शोध:जैनाचार दर्शन के सन्दर्भ में अपरिग्रह मीमांसा/रेखा गुप्ता

                

     जैनाचार दर्शन के सन्दर्भ में अपरिग्रह मीमांसा/रेखा गुप्ता                  

सम्यक् चारित्र्य की सिद्धि के निमित्त जैनदर्शन में पंच महाव्रतों की उपस्थापना की गई है। इन्हें पंच अणुव्रत भी कहते हैं। ये पंच महाव्रत सार्वभौम हैं तथा इनका पालन अनिवार्य है। ये इस प्रकार हैं- (1) अहिंसा अर्थात् मन, वचन तथा कर्म से किसी भी प्राणी को हिंसा न पहुँचाना (2) सत्य अर्थात् जो वस्तु जिस रूप में विद्यमान है उसे उसी रूप में कहना। (3) अस्तेय अर्थात् दूसरे की वस्तु को बिना उससे पूछे न लेना। (4) ब्रह्यचर्य अर्थात् वीर्य की रक्षा करते हुये नैष्ठिक जीवन व्यतीत करना। (5) अपरिग्रह अर्थात् आसक्तिपूर्वक पदार्थों का अनावश्यक संग्रह न करना। उक्त पंच महाव्रतों में महावीर स्वामी ने अहिंसा तथा अपरिग्रह पर सर्वाधिक बल दिया है तथा जीवन में उसके व्यावहारिक महत्त्व का प्रतिपादन किया है। परिग्रह के परिसीमन के लिये अस्तेय, इच्छा तथा लोभ का त्याग, सन्तोष, दान, अनासक्ति आदि अनेक उपाय बताये गये हैं। दिगम्बर मुनि जीवन में तो वस्त्र को भी परिग्रह की कोटि में लिया गया है।

जैन परम्परा में परिग्रह-अपरिग्रह पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया गया। इसका भारतीय जन-जीवन, समाज और अर्थव्यवस्था पर हर युग में व्यापक असर हुआ। महात्मा गाँधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त अपरिग्रह व्रत का ही रूप है। जैन धर्म की मान्यता के अनुसार जिस प्रकार अहिंसा की साधना के लिये अन्य व्रतों का अनुपालन आवश्यक है उसी प्रकार अपरिग्रह के लिये अन्य व्रतों का अनुपालन आवश्यक है। उनके प्रथम व्रत अहिंसा की पूर्ति उनके पंचम व्रत अपरिग्रह में होती है। तीर्थकर महावीर का आचार दर्शन बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय से बढ़कर सर्वजीव हिताय और सर्वजीव सुखाय तक है। उनके आचार दर्शन पर आधारित अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था संसार की सभी अव्यवस्थाओं को पूर्ण करने में सक्षम है।
  जैन धर्म के प्राचीन ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में परिग्रह की परिभाषा  दी गई है -मूर्च्छा परिग्रहःअर्थात् भौतिक वस्तुओं के प्रति तृष्णा व ममत्व का भाव रखना ही मूर्च्छा है। जैन दर्शन के अनुसार तृष्णा एक ऐसी खाई है जिसे कभी पाटा नहीं जा सकता है। सोने व चांदी के पहाडों से भी तृष्णा शान्त नहीं हो सकती क्योंकि धन चाहे कितना भी क्यों न हो वह सीमित होता है जबकि तृष्णाएँ असीमित होती हैं। सीमित साधनों से असीमित तृष्णा को कैसे शान्त किया जा सकता है? जैन दार्शनिकों की दृष्टि में तृष्णा ही दुःख का पर्याय है। यह तृष्णा या आसक्ति ही परिग्रह की जड़ है तथा समग्र परिग्रह हिंसा से ही उत्पन्न होता है। हिंसा का अभिप्राय शोषण से है क्योंकि दूसरों का शोषण किये बिना संग्रह असम्भव है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन करता है और इस प्रकार संग्रह करना भी हिंसा का ही रूप है।

जैनाचार दर्शन के अनुसार संग्रह और अनासक्ति में कोई मेल नहीं है। यदि मन में  अनासक्ति का भाव है तो बाह्य रूप में भी वह भाव प्रकट होना चाहिये इसके लिये गृहस्थ जीवन में परिग्रह मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश किया गया है। गृहस्थ जीवन में रहते हुये हिंसा, परिग्रह आदि से पूर्णतः बचना कठिन है। अतः महावीर स्वामी के अनुसार गृहस्थ अपनी सम्यक् दृष्टि का प्रयोग करते हुये जो भी कार्य करे उसके परिणामों पर भली-भाँति विचार करे। सांसारिक पदार्थों में आसक्ति के कारण ही मनुष्य संग्रह और भोग के लिये प्रेरित होता है और मोहजाल में फंसकर कामवासनाओं की पूर्ति हेतु अनावश्यक रूप से धन संग्रह करने लगता है। अन्ततः इन्द्रियजन्य भोगों में अत्यधिक आसक्ति से मनुष्य का जीवन नारकीय बन जाता है। सुख-दुःख, लाभ-हानि, विजय-पराजय का विचार किये बिना ही कर्म करने से मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। अतः मनुष्य को प्रयत्न कर तृष्णा का नाश करने का प्रयत्न करना चाहिये अन्यथा जिस प्रकार बछडे के शरीर के साथ उसका सींग भी बढता है, उसी प्रकार धन की वृद्धि के साथ-साथ तृष्णा भी बढती जाती है। जैन दर्शन में श्रावक के बारह व्रत एवं ग्यारह प्रतिमाएँ आदि का पालन गृहस्थ को निस्पृही वृत्ति का अभ्यास कराता है। इसी से आत्मज्ञान की समझ विकसित होती है।

जैन दर्शन में गृहस्थ को जीविकोपार्जन हेतु अपरिग्रह का निर्देश दिया गया है।  जिसका आशय है कि व्यक्ति व्यापार तो करे लेकिन ईमानदारी के साथ। मिलावटी वस्तुओं का व्यापार, सूदखोरी, जमाखोरी, अधिक मुनाफा लेना आदि भी जैनाचार के अनुसार परिग्रह है। यदि इन अतिचारों से बचते हुये कोई जैन गृहस्थ व्यापार करता है तो वह अपरिग्रही कहलायेगा। उसकी दुकान और मन्दिर में कोई अन्तर नही होगा तथा व्यापार और धर्म एक दूसरे के पूरक होंगे।
अपरिग्रह महाव्रत वर्तमान में पर्यावरणीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान में मनुष्य उपयोग व उपभोग की मर्यादा को विस्मृत कर प्रकृति के अमर्यादित व असीमित उपभोग में लगा हुआ है जिससे पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हुई है। जैन दर्शन के अनुसार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संयम का होना अत्यावश्यक है। अतः जैन धर्म के अपरिग्रह महाव्रत की पर्यावरण संरक्षण में महती भूमिका को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है। अपरिग्रह महाव्रत का पालन करते हुए व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार सीमित मात्रा में ही प्राकृतिक तत्त्वों से जल, वायु, वनस्पति, खनिज, ऊर्जा आदि का उपयोग करता है।

जैन धर्म के अन्तर्गत श्रावकाचार का अर्थ है- सदाचरण व संयम से युक्त गृहस्थ जीवन व्यतीत करना। जब गृहस्थ अणुव्रतों के रूप में अनावश्यक जीव हिंसा, सत्याचरण, संतोष तथा अपरिग्रह आदि नियमों का पालन दैनिक जीवन में करता है तो निश्चय ही वह पर्यावरण की रक्षा में अपना योगदान देता है। प्रकृति प्रदत्त पदार्थ असीमित नहीं है। उनका उपयोग संयम के साथ किया जाना आवश्यक है। अपरिग्रह का सिद्धान्त हमें यही सिखाता है कि हम प्रकृति प्रदत्त पदार्थों जल आदि का सीमित मात्रा में आवश्यकतानुसार ही प्रयोग करें। यह सिद्धान्त धर्म के लिये नहीं अपितु पर्यावरण संरक्षण के लिये है। महावीर स्वामी ने भोगोपभोग के संयम का व्रत दिया है, वह पर्यावरण से सीधा सम्बन्ध रखता है। मानवता के सम्मुख उपस्थित दूषित पर्यावरण की समस्या का अन्त तभी हो सकता है जब हम इन सूत्रों को हृदयगंम करें - 

धनधान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता।
परिमित परिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि।।
               
अर्थात् अपनी आवश्यकतानुसार परिग्रह परिमाण करना, परिमाण किये हुये परिग्रह से अधिक परिग्रह की वांछा नहीं रखना, ऐसा संकल्प लें। इसके कारण परिग्रह परिमाण व्रत के पालन से अधिक परिग्रह करने की वांछा पर विराम लग सकता है। अधिक परिग्रह के लालच में ही मानव अधिकाधिक उद्योग-धन्धे स्थापित करता है, जिससे पर्यावरण को हानि पहुँचती हैं। स्पष्ट है कि जैन दर्शन में वर्णित अहिंसा, संयम, अपरिग्रह आदि के सिद्धान्तों से प्रकृति रक्षण का कार्य स्वतः होता है। अपरिग्रह व्रत का उदात्तीकरण ही पर्यावरण प्रदूषण से ग्रसित पृथ्वी  को एक नया जीवन दे सकेगा। मानव की परिग्रह प्रकृति अविवेकशील होती है जिसके रहते मनुष्य उचित-अनुचित का बोध नहीं कर पाता है। परिग्रह हिंसा, असत्य, स्तेय, मद, मोह, लोभ इत्यादि पाप वृत्तियों की जड़ है अर्थात् जीव परिग्रही बनकर हिंसा, चोरी आदि में लिप्त रहकर असत्याचरण करता है। विवेक त्याग कर स्वार्थ सिद्धि को ही प्रमुख मानता है। जिससे दया, उदारता, प्रेम, विश्वास, सहानूभूति, परोपकार आदि नैतिक मूल्यों व आदर्शों का वर्तमान में लोप हो रहा है। सभी भारतीय दर्शनों में आत्मसंयम पर बल दिया गया है। राग, द्वेष, वासना, क्रोध, लोभ, मोह आादि का निरोध करना आत्मसंयम के लिये आवश्यक है। विभिन्न भारतीय दार्शनिकों ने अहिंसा, अपरिग्रह, स्वाध्याय, अन्तःकरण की शुद्धि आदि के द्वारा आत्मसंयम का उपदेश दिया है जिनका पालन करके व्यक्ति विभिन्न दुःखों से निवृत्ति प्राप्त कर सकता है। 

रेखा गुप्ता
शोधार्थीसंस्कृत विभाग
मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय
उदयपुर
सम्पर्क
agrawalrekha857@gmail.com
वर्तमान भौतिकवादी युग में प्रत्येक व्यक्ति तृष्णाओं के जाल में फँसा हुआ है तथा अपनी तृष्णाओं की पूर्ति के लिये अधिकाधिक संग्रह करना चाहता है। संग्रह की इस प्रवृत्ति के कारण नैतिकता तथा जीवन मूल्यों का निरन्तर पतन हो रहा हैं जिससे अनेक प्रकार की समस्याएँ समाज में परिलक्षित हो रही हैं। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य ने स्वार्थी व लोभी प्रवृत्ति के कारण भ्रष्टाचार को जन्म दिया है। ऐसी स्थिति में यदि प्रत्येक व्यक्ति कुछ नियमों या व्रतों का पालन करने का प्र्रण करें तो समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है। जैनाचार दर्शन में वर्णित अपरिग्रहाणुव्रत का पालन करने से व्यक्ति स्वयं की संग्रह प्रवृत्ति पर नियन्त्रण रखकर समाज को उन्नति की ओर अग्रसर करने में अपना योगदान दे सकता है।



सन्दर्भ

1.            जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 2, डॉ. सागरमल जैन
2.            जैन संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण, डॉ. प्रेम सुमन जैन
3.            जैन धर्म और जीवन मूल्य, डॉ. प्रेम सुमन जैन
4.            जैन आचार-मीमांसा एवं पर्यावरण, डॉ. सांवर सिंह यादव  

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

Post a Comment

और नया पुराने