आलेख : मर्मी आलोचना से साक्षात्कार / बजरंग बिहारी तिवारी

मर्मी आलोचना से साक्षात्कार
बजरंग बिहारी तिवारी


'मानस का मर्म' दिल्ली के राजेश प्रकाशन से 1991 में छपी थी।

मुक्त मन वाले अध्येता रामाश्रय सिंह की मुक्त भाव से लिखी सर्जनात्मक आलोचना। सर्जनात्मक आलोचना सोद्देश्य होती है। मानस के मर्म से परिचय कराना इस कृति का उद्देश्य है। मर्म तक पहुँचने का रास्ता भाषा से होकर जाता है। जिस भाषा से गोपन होता है उसी से उद्घाटन। कम शब्दों में अपरिमित अर्थ भरा हो तो हम ऐसे आलोचक का मुँह जोहते हैं जो हमारा प्रबोधन करे। हमें अर्थ के उस ज़खीरे तक पहुँचने की राह बताए। प्रबोधन रामाश्रय जी की इस कृति का सह-उत्पाद है। वे तो आपको सहयात्री बना लेते हैं। रूप की यात्रा पर ले चलते हैं। रूप में आकर्षण-विकर्षण दोनों है। आकर्षण और विकर्षण के कई नमूने मानस में हैं। जो रूप किसी को आकर्षित करता है वही किसी और को विकर्षित। आकर्षण-विकर्षण की बड़ी सुंदर विवेचना किताब के तीसरे अध्याय में है। 

            करीब एक सौ चालीस पृष्ठ की यह कृति पाँच अध्यायों में है - मानस का मर्म, मानस में रूप-रस के शेड- 1, मानस में रूप-रस के शेड- 2,  अरथु अमित अति आखर थोरे, और, परहित बस जिन्हके मन माहीं।

भूमिका को लेखक ने उचित ही प्रस्थान बिंदु कहा है।

 

यहाँ से आप एक मंगल यात्रा पर निकलते हैं।

भूमिका के अनुसार मानस मंगल काव्य है।

जानकी मंगल, पार्वती मंगल तो घोषित रूप से मंगल काव्य हैं। मानस का मंगलत्व उससे गुज़र कर ही जाना जा सकता है -

जाने बिनु होय परतीती। बिनु परतीति होय नहिं प्रीती।

या फिर, संतों की संगति करने से-

मुद मंगलमय संत समाजू।

 

भूमिका मानस में अवगाहन के लिए मुक्त दृष्टि की अनिवार्यता बताती है- 


कोउ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल करि मानै।

तुलसिदास परिहरै तीनि भ्रम, सो आपुन पहिचानै।

 

इस मानस के दो तट हैं।

ज्ञानी वेद तट पर विचरण करना चाहते हैं।

तब उनसे मानस का बड़ा मूल्यवान तट छूट जाता है।

वह है लोक पक्ष।

 

            "मेरा विनीत आग्रह है कि तनिक लोक-दृष्टि से 'मानस' अवगाहन करें - 'मानस' की रसधारा में गहरे उतरें, तो अमित अर्थच्छवियाँ गोचर होंगी ..."

            तुलसी की राम भक्ति परंपरा से चली रही रामभक्ति से किन अर्थों में अलग है - इस मुद्दे पर बड़ा सार्थक विमर्श किया है रामाश्रय जी ने।

            भारतीय संस्कृति को वेद चिंतन-दान करते हैं, उपनिषद दर्शन-दान वाल्मीकि-व्यास दृष्टि-दान करते हैं तो तुलसी अंजन-दान।  

             प्रथम अध्याय में रामाश्रय जी ने मानस का मर्म समझाया है। मानस को ऊपर से देखने वाले उसे भक्तिकाव्य कह देते हैं, धर्म से, पाप-पुण्य से जोड़ देते हैं जबकि मानस खिन्न जनों के साथ खड़ा है।

मानस के नायक खिन्न जन के साथ हैं 

'जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।'

 

            दूसरे अध्याय का दूसरा वाक्य है- "जन कवि लोक जीवन में जीता है और गहरे स्तर पर जन से जुड़कर जीता है।" पूरा अध्याय इस आधार वाक्य की विवृत्ति है। तुलसी का प्रगतिशील पाठ इसी तरह का हो सकता है, होना चाहिए। 

            इस अध्याय में रूपक-उत्प्रेक्षा-उपमा को छवि-सिंगार-रूप के स्पष्टीकरण में जिस तरह समझाया गया है वह परम आनंददायक है। 

            लोक-जीवन की चित्रशाला के रूप में 'मानस' का अंकन तीसरे अध्याय में हुआ है।

चित्रों की अवलि को समझने-समझाने में 'मयंक', 'तिलक' और 'पीयूष' सफल हुए- "दुर्भव को संभव बनाया जा सकता है; जो 'अभव' है, संभव कैसे हो?"

एक चित्र देखिए -

जेहिं सुभायँ चितवहिं हित जानी।

सो जानइ जनु आइ खुटानी।।

लेखक ने इस प्रसंग में परशुराम के भीषण मनोहर रूप की बड़ी सुंदर विवेचना की है।

इस विवेचना का शिखर है इस अर्धाली की व्याख्या-

बिप्रबंस कै असि प्रभुताई।

अभय होइ जो तुम्हहिं डेराई।।

जाने क्यों तालव्य का प्रयोग लेखक ने किया है।

            मूल 'मानस' में बिप्रबंस है, विप्रवंश नहीं। इसी तरहटेढ़ जानि शंका सब काहू’, ‘कालहु डरहिं रन रघुवंशी’, ‘गारी देत पावहु शोभाआदि उद्धरणों मेंका व्यवहार है। अवधी में तालव्य का प्रयोग नहीं होता। मुंबई से प्रकाशित मानस के एक संस्करण में ऐसे शब्दों कोसुधार’ दिया गया था! जनमत ने इस सुधार को स्वीकार किया।

            अरथु अमित अति आखर थोरे किताब का चौथा अध्याय है। यहाँ चोटी के चित्र चित्रकूट का शब्दचित्र खींचा गया है। अयोध्याकाण्ड का यह प्रसंग रामाश्रय जी ने अपनी समर्थ लेखनी से दीप्त कर दिया है।  

सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे।

अरथु अमित अति आखर थोरे।।

ज्यों मुख मुकुर, मुकुर निज पानी।

गहि जाइ अस अदभुत बानी।।

 

            इस अद्भुत बानी को समझना है, उसका रस लेना है तो यह अध्याय स्वयं पढ़ना होगा- कहे राम रस रहत।

            हम उत्तर औपनिवेशिक समाज हैं। बात-बात पर अपनी तुलनापश्चिमसे करने को अभिशप्त हैं। ऐसी तुलनाओं में हम अपने को श्रेष्ठ बताते हैं। थोपी गई हीनता के प्रत्याख्यान के प्रलोभन से बच नहीं पाते। इसे कई बार वि-उपनिवेशीकरण की चेष्टा के रूप में देखा जाता है। ऐसा है नहीं। सायास स्व-श्रेष्ठता प्रतिपादन से औपनिवेशिक जड़ता मजबूत होती है, टूटती नहीं। रामाश्रय जी ने कोई प्रतिपक्ष नहीं चुना है। उन्हें किसी मत का, मतवाद का, तुलसी के संबंध में किसी स्थापना का खंडन, मंडन नहीं करना है। फिर भी एक जगहपश्चिमका संदर्भ ही गया है। भरत के विवेक-वराह की अद्भुत विवेचना में कुछ क्षणों के लिए अवांतर-सी लगती यह चर्चा आई है- “पश्चिम के चिंतन और पूर्व के चिंतन में यही अंतर है। Cupid is blind –प्रेम अंधा है, कहकर पश्चिम चुक जाता है। यहीं उसकी इति है; इसके आगे गति नहीं। पूर्व आगे बढ़ता है। वह बताता है कि यह अंधापन बुद्धि का है। इसके आगे विवेक की गति है।” 

            तुलसी की समष्टि चेतना का उद्घाटन अंतिम अध्याय 'परहित बस जिन्ह के मन माहीं' में है। सबका कल्याण चाहने वाली कवि-दृष्टि को कितने लांछन झेलने पड़े, कितने हमले सहने पड़े, इसका कोई हिसाब नहीं।प्रस्थान-विन्दुअर्थात् भूमिका में ही कहा गया है- “ध्वजधारी धार्मिकों नेमानसको मार डालना चाहा था।मानसमरा नहीं क्योंकिमानसकी जिजीविषा अमोघ थी...विभिन्न दर्शनों की शिखर-स्थापनाओं से सांद्र परिचय के बावजूद तुलसीदास किसी मतवाद में नहीं उलझे। वे किसी संप्रदाय में दीक्षित हुए और किसी पंथ के पुरस्कर्ता बने। उनका अपना मार्ग था- राममार्ग। यह जनमार्ग का पर्याय है। यहाँविवाद का स्वर नहीं, संवाद का स्वर मुखर है।मानस में भले ही विवाद का स्वर हो, पक्षधरता तो है। यह लोक की पक्षधरता है। प्रेम की पक्षधरता है।स्व-विचारकी पक्षधरता है। भक्ति का अर्थ इस लोक से, विचार से, प्रेम से जुड़ना है। तुलसी अध्यात्म में रमे रहने वाले भक्त नहीं; भक्ति को साधन के रूप में स्वीकारने वाले दुनियावी कवि हैं। इस कवि को जो युग मिला वह भक्ति की, धर्म की भाषा समझता है। धर्म का एक सिरा वर्णाश्रम से जुड़ा है तो दूसरा पोथी ज्ञान से। तुलसी इसे कुकाठ कहते हैं- “चारिहु को छहु को नव को दस आठ को पाठ कुकाठ ज्यों फारैं।चार वेद हैं, छः शास्त्र हैं, नौ व्याकरण और दस+आठ = अठारह पुराण हैं। राम के, प्रेम के अभाव में ये सब कुकाठ हैं। कुकाठ को फाड़ना कठिन है, जानलेवा है। प्रेमचंद की कहानीसद्गतिमें दुखी नामक दलित पात्र को कुकाठ (या गाँठ वाली लकड़ी) फाड़ना/चीरना है। इसमें आसानी से कुल्हाड़ी नहीं बेधती। अंतत: प्राण लेकर गाँठ फटती है। जानलेवा व्यवस्था का भरपूर विवरणकवितावलीमें है।मानस का मर्ममें तुलसी की अन्य कृतियों के संदर्भ अपवादस्वरूप ही आए हैं। जहाँ ये संदर्भ हैं वहाँ सीदते हुए, छीजते हुए जन की चिंता केंद्र में है।तुलसी बिहाल लोग सीदमान सोच बसवाला छंद उद्धृत करते हुए रामाश्रय जी ने पहले अध्याय का समापन यों किया है। यह तुलसी संबंधी उनके संपूर्ण विवेचन का उल्लेखनीय पक्ष है- “‘कहाँ जायँ, का करीकी चिंता आज भी ज्यों-की-त्यों बनी है। लोकपीड़ा का ऐसा गायक कोई कहाँ मिलता है? तुलसी की वाणी जनता की आत्मा की वाणी है। यह उस युग की माँग थी कि तुलसी ने धर्म के माध्यम से अपनी बातें जन के अंतःकरण तक पहुँचाने का प्रयास किया था। यह रचनाकार की सीमा है कि उसे किसी किसी युग-ग्राह्य माध्यम का सहारा लेना पड़ता है। यह सीमा रहती आई है और रहेगी। लोकजीवन में आज भी तुलसी का स्वर भास्वर है-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

            ऐसे वक़्त में जब धर्म-ध्वजी सत्ता शक्ति को अपने नियंत्रण में करके -रति = नफ़रत का कारोबार कर रही है। -रति के सम्मोहन में आत्मविस्मृत जनता अपने संसाधनों की, संपदा की, राष्ट्र के संचित कोष की लूट को देखकर भी अनदेखा करती जा रही है, रोज़-रोज़ उभरते हिंसा के वीभत्स रूप भीन्यू नॉर्मल’ =सहज स्वीकार्य बनते जा रहे हैं तब हम इस जनपक्षधर कवि से दृष्टि, दिशा और प्रेरणा ले सकते हैं। कविता का धर्म और मर्म आम जन की तरफ़दारी है, पैरोकारी है -

सुविधार्जनैकलग्ना जनतास्वगेहचौरान्

दृष्ट्वाप्यलोचयन्ती कविता कदाचिदेषा

            -जीवन की सुविधाओं के जुगाड़ में व्यस्त अपने घर के चोरों को देखकर देख पा रही जनता, शायद कविता है। (‘काक्षेण वीक्षितम्महराजदीन पाण्डेय विभाष, समीक्षा पब्लिकेशन्स, गाँधीनगर दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004, पृष्ठ 52)

            मानस का मर्मटिकाऊ किताब है। यह पाठ-केंद्रित आलोचना का आदर्श है। रससिक्त व्याख्या का उदाहरण है। लेखक की यश:काया को बनाए-बचाए रखने वाली सर्जना है।

            मैं इस किताब को पलटते-पढ़ते हुए स्मृति-शेष रामाश्रय सिंह जी से संवाद कर रहा हूँ, कृतार्थ हो रहा हूँ।

 

बजरंग बिहारी तिवारी

 

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

1 टिप्पणियाँ

  1. बजरंग जी की शोधपरक दृष्टि हमेशा वरेण्य है |

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