आलेख: तुलसी काव्य में नारी-स्वर/ डॉ. हरकेश कुमार

तुलसी काव्य में नारी-स्वर
          
               
‘‘तुलसीदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ भक्त-कवि के रूप में स्वीकृत हो चुके हैं। उन पर अधिकाधिक शोध-ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं और लिखे जा रहे हैं। आज भी तुलसी पर विभिन्न अवसरों पर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों का कार्यक्रम निरन्तर गतिशील रहता है। इसलिए इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि उत्तर-भारत की जनता पर जिस एक ग्रंथ का सबसे अधिक प्रभाव रहा है, वह रामचरित मानस है। तुलसी की जीवन-यात्रा को स्पष्ट रूप से दो भागों में विभक्त किया जा सकता है - रामचरित मानस तक पूर्वार्द्ध में और उसके बाद विनय पत्रिका, कवितावली, बाहुक आदि की उत्तरार्द्ध में। यों तो मानसमें ही उनके अन्तर्विरोधों की नींव पड़ जाती है। वे जिस मर्यादित वर्णाश्रमधर्मी समाज की स्थापना करते हैं वह उनके अपने समाज में नहीं मिलता। उत्तरकाण्ड में जिस कलिकाल का वर्णन किया गया है वह उनका अपना समाज है, किसी अंशों में हमारा समाज भी। अपने सारे समन्वयों के बावजूद वे इन शक्तिशाली विवादों में सामंजस्य नहीं बैठा सके।’’

 मानस में तुलसी का चेतन मानस अभिव्यक्त हुआ है। वह तत्कालीन हिन्दू समाज का आदर्श नामहै। राम उस नाम के वाहक है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे भगवान हैं, हिन्दू समाज के मूलाधार वर्णाश्रम धर्म के पोषक हैं। मानस में वर्णाश्रम धर्म की ढीली नींव को पुख्ता करने का प्रयास किया गया है। इसके लिए गोस्वामी जी अलग से कुछ नहीं कहते। इसमें जो कुछ कहा गया है वह नाना पुराण निगमागमसम्मतहै।

 अब गोस्वामी जी की नारीगत भावना की मीमांसा की जाए। भक्ति सम्प्रदाय वस्तुतः प्रवृत्ति मार्गी होते हुए भी निवृत्ति को लक्ष्य करके चलता है। इसी से भक्ति सम्प्रदाय में जितने प्रकार की उपासनाएँ चलीं उनमें शान्त भाव सबमें अनुस्यूत और प्राथमिक माना गया। भक्त समष्टि रूप से जगत को अपने उपास्य का स्वरूप मानता है; पर व्यक्तिगत साधना के पक्ष में जगत् के कार्यों से विरक्त भी रहता है। लौकिक व्यवहार में भक्त व्यक्तिगत रूप में संलग्न नहीं होता। इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि तुलसीदास की तीन दृष्टियाँ है। एक तो वे कवि रूप में हमारे सामने आते हैं, दूसरे समाज-संस्कर्ता के रूप में और तीसरे साधक के रूप में। कवि के रूप में उन्होंने नारियों के विभिन्न स्वरूपों की कल्पना की और उनका अपने प्रबंध में यथास्थान चित्रण किया। नारी जाति के चरित्रगत वैशिष्ट्य की दृष्टि से जो विभिन्न रूप दिखाई देते हैं वह कवि तुलसीदास की दृष्टि है। समाज संस्कार की दृष्टि से उन्होंने  नारी के संबंध में वह धारणा ग्रहण की जो परम्परा से चली रही थी - या यों कहिये कि उस समय जैसी धारणा थी उसे ही मान्य ठहराया। साधक की दृष्टि से उन्होंने  नारी को बहुत ही गर्हित कहा। ऐसा अन्य साधकों ने भी किया है।  कबीर आदि संतों के यहाँ भी ऐसी उक्तियाँ नारी के संबंध में कही गयी हैं। तुलसीदास मर्यादावादी थे और यह सोचते थे कि सम्प्रति समाज-संचालन में नारी के लिए पतिव्रत ही प्रमुख है, इसी पर उन्होंने  अधिक जोर दिया है। बड़े दुख की बात है कि इतने बड़े महात्मा ने नारी के लिए कहीं भी उस उक्ति को प्रयोग नहीं किया जो वेदव्यास जी ने बहुत पहले कहीं थी। इसे वे परम्परा के नाते ग्रहण कर सकते थे, पर उन्होंने  नारी की पूजाके बदले उसके अपावनत्व और जड़त्व आदि का उल्लेख अधिक किया है।  साथ ही मानस का अरण्यकाण्ड, किष्किंधा काण्ड, लंका काण्ड, अयोध्या काण्ड हो या फिर दोहावली अथवा कवितावली हो, सभी स्थानों पर तुलसीदास ने नारी के परम्परागत रूप को उकेरा है। कहते हैं कि उन्होंने  वैराग्य के कारण अपनी पत्नी का त्याग कर दिया था। पत्नी की ओर का आकर्षण भगवद्-भक्ति से पराङ्मुख करने वाला होता है। अतः साधक तुलसीदास के समक्ष रह-रहकर नारी का पतनकारी रूप आता था। राम परिवार की महिलाओं का उन्होंने  जैसा चित्रण किया है वह नारीगत उनकी भावना का परिहार नहीं है। भक्ति जिस नारी में हो और जो उपास्य के परिवार से संबंद्ध हो और उसमें जो भी उपास्य के प्रति आनुकूल्य प्रदर्शित करने वाली हो उसे ही वे उत्कृष्ट कह सकते हैं वे पुत्रवती जुवती जग सोई, रघुबर भगत जासु सुत होई।को ही ठीक समझते थे। यद्यपि केकैयी के पुत्र भरत की चरम भक्ति राम में थी, पर व्यक्तिगत रूप से कैकयी ने राम के प्रति जैसा व्यवहार किया उसकी दृष्टि से वे सुमित्रा को केकैयी से उत्तम मानते हैं। केकैयी को उन्होंने  कुटिल रानीतक कह दिया है। यद्यपि नारी के संबंध में तुलसीदास जी ने जितनी भी कटु उक्तियाँ कहीं हैं वे सब पूर्व की उक्तियों का अनुगमन करती हैं उनकी रिपीटीशन मात्र है; तथापि नारी के संबंध में उनकी अनुभूति और धारणा अच्छी नहीं थी। इसमें कोई संदेह नहीं।  यद्यपि उनके हृदय में कभी-कभी नारियों की समाजगत पराधीनता के कारण कुछ करूणा की भावना जग जाती थी, तथापि वह भी क्षणस्थायी ही दिखाई देती है - कत विधि सृजी नारि जगमाहीं। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।यह कवि की वह वृत्ति है जो मनुष्य की मनुष्य के प्रति होती है, पर नारी के प्रति यह पुरुष के अथवा महापुरुष के सर्वत्र ऐसा ही कारुणिक नहीं है। फिर भी इतना अवश्य कह सकते हैं कि नारी के प्रमदा रूप के प्रति ही उनमें अधिकतम क्षोभ है। नारी के प्रति उनकी इस वृत्ति का कारण उनकी इस उक्ति से स्पष्ट हो जाता है - नारी बिस्व माया प्रगट ....

  संसार में फँसाये रहने वाली नारी ही है। यदि कोई नारी से छूट जाए तो वह संसार के बंधन से छूट सकता है। जैसा पहले कहा जा चुका है, तुलसीदास मध्यमार्ग का अवलम्बन करने वाले है। इसी से उन्होंने  नारी के रूप का वीभत्स उल्लेख या चित्रण नहीं किया। नारी को ताड़ना का अधिकारीऔर स्वतन्त्रता से उसके बिगड़ने की बातउन्होंने  सामाजिक दृष्टि से कही है। तुलसीदास के ऐसा कहने में परम्परा और व्यक्तित्व ही कारण नहीं है; समय भी कारण है। नारी-जाति के प्रति जैसी धारणा भारतीयों की रही है वह अन्य देशों और जातियों में नहीं देखी जाती। भारतीयों ने शक्ति-उपासना में नारी-जाति का महत्त्व स्वीकार किया है। विदेशों में और विजातियों ने व्यवहार के क्षेत्र में नारी-जाति का वैसा सम्मान अतीत में कभी नहीं किया है। अतः उसके संबंध में अकाण्ड प्रयत्न करके निष्कर्ष रूप में इतना ही कहता है कि गोस्वामी जी में नारी के प्रति जैसी धारणा मिलती है उसके हेतु का तो पता चल जाता हे, पर उसका पूर्ण समर्थन भारतीय दृष्टि से भी सम्भव नहीं है।

 इसलिए तुलसी ने नारी पर जो भी कुछ लिखा है वह अनेक दृष्टियों से अध्ययन का विषय रहा है। नारी विषयक स्पष्टोक्तियों के विरोध में शिक्षित नारी समाज के आन्दोलन प्रदर्शन भी रहे हैं। लोक के सबसे अधिक निकट और उसके सबसे बड़े कवि प्रतिनिधि की जन-जन व्यापी लोकप्रियता को इस सबसे एक ठेस लगी है। डा. नगेन्द्र जैसे अन्तर्दृष्टा समीक्षक ने तुलसी के नारी विषयक, विचारों के प्रति यह लिखा: ‘‘तुलसीदास के रामचरित मानस तथा अन्य ग्रंथों में, विभिन्न प्रसंगों में ऐसी अनेक उक्तियाँ हैं जो किसी भी देशकाल की नारी के प्रति किसी रूप में भी न्याय नहीं करती। उन्होंने  नारी की प्रकृति, उसके चारित्र्य, बुद्धि-विवेक, आचार-व्यवहार सभी की निन्दा की है।’’

 अतः तुलसी द्वारा नारी विषयक उन स्पष्टोक्तियों की चर्चा करना यहाँ अनिवार्य हो जाता है जो उन्होंने  किसी पात्र द्वारा अथवा स्वयं व्यक्त की है। बालकाण्ड में तुलसी शिव-भक्ति प्रसंग में भवानी के मुख से ही कहलवा देते हैं कि सती ने अपने जी से अनुमान लगाया कि शिव ने सब जान लिया। मैंने शिव से कपट किया है। स्त्रियाँ स्वभाव से ही मूर्ख और नासमझ होती है।यथा

        ‘‘सती हृदय अनुमान किए सब जानेउ सर्बज्ञ,
          कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अज्ञा।’’

    अर्थात् स्त्रियों का साधारणीकरण करके एक स्त्री के ही मुख से उन्हें मूर्ख और नासमझ कहलवाया गया है।

  भवानी के इस अपराध (भवानी द्वारा सीता रूप धारण कर राम के पीछे-पीछे चलना) से शिव भवानी की ओर से एकदम विमुख हो गए। निस्संदेह यह शिव के त्याग का ज्वलंत उदाहरण, है किन्तु इस त्याग का भवानी के लिए यही अर्थ था कि उनहें सत्तासी हजार वर्ष तक अकथनीय दारुण दुख सहन करना पड़ा।

 भवानी जब पिता के घर आश्रय लेने जाती है तो वहाँ उन्हें अनादृत होना पड़ता है। इससे रूष्ट होकर सती स्वयं को अग्नि के हवाले कर देती है। इससे यह सिद्ध होता है कि तुलसीदास के मतानुसार जो नारी पति द्वारा परित्यक्त तथा पिता द्वारा अनादृत होती है उसे स्वयं को अग्नि में भस्म कर लेना चाहिए। परन्तु जब अगले जन्म मंे सती पर्वतराज के यहाँ पार्वती के रूप में जनम लेती है, तो पुनः शिव को पति रूप में प्राप्ति हेतु हजारों वर्षों की कठिन तपस्या करती हैं। शिव प्रसन्न तो होते हैं, लेकिन रामचन्द्र के आग्रह से। जो भी हो शिव-पार्वती विवाह रामचरितमानस का एक बड़ा ही सरस, कुतुहलवर्धक प्रकरण है। शिव-पार्वती विवाह के दौरान पार्वती की माता मैना पार्वती को गोद में बैठाकर सस्नेह कहती है कि ‘‘हे पुत्री, तु सदा शिव के चरणों की सेवा करना। नारियों के धर्म में पति के सिवा दूसरा देवता नहीं है।’’ यथा

             करेहु सदा संकर पद पूजा,
       नारि धरम पति देव दूजा

            समय और स्थान भेद से भले ही कुछ अन्तर हो, अन्यथा केवल भारतीय समाज बल्कि सर्वत्र ही नारी की स्थिति बहुत कुछ ऐसी ही रही है, विशेष रूप से जब से मातृसत्ता युग समाप्त हुआ है। तभी तो अगली ही चौपाई में तुलसीदास की भी पीड़ा पार्वती की माता मैना के मुख से फूट पड़ी है -

            कत बिधि सृजी नारि जाग माहीं
       पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’’

            अर्थात् पता नहीं विधाता ने नारी को यह कैसा जन्म दिया है। बेचारी पराधीन को स्वप्न में भी सुख नहीं है। अतः नारी पीड़ा का दुखदायी वर्णन तुलसी काव्य में दुर्लभ ही मिल पाया है। तुलसी काव्य में तो यह भी दर्शाया गया है कि पाप करे पुरुष और दोषी नारी को ठहराया जाता है। गौतम ऋषि पत्नी अहिल्या को इन्द्र और चन्द्र देवता ने छला जबकि दोष मढ़ गया नारी पर। पुरुष (इन्द्र और चन्द्र) तो आज भी देवता ही कहलाये जाते हैं। इन्हीं नारी (निर्दोष) को पाषाण बना दिया जाता है जबकि पुरुष (दोषी) खुले में विचरण करते हैं। चन्द्रों और इन्द्रों द्वारा वंचिता नारियों को घोर पापिन कह कर बार-बार तिरस्कृत करना हिन्दू जाति की एक ऐसी महान भूल की ओर संकेत करता है, जिसने उसे इधर भी जाने कितनी हानि पहुंचाई है। आज भी कितने विधर्मी चन्द्रों और इन्द्रों द्वारा वंचिता हिन्दू नारियाँ पाषाण हृदय हिन्दू जाति द्वारा बात ही बात में ठुकरा दी जाती है।

 निस्संदेह तुलसीदास ने पार्वती के रूप में पति को देवता मानने के आदर्श को साकार करके दिखा दिया है। वैसे ही उन्होंने  दूसरे भी एक से बढ़कर एक गगनचुंबी आदर्शों को मूर्तिमान किया है।

 रामचन्द्र के चरणों से अहिल्या का उद्धार हुआ या नहीं, यह भी किसी संदेहवादी नास्तिक की जिज्ञासा ही हो सकती है। किन्तु यहाँ प्रश्न यह नहीं है, प्रश्न है कि बेचारी अहिल्या को यहाँ फिर इतनी जल्दी पातकी कह कर क्यों स्मरण किया गया है? पाप देवताओं ने किया फिर वंचिता अबला एकमात्र अहिल्या ही क्यों पाषाण बनने पर मजबूर हुई? उत्तर एक ही है - वह तुलसीदास के कल्पना लोक की नारी है।

 कहीं-कहीं तो तुलसी भी नारी की दयनीय स्थिति को देखकर दुखी मालूम पड़ते हैं। उनका दुख बरबस ही अभिव्यक्ति पा गया है। सीता स्वयंवर के उपरान्त माताएँ बार-बार अपनी पुत्रियों से मिलकर कहने लगी। हाय ब्रह्मा ने स्त्री क्यों बनाई।

     ‘‘बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी
   कहहिं बिरंचि रची कत नारी’’

कितनी मर्मांतक वेदना है। अब सीता की माता सीता को रामचन्द्र से सौंपते हुए कहती है कि इसके सुशील स्वभाव और स्नेह को देखकर इसको अपनी दासी मानना।यथा

   तुलसी सलीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मनिबो’’

            सहयोगिनी नहीं, सहधर्मिणी भी नहीं, एकदम किंकरी, कोई आश्चर्य नहीं यदि आज की विकृत संस्कृति में नारी एकदम पांव की जूती कही और समझी जाती है। (इस प्रकार नारी के संबंध में अनेक संस्कार तुलसी काव्य में देखने को मिल जाते है) एक स्थान पर मंथरा के बारे में केकैयी के मुख से तुलसी कह जाते है कि

    काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि,
   तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसुकानि

            अर्थात् काने, लंगड़े, कुबड़े - ये बड़े कुटिल और कुचाली होते हैं, और उनमें भी नारी और फिर विशेष रूप से दासी - ऐसा कहकर भरत की माता मुस्कुरा देती हैं और कुछ ही देर में केकैयी मंथरा के वशीभूत हो जाती है। तुलसीदास कहते हैं

        गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधर बुद्धि रानी
        सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि।

            अर्थात् स्त्रियों की बुद्धि होठों में होती है क्योंकि बातों में आकर चलविचल हो जाया करती है। तद्नुसार रानी केकैयी ने गुप्त कपट भरे, प्यारे वचनों को सुनकर देवताओं की माया के वश में होकर बैरिन मंथरा को अपना हित जानकर उस का विश्वास कर लिया। यहाँ तुलसीदास की स्त्रियों के बारे में कितनी दरिद्र सम्मति है इसका ज्ञान होता है क्योंकि बातों में आकर तो समय-समय पर सभी चलविचल हो जाया करते हैं इसमें क्या स्त्री और क्या पुरुष?

 राजा दशरथ तथा राम के प्रति केकैयी के दुव्र्यवहार से दुखी होकर अयोध्या निवासी एक केकैयी की ही नहीं, समस्त नारी जाति की निंदा कर रहे हैं-

      सत्य कहहिं कबि नारिसुभाऊ
   सब विधि अगहु अगाध दुराऊ।
     निज प्रतिबिंबु बरूक गहि जाई
   जानि जाइ नारिगति भाई।।

            तुलसीदास के अनुसार विद्वानों ने नारी स्वभाव के बारे में ठीक ही कहा है कि उनका कपट सभी तरह अगम और अथाह होता है। कोई अपनी परछाई को भले ही पकड़ ले, पर भाई नारी की गति, चाल नहीं जानी जा सकती है। प्राकृत स्त्रियों के बारे में तुलसी युग की कुछ ऐसी ही मान्यता रही प्रतीत होती है। तुलसी भी उससे ऊपर नहीं उठ सके तो इससे यही सिद्ध होता है कि हर महान पुरुष जहाँ अपने युग का निर्माता होता है वहाँ अपने युग की उपज भी होता है। एक अन्य प्रसंग में, भरत अपने मामा के यहाँ से लौट आए हैं। उन्हें पता लग गया कि उनकी माता राम के वनवास और पिता के स्वर्गवास का कारण बनी हुई है। अपनी माता की करनी को सम्पूर्ण नारी जाति पर घटा कर भरत कहते हैं कि

          बिधिहु नारि हृदय गति जानी
     सकल कपट अघ अवगुन खानी

            इस छंदांश के हवाले से तुलसी कहना चाहते हैं कि नारी के हृदय की गति को विधाता भी नहीं जान सका है। नारी का हृदय सभी तरह से कपट, पाप और अवगुणों की खान होता है। अब कोई तुलसीदास से पूछे कि यदि नारी हृदय समस्त अवगुणों की खान है तो पुरुष हृदय किसकी खान है? क्या उसमें छल, कपट नहीं हो सकता? अगर नहीं, तो क्यों नहीं?

            एक अन्य स्थान पर ऋषि पत्नी अनुसूया सीता को उपदेश देते हुए नारी धर्म के बारे में समझाती है। कहती है - हे सीता! धैर्य, धर्म, मित्र और नारी इन चारों की परीक्षा आपद काल में लेनी चाहिए। बूढ़ा, रोगी, मूर्ख, धनहीन, अंधा, बहरा, क्रोधी, अत्यन्त दीन पति का अपमान करने से नारी यमपुरी में अनेक दुख पाती है। नारी के लिए एक ही धर्म और एक ही व्रत नियम है कि शरीर से, मन से और वचन से पति के चरणों में प्रेम करे।यथा-

               धीरज धरम मित्र अरू नारी, आपद काल परखिही चारी।
               वृद्ध रोग बस जड़ धन हीना, अंध बधिर क्रोधी अति दीना।
               एसेहु पति कर किए अपमाना, नारि पाव जमपुर दुख नाना।
              एकइ धरम एक व्रत नेमा, काय वचन मन पतिपद प्रेमा।’’

             अनुसूइया ने नारी संबंधी अनेक प्रवचन सीता को सुनाए हैं, परन्तु अनुसूइया के सारे उपदेशों का सार उन्हीं के शब्दों में इस पंक्ति में समाहित हो गया है-

               सहज अपावनि नारी पति सेवत सुभ गति लहै।

            अर्थात् नारी स्वभाव से ही अपवित्र है। पति की सेवा करने से ही उसे सद्गति प्राप्त होती है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है कि इस प्रकार के उपदेश एक नारी के द्वारा दूसरी नारी को दिए जा रहे हैं। क्या जो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसकी भी शुद्धि हो सकती है? अरण्य काण्ड में ही कुछ आगे चलते हैं तो पाते हैं कि कागभुशंुडि भी अनुसूइया का पूर्ण समर्थन कर रहे हैं। यथा

            भ्राता पिता पुत्र उरगारी
      पुरुष मनोहर निरखत नारी।
          होइ बिकल सक मनहिं रोकी
     जिमि रबिमनि द्रब रबिहिं बिलोकि।।

अर्थात् हे गरुढ़! नारी मनोहर पुरुष को देखते ही, वह चाहे भाई हो, पिता हो या पुत्र ही क्यों हो, विकल हो जाती है; और अपने मन को रोक नहीं सकती। जैसे सूर्य को देखकर सूर्यकान्त मणि पिंघल जाती है, वैसे ही सुन्दर पुरुष को देखकर नारी पिघल जाती है।

 यहाँ तुलसी ने अपने मन की बात कागभुशुंडि के माध्यम से कहलवा दी है, परन्तु क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि तुलसी का यह दृष्टिकोण एकतरफा ही है? क्योकि जब सुन्दर पुरुष को देखकर नारी पिघल सकती है, तो क्या सुन्दर नारी को देखकर पुरुष नहीं पिघल सकता? परिणामतः तुलसी के नारी विषयक ऐसे भाव समझ से परे ही जान पड़ते हैं। इस प्रकार के अनेकानेक कथन और प्रसंग तुलसी काव्य में भरे पड़े हैं जो नारी को निकृष्ट से निकृष्ट साबित करने वाले हैं जिनकी कोई सीमा नहीं है।

  एक स्थान पर रामचन्द्र भ्राता लक्ष्मण को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि - हे लक्ष्मण जो लोग कामदेव की सेना को देखकर धीरज रखे वे ही संसार में मान्य होंगे। इस कामदेव का एक परमबल है - नारी। जो इससे उबर जाए वही भारी योद्धा है। यथा -

                 लछिमन देखत काम अनीका,
         रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका।
               एहि के एक परमबल नारी
        तेहिं तें उबर सुभट सोइ भारी।।

  इसे पढ़कर एक जिज्ञासा जहन में अनायास ही बलवती होती है कि जिसका समाधान शायद तुलसी को करना चाहिए था कि क्या नारी कामदेव का परमबल छोड़ कर और कुछ नहीं है? यही नहीं बल्कि अगले ही पल रामचन्द्र नारद मुनि को संबोधित करते हुए कहते हैं

       काम क्रोध लोभादि मद, प्रबल मोह के धारि।
      तिन मंह अति दारुन दुखद, माया रूपी नारि।।

 अर्थात् काम क्रोध लोभ मद आदि प्रबल मोह की धाराएँ हैं। उनमें अत्यन्त कठिन दुख देने वाली माया रूपिणी स्त्री है। उपरोक्त तमाम प्रसंगों अथवा उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि तुलसीदास नारी-जाति को बड़ी ही घृणा की दृष्टि से देखते थे और ऐसा माना भी जाता है, क्योंकि वर्तमान समय में कुछ समाज-सुधारकों और पाश्चात्य-शिक्षा के प्रभाव से जगमगाती हुई युवतियों ने तुलसीदास की नारी-भावना के विरूद्ध आन्दोलन भी शुरू कर दिया है।

परन्तु यदि देखा जाए तो तुलसीदास द्वारा जो नारी-विषयक धारणा हमें उनके काव्य में मिलती है, ऐसे अनेक उदाहरण हमें प्राचीन सहित्य में भी मिल जाते है। फिर चाहे वह विष्णु पुराणहो अथवा अश्वघोष द्वारा कहे गए शब्द - वचनेन हरन्ति वर्णना निशितेन प्रहरन्ति चेतसा। मधु तिष्ठति वाचि योषितां हृदये हालाहलं महद्विषम्।।

  चाणक्य का आदेश हो या राजतरंगिनी में कल्हण द्वारा कहे गए वाक्य। साथ ही, कबीर

       नारी की झांई परत अंधा होत भुजंग। 
      कबीरा तिनकी कौन गति, जो नित नारी के संग।
  
            दादू साहब, पलटू साहब आदि ने भी नारी-विरोधी अनेक उक्तियाँ कही हैं। हिन्दी में ही नहीं गुजराती में भी ब्रह्मानन्द स्वामी लिखते हैं - विष की भोमी बीज विष, बिष बेली बिस्तार। बिष डाली बिष पत्र फल, नखसिख विषतन नार।।इससे यही सिद्ध होता है कि अन्य भारतीय भाषाओं में भी संतों के नारी-विरोधी पद मिल ही जाते हैं। संतों के वचन तो प्रायः उसी भाषा में है, जो तुलसीदास की है। परन्तु तुलसीदास के विरोध का मुख्य कारण यही रहा है कि उनका प्रचार और प्रभाव अन्य युगीन कवियों से अधिक रहा है। उसी प्रभाव से सुधार-प्रिय नारी-नर आशंकित हो उठे हैं। आशंकित सुधारवादी यदि नारी-विषयक संतों की परंपरा में गृहित विचारों एवं नीति ग्रंथों में व्याप्त उपदेशों पर विचार करें तो पाएंगे कि भारतीय संस्कृति के उन्नायक गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में निहित नारी-विषयक अवधारणा इन्हीं परम्पराओं की देन रही है। फिर इनमें चाहे चाणक्य नीति, हितोपदेश, पंचतंत्र हो या फिर महात्मा कबीर अथवा दादू दयाल आदि का काव्य।

(डॉ. हरकेश कुमार, असिस्टेंट प्रोफेसर, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली)


अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-4,अंक-27 तुलसीदास विशेषांक (अप्रैल-जून,2018)  चित्रांकन: श्रद्धा सोलंकी

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