आत्मकथ्य: बच्चें कोरे कागज़ की तरह होते है?/ धीराज प्रतीम मेधी

                                 बच्चें कोरे कागज़ की तरह होते है?


शिक्षा के संदर्भ में जब भी हम बात करते हैं, तो बहुत खट्टे मीठे अनुभव उभर कर आते हैं, और खास कर जब आप ज़मीनी हक़ीक़त से जुड़ कर काम कर रहे हो, तब तो कई बार ऐसे अनुभवों से सामना हो जाता है जिसके बारे में शायद ही आप कल्पना करते है।  बच्चों को लेकर लोग कई तरह की भावनाए रखते हैं, जैसे, "बच्चें कोरे कागज़ की तरह होते हैं", " बच्चें समझदार नहीं होते", " बच्चें बहुत समझदार होते हैं" इत्यादि। लोगों की बातें सुनकर, या, पढ़कर मैनें भी बच्चों को लेकर अनेक विचार बना लिये था, और ख़ासकर यह कि बच्चें काफ़ी समझदार होते हैं। कुछ ऐसे ही विचार मन में लिए एक दिन मैं एक विद्यालय में पहुंचा।

यह अनुभव आज से कुछ महीनें पहले का है, जब भारत-पाकिस्तान के बहस देशभर में चल रही थी| वह एक प्राथमिक विद्यालय था, और उस विद्यालय में एक ही शिक्षक था। पहले जाते ही मैं शिक्षक से मिला, और थोड़ी देर बातचीत के बाद उन्होंने मुझे बच्चों से बातचीत करने के लिए अनुमति दे दी। वह कुछ ज़रूरी कामों में व्यस्त हो गए थे और उसी वज़ह से मुझे बच्चों से बातचीत करने का अच्छा मौका मिला।

बच्चें काफ़ी फुर्तीले थे और हमारी बातचीत शुरू हुई। मैंने बातचीत के दौरान उनसे पूछा की उनमें से कितने लोग अंग्रेज़ी सीखना चाहते है (क्यूंकि मैं अंग्रेज़ी शिक्षण को लेकर काम कर रहा हूं) सभी बच्चों ने हाथ खड़ा किया मैंने एक लड़की को पूछा की उसको क्या अच्छा लगता है? उसने धीमी आवाज़ में बोली पढ़ना ये सुनकर बाकी बच्चें ज़ोर ज़ोर से हंसने लगें जब मैंने उनको हंसने की वजह पूछा, तो उनलोगों ने बताया इसे तो हिंदी भी पढ़ना नहीं आता वह लड़की बिलकुल चुप हो गयी मैंने फिर बच्चों को पूछा कि क्या उन्हें सब कुछ आता है? तब वह भी चुप हो गए मैंने उस लड़की से फिर से पूछा की उसे और क्या क्या अच्छा लगता है लेकिन वह इस बार चुप रही मैंने एक दो बार फिर से पूछा, लेकिन मुझे उससे कोई जवाब नहीं मिला उसकी चूप्पी ने मुझे बहत कुछ समझा दिया था उसे चुप देखकर एक बच्चे ने मुझे एक सुझाव दे कर बोला:

सर जी आप उसको मारो ये सुनकर मैं चौंक गया मैंने उसको पूछा की अगर मैं मारूँगा, तो क्या होगा? तब उनमें से कुछ बच्चों ने बताया कि अगर मैं उसे मारूंगा तो वह अपने आप बात करने लगेगी मैं ये सब सुनकर हैरान रह गया

मैंने बच्चों से इस विषय पर और थोड़ा बातचीत करने के लिए ठान ली, क्योंकि यह एक बहुत ही संगीन मुद्दा था| उनसे थोड़ी और बातचीत कर के पता चला की उन बच्चों को मारना अच्छा लगता हैं, और वे अपने घर के छोटे बच्चों को काफ़ी मारते भी है| मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ़ इस बात से था कि बच्चे मार पीट के बारे में बात करके बहुत खुश थे| इसी सन्दर्भ में मुझे एक बार एक बच्ची ने बोली थी कि उसे मार खाना भी अच्छा लगता है|

मैंने अपने स्कूली शिक्षा के दौरान बहत मार खायी थी, और उस समय यह सब बातें इतना नहीं खटकता था जितना आज खटकता है| यह मार पीट का जो प्रवृति है, एक दिन में ही नहीं आती है| ये एक लंबी प्रक्रिया का अंग है, और इस बात को उस दिन बच्चों से बातचीत के दौरान मैं अच्छी तरह से समझ रहा था| उन बच्चों के शब्दों ने मेरे दिल में चोट तो की, लेकिन मुझे भी पता था की इसमें बच्चों से ज्यादा बड़ो के भावना छुपे हुए थे भले ही शब्द बच्चों के ही क्यों ना हो|

मैंने पहले भी सुना था कि "बच्चें कोरे कागज़ की तरह होते हैं, जिसमें बड़े जो मन करें लिख सकते है”| लेकिन मुझे शायद यह पता नहीं था की एक बार उस कोरे कागज़ में अगर कुछ लिख दिया जाए तो उसे मिटाना बहुत मुश्किल है|

मैं उस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए उनको पूछा कि उनको और क्या क्या करना पसंद हैं और उनके क्या क्या शौक हैं| बच्चें ज़ोर ज़ोर से अपने अपने शौक को बताने लगे| वे बोल ही रहे थे कि तभी एक जवाब ने मुझे फिर से चौंका दिया| एक लड़के ने बोला मुझे पकिस्तान को धोना पसंद है” | मैंने कई बार पाकिस्तान को लेकर बच्चों को बातचीत करते हुए सुना है, लेकिन इस बार ये पहले से थोड़ा अलग था| पहली बार मैंने किसी बच्चे को ऐसा कहते हुए सुना है कि उसका शौक पाकिस्तान को धोना है| मैंने उस बच्चे से पूछा कि ऐसा क्यों? उसके जवाब में बाकी बच्चों ने बोला पाकिस्तान हमारे शत्रु है” | जब मैंने पूछा कि कैसे, उनका जवाब सीधा था पाकिस्तान हमारे लोगों को मारते है, और इसीलिए हम भी उन्हें मारना चाहते हैं|

बच्चों के जवाब सुनकर मैं चुप हो गया| मेरे दिमाग में बहत कुछ चल रहा था और मुहे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूँ| मुझे उन नन्हे बच्चों के चेहरे पर गुस्सा देखकर बहत खेद हुआ| मुझे अपने बचपन की कुच्छ बातें याद आया (जिस समय कारगिल का युद्ध चल रहा था) जो कि इन बच्चों के बातों की तरह ही थीं| कभी मेरे अन्दर भी इस तरह की ही भावनायें थीं| इन बच्चों के सामने खड़े होकर मैं कहीं न कहीं खुद को ही देख रहा था|  

बात आगे बढ़ी और उनलोगों ने मुझे बताया कि कैसे पाकिस्तान ने पुलवामा में भारत के जवानों को मारे और साथ ही साथ खुश होकर ये भी बोले की भारत ने भी पाकिस्तान के ३०० लोग मारे| बच्चों के साथ हुए बातचीत के कुछ अंश मैं यहाँ लिख रहा हूँ :
मैं: आप पाकिस्तानियों को क्यों मारना चाहते हो?
बच्चें: वो हमारे शत्रु हैं |
मैं: कैसे? क्यों?
बच्चें: वे हिन्दुस्तान को आक्रमण करते हैं और हमारे लोगों को मारते हैं |
एक बच्चा: वो लोग कश्मीर को भारत से छीनना चाहते हैं |
मैं: क्यों?
बच्चें: क्योंकि कश्मीर भारत का दिल है |
मैं: क्या उत्तराखंड भारत का दिल नहीं है?
बच्चें थोड़े देर के लिए चुप हो गए और धीमी आवाज़ में बोले: हैं |
मैं: तो फिर कश्मीर ही क्यों इतना अहम है?
बच्चें: क्यूंकि, कश्मीर में धान की खेती बहुत होती है, और पाकिस्तान उसे लेना चाहते  है |
मैं: धान तो हरियाणा, बिहार, असम में भी बहुत होती है, तो?
एक बच्चें ने अचानक से बोला: हमें इमरान खान को मार डालना चाहिए|

मैंने फिर बच्चों से पूछा कि इमरान खान कौन है, और उनको मारने से क्या होगा?  बच्चें बोले कि अगर हम इमरान खान को मार देंगे तो सारे पाकिस्तानी मर जायेंगे| मेरी हर बात पर बच्चे कुछ न कुछ जवाब देते रहें, लेकिन सब से ज़रूरी बात है की उनके चेहरे पर एक अजीब सा गुस्सा और नफ़रत थी, जो बच्चों में साधारण रूप से दिखाई नहीं देती हैं|

बात करते करते बच्चों की बातें पाकिस्तान से मुसलमान तक पहुँच गए, और उन्होंने कहा कि मुसलमान तो डरावने होते हैं, वह लोग सब खाते है, यहाँ तक की इंसान भी खाते है| बच्चों ने मुझे ये भी बताया कि मुसलमानों के कपड़े खून से लथपथ होते है क्योंकि वो लोगों को मारते हैं| मुझे आश्चर्य इस बात से था की बच्चें बातचीत को पाकिस्तान से मुसलमान तक लेकर गए| जब मैंने उनसे पूछा की क्या आपने कभी मुसलमान देखा हैं, तो उनका जवाब था हमनें देखा नहीं हैं, लेकिन हमें पता हैं"उन लोगों ने मुझे मुसलमानों से दूर रहने के लिए और मुसलमानों से दोस्ती न करने के लिए उपदेश भी दिया|

वह बातचीत काफ़ी आगे बढ़ी और हमने भारत-पाकिस्तान के बीच में युद्ध को लेकर भी बात की |
पूरी बातचीत के दौरान बच्चों ने कोई झिझक नहीं दिखायी | बच्चें काफ़ी फुर्तीले नज़र आए, लेकिन जिस बात ने मुझे झकझोर कर रख दिया था, वो था उनके दिल में पनपती हुई नफ़रत और हिंसा की भावनाएं, जो मुझे साफ़ दिख रहा था|

उस दिन मैं मायूस होकर घर लौटा, और उन नन्हे चेहरों पर उभरता हुआ हिंसा और नफ़रत की भावनाओं को देखकर खुद से और पूरी शिक्षण प्रक्रिया से मन ही मन ढेर सारे सवाल पूछे:

क्या शिक्षा सिर्फ पढ़ने लिखने तक ही सीमित होता है?
शिक्षा के असल मायने क्या है?
क्या बच्चों को इसी हालत में छोड़ दिया जा सकता है?
हम किस भविष्य की तरफ़ आगे बढ़ रहे हैं?
क्या सच में बच्चें कोरे कागज़ की तरह होते है?
और अगर हैं, तो बड़ों को (खासकर शिक्षकों को) उस कोरे कागज़ पर कुछ लिखने से पहले सावधानी बरतना कितना महत्वपूर्ण हैं?                                                                                                               


धीराज प्रतीम मेधी
(लेखक अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में शिक्षक-प्रशिक्षक हैं )   

          अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) शिक्षा विशेषांक, मार्च-2020, सम्पादन:विजय मीरचंदानी, चित्रांकन:मनीष के. भट्ट

1 टिप्पणियाँ

  1. bahut hi marmik aur samvedana se bhara anubhav..... sach me bachche hamara aaina hai aur hame saaf pratibimb dikhate hai. unnat bhavishya ke liye aashanvit:)

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