शोध आलेख:स्त्री चिन्तन में स्त्रियाँ और श्रम/शिवानी कन्नौजिया


शोध आलेख:स्त्री चिन्तन में स्त्रियाँ और श्रम/शिवानी कन्नौजिया



                 ‘गृहलक्ष्मीकी उपाधि दी गई है परन्तु वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। सामान्यतः पुरुष धन का उपार्जन करता है और स्त्री उस पर ही निर्भर होती है। यह स्थिति पुरुष को शासक और स्त्री को शोषित बना देती है। स्त्री की यह आर्थिक निर्भरता बहुत हद तक उसे पराधीन बना देती है, उसे मानसिक रूप से कुंठित करती है। स्त्री लेखन में भी आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्त्री मुक्ति का महत्वपूर्ण औजार माना जा रहा है। सिमोन द बोउवारसे लेकर महादेवी वर्मातक ने स्त्री की आत्मनिर्भरता पर बल दिया है। प्रायः सभी स्त्री लेखिकाएं स्त्री को आर्थिक स्वावलम्बन की प्रेरणा दे रही हैं और अपने लेखन को आर्थिक स्तर पर संघर्ष करते हुए स्त्रियों को उद्घाटित कर रही हैं।


पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में स्त्रियों को

हमारे देश में बहुत पहले कम स्त्रियाँ ही घर से बाहर व्यवसाय के लिए आगे आती थीं, लेकिन अब शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ ही व्यापार और उद्योगों के आधुनिकीकरण के साथ स्त्रियों को आर्थिक क्षेत्र में अच्छे अवसर मिलते जा रहे हैं। वर्तमान समय में सरकार भी विकास योजनाओं में स्त्रियों को प्राथमिकता दे रही हैं, जिससे स्त्रियाँ सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो सके। ‘‘सन् 1975 के बाद भारतीय स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन हुआ है। संयुक्त राष्ट्र में अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष की घोषणा, मीडिया द्वारा समस्याओं को उठाया जाना, महानगरों में स्त्रियों का अधिक संख्या में नौकरी करना, स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए विभिन्न रिपोट्र्स तथा स्टेट्स ऑफ़ वुमैन इन इंडिया, नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान, श्रमशक्ति आदि का बनना......... कार्यस्थलों पर महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए उच्चतम न्यायलाय के आदेश पर कमेटियों आदि का बनना आदि ने स्त्रियों की बनी छवि को बदल दिया है।’’1लेकिन फिर भी स्त्रियों के प्रति भेदभाव के विचारों के पोषण में कई तत्व ऐसे हैं जिससे हमारे यहाँ काम के बटवारे में प्रायः भेदभाव किया जा रहा है।

                भारतीय समाज में आज भी स्त्रियों को घर और बाहर से जुड़े फैसले लेने का सौभाग्य मिलना स्वप्न ही हैं यद्यपि जब से स्त्रियों ने आर्थिक स्वतंत्रता को हासिल किया है उसे छोटे-मोटे फैसलों में भागीदारी मिलना शुरू हुई है। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों को यह स्वीकार नहीं है, वह स्त्री को यह अधिकार देने को तैयार नहीं होता है। वह स्त्री को केवल आदेशपालक के रूप में देखना चाहता है। ऐसे में स्त्री की ओर से लिए गए फैसले को वह अपनी सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की दृष्टि से देखता है इस विषय पर नासिरा शर्मा कहती हैं कि ‘‘बड़ी-बड़ी नौकरियों पर हम अपनी मेहनत और लगन से पहुँचे हैं, मगर जब बात घर में स्थिति और अधिकार की आती है, तब औरतें पाती हैं कि उनके पास किसी भी बुनियादी फैसले लेने का अधिकार नहीं है। जो स्वतंत्रता उन्हें है, वह केवल धन कमाने और परिवारजनों की सुख-सुविधा के साधन जुटाने भर की है।’’2पुरुष वर्ग स्त्रियों को स्वेच्छा से फैसले लेने की स्वतंत्रता नहीं देने वाला है इसके लिए स्त्रियों को विद्रोह और विरोध के द्वारा अपने अधिकार व स्थान को प्राप्त करना होगा।

                घरेलू श्रम के अथक परिश्रम के बाद भी उत्पादक श्रम में शामिल न होने के कारण इसकी गणना कार्य में नहीं की जाती है। प्रातःकाल से सायंकाल तक स्त्रियाँ घर के कार्यों को करती रहती हैं लेकिन इसके लिए इन्हें न तो कोई वेतन मिलता है और न ही यह काम की गिनती में आता है, जिसके विषय में मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं कि ‘‘स्त्री तेरा वजूद है कहाँ ? वजूद नहीं तो श्रम नहीं तो उत्पादन कैसा ? परिवार जिसमें भौतिक और भावात्मक त्याग के अलावा तेरे लिए कुछ नहीं वह अवैतनिक दायरा तेरे स्वर्ग का हिस्सा है।’’3स्त्री चाहे किसी भी उच्च वर्ग पर हो, घर का कार्य करने का उत्तरदायित्व उसी पर होता है। परिवार में लिंग के आधार पर काम का बंटवारा सुनिश्चित होता है, दोहरे बोझ के कारण कामकाजी स्त्री की जिन्दगी थकान व तनाव से भरी होती है, और इसके लिए जरा सी उफ भी नहीं कर सकती हैं, यदि किया तो ताने सदैव उसके लिए तैयार रहते हैं। परिवार में कामकाजी स्त्रियों की स्थिति के विषय में सुधा अरोड़ा कहती हैं कि ‘‘चार पैसे क्या घर ले आती हैं, जैसे वाक्यों के तमगे, उसकी पोशाक पर जब तब टाकते रहते हैं। इन चार पैसों की बदौलत उसके साथ कोई रियायत नहीं की जाती है दिन की रसोई सास या ननद ने संभाल भी ली तो रात का चूल्हा तो उसे नौकरी से लौटकर संभालना ही है।’’4

                आार्थिक स्वतंत्रता के नाम पर स्त्रियाँ दोहरे कार्यक्षेत्र में अपनी सकारात्मक भूमिका निभा रही हैं। वे स्त्रियाँ जो नौकरी और घर दोनों संभालती हैं, इन स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब होती है, क्योंकि इन्हें घर के बाहर के दायित्व को भी निभाना होता है, ये अपना सारा समय घर और दफ्तर के कार्यों पर खर्च करती हैं। जिससे परिणामस्वरूप कामकाजी स्त्रियों का जीवन तनावपूर्ण जीवन हो जाता है। इन स्त्रियों का तनाव तब और बढ़ जाता है, जब इन्हें अपनी पसंद के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता भी नहीं मिलती है। जिसे स्पष्ट करते हुए नासिरा शर्मा कहती हैं कि ‘‘साठ फीसदी औरतें आर्थिक दवाब और पारिवारिक तनाव की स्थिति में नौकरी करने निकलती हैं। उनके पास अपनी पसंद की जिन्दगी जीने का अधिकार नहीं होता, तो अपनी पसंद और रुचि के काम में चुनाव की स्वतंत्रता उन्हें कैसे प्राप्त होगी ? उन्हें तो वहीं नौकरी करनी होगी जो मिलेगी।’’5 हमारे यहाँ काम के बंटवारे में जिस प्रकार की लैंगिक असमानता देखने को मिलती है, यह असमानता सार्वभौमिक है। सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में देखी जा सकती है, यह विचारधारा संस्कृति तक ही सीमित नहीं है। घर में लैंगिक श्रम विभाजन से लेकर श्रम बाजार तक राजव्यवस्था में, सामाजिक संगठन सभी में लैंगिक असमानता व्याप्त है। कात्यायनी ने अपनी पुस्तक दुर्गद्वार पर दस्तकमें स्त्रियों को पारम्परिक सीमाओं से बाहर निकलने के लिए प्रेरित करती हुई कहती हैं, कि ‘‘मजदूर औरत को संगठन बनाने और विभिन्न पेशों में लगी औरतों के पेशागत आधार पर संगठन बनाने के साथ ही औरतों के आम संगठन भी बनाया जाये। औरतों के संगठन उनके सामाजिक और यौन उत्पीड़न का जुझारू प्रतिरोध करे..............और उन बहुसंख्यक औरतों को भी अपने दायरे में समेटने का प्रयास करे जो घरों में कैद हैं आर्थिक तौर पर पूर्णतः परनिर्भर हैं और चूल्हे-चैखट की गुलामी से बंधी हैं।’’6क्योंकि किसी भी समस्या का समाधान पर-निर्भर रहकर नहीं किया जा सकता है, जब तक स्त्रियाँ, युवा पीढ़ी, प्रशासन और समाजसेवी संस्थाएँ एकजुट होकर इन समस्याओं का समाधान नहीं निकालेंगी, तब तक स्त्रियों का विकास सम्भव नहीं है।

                नारीवादी लेखिका प्रभा खेतान स्वयं व्यावसायिक जगत से सम्बन्ध रखने के कारण व्यावसायिक जगत में स्त्रियों की वास्तविक स्थिति के विषय में बताते हुए कहती हैं कि ‘‘मेरा अनुभव बताता है कि स्त्री श्रमिकों को जान-बूझकर तकनीकी स्तर पर पिछड़ा रखा जाता है। स्त्री श्रमिकों से मालिकों का लचीलेपन और श्रम के अंशकालिक की सुविधा मिलती है। वे औरतों को कम जिम्मेदारी वाले कामों में रखते हैं। होना यह चाहिये कि स्त्री श्रमिकों को भी तकनीक का ज्ञान और उसके संचालन की प्रयोगविधि की पूरी सुविधा मिलनी चाहिए। सुविधा के इस अभाव में स्त्री वर्ग तकनीक की शिक्षा से सबसे अधिक वंचित है।’’7तकनीकी शिक्षा ही एक ऐसा सशक्त उपकरण है जो नई समाज-व्यवस्था का सृजन करने में स्त्रियों को सक्षम बनाता है। तकनीकी शिक्षा के महत्व के विषय में मृदुला सिन्हा कहती हैं कि ‘‘तकनीकी शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा पर बल इसी सोच का परिणाम है। व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित स्त्री या पुरुष नौकरी का मोहताज नहीं हो सकता। होना भी नहीं चाहिए। जिस हुनर का उसने प्रशिक्षण लिया है। उससे सरकारी/गैर सरकारी संस्थाओं की थोड़ी बहुत आर्थिक सहायता से घर में रहकर भी आय का साधन नहीं बनाया जा सकता है,’’8क्योंकि स्त्री मुक्ति की शुरुआत आर्थिक स्वतंत्रता से ही होती है, इसलिए आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्रियों के विकास के लिए बहुत मायने रखती है।

                वर्तमान समय में जब स्त्रियाँ हर क्षेत्र में अपनी पहुँच बना रही हैं। आज प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, अभियान्त्रिकी, पुलिस, सेना, वाणिज्यिकी उपक्रम और प्रशासनिक सेवाओं सहित अनेक क्षेत्रों में स्त्रियों के लिए पर्याप्त अवसर हैं और स्त्रियाँ आर्थिक रूप से सफल भी अवश्य हुई हैं, लेकिन उनके जीवन में व्यावहारिक कठिनाईयाँ आज भी बनी हुई हैं। इस पूँजीवादी व्यवस्था में स्त्री कामगारों का उपयोग सस्ते श्रम की उपलब्धि के रूप में किया जाता है। स्त्रियों के लिए आरक्षित श्रम का प्रयोग श्रम की अनुपलब्धता की स्थिति में अनेक बार किया गया है, लेकिन स्थिति सामान्य आते ही स्त्रियों को हटा दिया जाता है। आर्थिक क्षेत्र में स्त्रियों के लिए जो नियम व कानून बनाए गए हैं उसकी वास्तविकता बताते हुए रमणिका गुप्ता कहती हैं कि ‘‘लिंग के कारण उस पर कोई रोक-टोक न हो। अगर रात्रि का काम स्त्री के लिए घातक है तो पुरुषों के लिए उतना घातक है, अतः उसकी मनाही दोनों को हो। स्त्रियों को रात्रि पाली के काम न करने का कानून स्त्रियों में नियोजन पर रोक लगने या छंटनी करने के लिए ज्यादा इस्तेमाल होता है, बजाए उनके कल्याण की भावना से प्रेरित होकर।’’9पितृसत्तात्मक समाज में सारे नियम स्त्रियों के लिए आदर्शों और मूल्यों के साथ निर्मित किए जाते हैं जो प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में स्त्रियों के आचरण और व्यवहार को निर्धारित व नियमित करते रहते हैं।

                भारतीय समाज में स्त्रियों को जो स्थान प्राप्त हुआ है, उसे सभ्य समाज के लिहाज से हमेशा एक समस्या के रूप में देखा गया है। प्राचीन काल से ही स्त्रियों को दोयम दर्जे का स्थान प्राप्त हुआ है। बढ़ती जागरुकता और बराबरी के लिए संघर्ष अवश्य हुए हैं लेकिन आधी दुनिया का संघर्ष अभी भी बाकी है स्त्रियों को समानता का अधिकार देने की बातें तो होती रहती हैं, किन्तु इसके बाद भी स्त्रियों की स्थिति यथावत् बनी हुई है। जिसका प्रमुख कारण है कि ‘‘गृहिणी से लेकर कामकाजी महिलाओं के काम को कम आंका जाता है। दूसरी ओर देश की उद्यमी महिलाओं ने हार नहीं मानी है और तमाम रूढ़ियों और असमानता का मुकाबला करते हुए अपनी पहचान बना रही हैं।’’10
                वर्तमान समय में श्रमिक स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति सजग होती जा रही है। आज वह परिवार एवं समाज में पुरुषों के समान अधिकार चाहती हैं। स्त्री श्रमिकों ने शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हुए सामाजिक राजनैतिक एवं अन्य कार्यों में भागीदार की मांग की है, वे आर्थिक मामलों में भी निर्णय लेने की स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहता है, लेकिन इसके लिए उन्हें अब भी बहुत संघर्ष करना पड़ रहा है, इस विषय में मैत्रेयी पुष्पा का कहना है कि ‘‘श्रम उत्पादन में भागीदारी करने हाट-बाजार तक चली आई जिसके लिए उसने कभी झिझकते हुए तो कभी बेधड़क उन्हीं द्वारों का उपयोग किया जिसमें पुरुष प्रवेश करता है। जाहिर है कि प्रतिद्वन्दी मौन नहीं रह गया, न उसने हार ही मानी। बल्कि स्त्री के पाँवों की सरसराहट उसके तन-मन की सनसनाहट बनाई।’’11भारतीय समाज में पुरुष-वर्चस्व की जड़े इतनी दूर तक औरत इतनी गहरी हैं कि प्रत्येक स्त्री में पितृसत्तात्मक समाज में मिले अवांछित दबाव की झलक स्पष्ट दिखाई देती हैं।

                पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था में सदैव स्त्री के साथ असमानता का व्यवहार किया है, आर्थिक क्षेत्र में भी यह असमानता व्याप्त है। पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के श्रम को बहुत सस्ता माना जाता है। कात्यायनी स्त्रियों के श्रम को सस्ता बताते हुए कहती है कि ‘‘पितृसत्तात्मक समाजों में स्त्रियों को दोयम दर्जे की नागरिक होने के चलते उनका श्रम काफी सस्ता है। उन्हें ठेकेदार रखकर या असंगठित मजदूर की स्थिति में रखकर आम संगठित मजदूर के मुकाबले उनके अतिरिक्त श्रम का छः गुना-आठ गुना अधिक दोहन किया जा सकता है।’’12 इस तरह के लैंगिक असंतुलन केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में व्याप्त हैं जिसे इतनी आसानी से समाप्त नहीं जा सकती हैं। ‘‘वल्र्ड इकोनामिक फोरम के साल 2015 के अनुमान को माने तो साल 2133 तक भी लैंगिक अंतर पूरी तरह खत्म नहीं हो पाएगा।’’(13) स्त्री की बेरोजगारी को कभी संकट के रूप में नहीं लिया गया। पूंजीवाद के विभिन्न चरणों में बाजार के फायदे के लिए श्रम को घर के दायरे से बाहर निकालने की शुरूआत तो हुई है, लेकिन स्त्री-मुक्ति अपनी सम्पूर्णता में कहीं भी उपलब्ध नहीं है।

                आर्थिक स्वतंत्रता ने स्त्री को सक्षम नागरिक अवश्य बनाया है, समाज के हर क्षेत्र में उसकी सहभागिता भी बढ़ी है। आर्थिक स्वतंत्रता भी स्त्रियों को समान दर्जा या पारिवारिक हिंसा से निजात नहीं दिला पाती हैं। स्त्रियों को न केवल समान अधिकार से वंचित रखा जाता है, बल्कि उन्हें नौकरी में भी दोयम दर्जे पर रखकर उसी कार्य के लिए पुरुष से कम वेतन दिया जाता है। एक ओर कार्यक्षेत्र में उनका शोषण कम नहीं होता है, तो दूसरी तरफ पारिवारिक हिंसा से भी निजात नहीं मिल पाता है। स्त्रियों को यदि अपना सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व शैक्षिक विकास करना है, तो उन्हें पूरी शक्ति के साथ अपने साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ लड़ना होगा।

सन्दर्भ
1.   शर्मा क्षमा, स्त्रीत्ववादी विमर्श समाज और साहित्य, सं0-2002, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. सं.-96
2.  शर्मा नासिरा, औरत के लिए औरत, संस्करण-2014, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली,  पृ0 सं0-127
3. पुष्पा मैत्रेयी, खुली खिड़कियां, संस्करण-2009, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली,  पृ0 सं0-99
4. अरोड़ा सुधा, आम औरत और जिन्दा सवाल, संस्करण-2009, सामयिक प्रकाशन,नई दिल्ली,पृ0सं0-75
5. शर्मा नासिरा, औरत के लिए औरत, वही, पृ0 सं0-105
6. कात्यायनी, दुर्गद्वार पर दस्तक, संस्करण-1997, परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ,पृ0 सं0-40
7. खेतान प्रभा, बाजार के बीचः बाजार के खिलाफ, भूमण्डलीकरण और स्त्री के प्रश्न, सं0 -2014, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0 सं0-78
8. सिन्हा मृदुला, मात्र देह नहीं है औरत, सं0-2009, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ0 सं0-140
9. गुप्ता रमणिका, स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास, सं0-2014, सामयिक प्रकाशननई दिल्ली, पृ0 सं0-27
10. जनसत्ता, लखनऊ, लखनऊ, बुधवार व मार्च, 2016, पृ0 सं0-1
11.  पुष्पा मैत्रेयी, खुली खिड़कियां, वही, पृ0 सं0-109
12.  कात्यायनी, दुर्ग द्वार पर दस्तक, वही,पृ0 सं0-25
13. हिन्दुस्तान, लखनऊ, शुक्रवार, 18 मार्च, 2016, पृ0 सं0-18

शिवानी कन्नौजिया
रिसर्च  फेलो,हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

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