सम्पादकीय: धर्म और साहित्य/ जितेन्द्र यादव

             'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-32, जुलाई-2020

                         सम्पादकीय: धर्म और साहित्य- जितेन्द्र यादव
     
चित्रांकन: कुसुम पाण्डे, नैनीताल

यदि इतिहास के झरोखे से देखा जाए तो धर्म और साहित्य कभी एक दूसरे के पूरक तो कभी एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होते हुए आज दोनों दो किनारे पर आ खड़े हुए हैं। दुनिया का लगभग प्रत्येक साहित्य धर्म की सवारी करके आगे बढ़ा है। हिंदी साहित्य में ही आदिकालभक्तिकाल के कई कवियों का उद्देश्य ईश्वर के प्रति प्रेमलगाव और भक्ति रहा है। कई बार बड़ेबड़े आलोचक भी भ्रान्ति और असमंजस पड़ जाते हैं कि इसे धार्मिक साहित्य कहें या सिर्फ साहित्य। यह स्थिति रामचन्द्र शुक्ल जैसे आलोचक के सामने भी पैदा हुई थी कि किसको साहित्य की श्रेणी में रखें किसको धार्मिक साहित्य की श्रेणी मेंक्योंकि जैन साहित्य को इन्होने धार्मिक साहित्य कहकर ख़ारिज कर दिया था। दूसरी तरफ तुलसीसूर, जायसी जैसे कवियों को साहित्य के शीर्ष स्थान पर स्थापित किया। उनका मानना था कि जैन कवियों की रचनाओं में कोरा उपदेश है किन्तु भक्त कवियों की रचनाओं में जीवन का दर्शनरसात्मकता और भावनात्मकता भी है जो उन्हें जैन कवियों से अलग करती है।

      बहरहाल मैं साहित्य के उत्थान काल को दिखाने का प्रयास कर रहा हूँ कि शुरुआत में धर्म और साहित्य आपस में किस तरह घुलेमिले हुए थे। धर्म और साहित्य को अलग करना कई बार टेढ़ी खीर नजर आता है। इस मापदंड पर संस्कृत साहित्य को देखे तो उसका साहित्य रामायणमहाभारतपुराणकथासरित्सागर के इर्दगिर्द ही सारी रचनाओं के कथानक बुने गए है। इन्ही दो आख्यानों से प्रभावित हिंदी साहित्य का भक्तिकाल और रीतिकाल का साहित्य रहा है। कला माध्यम में सिर्फ साहित्य ही नही बल्कि और कलाएँ भी धर्म को आधार बनाकर आगे बढ़ी है। हिंदी सिनेमा का उदय दादा साहब फाल्के के द्वारा होता है जिनकी अधिकांश फ़िल्में धार्मिक आख्यानों की कथा कहती है। चित्रकारी और मूर्तिकला भी धर्म से जुड़ी रही है। यहाँ तक कि राजा रवि वर्मा ने हिन्दू देवीदेवताओं की तस्वीर बनाने से अपनी कला की शुरुआत की थी। इस तरह देखा जाए तो अधिकांश कलाओं की शुरुआत धार्मिक कथाओं और आख्यानों से प्रेरित रही हैं। 

    धर्म और साहित्य का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित था। भक्तिकाल तक ज्यादातर कवियों का उद्देश्य अपने आराध्य के प्रति साहित्य के द्वारा अपनी भक्ति को दर्शाना था। वहीं रीतिकाल तक आतेआते भक्ति एक माध्यम भर रह जाती है। धर्म जीवन को सुगम बनाने में सहायक रहा है मगर वक़्त के साथ इसकी व्याख्या बदलती गयी। अपितु उसके बहाने से कवि अपने श्रृंगार की दुनिया की कथा कहने लगते हैं। कृष्ण और राधा को आधार बनाकर श्रृंगारिक रचनाओं का पहाड़ खड़ा कर दिया जाता है। यहाँ देखने से यह प्रतीत होता है कि साहित्य और धर्म का रिश्ता धीरेधीरे अलगाने लगता है। साहित्य और धर्म को दो किनारों पर लाने का श्रेय नवजागरण काल को है जिनमें सभी चीजों का मूल्यांकन एक नए सिरे से शुरू होता है। नवजागरण काल में वैज्ञानिक दृष्टिकोणतर्कवादी नज़रिए ने धार्मिक विश्वास और आस्था को डिगाना शुरू कर दिया। इसलिए अब साहित्य का विषय धर्मईश्वरआत्मापरमात्मा नहीं बल्कि सीधेसीधे मनुष्य को केंद्र में रखते हुए मानवीय मूल्यों और उसके जीवन संघर्षो के बारे में कहना शुरू करता है। यानी पहले जहाँ सहित्य के केंद्र में ईश्वर था वही अब साहित्य का केंद्र मनुष्य हो गया। आधुनिकता आने के कारण साहित्य अब न आदिकाल की तरह राजा या सत्ता की अतिरंजित प्रसंशा करता है और न ही भक्तिकाल की तरह सबकुछ ईश्वर को समर्पित करके छुटकारा पाना चाहता है। रीतिकाल की सामंती और नारी के प्रति मांसल दृष्टिकोण से भी बाहर आ गया है। अब वह मनुष्य के सुखदुःख और रोजमर्रा की कहानी कहना ही अपना ध्येय समझता है। 

हिंदी साहित्य में जिसे हम आधुनिक काल कहते हैं वह पूरी तरह से मनुष्य-सत्ता और ईश्वर-सत्ता के विच्छेद का युग है। इस युग में रचनाकारों के विषय का केंद्र मनुष्यदेशप्रेमऔर प्रकृति है। इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए प्रगतिवाद में तो पूरा का पूरा धर्म और ईश्वर विरोधी साहित्य रचा गया जिसका मानना ही था कि शोषण और अन्याय का कारण धर्म और ईश्वर है। इस तरह देखें तो आज का समकालीन साहित्य धर्म से अपने को बिलकुल अलगाते हुए स्वतंत्र और आत्मनिर्भर खड़ा है। उसके पास ईश्वर वंदना के अलावा दुनिया के तमाम विषय है जिसे वह अपने साहित्य का माध्यम बनाता है। आज के साहित्य के लिए धर्म पूरक नहीं बल्कि विरोध का विषय है। यह स्थिति धर्म और साहित्य दोनों के लिए दुर्भाग्य का विषय है। आज भी धर्म की ध्वजा संतों और बाबाओं के हाथ में है जो कई बार स्वभाव से रुढ़िवादीदकियानूसी और परम्परावादी विचारों को स्थापित करते नजर आते हैं। अगर उनके लिए धर्म दूसरों को मूर्ख बनानेआस्था का बाजारीकरण करनेअपने दुश्मनों को लड़ाने का जरिया है तो यह दुखद ही कहा जाएगा। जबकि आज का साहित्य आधुनिक मानवीय मूल्योंआदर्शोंवैज्ञानिक नज़रिएतर्कवादी सोच के साथसाथ समानता न्याय और बंधुत्व में विश्वास रखता है। समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की आवाज बनने के लिए व्याकुल रहता है। आज के साहित्य ने अपने विजन को इतना बड़ा कर दिया है कि दलितआदिवासी और स्त्री की पीड़ा को मुखरता से आवाज दे रहा है जबकि धर्म अपने असुरक्षाबोध और पाखंड के कारण और अधिक कठोरसंकीर्ण तथा असंवेदनशील होता जा रहा है। धर्म को अपने मूल अर्थ में समझने की ज़रूरत है। यह मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने का ज़रिया रहा है।  

     इसके बावजूद सवाल यह है कि धर्म ने आज भी एक बड़े जनमानस को मानसिक गुलाम बनाया हुआ है। गुलामी किसी की भी हो अच्छी नहीं है। बड़ेबड़े धार्मिक उत्सवों और जलसों में करोड़ो का वारा न्यारा होता है। स्वयंभू बाबाओं की धनलिप्सा और यशलिप्सा दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है। मज़हबी लताएं चारों दिशाओं में अन्धाधुन बढ़ रही है जबकि दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि साहित्य और साहित्यकार आर्थिक दरिद्रता के शिकार हो रहे हैं। कितनी अच्छी पत्रिकाएँ सिर्फ आर्थिक कारणों से दम तोड़ चुकी है और कितनी बंद होने की कगार पर हैं। एक स्वतंत्र लेखक सिर्फ लेखनी के बल पर जीवन की बुनियादी जरूरत भी पूरा नहीं कर पाता है। यह किस तरह का देश और समाज है कि पढ़ेलिखे होने के बावजूद भी पाखंडी मठाधीशों की दुकान चमकाने के लिए दोनों खुले हाथों से अपनी तिजोरी लुटाता है। धूर्त और पाखंडी बाबाओं की चरणपादुका पर मत्था टेकता है। वही दूसरी तरफ साहित्यकार आजीवन उपेक्षा का शिकार होता है। बाबा अपने प्रचलित विषय आत्मापरमात्माहिंसाअहिंसा, प्रेमनफरत, शाकाहारीमांसाहारी के बहस से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। प्रत्येक बाबा चाहे कोई उसका पंथ या धर्म हो वह इन्हीं मोटीमोटी बातों में उलझाकर मोटी रकम वसूलता है जबकि साहित्य इन चीजों से बहुत आगे निकल कर मनुष्य की समकालीन समस्या और चुनौतियों को विषय बनाते हुए रोजमर्रा की जिन्दगी को सुलझाने का प्रयास कर रहा है। साहित्य की चिंता स्वर्गनर्क की चिंता नही अपितु मनुष्यता को बचाने की चिंता है। आधुनिक मानव के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलने की चिंता है। साहित्य का सपना एक सचेतजागरूकसंवेदनशील, तर्कशील उच्च व्यक्तित्व से परिपूर्ण मनुष्य बनाने का है जबकि धर्म भले ही दावे कुछ करे लेकिन ठीक इसके विपरीत चल रहा है। 

    आज भी भारत में धन का जितना बड़ा हिस्सा धर्म और उसके कर्मकांड में खर्च किया जाता है उतने पैसे में भारत की प्रत्येक ग्राम पंचायत में एक समृद्ध और विशाल पुस्तकालय खोला जा सकता है। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को उचित सहयोग दिया जा सकता है। तथाकथित बाबाओं और संतों के विलासी व भोगवादी जीवन के अंशमात्र से कोई लेखक बेहतर जिन्दगी जीते हुए साहित्य सृजन कर सकता है। कई प्रतिभाशाली साहित्यकार इसलिए बेहतर रच नहीं पाते है कि उन्हें रोजीरोटी की तलाश में अपना महत्वपूर्ण जीवन को खपा देना पड़ता है। 

साहित्य एक समय भले धर्म की बैसाखी लेकर चला था लेकिन आज दोनों के लक्ष्य भिन्न हैं। धर्म एक जड़वादी मानव विरोधी तेवर के रूप में तेजी से उभर रहा है। यह दृश्य भला किसे अच्छा लगेगा? वह आस्था और भावनाओं को भड़काकर हिंसा और कत्लेआम तक करवा रहा है। यानी धर्म एक ऐसी अमूर्त अवधारणा बन गई है जिसका कोई भी सांप्रदायिक व्यक्ति अपने स्वार्थहित के हिसाब से उसकी परिभाषा और व्याख्या करके आसानी से इस्तेमाल कर सकता है। इनके आश्रय स्थलों में हिंसा,  हत्याबलात्कारनफरत जैसी गतिविधियाँ चलती है। धर्म की इन मानव विरोधी गतिविधियों को रोकने का सामर्थ्य साहित्य में है। साहित्य के द्वारा उनके सोचनेसमझने के तरीकों में बदलाव करके ‘अधर्म’ के पसरते हुए पाँव को रोक जा सकता है। 

जिस इक्कीसवीं सदी में ज्ञान का विस्फोट होने से साहित्य को गलीगली में अपने स्वर ऊँचे करने चाहिए थे लेकिन दुःख की बात यह है कि भारतीय समाज आज भी धर्म भीरुता के दलदल में फँसा हुआ नजर आ रहा है। जिन युवाओं को एकजुट होकर बेरोजगारीभ्रष्टाचारअसमानता, भेदभावअन्यायशोषण के खिलाफ लड़ना था वह आज धर्म की ध्वजा लेकर नारे लगा रहे हैं। दरअसल राजनीतिक सत्ता भी यही चाहती है कि देश के युवा बुनियादी समस्याओं से बेखबर होकर धर्मधर्म और मज़हब-मज़हब पुकारें ताकि उन्हें राजनीति की सत्ता का भोग करने में किसी तरह की बाधा पैदा न हो। इन सभी विकट स्थितियों के प्रति जागरूक करने और मुसीबतों से लड़ने का साहस पैदा करने का माद्दा साहित्य देता है। साहित्य, सीधे क्रांति तो नहीं कर सकता लेकिन इन स्थितियों में सामाजिक चेतना की मशाल जला सकता है। इसलिए संस्थाबद्ध धर्म मानवता का रक्षक कभी नहीं हो सकता। मानवता की रक्षा के लिए साहित्य और साहित्यकार को विचारों की मशाल लेकर आगे आना चाहिए। 

अपनी माटी’ पत्रिका का 32वाँ अंक आपके सामने प्रस्तुत है। अंक काफी वैविध्यपूर्ण है। सभी लेखकों के प्रति आभार। जिन रचनाकारों की कविता और लेख संतोषजनक न होने के कारण छप नहीं पाया है उसके लिए हमें खेद है। इस अंक के लिए अतिरिक्त मदद साथी सुनील कुमार यादव ने की है उनके प्रति आभार। इस अंक से अपनी माटी अब  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' यानी PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL के रूप में प्रकाशित हो रही है इस हेतु हमारे आमंत्रण पर इस समूह में शामिल होने की हामी भरने वालों में हैं। प्रो. गजेन्द्र पाण्डेय, प्रो. आलोक कुमार श्रीवास्तव, प्रो. हेमेन्द्र चंडालिया, प्रो. नीलम राठी, प्रो. पयोद जोशी, प्रो. राजेश चौधरी, प्रो. मनीष रंजन, प्रो. राजकुमार व्यास, प्रो. अभिषेक रोशन, प्रो. गजेन्द्र मीणा, प्रो. मनोज कुमार सिंह आप सभी का विशेष स्वागत और आभार। 

हमारे बीच वरिष्ठ आलोचक नन्दकिशोर नवलफिल्मी कलाकार इरफान खानऋषि कपूरसुशांत सिंह राजपूत नहीं रहे। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।


जितेंद्र यादव 
संपादक- अपनी माटी 

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