आलेखमाला: हिन्दी नाटकों के केन्द्र में स्त्री स्वर : सामाजिक सन्दर्भ में/ सोनम कनौजिया

                'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020

        हिन्दी नाटकों के केन्द्र में स्त्री स्वर : सामाजिक सन्दर्भ में- सोनम कनौजिया

चित्रांकन: कुसुम पाण्डेय, नैनीताल
साहित्य मानव के सम्पूर्ण जीवन से सम्बन्धित है। समाज के उत्थान और पतन में साहित्य का योगदान होता है। समाज की वैविध्यपूर्ण सामाजिक परिस्थितियों का साहित्य में अंकन किया जाता है। साहित्य समाज, देश तथा संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ‘‘साहित्य समाज का दर्पण है। जब वह युगीन यथार्थ को प्रतिबिंबित करता है तो उसका लक्ष्य दोहरा होता है। एक युगीन विकृतियों, विसंगतियों और रूग्णताओं को विषय बनाकर उनके निवारण हेतु समाधान खोजना, दूसरा अपने अनुभव सत्य से गुजरकर बेहतर भविष्य के निर्माण हेतु भावी पीढ़ी को दिशा-निर्देश करना। साहित्य का सृजन समाज के कल्याण हेतु किया जाता है। वह समाज का मार्गदर्शन करता है तथा साथ ही साहित्य वर्तमान एवं भविष्य को परिवर्तित करने की शक्ति रखता है। साहित्य में स्त्री सदैव से केन्द्र बिन्दु रही है। साहित्य की अन्य विधाओं कहानी, उपन्यास, कविता, निबन्ध आदि के भाँति ही नाट्य-विधा में भी स्त्री-जीवन के विविध पहलुओं पर लेखनी चलाई गयी है। हिन्दी नाटककारों ने स्त्री जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की समस्याओं को अपनी नाट्य-रचनाओं में उतारकर समाज की विसंगति को मुखरित किया है।

प्राचीन काल से ही हमारे देश में पितृसत्तात्मक व्यवस्था रही है और इसी कारण समाज के विभिन्न क्षेत्रों पुरुषों का ही आधिपत्य बना रहा है। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों में पुरुषों को ही प्राथमिकता दी जाती है। इन क्षेत्रों में स्त्री की स्थिति दासी तथा दोयम दर्जे की नागरिक की रही है। पुंसवादी समाज में स्त्रियों के साथ असमानता का व्यवहार परिवार से ही प्रारम्भ हो जाता है। भारतीय समाज में पुत्री के जन्म के प्रति लोगों के विचार रूढ़िबद्ध तथा नकारात्मक है। पुत्र के जन्म पर उत्सव मनाया जाता है, किन्तु पुत्र के जन्म पर कोई उत्सव नहीं मनाया जाता है बल्कि पुत्री के जन्म पर समाज तरह-तरह के व्यंग्य कसता है जीं जैसी आपकी मर्जीनाटक के निम्न उदाहरण द्वारा पुत्री के जन्म के बारे में लोगों की सोच को समझा जा सकता है। ‘‘मिठाईमिठाई किस बात की? करमजली पैदा हुई है, हमारी तो किस्मत ही फूट गई। माता-पिता, पुत्री के जन्म पर स्वयं को कोसते हैं क्योंकि पुंसवादी समाज की मान्यता है कि परिवार का वंश पुत्र से ही चलाता है। पुत्र ही माता-पिता का दाह संस्कार करके उनको मोक्ष प्रदान करता है।

वर्तमान समय में पुत्र-पुत्री में लैंगिक भेद-भाव की प्रवृत्ति के कारण समाज में कई समस्याएं उत्पन्न हो गई है, जिसमें कन्या भ्रूण हत्या तथा गर्भ का लिंग परीक्षण एक गम्भीर समस्या बन चुकी है। इस गम्भीर समस्या की ओर हिन्दी नाटककारों का ध्यान आकृष्ट होना स्वाभाविक है। नाटककारों ने इस गम्भीर समस्या को अपने नाटकों के माध्यम से यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, जिसमें एम0 जी0 संचिनका नाटक कन्याका मूल कथ्य-विषय कन्या भ्रूण हत्या पर आधारित है उन्होंने नाटक के प्रारम्भ में ही कन्या-भ्रूण के द्वारा मर्मस्पर्शी शब्दों में कथन है कि ‘‘मेरी माँ के लाख मना करने के बावजूद मेरे पिता और उनकी माँ ने वो काम कर दिया जिसके लिए हमारे देश की सरकार मना करती आ रही है। भ्रूण लिंग परीक्षण और वही हुआ जिसका अन्देशा था। इस बार भी माँ की कोख में थी एक लड़की बस फिर क्या था, घर की सुख शांति भंग हो गयी... और यहाँ से शुरू हुआ कन्या भ्रूण  हत्या जैसा वीभत्स खेल। एक के बाद- दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, बिना डरे सारा परिवार भ्रूण हत्या करता जा रहा था।’’  आज वैज्ञानिक पद्धति द्वारा गर्भ का लिंग परीक्षण करके कन्या भ्रूण  की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है। इसी कारण समाज में निरन्तर स्त्रियों की संख्या कम होती जा रही है।

परिवार में पुत्री को जन्म से ही बोझ समझे जाने के कारण उन्हें समस्त पारिवारिक दायित्वों से वंचित कर दिया जाता है। परिवार में पुत्र-पुत्री का पालन-पोषण अलग-अलग ढंग से किया जाता है। पुत्र-पुत्री के बीच इसी लैंगिक भेदभाव को नादिरा ज़हीर बब्बर अपने नाटक जी जैसी आपकी मर्जीमें उद्घाटित करती है ‘‘मुझे और मेरी दीदीयों को कभी भी अच्छे कपड़े नहीं मिले। दिवाली पर साल में एक बार हमारे नए कपड़े बनते हैं, वो भी सड़क पर बैठे हुए दुकानदारों से और भैया के कपड़े बड़ी दुकान से खरीदते हैं। हमारा कभी बर्थडे भी मनाया नहीं जाता, भैया के बर्थडे पर बड़ी पार्टी होती है।’’  परिवार में पुत्रों की पढ़ाई-लिखाई, खान-पान तथा अन्य सुविधाओं पर ध्यान रखा जाता है, किन्तु पुत्रियों को पढ़ाई-लिखाई तथा अन्य सुविधाओं से वंचित रखा जाता है नादिरा जहीर बब्बर के नाटक सकुबाईमें सकु इसी लिंग आधारित भेदभाव को उजागर करती हुई कहती है कि ‘‘मैं और वासन्ती दोनों पाठशाला नहीं गए ... हाँ नितिन को भेज दिया। नितिन को तो भेजना ही माँगता। वो लड़का था न ... नितिन के लिए स्कूल की नई वर्दी, नए जूते-मोजे, बस्ता-विस्ता सब लिया।’’  इस तरह न केवल समाज में बल्कि परिवार में भी लड़कियों-लड़को के बीच लैंगिक भेद के आधार पर उनका पालन-पोषण किया जाता है।

शिक्षा से लेकर हर बात में लड़कों का ही पक्ष लिया जाता है, चाहे लड़का योग्य हो या अयोग्य हो। लड़के द्वारा घृणित कार्य करने पर भी उसकी ही वकालत की जाती है तथा सारी पीड़ा व जिल्लत लड़कियों के हिस्से में आती है। सकुबाईनाटक में आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण जब सकु अपनी आई तथा भाई के साथ अपनी नानी के घर रहती है। तब सकु का छोटा मामा उसका बलात्कार करता है। आई को जब यह पता चलता है तो ‘‘आई ने यह कह दिया या तो ये ... रवि इस घर में रहेगा या हम ... लेकिन नानी और बड़े मामा रवि को क्यों निकालने लगे ? वो तो उनका ही बेटा था न ... आखिर हम लोगों को ही जाना पड़ा ...।’’  बलात्कार जैसे घृणित कृत्य करने पर भी सकु की नानी तथा बड़े मामा छोटे मामा का ही साथ देते है और अपनी बेटी तथा नातिन सकु को घर से निकाल देते हैं।

सादियों से स्त्री को मारना, उसे प्रताड़ित करना, उसके साथ बलात्कार करना आदि स्त्री को पुरुष के अधीनस्थ रखने के ऐसे तरीके है जो आज के सुशिक्षित कहे जाने वाले आधुनिक समाज में भी ज्यों-त्यों विद्यमान है। बाह्य आवरण में आधुनिक विचारों तथा दृष्टिकोण रखने का प्रदर्शन करने वाला आज का पुरुष वर्ग आंतरिक रूप से स्त्री के सम्बन्ध में रूढ़िबद्ध विचारों तथा मूल्यों का ही समर्थक है। स्त्री के प्रति इसी रूढ़िबद्ध विचारों को जीवित रखने वाला पुरुष वर्ग ‘‘कितनी कैदेंनाटक में मनोज के माध्यम से देखने को मिलता है। नाटक में जब मीना शादी से पूर्व अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में मनोज को बताती है, तब मनोज की आधुनिकता की बाहरी आवरण के पीछे छिपी हुई रूढ़ि पुंसवादी मानसिकता मीना को स्वीकार नहीं कर पाती है। वह मीना से कहता है ‘‘बेवकूफ हो तुम ! इतनी आसानी से अतीत पीछा नहीं छोड़ा करता। ... तो जाओ। प्रायश्चित करो। खुदकुशी कर लो। तुम्हारी जैसी औरतें यही करती हैं।’’  हमारे समाज की ये कैसी विडम्बना है कि स्त्री के निर्दोष होते हुए भी वही कंलकित समझी जाती है और उसके साथ बलात्कार करने वाला पुरुष वर्ग मूँछों पर ताव देते हुए बेखौफ घूमते रहते हैं।

भारतीय संस्कृति पुरुष प्रधान संस्कृति है। इसी कारण समाज में तरह-तरह से स्त्रियों को शोषित तथा उत्पीड़ित किया जाता है। परिवार में शारीरिक, मनोवैज्ञानिक हिंसा तथा लैंगिक भेदभाव आदि के द्वारा स्त्रियों को जन्म से ही प्रताड़ित किया जाता रहा है। विवाह के पश्चात् स्त्रियों के साथ प्रजनन सम्बन्धी हिंसा, वैवाहिक बलात्कार, सुन्नत तथा सम्बन्ध विच्छेद आदि के द्वारा उनका शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न किया जाता है। पितृसत्तात्मक समाज में विवाह को बनाए रखने का सारा उत्तरदायित्व स्त्रियों पर ही होता है। स्त्री को बचपन से सिखाया जाता है कि उसे पराये घर जाना है, उसे अपने पति तथा परिवार के लिये जीना है। किन्तु पुरुष पर अपने परिवार तथा पत्नी के प्रति कोई नैतिक भार नहीं होता है वह केवल स्वयं के विषय में सोचता है। जी जैसी आपकी मर्जीनाटक में वर्षा की काकू को उनके काका धन कमाने के लालच में छोड़कर अमेरिका चले जाते हैं और जब काकू को पता है कि वही उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया है और अब वो उससे मिलना भी नहीं चाहते हैं तो आत्महत्या करने से पूर्व काकू सोचती है कि ‘‘क्यों ऐसा होता है हम लोगों को पाँव की जूती भी नहीं समझते, उनके लिए अपनी जान देते हैं, क्यों हमें बचपन से कूट-कूट कर ये सिखाया जाता है कि पति जैसा भी हो उसकी सेवा करो, क्योंकि अपने पति को सुखी रखने में ही हमारी सबसे बड़ी कामयाबी है और हमारा सुख, हमारी आशाएं, हमारे सपने उनका क्या।’’  स्त्री का पत्नी, माता, बेटी तथा बहन आदि की परिधियों से परे अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बन पाता है। परिणामस्वरूप पुरुष समाज में केन्द्रीय स्थान प्राप्त कर लेता है और स्त्री द्वितीया या अन्या बन कर रह जाती है।

सदियों से दासता तथा हीनता की स्थिति में रहते-रहते आज परिवर्तित युगीन परिस्थितियों व परम्पराओं के संघात से स्त्री में अपने अस्तित्व तथा अस्मिता के प्रति नवीन चेतना उपज रही है। स्त्री अब मन, वचन तथा कर्म से अपनी स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु संघर्षरत है। साहित्य समाज का दर्पण होता है। अतः नाटककारों ने अपनी रचना में एक ओर जहाँ स्त्री अस्तित्व तथा अस्मिता के लिए स्त्री संघर्ष को दर्शाया है वहाँ दूसरी ओर स्त्री-मुक्ति विषयक स्वचेतना के स्वरों को भी अभित्यक्ति दी जा रही है, ताकि समाज में स्त्री अस्तित्व तथा अस्मिता को ठोस रूप में निर्मित किया जा सके। जी जैसी आपकी मर्जीनाटक की बबली अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह करने में तत्पर दिखाई देती है वह विद्रोहात्मक स्वर में कहती है कि ‘‘एक छत और दो वक्त की रोटी देना कोई चाँद तारे तोड़ लाना तो नहीं है जिसके लिए हम अपना सब कुछ गवां देते हैं, सब कुछ खो देते हैं, क्यों, क्यों ... क्यों ?’’  इस कथन द्वारा नाटककार ने बबली के मुख से समस्त स्त्री समाज की व्यथा तथा पीड़ा को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है।

आधुनिक युग के नाटकों के अध्ययन से विदित होता है कि अब स्त्री अपने अधिकारों तथा अस्मिता के प्रति अधिक सजग हो गई है। आज स्त्री न तो पुरुष के लिए मात्र भोग की वस्तु बनना चाहती है और न ही पुरुष के हाथों की कठपुतली बनकर रहना चाहती है। इस दृष्टि से जी जैसी आपकी मर्जीनाटक उल्लेखनीय है जिसमें सबीहा के माध्यम से समस्त स्त्री-समाज की स्वचेतना को अभिव्यक्ति दी गयी है। सबीहा स्पष्ट रूप से कहती है कि ‘‘मैं किसी अनपढ़ से शादी नहीं करुँगी,’’ मैं मार नहीं खाऊँगी, मेरे शौहर को मेरे काम करने पर ऐतराज नहीं होना चाहिए। ससुराल वालों को और शौहर को शादी के पहले ही जाकर डाक्टर से ये भी समझ लेना चाहिए कि औरत को लड़का होगा कि लड़की ये मर्द की वजह से तय होता है न कि औरत की वजह से।’’ वर्तमान समय में स्त्री निर्बल तथा असहाय नहीं रह गयी है। वह अब समाज के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के समान भागीदारी कर रही है।

इस प्रकार आधुनिक युग के हिन्दी नाट्य-साहित्य में स्त्री-जीवन के विविध पक्षों व समस्याओं को नाटककारों ने अपने नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही वर्तमान युग में स्त्री जीवन के परिवर्तित परिप्रेक्ष्य में परिवार, वैवाहिक सम्बन्धों, विवाह सम्बन्धी मान्यताओं तथा प्राचीन परम्पराओं व मूल्यों आदि को अपने नाटकों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। इन नाटको के माध्यम से समाज में स्त्रियों की एक नई पीढ़ी हमारे सामने आ रही है, जो स्त्रियों के प्रति हो रहे अत्याचारों में घुटन की कसमकश का अनुभव करती है। जो पुरुष की कैद से मुक्त होकर स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए ललायित हो चली है। हिन्दी नाटककारों ने अपनी रचना के माध्यम से स्त्री-मुक्ति आन्दोलन को एक नवीन दिशा देने का प्रयास किया है जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं।

सन्दर्भ:-

1-     अग्रवाल रोहिणी, स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प, सं. 2011, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. सं. 11 
 2-    बब्बर ज़हीर नादिरा, जी जैसी आपकी मर्जी, सं. 2008, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. सं. 12 
 3-    सचिनएम0 जी0, कन्यासं. 2015, सृजन एडवटाइजर्स एण्ड प्रिंटर्स ग्वालियर,  पृ. सं. 9 
 4-    बब्बर ज़हीर नादिरा, जी जैसी आपकी मर्जी, वही, पृ. सं. 17 
5-     बब्बर ज़हीर नादिरा, सकुबाई, प्रथमसं. 2008, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, पृ. 21 
6-     बब्बर ज़हीर नादिरा, सकुबाई, वही, पृ. सं. 31 
7-     गर्ग मृदुला, तीन कैदें, सं. 1996, इन्द्रप्रस्थ प्रकाशन, दिल्ली, पृ. सं. 39-40 
8-     बब्बर ज़हीर नादिरा, जी जैसी आपकी मर्जी, वही, पृ. सं. 24 
9-     बब्बर ज़हीर नादिरा, जी जैसी आपकी मर्जी, वही, पृ. सं. 40 
10-    बब्बर ज़हीर नादिरा, जी जैसी आपकी मर्जी, वही, पृ. सं. 34

सोनम कनौजिया
शोध छात्रा,हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय,लखनऊ

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