आलेख : ‘अस्थियों के अक्षर’ मर्यादाओं से अपराधीकरण तक का सफ़र / गोपाल जीनगर

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-34, अक्टूबर-दिसम्बर 2020, चित्रांकन : Dr. Sonam Sikarwar

                                       'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

   आलेख : ‘अस्थियों के अक्षर’ मर्यादाओं से अपराधीकरण तक का सफ़र / गोपाल जीनगर

भारत में 19वीं शताब्दी का आरंभ वैचारिक मुठभेड़ों और विश्वयुद्ध की त्रासदी के साथ शुरू हुआ। विश्वयुद्ध के साथ इसलिए, क्योंकि उसमें ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय नौजवान ‘लहनासिंह’ जैसे सैनिक लड़े और शहीद हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के कुछ सालों के पश्चात् संपूर्ण विश्व दो ध्रुवों में बंट गया और शीत युद्ध का सफर शुरु हुआ। कहते हैं कि ‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है’ तो साहित्य के अधिकांश लेखकों ने अपने-अपने गुट बना लिए। लेकिन लेखन की मशाल स्वयं के अनुभव के साथ मानवीयता और वैज्ञानिकता को आमंत्रित करती है, जो इन गुटों के शासन और शासनाध्यक्षों में समय के साथ गायब हुई। लेखक समय के साथ गुटों की खोल से बाहर आकर लेखनी को अनुभवों के साथ रंगने लगे। उन्हें महसूस होने लगा कि उनकी प्रतिबद्धता किसी गुट या विचारधारा के साथ नहीं, बल्कि स्वयं के प्रति है। वह जिस तरह समाज और उसके बदलते रूप को देखता है, उसकी लेखनी भी उस सत्य को उसी रूप में ढालती है। “हर ‘बाहरी’ सिद्धांत, संदेश और आदर्श झूठा है- लेखक की आस्था और कमिटमेंट इनमें से किसी को नहीं मिलनी चाहिए। वह किसी के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होगा। होगा तो सिर्फ अपने प्रति। वह हर सिद्धांत हर राजनीति, हर दर्शन और हर सामाजिक जिम्मेदारी से ऊपर है। इन धरातल पर उससे कुछ भी अपेक्षा करना उसकी ‘विशिष्टता’ पर संदेह करना है, उसे छोटा करना है- वह तो कार्लाइल का हीरो, शोपेनहार का जीनियस और नीत्शे का सुपरमैन है, अरविंद का सुपर माइंड है। जो उसका मन होगा वहीं लिखेगा। अपनी अनुभूति के अलावा कुछ भी लिखना आदेशित और आरोपित होगा।”1

     समकालीन लेखन के वैचारिक दौर ने उसके व्यक्तियों को प्रभावित किया है, लेकिन लेखिका की प्रतिबद्धता वैचारिक सिद्धांत या आदर्शों के प्रति न होकर, वर्तमान समाज को रेखांकित करने की है। उसके लेखन में जिम्मेदारी की झलक होनी चाहिए, लेकिन राजनीतिक वैचारिकता की गंध नहीं। प्रेमचंद, प्रेमचंदोत्तर युग और नई कहानी की कहानियों में मूलभूत अंतर यही है कि वे आजादी के बाद जो सपने दिखाए यथा- रोजगार, कानून की समुचित व्यवस्था, लेकिन व्यक्ति मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित होता चला गया। साथ ही दरकते सामाजिक संबंधों ने उसमें एक अकेलापन, पुरानी पीढ़ी के प्रति ईर्ष्या का भाव ला दिया। यही कारण है कि नई कहानी सामाजिक प्रतिबद्धता की नहीं, वरन् अकेलेपन, संत्राश, ईर्ष्या, दरकते संबंधों की कहानी है। लेकिन समकालीन कहानी, समय के दबाव से निर्मित मनुष्य और समाज की कलात्मक एवं वैचारिक निर्मिति है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज का अध्ययन तथा जीवन को बड़ी गहराई से निरूपित करती है। इसलिए कहानियों में वर्तमान युग की सभी विसंगतियों का बड़ा ह्दय विदारक वर्णन हुआ है। फलत: कहानी को नई पीढ़ी ने जिस यथार्थ को अभिव्यक्त किया, वही नई कहानी भी मुख्य विभाजक है।

     इसी दौर के लेखन ने ग्रामीण और सामाजिक यथार्थ की अनेक कहानियों को सृजित किया। उन्हीं में से एक कहानी ‘अस्थियों के अक्षर’ वंचित वर्ग के यथार्थ के सामने रखती है। कहानी का मुखय पात्र सौराज है। वह शिक्षा ग्रहण करने के प्रति उत्सुक है, लेकिन सामाजिक मर्यादाओं के कारण परिवार की स्वीकृति नहीं है। परिवार से आर्थिक सहायता के अभाव में चोरी की सहायता से किताब लाने को मजबूर है।

     कहानी आरंभ में ही तस्वीर साफ कर देती है कि सौराज और उसका सौतेला भाई रूपसिंह प्राथमिक विद्यालय के छात्र हैं, जो पाली मुकीमपुर में है। सौराज पढ़ने में कुशाग्र है और रूपसिंह प्रारंभ से ही पढ़ाई-लिखाई से दूर रहता है। पिता भिखारीलाल को प्रधानाचार्य कहते हैं कि “आपका लड़का बुद्धि से बड़ा नहीं है, उम्र से बड़ा है।”2 आम परिवार की सामाजिक और आर्थिक चेतना को समाज ने गौण कर दिया है, यही कारण है कि व्यक्ति अतीतबोध और सामाजिक मर्यादा से ग्रस्त रहता है। क्योंकि सामाजिक मर्यादाएं ही समाज की सुरक्षा, विवाह संस्था और अन्य सुविधाएं देने का वादा करती है। लेकिन सोचने, विचार करने तथा क्षमता को कुंद भी करती है। भिखारीलाल सामाजिक मर्यादाओं के कारण ही सौराज को पढ़ाना चाहता है। लेकिन वह ये भी अपेक्षा करते हैं कि सौराज मात्र साक्षर बने और रूपसिंह पढ़-लिखकर कलेक्टर जैसे उच्च पदों तक पहुंचे। लेखक लिखते हैं कि “भिखारीलाल अब धर्मसंकट में फंस गए, जिसे पढ़ाना चाहते हैं, वह मास्टर की नज़र में न पढ़नेवाला है और जिसे दिखावे के लिए सामाजिक दबाव से बचने के लिए स्कूल भेजते हैं, वह ठीक-ठाक है।”3  यही घर में झगड़े का कारण बनता है। क्योंकि व्यक्ति की सामाजिक जरूरत पूरा न होने के कारण चिड़चिड़ा हो जाता है और घर पर पशुवत व्यवहार को आतुर रहता है। कई बार पारिवारिक झगड़े स्त्री-पुरूष के बेमेल और वैचारिक भिन्नता की स्थिति में भी पैदा होते हैं और इन सबके बीच घरेलू हिंसा आम बात हो जाती है। सौराज की मां भी घरेलू हिंसा की शिकार थी। वह परिवार की अर्थव्यवस्था को चलाती है, लेकिन पुरूषवादी समाज में तवज्जो मात्र पुरूष को ही मिलती है। यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें निठल्ला पति (पुरूष) भी चौराहे पर बीड़ी-चाय और चिलम पर पूरा दिन बिताता है, लेकिन औपचारिक-अनौपचारिक रूप से स्वयं को मखिया घोषित किए रहता है। निठल्ला पुरूष के मखिया होने को ‘जस्टिफाई’ भी तथाकथित प्रगतिशील समाज कहता है। स्त्री की स्थिति इस समाज में मात्र कोलहू के बैल की भांति है जिसकी आंख पर सामाजिक मर्यादाओं की पट्टी लगाकर सुबह से शाम तक मजदूरों की भांति घुमाया जाता है। इन सब पर भी “घर का मालिक पुरूष होने के नाते ‘मां’ को मारता है।”4  पुरूष हिंसक रूप कहानी में भिखारीलाल और डालचंद जैसे पात्रों को माध्यम से सामने आया है। “उसकी कमर पर पहला वार भिखारीलाल ने ‘फरहे’ (वह लकड़ी जिस पर चमड़ा काटा जाता है) से किया था, उसके बाद डालाचंद ने मां के शरीर पर लाठियां बरसाई”5  सौराज की मां और अनेक औरतें किसी-न-किसी दिन घरेलू हिंसा का दंश झेलने को मजबूर है। अधिकतर महिलाएं ‘घरेलू हिंसा’ नामक कानून से अनभिज्ञ है और जो इस बारे में जानकारी रखती हैं वे भी “साम-दाम के बाद ही मजबूरी से कोई स्त्री दंड-भेद आजमाती है जब तक पानी सर के ऊपर नहीं आता, कांतासम्मति उपदेशों से काम चलाती है और दो-चार थप्पड़ यों तो ही टेसुए बहाकर भुला देना आम बात है उसकी खातिर”6  वंचित वर्गों की महिलाओं की स्थिति और भी भयावह है, क्योंकि उनके राजनितिक-सामाजिक परिवेश की स्थिति कमतर होने के कारण वे उन अधिकारों, समझ, मानवीय मान्यताओं और वैश्विक रिपोर्टस से अनभिज्ञ है जो उनकी भयावह स्थिति को दर्शाती है। वैश्विक महामारी (कोविड-19) के पश्चात तो अर्थव्यवस्था की चरमराती स्थिति ने महिलाओं और बच्चों को गरीबी की ओर अग्रसर करेगी। संयुक्त राष्ट्र महिला एवं संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ‘यूएनडीपी’ के इस नए आंकलन के मुताबिक “महिलाओं के लिए गरीबी दर 2019 से 1921 के बीच 2.7 फीसदी तक घटने की उम्मीद थी, लेकिन वैश्विक महामारी और उसके दुष्परिणामों के कारण अब इसके 9.1 फीसदी तक बढ़ने की आशंका है। वैश्विक महामारी 2012 तक 9.6 करोड़ लोगों को अत्यंत गरीबी में धकेल देगी, जिनमें से 4.7 करोड़ महिलाएं एवं लड़कियां होगी।”7  जो कि महिलाओं और बच्चों के प्रति अपराधों के नए संस्करण को जन्म देगी, क्योंकि अब व्यक्ति आर्थिक रूप से समस्याग्रस्त होता है तो वो हिंसा, चोरी, आपराधिक गतिविधियों में संलग्न हो जाता है।

     बालक सौराज का परिवार आर्थिक सामाजिक तंगी से जुझता है। सामाजिक मर्यादाओं के कारण सौजान के अध्ययन में अनेक विपत्तियां खडडी की जाती है, लेकिन मेधावी और जिज्ञासु छात्र होने के कारण सौराज पढ़ाई को प्राथमिकता देता है। लेकिन पूंजी (राशि) के अभाव में सौराज ने चोरी मार्ग चुना। “खूंटी पर डालचंद का कुर्ता टंगा था, मैंने आगे बढ़कर इधर-उधर देखते हुए चोर की शैली में जेब टटोलना शुरू किया, लटकी हुई जेब में कुछ न था, ”किंतु खान पर गुप्त जेब बनी हुई थी, उसमें नोट भरे हुए थे, मैंने नोटों की गड्डी को सहज से निकाला और उसमें एक नोट ढूंढा, एक रुपया लेकर बाकी रुपए पूर्ववत जेब में रखकर किवाड़ बंद कर मैं बाहर निकट गया, ‘मां’ उस समय घर पर नहीं थी।”8  कहानी में सामाजिक, आर्थिक और घरेलू हिंसा मुख्य बिंदु है। यह उक्त कथन आर्थिक बिंदु पर आकर केंद्रित होता है और यहां से अर्थात आर्थिक तंगी से अपराध, घरेलू हिंसा का मार्ग भी प्रशस्त होता है। कहानी दायरे की व्यापक परख करते हुए डालचंद की चोरी, जुआ और गायों की खाल प्राप्ति हेतु गैर-कानूनी गतिविधियों की तह तक को खोजती है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू जो श्रमिक वर्ग की मेहनत और परिश्रम का है, वह छोटे लाल और सौराज की मां जैसे पात्रों से खुलता है। छोटे लाल बी.पी. मौर्य (जो कांग्रेस के नेता है) उनके कारखाने के बेहतरीन श्रमिकों में से एक है। जिनकी समझ और व्यक्तित्व पर शहरीकरण का स्पष्ठ प्रभाव है। वे सौराज की मां की मेहनत और परिश्रम की कद्र करते हैं और परिवार का स्तंभ भी मानते हैं।

     कहानी में आरंभ से अंत तक का कथा-वक्ता सौराज ‘इंटरनल फोकलाइजर’ है। क्योंकि “जहां कथा के किसी पात्र – वह ‘मैं’ हो चाहे ‘वह’ – की निगाह से आपकों चीज़े दिखाई देती हैं, वहां ‘इंटरनल फोकलाइजर’ है और जहां ऐसा न हो, यानी निगाह इन पात्रों से बाहर कहीं हो, वहां ‘जीरो फोकलाइजेशन’, जिसे बाद में कुछ आख्यान – शास्त्रियों ने ‘एक्सटर्नल फोकलाइजेशन’ कहा।”9   लेखक तमाम पेचिदगियों के बावजूद कहानी में पात्रों की भाषा का ध्यान रखता है। एक पक्ष शिक्षित वर्ग से है तो उनकी भाषा शुद्ध एवं परिष्कृत है, लेकिन भिखारीलाल की भाषा देशज शब्दों से भरपूर है, जैसे – “ससुरी के गे ये (ये) कलहर बनैगो, मास्टर हू निशा (निगाह) में ससुरो तेज है, सारे सबद याद तक लिए।”10   इस तरह की देशज भाषा कहानी की ग्रामीण पृष्ठभूमि को सामने रखती है तो दूसरी ओर उसके भाव-पक्ष को भी सामने रखती है।

     यह कथा दलित परिवार और पारिवारिक अन्त: संबंधों को लेकर लिखी गई है, समाज को केंद्र में रखकर। यही वजह है कि उच्च जातियों और निम्न जातियों के विभाजन का तर्क, आचार-विचार पर कहानी केंद्रित नहीं है। कहानी के पारिवारिक आंतरिक कलह, सामाजिक मर्यादाओं को व्यापक दायरे की परिधि से घरेलू हिंसा, चोरी और शिक्षा जैसी केंद्रीय समस्याओं पर विचार करती है। 

कहानी उन तमाम समस्याओं पर गंभीरता से विचार व्यक्त करती है, जहां से इनका जन्म हुआ। जैसे तुलसीराम ‘मुर्दहिया’ में अंधविश्वासों पर चोट करते हुए स्वीकारते हैं कि “मुर्खता मेरी जन्मजात विरासत” है। यहां मुर्खता का अर्थ तर्क से परे अतार्किक समाज की ओर संकेत करती है, जो शताब्दियों से उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से चोट पहुंचा रहा है। उनकी अवगति और प्रगतिशीलता में सबसे मख्य बाधा है और उन्नति के सबसे मुख्य हथियार (शिक्षा तथा सामाजिक चेतना) से कोसों दूर है। पाश्चात्य विद्वान बेंथम का मानना है कि तमाम तरह की रूढ़ियों को दूर करने और समाज में प्रगतिशील तत्वों की स्थापना करने के लिए जरूरी है, कि कानून की सहायता से सरकारें इन समस्याओँ को दूर करें। हम समाज से प्रगतिशील होने की आशा नहीं कर सकते हैं। क्योंकि समाज ने ही यह समस्याएं पैदा की है। यदि मानव समूह ही इन समस्याओं का जनक है, अत: हम उन लोगों से यह आशा या अपेक्षा नहीं रख सकते हैं, कि वे समाज को तरक्कीपसंद समूह में तब्दील कर सकेंगे। अत: यह काम कानून बनाकर सरकारें स्वयं कर सकती है। इस प्रकार कानून ही प्रगतिशील समाज के निर्माण की मुख्य कड़ी है।

वंचित वर्ग कानून का सही इस्तेमाल तब कर सकता है जब उसके पास गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हो, लेकिन इस कहानी में एक वर्ग जो सामाजिक रूप से हाशिए का अंश है, वहां प्रारंभिक शिक्षा को लेकर ही संघर्ष है। यह संघर्ष समाज के प्रभावशाली वर्ग से पूर्व स्वयं के परिवार में उत्पन्न कलह और द्वेषता का संघर्ष है। इस प्रकार की तमाम बाधाएं गुणवत्तापूर्ण आवश्यक वस्तुओं तक पहुंच को दुर्लभ तो बनाती है, साथ ही कानूनी सहायता पाने और कानून की समझ से भी उन्हें दूर ढकेलती है। 

संदर्भ 

1सं. राजेंद्र यादव, एक दुनिया सामानांतर, पृ.- 22, (अज्ञेय, शरर्णार्थी की भूमिका से)

2सं. रमणिका गुप्ता, दलित कहानी संचयन, पृ.- 72

3वही, पृ.- 72

4वही, पृ.- 72

5वही, पृ.- 75

6अनामिका, सत्री विमर्श का लोकपक्ष, पृ.- 82

7जनसत्ता, दिल्ली संस्करण, 4 सितंबर 2020

8संपा. रमणिका गुप्ता, दलित कहानी संचयन, पृ.- 74

9संजीव कुमार, हिंदी कहानी की इक्कीसवीं सदी, भूमिका से, पृ.- 6

10स. रमणिका गुप्ता, दलित कहानी संचयन, पृ.- 72


गोपाल जीनगर, शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007, Email: gopal7591@gmail.com

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