वक्तव्य : तुलसी अपनी बात बहुत सहज ढंग से जनता तक पहुँचा देते हैं / प्रो. पूरनचंद टंडन

तुलसी अपनी बात बहुत सहज ढंग से जनता तक पहुँचा देते हैं

तुलसी पर इतनी सार्थक गोष्ठी में मैंने इससे पहले कभी भागीदारी नहीं की। वो इस भाँति के जितना सहज काव्य तुलसी का है उससे कहीं अधिक सहज व्याख्या और अभिव्यक्ति आज के चारों वक्तव्यों में हुई। एक बात स्पष्ट है कि वर्तमान समय के चारों वक्तव्यों में हुई एक बात स्पष्ट है कि वर्तमान समय महानता की प्रयोजन व्यवस्था का समय है। यहाँ तो महानता क्रियेटकी जाती है। तुलसी जैसे महान कवि जो समाज सुधारक हैं, कवि हैं, लोक उन्नायक, मार्गदर्शक, नीतिकार और सूक्तिकार हैं, पर यदि हम गोष्ठी करे तो उनके एक-एक रूप पर पूरे दिन चर्चा-परिचर्चा हो सकती है। ऐसा महाकवि जिसने मानस की परिकल्पना की उसका मानस कितना वृहद रहा है। इसका संकेत इमें इस गोष्ठी में मिला। इस गोष्ठी की बड़ी उपलब्धि है कि हमने तुलसी के अनेक आयामों को एक साथ समझने को कोशिश की है। तुलसी की एक-एक  रचना वर्तमान समय के अनेक रचनाकारों की समस्त रचनाओं पर भारी पड़ती हैं। मानस के बाद किसी में रामकथा पर लिखने का साहस दिखाई नहीं देता। कुछ साहस और दुस्साहस केशव ने किया था वह भी वह सोच कर कि तुलसी ने समूचे भारती मानस पर कब्जा कर लिया है इसलिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक रामकथा को नए तरीके से प्रस्तुत करना बहुत कठिन कार्य है। इसलिए उन्होंने भाषा बदल दिया और अवधी  की जगह पर ब्रज भाषा का चयन किया।

राम पर आधारित चाहे मध्यकालीन कवियों की स्फूट रचनाएँ हों या आधुनिक युग का साकेत, रामचरित मानस उन पर तब भी भारी थी और आज भी है। वर्तमान समय में साहित्य में पठनीयता का संकट तो है लेकिन यदि साहित्य पठनीय नहीं है तो पठनीयता कहाँ से होगी? आज का साहित्य अखबारी साहित्य है जो स्वयं रचनाकार की समझ में भी नहीं आता और जिसका जीवन महज एक घंटे का होता है। ऐसे में यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि मानस की स्वीकृत तब से आज तक देश और विदेशों में न केवल बनी हुई है अपितु बढ़ती ही जा रही है।

एक दुष्प्रचार चला कि गीता प्रेस बंद होने वाला है यह खबर सहीं नहीं थी। दरअसल, यह रामकथा और रामकाव्य की धरा को हतोत्साहित करने के षड्यंत्र का एक हिस्सा था, जो प्रयोजित ढ़ंग से कुछ दुष्टों के द्वारा चलाया गया।

एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुलाम बनकर विदेशों में भेजे जाने वाले हजारों भारतीय अपने से साथ गीता, गंगा, जल और रामचरित मानस अपने साथ ले गए थे। मानस गाते हैं उनका बीज भी इसी में निहित है। उन्होंने वहाँ जाकर राम मंदिरों के निर्माण किए और राम कथा का आयोजन किया। दरअसल, इस देश में रामकथा की जितनी गायन शैलियाँ मिलती है उतनी किसी रचना की नहीं मिलती है। यह मानस का सामर्थ्य और स्वीकृति ही है कि दिन भर परिश्रम करने के उपरान्त खाना खाकर मजदूर समूहों में मानस का ढोल-मजीरों के साथ गायन करते हैं और उनकी थकान मिट जाती है और वे प्रातः पुनः अपने काम पर नई उर्जा के साथ जाते हैं। मानस पूरे मानस को और पूरी सृष्टि को प्रभावित करती है।

अनुवादों आदि के कारण रामकथा के स्वरूप में थोड़ा बदलाव आया होगा लेकिन उसका मूल कथ्य नहीं बदला। यही कारण है कि जिस तरह तुलसी लोकनायक है उसी तरह उनके नायक राम विश्वनायक हैं। पूरा विश्व उनके आगे नत मस्तक था और अभी भी है। हमारे दोनों राष्ट्र नायक राम और कृष्ण ने पूरे विश्व को अभिभूत किया। आश्चर्य जनक तो यह है कि तुलसी द्वारा स्थापित मूल्य आज पहले से अधिक प्रासंगिक हैं क्योंकि स्वार्थ, लोभ, राम-द्वेष और ईर्ष्या के इस युग में इन मूल्यों की अधिक आवश्यकता है।तुलसी अपनी बात बहुत सहज ढंग से जनता तक पहुँचा देते हैं। शहद की गोली की भाँति तुलसी की कविताओं को गले में उतारते ही अर्थ स्पष्ट हो जाता है-

धीरज धर्म मीत अरू नारी, आपद काल परखिए चारी

इससे अधिक सहज बात क्या होगी। ऐसे ही- जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू तो तेहि मिले नहिं कछु संदेहू।कहकर तुलसी ने जनता में यह संकल्प बाँटा कि यदि आप को किसी मतव्य तक पहुँचना है तो एक शुद्ध संकल्प ले लीजिए क्योंकि यदि आप चाहेंगे तो वह अवश्य होगा। तुलसी के सूक्ति पर पूरी रचनाएँ लिखी जा सकती है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने कुछ षड्यंत्रों के तहत मध्यकालीन साहित्य को हतोत्साहित किया, उसकी निन्दा की। उसका मूल कारण था कि वटवृक्ष के सामने खड़े होने से अपना कद बहुत छोटा दिखाई देता है। आज की बाजारवादी संस्कृति में जब तक दूसरे के उत्पाद की निन्दा नहीं करेंगे, उसका दुष्प्रचार नहीं करेंगे तब तक हमारा उत्पाद बिक नहीं पाएगा। आज हम जिस साहित्य को पाठ्यक्रमों में जबरन लगाकर प्रचारित और प्रसारित करवाना चाहते हैं वह तुलसी के साहित्य के समक्ष नहीं टिक नहीं पाता है। संस्कृति की एक उक्ति याद आ रही है-

उष्टानाम विवाहेसुगीत गायेसु गर्दभम्
परस्पर पश्यन्ति अहो रूपं अहो रूपम्
अहो ध्वनि आहो ध्वनि।

सभी रचनाकार समाद्रित हैं लेकिन पाठ्यक्रमों में जबरन थोपे गए अनेक रचनाकारों की रचनाओं की हम प्रयास करके याद तो कर लेते हैं किन्तु परीक्षा भवन से बाहर निकलते ही वे रचनाएँ हमारे मन से गायब हो जाती हैं। फिर उन्हें पढ़ने समझने यहाँ तक कि स्मरण करने का भी बोध नहीं रहता क्योंकि उनमें कहीं कोई प्रेरणासूत्र ही नहीं है। जीवन के प्रति दृष्टि नहीं है। जबकि तुलसी ने हमारे समक्ष पूरी जीवन दृष्टि रखी और विकट स्थितियों एवं चुनौतियों से संघर्ष का मार्ग भी प्रशस्त किया। तथाकथित वामपंथियों ने तुलसी के केवल भक्त रूप को लेकर उनकी निन्दा की और हवा कि वह तो केवल भक्ति काव्य है उसमें और कुछ नहीं है लेकिन वस्तुतः तुलसी ने अपनी अलग-अलग रचनाओं के माध्यम से जीवन के सभी आयामों को हमारे समक्ष रखा। विनय पत्रिका को देखकर लगता है कि प्रशासन की अद्भूत समझ तुलसी के पास थी। पत्र को विधिवत राजा तक पहुँचाने की यात्रा और यातना का सशक्त उदाहरण है विनय पत्रिका। विकट स्थिति में ईश्वर की भक्ति से मनुष्य कैसे उन कष्टों से मुक्त हो सकता है इसका सुन्दर उदाहरण है हनुमान बाहुक। वर्तमान समाज में भी लोग हनुमान बाहुक का संकल्प लेकर विधिवत पारायण करते हैं।

वस्तुतः तुलसीदास भारत की संस्कृति के उन्नायक कवि हैं। मार्ग प्रशस्त करने वाले आचार्य कवि हैं। उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही दृष्टियों से अपने आचार्यत्व को सिद्ध किया है। इसलिए वो समन्वय की बात भी करते हैं, भक्ति की बात भी करते हैं, प्रेम की बात भी करते हैं। वे उपेक्षित और हाशिए पर पड़े हुए समाज को गले से लगाने की बात भी करते हैं। हालांकि अनेक लोग इसको लेकर उनकी निन्दा भी करते हैं कि वे साम्राज्यवाद के कवि हैं। लेकिन ऐसा तो वही व्यक्ति कह सकता है जिसे तुलसी की समझ न हो, जिसने तुलसी काव्य को पढ़कर आत्मसात नहीं किया। क्योंकि वर्तमान समय में यह एक बड़ा संकट है कि यदि भाषा नहीं आती तो उस साहित्य को ही नकार दो। ब्रज और अवधी भाषा न आने के कारण आज अनेक लोगों ने मध्यकालीन साहित्य को नकारने में भलाई समझा, यह बड़ा संकट है। दरअसल, किसी रचना को विधिवत सम्प्रेषित करने के लिए भाषा और कथ्य दोनों पर अधिकार होना आवश्यक है।

तुलसी बड़े गहन कवि हैं, गहरे कवि हैं। आज देश और विदेशों के विविध् विश्व विद्यालयों में तुलसी पर शोध हो रहे हैं। तुलसी के वैशिष्ट्य के बिना तो यह संभव नहीं है। आज समूचा विश्व तुलसी की रचनाओं और दर्शन से प्रेरणा ग्रहण कर रहा है। विघटन और हताशा के युग में उनसे बाहर निकलने की आशा, आस्था और सम्बल तुलसी का साहित्य प्रदान करता है। इस दृष्टि से तुलसी की प्रासंगिकता पहले की तुलना में और बढ़ रही है और लगातार बढ़ेगी।

(प्रो.पूरनचंद टंडन,हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली)
प्रस्तुति -डॉ. सत्यप्रकाश,असिस्टेंट प्रोफ़ेसर,अदिति महाविद्यालय

अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

Post a Comment

और नया पुराने