आलेख:मानवता के सिंचक ‘अम्बेडकर’/ डॉ. संगम वर्मा

आलेख:मानवता के सिंचक ‘अम्बेडकर’/ डॉ. संगम वर्मा


                21 वीं सदी के इस नवउदारवादी, नवउपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर में नए-नए प्रयोग, नए-नए वाद, नए-नए परिवर्तन एवं नई-नई चुनौतियां सामने आ रही हैं जिसमें मानवता जो चाल्र्स डर्विन के विकासवादी सिद्धान्त की तरह विकसित और पल्लवित हो रही है, को अपरिहार्य रूप से गुजरना पड़ रहा है और नया चोला ओढ़ना पड़ रहा है। ऐसे में सदियों से चली आ रही विचारधारा को भी चाहे वह किसी भी परिप्रेक्ष्य से सम्बन्धित हो, को नई दिशा मिला अत्यन्त दुर्गामी है और दुःसाध्य भी है। लेकिन इतिहास है ही चमत्कारों का कोई न कोई विरला इन जड़ परम्परावादी विचारधाराओं की भूमि में अपनी ऊर्जस्विता रूपी विचारों के बाण से विचारों की प्रवाहमान गंगा निकाल कर नई दिशा बनाता चलता है। ठीक ऐसा ही कुछ जमीन से जुड़े और बुलंद हौंसले के साथ दुनिया में अपनी पहचान बनाई डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने,उनको लेकर तरह तरह की बातें की जाती रही और आए दिन होती रहती है। वास्तव में अम्बेडकर हैं क्या और क्या हैं उनके सिद्धान्त और क्या है उनकी विचारधारा? जो आज तक निर्विवाद रूप से दैदीप्यमान है। इसका सीधा साधा उत्तर स्वयं उन्हीं के कथन में निहित है कि वे सामाजिक दर्शन को समता, स्वतन्त्रता और बन्धुता इन तीन शब्दों का मिश्रित रूप मानते है। यही उन के समाज का जीता जागता आईना है जो उन्होंने बहुत पहले देखा था। हालांकि कई भी चीज खरा सोना तभी बनती है जब वह संघर्ष की भट्टी में तपकर निकलती है। अम्बेडकर ने भी समाज के सबसे निचले तबके को एक नया रूप दिया, गति दी। डॉ. सुकन पासवान प्रज्ञाचक्षु अपनी पुस्तक केवल दलितों के मसीहा नहीं है अम्बेडकर की भूमिका में बताते हैं कि केवल शब्द एवं ज्ञान प्राप्ति से ही नहीं, बल्कि नवजागरण तथा चेतनात्मक आंदोलनों के माध्यम से समग्र मानवाधिकार एवं समाजार्थिक राजनीतिक अधिकारों से वंचित मान सिंन्धु के उत्थान के लिए जिन कुछ क्रान्तियों तथा मानवतावादियों ने अहर्निश संघर्ष किया है उनमें भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रगण्य है। आज भी डॉ. अम्बेडकर एक विश्व प्रसिद्ध न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, संविधान शिल्पी, राष्ट्रभक्त, समाजसेवी, बुद्धिवादी, समता, स्वतन्त्रता, बंधुता के पहरेदार तथा चिंतक के रूप में अपने कृतित्व के माध्यम से हमारे बीच मौजूद है। सभी तरह से उपेक्षित तथा वंचित लोगों के साथ साथ मनुष्य मात्र हेतु बंधुता, क्षमता एवं स्वतंत्रता का आजीवन एवं अहर्निश शंखनाद करने वाले बाबा साहब अम्बेडकर मात्र दलितों के ही मसीहा नहीं है, बल्कि सभी तरह की असमानताओं, उपेक्षाओं से पीड़ित जन व महाकुंभ के अम्बेडकर है।”1 स्पष्ट है कि अम्बेडकर सभी तरह के विभेद का समूल नाश करने वाले महामानव का नाम है।

   अम्बेडकर का मानवतावादी दृष्टिकोण अत्यन्त विस्तृत है। व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के प्रति उन्होंने सजग दृष्टि अपनाई वे अन्यत्र किसी भी व्यक्ति द्वारा दृष्टिगत नहीं होती। जिस तरह जीवन की प्रत्येक मूलभूत आवश्यकता को जिस सारगर्भिता के साथ भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार अध्ययन में पिरो गया है, वह विश्व के अन्य किसी देश के संविधान में शायद ही सुलभ है। अनुच्छेद 14 से लेकर 32 तक सभी अधिकार उनके मानवतावादी दृष्टिकोण को सार्थकता प्रदान करते हैं कि वे किसी विशेष वर्ग हेतु नहीं थे वरन् समस्त बंधुओं के लिए थे।

                                अम्बेडकर स्वयं कैसे इतना सोच पाये, कैसे इतना बड़ा कार्य कर सके और कैसे भारत रत्न प्राप्त कर सके। इनके पीछे उनकी अनथक लग्न, जज्बा और सीखने की ललक थी। उन्होंने शिक्षा को अपना सबसे बड़ा कर्म माना क्योंकि शिक्षित होकर ही हम अपने विचारों को नई दिशा दे सकते है।

         शिक्षा के सम्बन्ध में उनके विचार नई दिशा व प्रेरणा देते हैं जैसे शिक्षा शेरनी के दूध के समान है, जिसे पीकर हर व्यक्ति दहाड़ने लगता हैं। शिक्षा एक ऐसा माध्यम हैं जिसे प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचानी चाहिए। शिक्षा सस्ती से सस्ती हो जिससे निर्धन व्यक्ति भी शिक्षा प्राप्त कर सके। शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। शिक्षा के मार्ग सभी के लिए खुले होने चाहिए। किसी समाज की प्रगति उस समाज के बुद्धिमान, कर्मठ और उत्साही युवाओं पर निर्भर करती है। मैंने जिस प्रकार से शिक्षा प्राप्त की, आप भी प्राप्त कीजिए। केवल परीक्षा पास करने तथा पद प्राप्त करने से शिक्षा का क्या उपयोग? आपको यह याद रखना चाहिए कि कोई समाज जागृत, सुशिक्षित और स्वाभिमानी होगा तभी उसका विकास होगा। अपने गरीब और अज्ञानी भाईयों की सेवा करना प्रत्येक शिक्षित नागरिक का प्रथम कर्तव्य है। बड़े अधिकार के पद पाते ही शिक्षित भाई अपने अशिक्षित भाईयों को भूल जाते हैं। यदि उन्होंने अपने असंख्य भाईयों की ओर ध्यान नहीं दिया तो समाज का पतन निश्चित हैं। अपने बच्चों को विद्यालय जरुर भेजें। उन्हें शिक्षित बनाओ शिक्षा के बिना समाज को सुधारने का और कोई चारा नहीं। शिक्षा की महत्त्ता पर बल देते हुए अम्बेडकर कहते है, शिक्षा एक ऐसी आवश्यकता जिसे प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचानी चाहिए। यह सस्ती से सस्ती हो, ताकि निर्धन से निर्धन व्यक्ति इसे प्राप्त कर अपना सर्वांगिण विकास कर सके।

                 ग्रीक (यूनान) में सुकरात ने कहा था ‘Knowledge is Power’ अर्थात ज्ञान सबसे बड़ी शक्ति है। इसलिए आधुनिक भारत का सुकरात डॉ. अम्बेडकर को कहना गलत नहीं होगा। क्योंकि भारत में समाज के लिए शिक्षा का महत्त्व और आग्रह करने वाला इकलौती विभूति डॉ. अम्बेडकर थे, यह सर्वमान्य है। विलियम्स शेक्सपियर ने ठीक ही कहा है कि इंसान के जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं उससे लड़कर यदि इस बाद को पार कर लिया जाये तो किस्मत बन जाती है और यदि नजरंदाज कर दिया तो उनके जीवन का सफर उथला हो जाता है और कष्टों से घिर जाता है।
                डॉ. अम्बेडकर का मूल चिंतन है स्त्री चिंतन। बाबा साहेब की सोच में यह स्पष्ट था कि यदि हम लड़कों के साथ- साथ लड़कियों की शिक्षा की ओर भी ध्यान देने लग जाये, तो हम अतिशीघ्र प्रगति कर सकते हैं। शिक्षा किसी वर्ग की बपौती नहीं। उस पर किसी एक ही वर्ग का अधिकार नहीं। समाज के प्रत्येक वर्ग को शिक्षा का समान अधिकार है। नारी शिक्षा पुरुष से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। चूंकि पूरी पारिवारिक व्यवस्था की धुरी भी नारी है, उसे नकारा नहीं जा सकता है।

•             डॉ. अम्बेडकर के प्रसिद्ध मूलमंत्र की शुरुआत ही शिक्षित करो से होती है ‘Educate & Agitate & Organize’ इस मूलमंत्र से आज कितनी महिलाएँ शिक्षित और सुशिक्षित होकर अपने पैरों पर जीवन यापन कर रही है।हजारों साल पुराना एससी,एसटी और ओबीसी वर्ग आज आज के सामान्य वर्ग के साथ बराबरी से खड़ा है। वहीं आज के दौर में शिक्षा प्रत्येक युवाओं के द्वारा महसूस होता है क्योंकि आज महंगी तथा प्राईवेट शिक्षा प्रणाली के कारण भारत का भविष्य कहलाने वाली युवा पीढ़ी की क्या स्थिति है, यह हमारे सामने है। इस चिंता के चिंतक डॉ. अम्बेडकर ने भविष्यवाणी की थी कि शिक्षा को सस्ती से सस्ती होना चाहिए।2

       दलित वर्ग की शिक्षा के बारे में अम्बेडकर का मत था कि दलितों के अत्याचार तथा उत्पीड़न सहन करने तथा वर्तमान परिस्थितियों को सन्तोषपूर्ण मानकर स्वीकार करने की प्रवृति का अन्त करने के लिए उनमें शिक्षा का प्रसार आवश्यक है। शिक्षा के माध्यम से ही उन्हें इस बात का आभास होगा कि विश्व कितना प्रगतिशील है तथा वे कितने पिछड़े हुए है । उनका मानना था कि दलितों को अन्याय, अपमान तथा दबाव को सहन करने के लिए मजबूर किया जाता है। वे इस बात से दुखी थे कि दलित इस प्रकार की परिस्थितियों को बिना कुछ कहे स्वीकार कर लेते हैं। वे संख्या में अधिक होने के बावजूद उत्पीड़न को सहन कर लेते हैं, जबकि यदि एक अकेली चींटी पर भी पैर रख दिया जाए तो वह प्रतिरोध करते हुए काट डालती है। इन परिस्थितियों को समाप्त करने के लिए अम्बेडकर दलितों में शिक्षा के प्रसार को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। उन्हें केवल औपचारिक शिक्षा ही नहीं अपितु अनौपचारिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए । अम्बेडकर सामाजिक क्रांतिकारी थे। वह हिन्दुओं, विशेषतरू ब्राह्राणों के हाथों अपमानित होने वाले दलित वर्ग के उद्धारक थे। उन्होंने दलित समुदाय को तिरस्कार तथा अधीनता के उस दलदल में से उबारा जिसमें धर्मान्ध तथा धर्म के ठेेकेदार ब्राह्राणों ने उन्हें फँसा दिया था। तिलक की तरह उनका मत था कि प्रत्येक को अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना पड़ता है। अधिकार दान में नहीं दिए जाते। इसी प्रकार प्रत्येक को पूर्वस्थापित सामाजिक संरचना, रीति-रिवाजों विश्वासों व व्यवहार के विरुद्ध लड़ना होगा।उनके अनुसार वर्ण-व्यवस्था पर आधारित हिन्दू समाज शोषण व असमानता को बढ़ावा देता है। अस्पृश्य वर्ग वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति है। इस व्यवस्था में ब्राह्राणों को उच्च स्थान प्राप्त है। तथा अस्पृश्यों को शोषण व दमन का सामना करना पड़ता है। अतः अस्पृश्यता-निवारण व भारतीय समाज में सुधार का एक ही उपाय है कि वर्ण-व्यवस्था का अन्त कर दिया जाए। अम्बेडकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिन्दू समाज में समानता सम्भव नहीं है। इसी कारण अन्ततः उन्होंने हिन्दू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था।

                  जाति-प्रथा का मूलाधार जन्म है। जाति प्रथा के कारण हिन्दू समाज असंख्य इकाईयों में बँट गया। अम्बेडकर के अनुसार जाति-विद्वेष के कारण हिन्दू कभी एक होकर नहीं रह सके न ही उनमें सामाजिक चेतना का संचार हुआ। अम्बेडकर तथा गाँधी दोनों ही दलितों के उद्धार के पक्षधर थे, किन्तु वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में दोनों में मतभेद था। गाँधी पुनर्जन्म तथा कर्मफल में विश्वास रखते थे। किन्तु अम्बेडकर ने इस दर्शन को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति-प्रथा का उन्मूलन में हिन्दू समाज के दोषों पर प्रकाश डाला तथा जाति-व्यवस्था को बुरी व्यवस्था मानते हुए उसके उन्मूलन का सुझाव दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने शास्त्रों को नष्ट करने पर भी बल दिया।

                                अम्बेडकर जहां शिक्षा के लिए अपने विस्तृत विचार रखते है वहीं दूसरी ओर वे राष्ट्र भाषा को भी मानवता के सर्वांगिण विकास का परिचालक मानते  क्योंकि भाषा सबसे सशक्त सेतु होती है। यही एक मात्र अध्याय है जो हमें सबसे कम समय में तथा सबसे अधिक प्रभावी ढंग से एकजूट करती है। एक स्थल पर वे कहते है ‘‘यदि भारत को किसी भाषा का राष्ट्र भाषा का दर्जा दे दिया है गया होता तो अब तक वह काफी सशक्त लोकप्रिय होने के साथ साथ जनभाषा, सम्पर्क भाषा का आसन ग्रहण कर चुकी होती और भारत का प्रत्येक व्यक्ति अपना हर्ष-सदन दुख सुख बांटने में सफल होने के नाते एक दूसरे के नातेदार जैसा महसूस करते तथा स्वभावतः वसुधैव कुटुम्बकम की उक्ति के चरितार्थ होने की अनुभवि होती।3 अम्बेडकर की मानवतावादी दृष्टि समाज के प्रति बहुतायत सकारात्मक रूप से दृष्टिगत होती है। वे अच्छी तरह से जानते थे।

                डॉ. अम्बेडकर ने अपने समाज दर्शन की स्थापना में सर्वप्रथम अस्पृश्यता की जड़ वर्ण व्यवस्था पर ऐतिहासिक, नैतिक व तार्किक रूप से प्रहार किया तथा वह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वर्ण व्यवस्था पूर्णतः अवैज्ञानिक, अन्यायपूर्ण, अमानवीय एवं शोषणकारी सामाजिक योजना है। यही वर्ण व्यवस्था कालान्तर में जाति व्यवस्था में परिवर्तित होकर अपिरवर्तनीय हो गयी। अतः जाति व्यवस्था हिन्दू संस्कृति एवं धर्म का ही देन है जिसने समाज एवं देश की सांस्कृतिक व राजनीतिक एकता को खण्डित कर दिया। इन सभी असमानताओं एवं शोषण की मुक्ति के रूप में वे बौद्ध धर्म का समर्थन करते थे। इनका मानान था कि भारतीय धर्मों में केवल बौद्ध धर्म ही धर्म के सच्चे आदर्शों के अनुकूल है। बौद्ध धर्म न केवल मानव एवं मानव के मध्य समानता थी, अपितु स्त्री एवं पुरुष में भी समानता का समर्थन करता है। इसलिए बाबा साहेब हिन्दू धर्म को छोड़ने व बौद्ध धर्म को अपनाने की बात करते थे। इनका कहना था कि अपने ऊपर हो रहे अन्यायों, अत्याचारों व शोषण से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बौद्ध धर्म की शरण में जाना है।

                    डॉ. अम्बेडकर ऐसे प्रथम भारतीय चिन्तक, समाज सुधारक एवं विचारक थे, जिन्होंने समतावादी सामाजिक व्यवस्था अर्थात् स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व के आदर्शों पर आधारित समाज व देश की कल्पना करते थे तथा ऐसी व्यवस्था की स्थापना के लिए वे जीवन भर संघर्ष भी करते रहे। भारतीय समाज वर्ग व्यवस्था पर आधारित है जिसमें समाज व्यस्थित न होकर अव्यवस्थित सा है। उन्होंने व्यस्थित समाज की परिकल्पना करते हुए बुद्ध के प्रभाव स्वरूप प्रज्ञा बुद्धि, विवेक, करूणा, दया एवं प्रेम सभता, स्वतंत्रता एवं भ्रातृत्व ये तीन तत्व अनिवार्य माने है। ये ऐसे तत्व है जो सुखी जीवन हेतु आवश्यकत है जबकि उनका आदर्श समाज की स्थापना हेतु पांच आधाभूत तत्वों को महत्वपूर्ण मानते है। क्य®ंकि व्यक्ति को वे सामाजिक संरचना की इकाई मानते है यानि कि ‘‘व्यक्ति ही वह केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों ओर आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं वैधानिक गतिविधियाँ घूमती है, उसे पोषित एवं संशोधित करती है और आगे चलकर उसी से जीवन व गति प्राप्त करती है।”5.(डॉ. पूरण मल- अम्बेडकर और दलितोद्धार आन्दोलन, आविष्कार पब्लिशर्स, डिस्ट्रीव्यूटर्स जयपुर, राजस्थान, पृष्ठ संख्या 96)। दूसरा महत्वपूर्ण तत्व उनका धर्म है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में ‘‘धर्म जीवन और सामाजिक गतिविधियों को जारी रखने हेतु बहुत आवश्यक है।”6 (धनन्नजय कीर- डॉ. अम्बेडकर लाइफ एंड मिशन, पापूलर प्रकाशन, 1981, पृष्ठ संख्या 75) उनकी मान्यता है कि धर्म मानवता के लिए अनिवार्य है। तीसरा अनिवार्य तत्व वे स्वतंत्रता को मानते है जो व्यक्ति और समाज के मध्य संतुलन स्थापित करने का एक साधन है। चौथा तत्व वे समानता को देते है कि यह मानव आचरण का वह पहलू है जो समाजिक तथा धार्मिक सहिष्णुता, राजनैतिक निष्पक्षता एवं ईमानदारी और आर्थिक सहयोग के आदर्शों पर आधारित है। पांचवा मूलभूत तत्व भ्रातृत्व की भावना की है। भ्रातृत्व का मूलभूत समाज के शेष सदस्यों के साथ एकता की भावना में निहित है। भ्रातृत्व का आदर्श एकात्मकता की चेतना को मजबूत करता है जिसके बिना समाज जीवित नहीं रह सकता। छठा तत्व राजनैतिक प्रजातन्त्र है स्वयं उन्हीं के शब्दों में राजनैतिक प्रजातंत्र चार आधारभूत बातों पर टिका हुआ है-‘‘व्यक्ति स्वयं में साध्य है, व्यक्ति के कुछ अपृथक अधिकार होते है जिनकी गारंटी संविधान द्वारा मिलनी चाहिए। किसी सुविधा को प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए और राज्य कुछ लोगों को ऐसे अधिकार नहीं देगा जिनसे वे अन्य लोगों पर शासन करें।”7 (बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्मय, खंड-1, नई दिल्ली, डॉ. कल्याण प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय-भारत सरकार, 1998, पृष्ठ संख्या 152) यही था उनका सुव्यस्थित आदर्श समाज। इन सबसे अम्बेडकर ने अपनी मानवतावादी दृष्टि का परिचय औद्योगिकीकरण के सन्दर्भ में मिश्रित अर्थव्यवस्था के आरचरण की बात करते हुए दिया। उनका कहना है,‘‘औद्योगिक नीति इस तरह की होनी चाहिए कि जिसके परिणामतः अधिकतम उत्पादन निपुणता एवं उत्पादकता के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय औद्योगिक बाजार में देशी उद्योगों की प्रतिस्पर्धी क्षमता प्रतियोगितापूर्ण एवं लाभकारी है। उद्योग क्षेत्र में ऐसी स्थिति कायम होने पर राष्ट्र के औद्योगिक एवं आर्थिक विकास में गत्यात्मकता के साथ गुणात्मक संवंर्द्धन संभव है। चाहे कोई राष्ट्र पूंजीवादी हो, समाजवादी, उसे उद्योग के क्षेत्र में प्रगति एवं विकास हेतु इन सिद्धान्तों को अपनाना पड़ेगा।”8 

    डा. अम्बेडकर जी के जीवन में एक महत्वपूर्ण बात हमको दिखलाई देती है वह यह है कि वे पुरानी सभी मान्यताओं, आदर्शों और व्यवस्थाओं को ध्वस्त करना नहीं चाहते तथा किसी जाति या वर्ण के वे शत्रु नहीं हैं, जो अच्छा है वह संभालकर रखना और जो अनावश्यक है उसे हटाना ही उन्हें अभीष्ट है। इस दृष्टि से वे एक आन्दोलनकारी हैं। डॉ0 अम्बेडकर का मानना था कि जाति प्रथा से लड़ने के लिए चारों तरफ से प्रहार करना होगा। जाति ईंट की दीवार जैसी कोई भौतिक वस्तु नहीं है। यह एक विचार है, एक मनःस्थिति है जिसकी नींव धर्म शास्त्रों की पवित्रता में है। वास्तविक उपाय यह है कि प्रत्येक स्त्री पुरुष को शास्त्रों के बन्धन से मुक्त किया जाय, उनकी पवित्रता को नष्ट किया जाय, इसका सही उपाय है, ‘अन्तर्जातीय विवाह तभी वे जात-पांति का भेदभाव बन्द करेंगे। जब जाति का धार्मिक आधार समाप्त हो जायेगा, तो इसके लिए रास्ता खुल जायेगा। खून के मिलने से ही अपनेपन की भावना पैदा होगी और जब तक यह अपनत्व की बन्धुत्व की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक जाति प्रथा द्वारा पैदा की गई अलगाव की भावना समाप्त नहीं होगी। अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए अम्बेडकर ने मार्क्सवादी समाजशास्त्र का सहारा लेते हुए लिखा है कि अस्पृश्यता की समस्या वर्ग-संघर्ष का एक मामला है।अपने इन प्रयासों के द्वारा डॉ0 अम्बेडकर ने अस्पृश्यों में जनजागृति लाने के साथ हिन्दू समाज में क्रांति लाने और उसके हृदय में परिवर्तन करने के लिए भी अनेक सत्याग्रह आन्दोलन को संगठित किया और महार आनुवांशिक कार्यभार कानून (वेतन प्रणाली, बंधुआ मजदूरी और दासता प्रणाली) को समाप्त करने का भी प्रयास किया। डॉ0 अम्बेडकर द्वारा संगठित सत्याग्रह आन्दोलन कानूनो पर अमल कराने के लिए आयोजित किये गये थे। उदाहरणतः 1927 में महाड़ तालाब सत्याग्रह का मुख्य उद्देश्य अस्पृश्यों के सार्वजनिक तालाबों से पानी पीने के मानवीय अधिकार को लागू करवाया था। 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश का उद्देश्य अस्पृश्यों को सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश दिलाना था। मार्च 1928 में मुम्बई विधान सभा में महार आनुवांशिक कार्य-भार विधेयक का उद्देश्य महारों को खानदानी पेशे से मुक्ति दिलाना था।

                    
 अम्बेडकर के अनुसार सामाजिक न्याय का आधार सभी मानव के बीच समानता, उदारता तथा भाईचारे की भावना है। सामाजिक न्याय का उद्देश्य, जाति, रंग, लिंग, शक्ति, स्थिति तथा धन-दौलत आदि पर आधारित सभी असमानता को दूर करना है। अम्बेडकर के अनुसार मनुष्य द्वारा बनाई गई असमानताओं को कानून, नैतिकता तथा जागरूकता के द्वारा समाप्त कर सामाजिक न्याय की स्थापना की जानी चाहिए। परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान पर अम्बेडकर के सामाजिक न्याय सम्बन्धी विचारों का दोहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है। संविधान की प्रस्तावना में न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता जैसे शब्दों का प्रयोग सामाजिक न्याय पर अम्बेडकर की धारणा के अनुरूप है। उनके प्रयासों से ही संविधान में अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों को सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए विशेष प्रावधान किये गये हैं। समानता (अनु0 14), अस्पृश्यता (अनु0 17), शोषण की समाप्ति (अनु0 23-24) आदि के साथ ही अनुच्छेद 39, 39, 46, 330, 332, 338 एवं 340 आदि अनुच्छेदों पर डा0 अम्बेडकर के सामाजिक न्याय के विचारों का गहरा प्रभाव है। अम्बेडकर यह जानते थे कि भारतीय दर्शन के मौलिक तत्व बहुत उदात्त हैं। किन्तु, विकृतियों, रूढ़ियों, ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्डों एवं परंपराओं का अनावश्यक अतिरेक, जिसने उस समस्त दर्शन जो सभी मनुष्यों को समान मानता है तथा करुणा, प्रेम, ममता, बन्धुत्व, दया, क्षमा, श्रद्धा आदि सद्गुणों का सन्देश देता है एवं उसका संरक्षण भी करता है, को ढंक लिया है, वही हमारे परिवर्तन का मूलाधार बना रहे। अम्बेडकर मानते है कि हमारे चिन्तन का मूल आधार मनुष्य होना चाहिए। हम मनुष्य तभी हो सकते है जब हम सभी ईकाइयों के प्रति एकात्मक भाव रखें। यही उनका मानवतावादी दर्शन है।

                                अस्तु, अम्बेडकर ने सामाजिक विकास के लिए जो बाधाएं थी जातिवाद, अस्पृश्यता, धर्म, प्रजातंत्र, आर्थिक विकेन्द्रीकरण नीति, भेदभाव, पर्दा प्रथा, गुलामी जैसे कोढ़ को अपनी मानवतावादी विचारधारा के निर्मल एवं स्वच्छ गंगाजल की धारा से ठीक किया अपितु मानवता को नई दिशा प्रदान की है। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व, सृष्टि और दृष्टि तथा चिंतन एवं दर्शन सभी मानवता के सिंचन एवं अभिवर्द्धन के लिए है।

संदर्भ
1 डॉ. सुकन पासवान प्रज्ञाचक्षु- केवल दलितों के मसीहा नही है अम्बेडकर- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2011, पृष्ठ संख्या 7
2 राजेश गुप्ता, डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक न्यान मानव पब्लिकेशन, प्राइवेट लिमिटेड, लक्ष्मीनगर, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 1
3  डॉ. अम्बेडकर पृष्ठ 57)

डॉ. संगम वर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, परास्नातक राजकीय कन्या महाविद्यालय
सैक्टर-42, चण्डीगढ़
सम्पर्क 94636-03737, sangamve@gmail.com


अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)         वर्ष-4,अंक-26 (अक्टूबर 2017-मार्च,2018)          चित्रांकन: दिलीप डामोर 

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