अच्छा दाम लगे तो बेचे। वह आनन-फानन में जल्दी से खेत खाली करने के चक्कर में औने-पौने दामों में फसल विचौलियों व दलालों को बेच देता है। क्या किसान को यह समझ में नहीं आता कि सरकार की यह नीतियाँ किसके पक्ष में हैं ? किसे बढ़ावा दे रही हैं ये नीतियाँ ? हमारी सरकार किसानों को मूर्ख समझती है ,पर किसान भी अब उतना मूर्ख है नहीं ,उसे भी समझ में आती है सरकार की सारी कलाबाजियां।
                                आचार्य बालकृष्णन का यह सुझाव अच्छा लगा कि – “हमारी सोच है किसानों को अपने उत्पादों का वाजिब मूल्य मिले। किसान की आमदनी दोगुनी करने के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि , अगर किसानों की आमदनी दोगुना करना चाहते हैं तो फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज को बढ़ावा देना होगा। कलस्टर , कल्टीवेशन की पुख्ता व्यवस्था होनी चाहिए , फसलों की बुवाई के सटीक आंकड़े होने चाहिए। यही नहीं किसानों को वाजिब कीमत दिलाने के लिए सरकार के पास एक व्यवस्था होनी चाहिए। ”    यह तो ठीक है पर जिस मिशन के साथ बाबा रामदेव ने पतंजलि उत्पाद विक्रय केंद्रभारत के प्रत्येक शहर ही नहीं बल्कि गांवों तक पहुंचाया है ,अगर उसी मिशन के साथ वह भारतीय कृषि उत्पाद क्रय केंद्र भारत के शहरों और गाँवों तक पहुँचा देते तो किसानों को अपने उत्पादों की विक्री के लिए सरकार और साहूकार का मुह ताकना नहीं पड़ता। हमारी सरकार दावा करती है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी। इस सरकार की हवाई घोषणाएँ तो आम जनता व किसान बुद्धजीवियों को खुश कर दे रही हैं पर व्यावहारिक धरातल पर किसान की जो दुर्दशा हो रही है वह किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति के हृदय को विदीर्ण कर देगी। तमिलनाडु के किसानों ने लगभग एक महीने तक भूखे-नंगे रहकर , मल-मूत्र खा-पीकर दिल्ली में धरना दिया पर सरकार के कानों पर जू नहीं रेंगा। सही कहा है किसी ने कि

                                                                बहरों का दरबार जोर से बोल यहाँ ,
                                                                कम सुनते मक्कार जोर से बोल यहाँ।
                                                                सत्ता के कानों में रहता तेल पड़ा ,
                                                                मिमिया मत हुंकार जोर से बोल यहाँ।

                गाँवो के विकास,सुरक्षा व देखभाल के लिए बनायी गयी संस्थायें ग्राम-पंचायत,ब्लाक,थाना,तहसील तथा जिला स्तर की कुछ संस्थाओं का चरित्र तो किसान रक्षक नहीं बल्कि किसान भक्षक बन गया है। इनके संरक्षण में तो न किसान सुरक्षित है और न ही किसानी। इन अधिकारियों से बेहतर काम तो आज इन क्षेत्रों में गुण्डे,दलाल व नेता कर रहे हैं जो आम जनता के शोषक भी हैं और रक्षक भी। अपनी सुरक्षा,सम्मान और सुविधा के लिए थोड़ा बहुत शोषण करा लेना आज के गावों का दर्शन बन गया है। यह सब हमारी व्यवस्था की नाकामी का ही परिणाम हैं। आज किसानों के यहाँ सबसे ज्यादा असुरक्षित उनके बच्चे और वृद्ध माता-पिता दिख रहे हैं , जिनके लिए हमारी सरकार के पास कोई व्यवस्था नहीं हैं।

             किसान चाहते तो अपने गाँव में अपनी सरकार चला सकते हैं मगर उनके यहाँ पारस्परिक सद्भाव ,बुद्धि-विचार व संगठन का आभाव हैं। किसान जीवन को सुखमय व समृद्ध बनाने के लिए बेहतर कार्य किसान बुद्धजीवी व किसान जीवन पर शोध-कार्य करने वाले शोधार्थी परस्पर सहयोग से   किसानों की मदद लेकर कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए उन्हें विश्वविद्यालयों व अपनी सुख-सुविधाओं के दायरे से कुछ समय के लिए बाहर निकलना होगा। हिमांचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने किसानों और कृषि विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर जीरो बजट फार्मिंग’,’जैविक खेतीऔर नशा मुक्त प्रदेशबनाने की जो मुहीम चलाई हैं वह सराहनीय हैं। अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा ने अपने लेख में यह पर्दाफाश किया कि –“पिछले 5-10 या 20 वर्षों के बजट पर गौर करें तो पायेंगे कि अन्य क्षेत्रों की तुलना में कृषि की अनदेखी हुयी हैं। यह अनदेखी इस बात की संकेत है कि देश को अब इस क्षेत्र की जरूरत नहीं हैं। इनकी कोशिश यह हैं कि कृषि क्षेत्र की जनसंख्या को खेती से निकालकर शहरों में स्थान्तरित किया जाये। ”  उनके निम्नलिखित साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता हैं कि सचमुच में सरकार की नीतियाँ किसान विरोधी हैं – 11 वीं योजना के तहत कृषि को 1 लाख करोड़ तथा 12वीं के तहत 1.5 लाख करोड़ यानि दस वर्षों में कृषि पर मात्र 2.5 लाख करोड़ खर्च किया गया। इसकी तुलना अगर औद्योगिक क्षेत्रों से करें तो इतने ही वर्षों में उद्योग के लिए 42 लाख करोड़ रूपये की टैक्स छूट दी गयी है। दूसरी बात कि 60 करोड़ लोग कृषि क्षेत्र में कार्यरत हैं लेकिन इसमें मनरेगा से भी कम बजट प्राप्त हो रहा हैं। 42 लाख करोड़ खर्च कर सरकार ने 4 लाख रोजगार दिए हैं जबकि देश में हर साल सवा करोड़ लोग नौकरी की कतार में खड़े रहते हैं। अगर यह बजट कृषि क्षेत्र में गया होता तो 60 करोड़ लोगों का भविष्य उज्ज्वल होता। आज किसान की आय मात्र 6 हजार है जिसमे 3 हजार गैर कृषि क्षेत्र से तथा 3 हजार कृषि क्षेत्र से हैं। 7वे वेतन आयोग में इसे 25 हजार करने का अनुमान है।

            स्वामीनाथन आयोग को लागू कर किसानों की आय दोगुना करने की ढिंढोरा पीटने वाली सरकार अभी तक किसानों के जीवन में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं ला सकी। आज स्थिति यह है कि प्रत्येक राज्य में किसान सरकार का विरोध जताने के नये-नये तरीके अपना रहे हैं। कहीं किसान आत्महत्या के माध्यम से तो कहीं नर मुंडों की माला पहनकर,नंगे होकर,मल-मूत्र पीकर तो कहीं सड़कों पर सब्जियां,अनाज और दूध फेककर किसान विरोध जता रहे हैं। पर सरकार के कानों पर जू नहीं रेंग रहा है वह इन्हें उपद्रवी तत्व घोषित कर उल्टे इन्हें ही दोषी ठहराने की कोशिश में लगी हुयी है। यह सरकार झूठें वादों की सरकार है नोटबंदी के बाद न तो किसानों के खाते में 15000 रूपये आये और न ही 2022 तक किसानों की आय दोगुनी होने के ही कोई आसार दिख रहे हैं। सरकार द्वारा चलाई जाने वाली योजनायें जैसे प्रधानमंत्री सांसद आदर्श ग्राम योजना , प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, जीवन ज्योति बीमा योजना, कृषि सिंचाई योजना, मुद्रा बैंक योजना, मनरेगा, दीन दयाल अन्त्योदय योजना, प्रधानमन्त्री आवास योजना, प्रधानमन्त्री फसल बीमा योजना आदि सराहनीय तो हैं पर व्यावहारिक धरातल पर इनका क्रियान्वयन अच्छा नहीं हैं। इस वजह से इन योजनायों का लाभ सीधे किसानों को न मिलकर विचौलियों को ज्यादा मिल रहा है। सरकार को इस जगह पर भारी कदम उठाने की जरूरत है। इन्हीं सब वजहों से किसानों का गुस्सा मध्यप्रदेश में फूट पड़ता है। 1 जून 2017 को म.प्र. के मंदसौर में शुरू हुआ किसानों का प्रदर्शन 6 जून को हिंसक हो गया और देशव्यापी किसान आन्दोलन का रूप धारण कर लियाI बड़े दुःख की बात है कि सात किसानों की लाश गिर जाने के बाद केन्द्र व राज्य सरकारों तथा अन्य पार्टियों का ध्यान किसान समस्या की ओर मुड़ता है I किसी को इस समस्या तत्काल समाधान कर्ज माफी दिखती है तो कोई फिर वही वादे दुहराने लगता है। कर्ज माफ़ी,घिसे-पिटे वादे ,उपवास व मृतकों को एक करोड़ रूपये दे देना क्या किसान समस्या का सही समाधान है ? सही समाधान तो M.S.स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने व उसका सही क्रियान्वयन करने से है जिसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। ऐसा नाटकीय व्यवहार भारत के राजनेता ही कर सकते हैं। इस आन्दोलन में एक बात और देखने को मिली कि इसमें व्यापकता तो थी पर नेतृत्व गायब था। स्वामी सहजानंद के समय में किसान आन्दोलन को जो नेतृत्व मिला वह नेतृत्व और संगठन आज के किसान आन्दोलन से गायब है। इसका कारण भी हो सकता है कि जिस देश में कलबुर्गी और दाभोलकर जैसे लोगों की हत्या कर दी जाती हो वहाँ कौन आये किसानों का नेतृत्व कर अपना जान बधाने।

 किसानों के हित में संजीव पाण्डेय के ये सुझाव बेहद सराहनीय हैं

                -किसानों की बदहाली को ठीक करने के लिए सरकार को फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार रोकना होगा। इस तरह से बचाई गयी धनराशि किसानों के कल्याण पर खर्च की जा सकती है।
                -देश की बदहाली बुलेट ट्रेन और एक्सप्रेस-वे से दूर नहीं होगी। देश की बदहाली कृषि क्षेत्र का विकास ही दूर करेगा। जिसके ऊपर देश की पचास प्रतिशत आबादी निर्भर करती है।

                -महाराष्ट्र सरकार के पास किसानों का कर्ज माफ़ करने के लिए पैसे नहीं हैं वहीं राज्य में 36 सौ करोड़ रूपये खर्च करके शिवाजी मेमोरियल बनाया जा रहा है।

                -समय रहते किसानों ने यदि अपनी उत्पादन प्रणाली नहीं बदली तो स्थिति शायद ही बदले। इसलिए किसानों को समय के साथ फलों की खेती , सब्जी की खेती तथा दुग्ध उत्पादन को बढ़ाना होगा।

                -किसानों की हालात सुधारने के लिए सरकारों को विशेष प्रयास करना होगा। किसानों की कर्जमाफी को लेकर पूरे देश में कदम उठाने का वक्त आ गया है। अगर किसान बर्बाद हुए तो देश के चमकते महानगर भी बर्बाद हो जायेंगे।

                इस प्रकार इन तमाम सुझावों और विचार-विमर्शों के माध्यम से किसान के बदहाल जीवन को खुशहाल बनाया बनाया जा सकता हैं।

संदर्भ
   ‘अच्छा लगता है ’ – वशिष्ट अनूप , शब्दार्थ अकादमी ,नरिया वाराणसी ,2012 ,  पृ. 32
2 वही पृष्ठ सं.   -9
3 गिरीश मिश्र –‘किसान और दुसरे संघर्षशील जन की आर्थिक दशा-दिशा’ , “हंस पत्रिका अगस्त 2006” पृष्ठ -108
4  सम्पत्तिशास्त्र’- महावीर प्रसाद द्विवेदी , पृष्ठ – 47
5 देविंदर शर्मा –“वालमार्ट खुद एक बड़ा बिचौलिया है”, अस्सी चौराहा ई-पत्रिका ,04 /10/2012
7  सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’- “राम की शक्ति पूजा
8 अशोक कुमार पाण्डेय –‘शोषण के अभ्यारण्य’,शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली ,पृष्ठ -23
9 वही पृष्ठ सं. –  23
10 वही– p. 24-25
11 संजीव पाण्डेय – ‘अन्न की बर्बादी और भूखी आबादी’, “स्वतंत्र वार्ता हैदराबाद”,08/10/2016 |
12  वही
13 विद्यार्थी चटर्जी – ‘भूमि लूट के दौर में किसान’ , “समयांतर पत्रिका” , नवम्बर 2016 , पृ.-32
14 वही-पृष्ठ-34
15 वशिष्ठ अनूप  - अच्छा लगता है’  , पृ. -27
16 अशोक कुमार पाण्डेय – ‘शोषण के अभ्यारण्य’, शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली , पृ.-३२-३४
17 शाहिद ए चौधरी – ‘गांवों और किसानों की बदहाली पर राष्ट्रपति की चिंता जायज’, ‘डेली हिंदी मिलाप हैदराबाद’ , १२ जनवरी २०१७
18 वही
19 वही
20 https://hi.wikipedia.org‘भारत में किसान आत्महत्या
21  ‘द हिन्दू’ – फरवरी २०१७
22  Hindi.news18.com- 28/03/2017
23 देविंदर शर्मा – ‘क्या देश को खेती की जरूरत नहीं हैं?’, हिंदी डेली नवभारत – 25 feb 2016

प्रदीप कुमार,(एम.फिल.हिंदी),हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
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