समीक्षा:‘तृतीय रत्न’ का शिल्प वैशिष्ट्य: एक समीक्षा -योगेश राव

             ‘तृतीय रत्नका शिल्प वैशिष्ट्य: एक समीक्षा -योगेश राव                                                                  
                                                                                  
आधुनिक भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक  क्रांति के इतिहास में राष्ट्रपिता जोतीराव फुले का अनन्य स्थान है । उनके जीवन कार्य से ही इस युग की सामाजिक क्रांति की प्रक्रिया आरंभ हो सकी। भारतीय सामाजिक जीवन के अनेक क्षेत्रों में पहल करने का गौरव उन्हीं को जाता है। इस देश के शूद्र-अतिशूद्र तथा नारी वर्ग के लिए विद्यालयों की स्थापना करने वाले, वे पहले भारतीय थे। और उनकी जीवनसंगिनी सावित्रीबाई फुले पहली भारतीय शिक्षिका, सामाजिक दार्शनिक तथा समाज सेविका थी ।

      उनके जीवन कार्य की महानता तथा उनके अनन्य असाधारण स्थान को देखते हुए ही चरित्रकार धनञ्जय कीर ने उनके जीवन चरित्र पर लिखे ग्रन्थ में उनका सामाजिक क्रांति के प्रणेताऐसा गौरवपूर्ण उद्देश्य किया है। कदाचित इन्हीं कारणों से डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने, उन्हें तथागत बुद्ध और संत कबीर के साथ अपना गुरु माना ।

      जोतीराव फुले प्रतिभाशाली लेखक तथा साहित्यकार थे। भारतीय सामाजिक जीवन का उन्होंने सूक्ष्म अवलोकन तथा गहन चिंतन किया था । अपने जीवन में उन्होंने अनेकों पुस्तकें  लिखकर कविता, नाटक तथा कहानियों की रचना की। गद्य और पद्य में विरचित उनका सम्पूर्ण लेखन, उन्होंने अपने आन्दोलन की दिशा को  स्पष्ट करने  तथा बहुजन समाज को जागृत करने के उदेश्य से ही किया था उनके लेखन साहित्य में छत्रपति राजा शिवाजी भोसले का पँवाडा’ (1869), ‘गुलामगिरी’ (1873), ‘किसान का कोड़ा’ (1883), ‘अछूतों की कैफ़ियत’ (1885), ‘सत्सार’ (1885),  चेतावनी’ (1885) एवं सार्वजनिक सत्य धर्म’ (1889) आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । इन कृतियों के माध्यम से जोतीराव फूले की विचार दृष्टि स्पष्ट  होती हैं ।आधुनिक भारत की सामाजिक क्रांति के तत्वज्ञान का विकास ही उनकी विचार दृष्टि से हुआ है ।

      आधुनिक भारतीय  साहित्य के पितामह जोतीराव फुले की प्रथम साहित्यक कृति तृतीय रत्ननाटिका एक कालजयी रचना है। सन् 1855 में लिखित तृतीय रत्नपाँच अंको में निबद्ध  एक लघु नाटिका है। बड़े ही रोचक शैली में उन्होंने ब्राह्मणवाद का भांडाफोड़ करते हुए ब्राह्मणों  द्वारा प्रतिपादित मिथ्या एवं प्रपंचपूर्ण  कथानकों का खंडन किया है ।समाज में प्रचलित झूठी धारणाओं, धार्मिक पाखंडो तथा अंधविश्वासों के जरिये ब्राह्मण पुरोहित किस प्रकार भोले-भाले अशिक्षित किसानों को किस प्रकार लूटते और ठगते हैं ।  इसकी स्पष्ट झाँकी हम तृतीय रत्नमें देख सकते हैं। इस नाटक के द्वारा वे अपने युग, आज के समय और भविष्य तक के यथार्थ को कहीं मार्मिक-शैली, कहीं हास्य-व्यंग्य शैली और कहीं विसंगतियों को समूल नष्ट करने के लिए विध्वंसात्मक शैली का प्रयोग करते हैं । जीवन के विविध क्षेत्रों से सामग्री समाहित कर जोतीराव ने नाट्य कृति तृतीय रत्नको तत्कालीन समाज का दर्पण बनाकर प्रस्तुत किया है। इस रचना में कहीं अवसरानुकुल भावुकता, कहीं उत्तेजना, कहीं तर्क, कहीं व्यंग्य के मनोज्ञ उदहारण मिलते हैं ।

      तृतीय रत्नकी कथावस्तु अत्यंत सरल व संक्षिप्त हैं।घटनाएँ  कम तथा पात्रों की संख्या आठ हैं, इसके पात्र हैं- स्त्री (जोगाई या जोगाबाई), स्त्री का पति, विदूषक, जोशी (ब्राहमण पुरोहित), दामू (जोशी का भाई), जोशी की पत्नी, पादरी तथा मुसलमान।

      माली खेतिहर किसान का बच्चा अपनी माँ के गर्भ में कहाँ और कब आया इसकी सूचना मिलते ही पुरोहित ब्राहमण जोशी गर्भवती स्त्री के पति के घर पर न होने का मौका देखकर आ धमकता हैं और स्त्री से कहता है- देवी ! तेरे नाम की राशि मकर राशि है। मकर राशि का शनि तेरे बच्चे को सताये बिना रहेगा नही, यह निश्चित है। इसके उपाय के लिए तुम आज से नियमित हर शानिवार को पञ्चमुखी हनुमान पर कपास के फूल अथवा पत्ते के एक माला चढ़ाती जा ताकि इससे तेरे मन को शान्ति मिलती रहे। साथ ही तू तेइस ब्राहमणों को घी-रोटी आने वाले श्रावण महीने में खिलायेगी, तो तेरे बच्चे को कुछ दिनों तक ग्रहबाधा नही सताएगी । ” 1

      किसान पतिपत्नी अज्ञानता के कारण उस ब्राहमण पुरोहित जोशी के झांसे में आकर उसकी बातों  का विश्वास  कर लेते है। पुरोहित उनके सामान और पैसे लेकर अपने ही घर पर ब्राहमण-भोज का आयोजन करता है। तथा उसमें अपने निकट सम्बंधियों को आमन्त्रित करता है। भरपेट भोजन करने के बाद ब्राहमण-मण्डली किसान (कुनबी) पतिपत्नी के जोड़े के साथ मंदिर में जा कर एक स्वर से जोरजोर से चिल्ला कर उस खेतिहर दम्पति को आशीर्वाद देना प्रारम्भ करते है। इसी दौरान वहा एक पादरी आता हैं। वह जोगाई तथा उस के पति को सचेत करते हुए तर्कपूर्ण तरीके से पुरोहित की बात का खंडन करता है– “मूर्ति पूजा सच्चे ज्ञानोपासना में बाधास्वरूप है,  इससे अंधविश्वास बढ़ता है और भोले-भाले लोग नाहक खर्च करके ठगे जाते हैं। जब तक वे पढ़ लिख नहीं लेते तब तक वे न तो वे इस बात को समझ सकते है न अंधविश्वास से अपना पल्ला छुड़ा सकते हैं। ” 2

      इस नाट्य कृति में जोतीराव ने विदूषक के माध्यम से व्यंग्य-शैली का अद्भुत दृश्य प्रस्तुत किया है। यथा- ग्रहों की पीड़ा की बात एकदम झूठ है, यह बात जोशी के कथन से ही सिद्ध होती है। वह ऐसे की जोशी और जोगाई दोनों नामों की राशि एक है। तो शनि जोगाई से कहता है घी-रोटी खिला और जोशी से कहता है घी-रोटी खा। मुझे ऐसा लगता है इन ब्राह्मणों ने ही ग्रह पैदा किये है, इसी कारण ये अपने जोशी बाप को कैसे सतायेंगे ?  सच है की ग्रहों को को अपने बाप को नहीं सताना चाहिए, यह मेरा भी मत है। लेकिन ब्राह्मण चूकिं ग्रहों के बाप हैं, इसलिए दूसरे लोगों को अपने पुत्र के समान.....” 3

      नाट्य कृति के तीसरे अंक में विदूषक द्वारा ब्राह्मण पुरोहित जोशी के रिश्तेदारों का ब्राह्मण भोज में सम्मिलित होने के सन्दर्भ में कथन द्रष्टव्य है- ऐसे समय ही जोशी के सम्बंधियों के काम आना चाहिए। इसी को कहते है, ‘लूट का गेहूँ और बाबा का श्राद्ध” 4

      इसी अंक के एक अन्यत्र स्थल पर विदूषक सचेत करते हुए कहते हैं- अरे सभी खेतिहर किसानों, मालियों ! तुम इस बातचीत को ध्यान से सुनो या पढ़ो। तब तुम निश्चित ही समझ जाओगे की अपने घर डाका पड़ना ठीक रहेगा, पर जोशी ब्राह्मण पर स्वप्न में भी विश्वास करना ठीक नही। ” 5

      तृतीय रत्नके इसी तृतीय अंक में विदूषक के कथन से नाटककार ने संपूर्ण कथा का सार प्रस्तुत कर दिया है, वह कहता है- अरे, दुर्भागी, तेरे इस दुर्भाग्य के कारण ही जोशी ने तेरी पत्नी के पास से मुट्ठी भर भिक्षा की जगह चार सेर अनाज, एक चवन्नी, एक शिवाजी महाराज का सिक्का, सुपारी और तेरे पास नसवार की डिबिया के बहाने चवन्नी निकलवा ली। इतना ही नहीं, उस जोशी के चक्कर में पड़कर तूने काम पर न जाकर पट मार दी और अपने आठ आने की आमदनी पर पानी फेर दिया। पत्नी की जमानत देकर खुद को कर्जदार बना लिया। और अंधे की तरह साढ़े बारह रूपये अपने सिर पर ओढ़ लिए। चार दिन तक गुलाम की तरह ब्राह्मण  भोजन की तैयारी करता रहा और जोशी ने उसके भाग्य से बिना मेहनत के तेरी ओर से भोजन खर्च करवाकर दामू भाई को मुफ्त में धोती जोड़ा दिलवा दिया। अपने सारे सगे सम्बंधियों और घर वालों, बाहर वालों को तुझसे पहले ही अपने साथ भोजन करवा दिया। इतना ही नहीं कल उसने तेरा बोझा उतरवाने में भी आनाकानी की। फिर भी तू बेशर्म होकर उसके घर सामान रहा पहुँचाता रहा, फिर आठ-दस बजे तक उसकी चाकरी में ही रहा और जोशी के कहने से अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर एक बजे उसके घर पंहुचा। लगभग  चार बजे तक दीन-हीन बना एक ओर छाया देखकर पत्नी को लेकर बैठा रहा और फिर भी जोशी ने थोड़ासा पका हुआ भोजन तेरे पल्लू में फेंककर तुझे दूर बैठ कर खाने के लिए कहा। बता फिर तेरे जैसा भाग्य इस पृथ्वी किसका है ? नहीं, तुझ जैसा पागल ब्राहमण (ऐसे ईसाइ धर्म के अंग्रेज़ी राज्य में) की बातों में फँसने वाला,  मुझे इस हिन्दुस्तान के सिवाय पृथ्वी पर कही नहीं मिलेगा । ” 6

      इस नाट्य कृति के अंत में किसान अपनी पत्नी से कहता हैं– “अरे आज जरा तू भी  जल्दी खाकर छुट्टी पा । अभी थोड़ी देर पहले पादरी के उपदेश से और आज की हुई सारी घटना से, भगवान और धर्म के नाम पर अपने जैसे अज्ञानी और खेतिहर किसानों और मालियों का झूठ और चकमा देकर खाने वाले पुरोहित ब्राहमणों की धोखेधड़ी की कलई खुल गई है; परन्तु साथ ही पढ़ना-लिखना सीखने का महत्व भी समझ में आ गया है। इस लिए तू जल्दी खा-पी कर अपने घर के उस ओर जोतीराव गोविन्दराव फूले के निवास स्थान पर उनकी पत्नी सौभाग्यवती सावित्री बाई ने जो विवाह योग्य स्त्रियों  के लिए रात्रि पाठशाला खोली है वहाँ तुझे आज से जाना हैं और जोतीराव फुले ने प्रौढ़ पुरुषों के लिए जो रात्रि पाठशाला खोली है वहाँ मैं  भी आज से ही जाना शुरू करता हूं। इन दोनों पाठशालाओं में वो दोनों सभी को निःशुल्क शिक्षा देते हैं। इसके पहले भी उन दोनों ने हम दोनों को पाठशाला आने का बहुत आग्रह किया था ।  हम गए नहीं, हमने यह बड़ी भूल की। ....चलो आज से हम दोनों प्रतिदिन रात में फुले की पाठशाला में जाकर लिखना पढ़ना सीखें। ताकि आगे संसार की सारी बातें समझ सके। (इसके बाद दोनों पति-पत्नी खा-पीकर, हाथ में स्लेट, कलम ले, महामना फुले ने प्रौढ़ शिक्षा के लिए जो रात्रि पाठशाला खोली है, उधर चल देते हैं) । ” 7

      तृतीय रत्नशीर्षक के सन्दर्भ में अनुमानतः यह बात कही जा सकती है की जोतीराव ने  रत्नशब्द का प्रयोग संभवतः नेत्रके अर्थ में किया होगा। आधुनिक शिक्षा को तीसरा नेत्र मानकर उन्होंने इस नाटक का शीर्षक तृतीय रत्नदिया होगा। इसके अलावा एक प्रसिद्ध संस्कृत सूत्र-वचन के अनुसार अन्न, पानी और शिक्षा पृथ्वी के तीन रत्न है। जोतीराव को निश्चय ही यह संस्कृत वचन ज्ञात था ।

      यह मराठी भाषा का पहला स्वतंत्र, सामाजिक नाटक है इसके पहले प्रबोधचंद्रोदयनाटक ही प्रकाशित हुआ था, जो पारमार्थिक विषय को लेकर लिखा गया एक अनुवादिक नाटक था। अतः तृतीय रत्न नाटकको मराठी भाषा का पहला नाटक मानना समीचीन होगा।

      तृतीय रत्नमें जोतीराव स्वयं काल्पनिक ईसाई पादरी की भूमिका में है, जो ब्राह्मण पुरोहित के साथ वाद-विवाद करके उनकी करतूतों से शूद्र किसान परिवार को उनके चंगुल से मुक्त करता है। इस नाट्य कृति की हस्तलिपि जोतीराव ने दक्षिणा प्राइज कमेटीको भेजा थी, जो मराठी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए अनुदान देती थी। इस समिति के अधिकांश सदस्य- सर्वश्री कृष्णशास्त्री चिपूलणकर भास्कर दामोदर पलांदे, मोरोवा कान्होबा जैसे ब्राह्मण तथा साथ ही मेजर कैंडी, रेवरेंड मरे मिचेल जैसे जोतीराव के समर्थक अंग्रेज सदस्य भी थे।  उन्होंने इसे पढ़ा और उसे धर्म-विरोधी घोषित करते हुए प्रकाशित करने से मना कर दिया।  इस सन्दर्भ में जोतीराव अपने ग्रन्थ गुलामगिरीमें लिखते हैं- भट्ट सदस्यों के आग्रह के सामने यूरोपियन सदस्यों का कुछ भी न चल सका। तब उस कमेटी ने मेरा निवेदन नामंजूर किया। ” 8

      इस नाट्य कृति की कथावस्तु का सूक्ष्म अवलोकन किया जाये तो प्रतीत होता है की इसका मूल स्वर मिथ्या, प्रपंच, झूठी धारणाएँ, अशिक्षा, मूल्यहीनता, अन्याय, शोषण आदि में है ।

      यद्यपि इस नाटक का कथानक सामान्य होने पर भी विशिष्ट है तथा साथ ही घटनाएँ और शिल्प में नवीन प्रयोगात्मकता भी सर्वत्र इस कृति में देखी जा सकती हैं। तृतीय रत्नमें जोतीराव ने उक्त पूरी सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है जिस व्यवस्था उलझकर व्यक्ति अपना सब कुछ लुटा देता हैं। तृतीय रत्ननाट्य कृति की विशेषता हैंउसका कथानक और पात्र जो पाठक के मन मस्तिष्क पर एक अमिट प्रभाव छोड़तें हैं। साथ ही जोतीराव इस सामाजिक चरित्रों  के माध्यम से समकालीन सामाजिकसन्दर्भों तथा विसंगतियों का पर्दाफ़ास करते हैं।

      नाट्य कृति की कथा का निबंधन सोद्देश्य है। रचनाकार अपने उद्देश्यों के अनुरूप ही कथा का ढाँचा तैयार करता है। तृतीय रत्नकी कथा का एक अन्य वैशिष्ट्य है- नाटककार की मौलिक उद्भावनाएँ। अस्तु! जोतीराव ने इन मौलिक उद्भावनाओं को मौलिक शैली के द्वारा इस नाटक में अभिव्यक्ति किया है, वही तृतीय रत्नको कालजयी बना देती है।




 सन्दर्भ: 
  1. तृतीय रत्न : जोतीराव फुले, पृष्ठ-12, प्रथम संस्करण- 2008, सम्यक प्रकाशन 32/3 क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
  2. तृतीय रत्न : जोतीराव फुले, पृष्ठ-33, प्रथम संस्करण- 2008, सम्यक प्रकाशन 32/3 क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
  3. तृतीय रत्न : जोतीराव फुले, पृष्ठ-12-13, प्रथम संस्करण- 2008, सम्यक प्रकाशन 32/3 क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
  4. तृतीय रत्न : जोतीराव फुले, पृष्ठ-23, प्रथम संस्करण- 2008, सम्यक प्रकाशन 32/3 क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
  5. तृतीय रत्न : जोतीराव फुले, पृष्ठ-27-28, प्रथम संस्करण- 2008, सम्यक प्रकाशन 32/3 क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
  6. तृतीय रत्न : जोतीराव फुले, पृष्ठ-29-30, प्रथम संस्करण- 2008, सम्यक प्रकाशन 32/3 क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
  7. तृतीय रत्न : जोतीराव फुले, पृष्ठ-46-47, प्रथम संस्करण- 2008, सम्यक प्रकाशन 32/3 क्लब रोड, पश्चिमपुरी, नई दिल्ली
  8. गुलामगिरी : जोतीराव फुले, पृष्ठ-95, चौथा संस्करण:-2012 एम० पी० टी पब्लिकेशन, केशवनगर पुणे- 411036  


         योगेश राव, 6/666, विकास नगर,लखनऊ, उत्तर प्रदेश,मोबाईल न.- 09452732748, yogesh2011rao@gma.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-5, अंक 28-29 (संयुक्तांक जुलाई 2018-मार्च 2019)  चित्रांकन:कृष्ण कुमार कुंडारा

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