बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में अभिव्यक्त किसान चिंता/दीपक कुमार दास

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
                  
              बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में अभिव्यक्त किसान चिंता/दीपक कुमार दास
                   
नवजागरणकालीन कवियों का विषय क्षेत्र अत्यंत विस्तृत था। यह समय भक्ति और रीतिकालीन काव्य शैली को छोड़ आधुनिकता की ओर बढ़ने या उसमें प्रवेश करने का संक्रमण काल रहा। काव्य शैली भले ही बदल रही थी किन्तु कुछ समस्याएं यथावत उसी रूप में अपना जड़ जमाये बैठी थी। जिसमें किसानों की समस्याओं को विशेष रूप से रेखांकित किया जा सकता है। जिसे नवजागरणकालीन कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किया है। जिनमें बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं को भी देखा जा सकता है । यह विचारणीय इस रूप में भी है कि बालमुकुन्द गुप्त को एक निबंधकार या सम्पादक के अलावा कवि रूप में कम ही जाना जाता है। जिस प्रकार गुप्त जी के पास पत्रकार होने के नाते राष्ट्रवादी और जनवादी दृष्टि थी ठीक उसी प्रकार कवि होने के नाते उनके पास एक संवेदनशील कवि ह्रदय भी था। अपनी इसी संवेदनशीलता के कारण ही वो जनता की समस्याओं को समझ कर बड़ी बेबाकी से अपनी कविताओं के माध्यम से उसे व्यक्त करते थे।  बालमुकुन्द गुप्त ने अपनी इन कविताओं में दबे कुचलेए पीड़ित और आन्दोलन में संघर्षरत किसानों की सच्चाई को अपने उसी यथार्थ रूप में प्रकट किया है। कलात्मकता की दृष्टि से इनकी कवितायें कमजोर हैं। काव्यशास्त्रीय दृष्टि से इनका कला पक्ष भले ही कमजोर हो पर संवेदनशील अभिव्यक्ति की जो गहराई इनकी कविताओं में मिलती है उसे किसी कलावादी के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है।           
  
              नवजागरणकालीन किसान आन्दोलनों में नील आन्दोलनए पाबना विद्रोह और महाराष्ट्र के हुए किसान आंदोलनों ने साहित्य में किसान समस्याओं की अभिव्यक्ति की जमीन तैयार कर दी। जिससे प्रेरित होकर तत्कालीन कवियों तथा रचनाकारों ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलायी। बालमुकुन्द गुप्त ने समसामयिक वास्तविकता का परिचय किसानों की स्थिति के चित्रण के रूप में भी दिया है। आधुनिक हिंदी कविता के द्वितीय उत्थान यानी द्विवेदी युग के कवियों में जिस मानवतावादी दृष्टिकोण का परिचय किसानों की समस्या के रूप में अपनी कविताओं में किया है। उसका आरंभिक आंशिक परिचय हमें बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं में देखने को मिल जाता है। जैसा कि ज्ञात है अंग्रेजों के आने के पहले पूरा भारत कई रजवाड़ों में बंटा हुआ था। उसकी एक राष्ट्र के रूप में संकल्पना अभी नहीं बन पायी थी। जैसे ही अंग्रेजों ने भारत के रजवाड़ों को हरा कर यहाँ अपनी सत्ता स्थापित की वैसे ही अपने शोषण प्रक्रिया की गति भी बढ़ा दी। पहले पहल तो रजवाड़ों की सम्पत्ति सीधे सीधे अपने देश भेजा वहीँ दूसरी ओर अपनी पकड़ और मजबूत करने के लिए किसानों पर भू.राजस्व कर लगाकर एक नयी शोषण व्यवस्था का प्रारम्भ कर दिया। अंग्रेजों की यह भू.राजस्व कर प्रणाली सामन्तकालीन राजस्व वसूलने की प्रणाली से बहुत अलग और अधिक मारक थी। इस सन्दर्भ में के.एन. पणिक्कर लिखते हैं ‘अंगरेजों के उपनिवेशवादी शोषण का कहर भारतीय किसानों पर ही सबसे ज्यादा बरपा। औपनिवेशिक आर्थिक नीतियाँए भू.राजस्व की नयी प्रणाली और उपनिवेशवादी प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था ने किसानों की कमर तोड़ दी।’ 

                सामन्तकाल में प्रतिकूल स्थितियों में राजस्व कर वसूलने में उतार चढ़ाव आता रहता था किन्तु औपनिवेशिक काल में कर अनिवार्य कर दिया गया जिससे किसानों की स्थिति पहले से और बदतर होती चली गई। उनकी इन्हीं स्थितियों का यथार्थ चित्रण उस समय के कविगण अपनी कविताओं में करते हैं। शोषण के सबसे निचले पायदान पर आने वाले किसानों की समस्या के ज्ञान के बिना शायद उनकी कविता भी सार्थक नहीं हो सकती थी। किसानों की समस्याओं को उजागर करने के क्रम में बालमुकुन्द गुप्त की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य है -

‘उस अवसर में मर खप कर दुखिया अनाज उपजाते हैं,
हाय विधाता उसकों भी सुख से नहिं खाने पाते हैं।
जय के दूत उसे खेतों से ही उठवा ले जाते हैं,
यह बेचारे उनके मुँह को ताकते ही रह जाते हैं।
अहा बेचारे दुःख के मारे निस दिन पचपच मरें किसान,
जब अनाज उत्पन्न होय तब सब उठवाय ले जाय लगान।
यह लगान पापी सारा ही अन्न हड़प कर जाता है,
कभी कभी सब का भक्षण कर भी नहीं अघाता है।’

                  इस प्रकार किसानों की स्थिति पर दुःख प्रकट कर कवि बालमुकुन्द गुप्त किसानों के प्रति अपनी सचेत दृष्टि का परिचय देते हैं। वह किसानों की इस स्थिति पर भी दुःख प्रकट करते हैं, जो किसान दिन रात हर मौसम में कड़ी मेहनत करके अन्न उपजाते हैंए उन्हें ही दो वक्त का भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है। गुप्त जी इस पूरी स्थिति का जिम्मेदार किसी प्राकृतिक आपदा को न मानकर इसका कारण उस साम्राज्यवादी शासन नीति को मानते हैं जो किसानों की ऐसी स्थिति का वास्तविक जिम्मेदार है। किसानों के प्रति अपनी मार्मिक दृष्टि का परिचय देते हुए और मुखर होकर किसानों की स्थिति का चित्रण इस रूप में करते हैं.

जिनके कारण सब सुख पावे जिनका बोया सब जन खावे,
हाय हाय उनके बालक नित भूखों के मारे चिल्लावें।
हाय जो सब को गेहूँ देते वह ज्वार बाजरा खाते हैं,
वह भी जब नहीं मिलता तब वृक्ष की छाल चबाते हैं।
उपजाते हैं अन्न सदा सहकर जाड़ा गरमी बरसात,
कठिन परिश्रम करते हैं बैलों के संग लगे दिन रात।’

              बालमुकुन्द गुप्त ने औपनिवेशिककालीन किसानों की दुर्दशा का वर्णन जिस रूप में किया है वह आज भी बना हुआ है। या कहें यह समस्या और भी विकराल रूप ले चुकी है। उपर्युक्त पंक्तियों में किसानों की अवस्था का को मार्मिक चित्रण हुआ है। वह आज भी देश के विभिन्न हिस्सों में जैसे ओडिशाएमहाराष्ट्रए तेलंगाना और देश अन्य राज्यों के किसानों की याद दिलाता है। जो वर्तमान में इन राज्यों के अलावा देश के अन्य राज्यों में सालाना हजारों की संख्या में आत्महत्या के रूप में देखने को मिलता है। यह देश की विडंबना ही है कि जिसका बोया सारा देश खाता है। वह किसान वृक्षों की छाल चबा कर पेट भरने को विवश है। इससे ज्यादा दयनीय स्थिति और क्या हो सकती है ? इसी क्रम में कवि ने तत्कालीन देश के किसानों की समस्याओं की आवाज देते हुए किसान समाज की अहमियत पर प्रकाश डाला है। किसानों के बगैर समाज की कल्पना करते हुए उस शोषक वर्ग से यह प्रश्न किया है कि जो तुम्हारे लिए अन्न उपजाता है। जब उसका अस्तित्व ही लुप्त हो जायेगा तो तुम्हारा वजूद कैसे बचा रहेगा ? यह प्रश्न उनकी कविता ‘सर सैयद अहमद का बुढापा’ में उन्होंने सर सय्यद के बहाने उस पूरे वर्ग से की है,जो अपनी स्थिति अर्थात् समाज की गति भूल कर अंग्रेजों और सामंतों की चाटुकारिता में किसानों का दोहन करते हैं। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित कवितांश देखा जा सकता है -

‘सय्यद बाबा ! एक क्षणभर को ध्यान इधर भी कर लीजो,
इस सीधी सी बात का मेरी अवश्य ही उत्तर दीजो।
जब कृषक समाज सर्वथा नष्ट हो जावेगा,
तब यह सुख.लोलुप समाज क्या आप अन्न उपजावेगा ?”

बालमुकुन्द गुप्त की किसानों की समस्या के चित्रण के साथ तत्कालीन अन्य कवियों को भी देखा जा सकता है, जिन्होंने इस दिशा में भी विचार कर जन आन्दोलन को मजबूती प्रदान की। इनमें भारतेंदु, प्रताप नारायण मिश्र,  राधाकृष्ण दास जैसे कई प्रमुख कवियों को देखा जा सकता है। जिन्होंने एक दूसरे से प्रेरणा के कर तत्कालीन किसानी समस्या को अपनी कविताओं में स्थान दिया।
            
साम्राज्यवादी शोषण प्रक्रिया कई स्तरों पर चल रही थी। जिसका अंतिम पायदान या शिकार किसान बनते थे। अंग्रेज राजा रजवाड़ों और अपने अधीन सामन्तों को लूटते थे, फिर वही अपने से नीचे बड़े और छोटे किसानों से वसूलते थे। बालमुकुन्द गुप्त ने इस शोषण प्रक्रिया में अंग्रेजों के अलावा सामंत, महाराज और सेठों की शोषण प्रणाली का चित्रण भी अपनी कविता के माध्यम से किया है। उस समय अक्सर अकाल और सूखा पड़ जाता था। जिससे खेती करने में काफी समस्याएं आती थी। फिर भी भू.राजस्व कर का भुगतान अनिवार्य था। इससे किसानों के साथ ही अन्य अकाल पीड़ितों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता था। ऐसे समय में यही सामंत, महाजन और सेठ इनकी मदद के बजाए इनकी तरफ से मुंह फेर कर अपनी संवेदनशून्यता का परिचय देते थे। जिसका गुप्त जी ने अपनी कविता में चित्रण किया है। ऐसे समय में शोषक वर्ग केवल अपना मुनाफा कमाने तथा ऐश्वर्य विलास में लगे रहते थे। इसे केंद्र में रखकर कवि ने ‘ताऊ और हाऊ’ नामक एक कविता लिखी है। जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं.

                             ‘कहिये हाऊ अब क्या करें, कैसे अपनी पाकेट भरें।
                               बिकती नहीं एक भी गाँठ सब गाहक बन बैठे ठांठ।
                               दिए बहुत लोगों को झांसे फंसता नहीं कोई भी फांसे।
                             फंसे उसी को खूब फंसाओ, नहीं फंसे तो चुप हो जाओ।
                                देश वेश चूल्हे में जाएए श्साँसों म्हारी करै बलाय’

बालमुकुन्द गुप्त देश के लिए जितना बड़ा खतरा अंग्रेजों और उनके शासन को मानते थे,उतनी ही बड़ी व्याधि उन अंग्रेजों के चाटुकारों को भी मानते हैं। जो मात्र स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के लिए अपनी वफ़ादारी अंग्रेजों को समर्पित कर देते हैं। अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन तंत्र को मजबूत करने के लिए जमींदारों और सामंतों को अपने साथ कर लिया था। बाद में उनकी जमीनें उनको देकर और साथ ही कुछ पदवियां भी दी। जब अंग्रेजों ने इन्हें यह सब दिया तब यह सब भी अपनी वफ़ादारी साबित करने में लगे। इसी क्रम में देश का और देश के किसानों का अहित होता चला गया। और अंततः इस पूरी चक्की में किसान पिसता चला गया।

               अतः देखा जा सकता है कि साम्राज्यवादी.पूंजीवादी शोषण के कारण अब तक लाखों की संख्या में किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह समस्या हर काल में विद्यमान रही है। फर्क सिर्फ इतना आया है कि समय के आगे बढ़ने के क्रम में यह और अधिक जटिल होती चली जा रही है। अगर नवजागरणकालीन परिस्थिति से आज के समय की तुलना करें तो किसानों की हालत और अधिक खस्ता हुए दिखती है। जिसका एक बड़ा कारण किसानों के प्रति सही पालिसी का नहीं होना भी है। सरकारी नीतियाँ जब तक मात्र कर्ज माफ़ी और वोट बैंक की राजनीति से आगे बढ़ कर कार्य नहीं करेंगी और किसानी समस्याओं को सरकारी मुहकमें और कागज़ी कार्यों से बाहर कर प्राथमिकता नहीं देगी तब तक इनकी स्थिति में सुधार नहीं लाया जा सकता है।

सहायक ग्रन्थ -
[1]   पृष्ठ सं-390, 1857 के बाद किसान आन्दोलन, के.एन. पणिक्कर, अभिनव कदम-26
[1]   पृष्ठ. सं-२१३, गुप्त ग्रंथावली, संपादक डॉ. नत्थन सिंह
[1]   पृष्ठ.सं-212, वही
[1]   पृष्ठ.सं- 214, वही
[1]   पृष्ठ. सं-225 वही  

दीपक कुमार दास
शोधार्थी, हिंदी विभाग हैदराबाद विश्वविद्यालय,मो-9640695780 

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