शोध आलेख : स्वाधीनता आन्दोलन पर भक्ति काव्यान्दोलन का प्रभाव / मनीष कुमार

स्वाधीनता आन्दोलन पर भक्ति काव्यान्दोलन का प्रभाव
- मनीष कुमार

शोध सारसामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में बुद्ध के अखिल भारतीय हस्तक्षेप के बाद भक्तिकाव्यान्दोलन ने भारतीय जनमानस पर अभूतपूर्व प्रभाव डाला. परवर्ती भारतीय जीवन के किसी भी युग में मूल्यों के स्तर पर इसने गहरा प्रभाव छोड़ा. इससे भक्ति आन्दोलन की सांस्कृतिक परिधि की युगीन व्यापकता का अनुमान लगाया जा सकता है. जब यह प्रभाव वर्तमान पर भी देखा जा सकता है तो इससे महान भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन कैसे बच सकता था. यह स्वाधीनता आन्दोलन राजनीति मेंभारतीय राष्ट्रीय आन्दोलनएवं हिंदी कविता में सामान्यतःस्वच्छन्दतावाद (या छायावाद)’ की संज्ञा से अभिहित किया जाता है. इस शोधालेख में स्वाधीनता आन्दोलन पर भक्तिकाव्यांदोलन के प्रभाव की पड़ताल की गयी है.

बीज शब्दस्वाधीनता, भक्तिकाव्य, सूफ़ी, कृष्णकाव्य, संतकाव्य, रामकाव्य, स्त्रीकाव्य, प्रभाव, आन्दोलन, इतिहास.

मूल आलेख :     

“देख आए हैं जल्वा हम किसी का
पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था
हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का”[1]


उक्त काव्यांश मक़बूल शायर हसरत मोहानी की नज़्म का है जिन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में सांप्रदायिक तंगदिली के विरुद्ध सराहनीय भूमिका निभाई थी. भारत विभाजन का विरोध करने वालों में वे एक उल्लेख्य नेता हैं. सूफ़ियाना मिजाज़ के हसरत एक निश्चित अन्तराल पर मथुरा जाया करते थे.[2] ‘मानुष हौं तो वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन’[3] - यह बात भक्तिकाल के कवि रसखान अतीत में कह चुके हैं. हसरत मोहानी की उपरोक्त नज़्म उस दौर की है जब लोकमान्य तिलक की कुछ गतिविधियों को ‘सांप्रदायिक चश्मे’ से देखा जा रहा था और उनकी आलोचना की जा रही थी. ऐसे माहौल में हसरत मोहानी ने मुश्तरक़ा तहज़ीब पर जोर देते हुए तिलक के साथ खड़ा होना पसंद किया. हिंदुस्तान के मुस्लिम कवियों द्वारा कृष्ण आदि हिन्दू देव-मिथकों की स्तुति को वे नहीं समझ सकते जिनके दिल-दिमाग़ में किसी धार्मिक संकीर्णता की व्याप्ति हो. यदि हसरत साहब को स्वाधीनता संग्राम के समय कृष्ण याद आए तो यह अकारण नहीं था. सांप्रदायिक सद्भाव की चाह भक्तिकाव्य में जायसी के यहाँ पूर्व में देखी जा चुकी है जब वे ‘पद्मावत’ के अंतर्गत अलाउद्दीन खिलजी को खलनायकत्व से बिल्कुल भी च्युत नहीं करते -

“जौहर भइं सब इस्तिरी, पुरुष भए संग्राम
बादसाह गढ़ चूरा, चितउर भा इस्लाम”[4]


यह पद्मावत के अंतिम खंड ‘पद्मावती-नागमती-सती खंड’ की अंतिम काव्योक्ति है. ऐसी त्रासदी के बाद कवि/लेखक के पास कहने के लिए कुछ नहीं बचता. पद्मावत के खिलजी के पास एक मुट्ठी छार बचती है तो गोदान के पंडित मातादीन के पास धनिया के सुतली बेचने से प्राप्त 20 आने की धिक्कार. पद्मावती के जल चुकने और होरी के मरने के उपरांत न जायसी ही और न प्रेमचंद ही कुछ कह सकते थे. यह बात उन्हें अधिक समझने की ज़रूरत है जो जायसी और प्रेमचन्द दोनों की निजी पहचान (उनके धर्म-जाति) को उनके साहित्य पर इस हद तक आरोपित करते हैं कि साहित्य की गरिमा भंग होने लगती है. उल्लेख्य है कि जहाँ जायसी भक्तिकाल में पद्मावती के हवाले से स्त्री-स्वाधीनता की पक्षधरता निबाहने की कोशिश कर रहे थे वहीं प्रेमचन्द राष्ट्रीय स्वाधीनता के बड़े-बड़े स्वप्नों के बीच होरी जैसे जनसमुदाय की स्वाधीनता का आख्यान रच रहे थे. निस्संदेह स्वाधीनता किसी भी समय के सच्चे साहित्य का अनुपेक्षीय मूल्य है. यह भी दिलचस्प है कि पद्मावत के रचनाकार जायसी अपनी सूफ़ी-साहित्यिक अभिव्यक्ति में इस्लामी आक्रान्ताओं के विरुद्ध जिस दौर में प्रत्याख्यान रचते हैं वह इस्लामी शासकों का ही दौर था. सूफ़ी आन्दोलन ऐसा मानीखेज़ आन्दोलन था जिसने अपने समय में इस्लामी शासन-पद्धति में व्याप्त कट्टरता का प्रतिकार करने का साहस किया. अपने ही मज़हब के लोगों की कट्टरता के विरोध की दृष्टि से सूफ़ी आन्दोलन भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण आन्दोलन रहा है. इसका प्रभाव अपने युग तक ही सीमित न होकर परवर्ती युगों तक भी रहा है. स्वाधीनता आन्दोलन भी उनमें एक है जहाँ हिन्दू-मुस्लिम व अन्यान्य समूहों का बँटवारा अंग्रेज़ों द्वारा अपनी संकीर्ण ऐतिहासिक-औपनिवेशिक दृष्टि के तहत किया जा रहा था. हिन्दू युग-स्वर्ण युग और मुस्लिम युग-अंधकार युग जैसे मनमाने इतिहास विभाजन की औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि ने हमारे राष्ट्र का कितना नुकसान किया है इस पर अलग से कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है. साहित्य के इतिहास को ही देखें ग्रियर्सन भक्तिकाव्य पर ईसाइयत के प्रभाव का आरोपण कर रहे थे और भाषाविद होने के बावजूद उर्दू को विदेशी भाषा बता रहे थे. खैर, यह अकारण नहीं है कि सूफ़ी-दृष्टि से प्रभावित भारत के राष्ट्रीय आन्दोलनकारी भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में एक स्वस्थ भूमिका निभा सके चूँकि उनमें मिलीजुली संस्कृति का मूल्य उपस्थित था. हसरत मोहानी इसकी इकलौती मिसाल नहीं हैं. इस सम्बन्ध में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भी उल्लेख्य हैं. एक पुरजोर धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी वे साम्प्रदायिक तंगदिली के इस हद तक ख़िलाफ़ थे कि जिन्ना उन पर ‘कांग्रेस का मुस्लिम शोबॉय’ कहकर व्यंग्य कसते थे. मौलाना आज़ाद जिस परिवेश में बड़े हो रहे थे, कहने को वह ‘सूफ़ीदां माहौल’ था. लेकिन सूफ़ियों के असल मंसूबों से इतर कर्मकाण्ड के स्तर तक सीमित था. मसलन उनके पिता एक सूफ़ी पीर थे जो मात्र अपने शागिर्दों से घिरे रहते थे.[5] मौलाना ने इस कर्मकाण्डी रास्ते से हटते हुए सूफ़ी दर्शन के व्यावहारिक रास्ते पर आना पसंद किया. जामा मस्ज़िद का उनका अंतिम भाषण उनकी राष्ट्रीयता के उरूज का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है.

मैंने जानबूझकर सूफ़ी आन्दोलन का ज़िक्र करते हुए मुश्तरक़ा तहज़ीब के प्रभाव की चर्चा सबसे पहले की है. चूँकि इस धारा का प्रभाव सामान्यतः स्वाधीनता आन्दोलन पर उतना स्पष्ट नहीं दिखलाई पड़ता जितना अन्य धाराओं का. सजग व्यक्ति ही देख पाएगा कि राही मासूम रज़ा जैसे साहित्यिक की सांप्रदायिक विरोधी चेतना का एक आयाम भक्ति काव्यान्दोलन से भी जुड़ता है क्या! अन्य धाराओं के प्रभाव की चर्चा करने से पूर्व उक्त धारा का अध्ययन करने से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि भक्ति काव्यान्दोलन ने स्वाधीनता आन्दोलन पर सीधे राजनैतिक रूप से तो असर डाला ही है, उससे अधिक दार्शनिक-साहित्यिक स्तर पर प्रभावित करते हुए अप्रत्यक्षतः भी अपनी भूमिका निभाई है. अतैव इतिहास की अविच्छिन्नता और सततता में यकीन करने वाले ही अलग-अलग युगों के पारस्परिक प्रभावों की पड़ताल कर सकते हैं. हिंदी में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के पास ऐसा दृष्टिकोण था तभी वे बौद्धों से लेकर कबीर तक की अंतर्गुम्फित यात्रा को सही तरीक़े से देख पाते हैं.

रामकाव्यधारा और संतकाव्यधारा ने स्वाधीनता आन्दोलन को सर्वाधिक प्रभावित किया है. इस सम्बन्ध में पहले रामकाव्यधारा का अध्ययन समीचीन होगा. रामकाव्यधारा के सबसे बड़े स्वीकृत कवि तुलसीदास हैं. राष्ट्रीय आन्दोलन के सबसे बड़े हीरो गाँधीजी को एक कवि के रूप में जो सर्वाधिक प्रिय हैं वे तुलसीदास ही हैं. ऐसा लिखते हुए मैं भक्तिकालीन गुजराती कवि नरसी मेहता को भूल नहीं रहा हूँ जिनके द्वारा लिखित ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए...’ गाँधीजी का पसंदीदा पद्य रहा है. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने अपने निबंध ‘कबीर और गाँधी’ के अंतर्गत गाँधी जी पर कबीर के प्रभाव की चर्चा की है जो काफ़ी हद तक सही भी है लेकिन गाँधी जी के आंतरिक व्यक्तित्व की जितनी साम्यता तुलसी के साथ दिखाई देती है उतनी किसी अन्य कवि के साथ नहीं. आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने गाँधी जी पर भक्तिकालीन मूल्यों के प्रभाव को बारहा रेखांकित किया है. कबीर का चरखा, मीरा का सत्याग्रह, तुलसी का रामराज्य और नरसी की परदुःखकातरता गाँधी जी के व्यक्तित्व में देखी जा सकती है. अपनी ओर से जोड़ूं तो जायसी का युद्धनिरर्थकताबोध भी गाँधी द्वारा हिटलर को लिखे पत्रों से समझा जा सकता है. शायद गाँधी राष्ट्रीय आन्दोलन की ऐसी इकलौती विभूति हैं जो एक साथ विविधता भरे कवियों से प्रभावित हैं. इस सन्दर्भ में हिंदी आलोचना में पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं. श्रीभगवान सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘गाँधी का साहित्य और भाषा चिंतन’ के अंतर्गत भी इसके साक्ष्य देखे जा सकते हैं. इस पुस्तक में लेखक ने गाँधी जी के ऊपर तुलसीदास के प्रभाव की चर्चा की है. जो लोग पुस्तक पढ़ने का ‘ज़ोखिम’ नहीं ले सकते वे यूट्यूब पर उपलब्ध[6] साहित्य अकादमी के मंच पर दिए गये उनके भाषण की मीमांसा कर सकते हैं. गाँधी जी के लिखने-बोलने में अधिकांश स्थलों पर तुलसीदास के उद्धरण आए हैं. ‘हिन्द स्वराज’ पुस्तक से एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है-

‘दया धरम को मूल है/ पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छांड़िये/ जब लग घट में प्रान’


गाँधी जी तुलसी के इस दोहे के प्रसंग में लिखते हैं- “मुझे तो यह वाक्य शास्त्र-वचन जैसा लगता है. जैसे दो और दो चार होते हैं, उतना ही भरोसा मुझे ऊपर के वचन पर है.”[7] कहने की आवश्यकता नहीं कि गाँधीजी जैसी अहिंसक विभूति ही दया पर इतना अधिक जोर दे सकती है. यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि उन्होंने उपरोक्त दोहा ‘सत्याग्रह-आत्मबल’ अध्याय के अंतर्गत उद्धृत किया है. असहयोग से लेकर सविनय अवज्ञा एवं अन्य आन्दोलनों में गाँधीजी ने इस बुनियादी बात को दरकिनार नहीं किया. बाबा रामचन्द्र ने अवध के किसान आन्दोलन के दौरान तुलसीदास की लेखनी का जैसा रचनात्मक उपयोग किया है उससे भी साहित्य के अध्येता भलीभांति परिचित हैं. भगत सिंह भी तुलसी-कबीर की रचनाओं को देश की अधिक-से-अधिक जनता तक पहुँचाने के पक्ष में थे.[8]

तुलसीदास का असर सिर्फ़ स्वाधीनता आंदोलन के राजनैतिक लोगों के बीच रहा हो ऐसा नहीं है. आज़ादी की लड़ाई के उस दौर में जिस हिंदी कवि पर उनका अत्यधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है वे निराला हैं. निराला उस छायावाद के कवि हैं जिसमें व्यक्ति-स्वातंत्र्य बहुत बड़ा मूल्य था. कोई राष्ट्र स्वतंत्र हो जाए और उसके ‘नागरिक’ परतंत्र रहे तो ऐसी स्वतंत्रता बहुत दूरगामी नहीं हो सकती. छायावाद के सभी कवियों में यह दूर दृष्टि थी जो तात्कालिक सामूहिक स्वतंत्रता के साथ-साथ व्यक्ति मात्र की स्वतंत्रता का स्वप्न देख रहे थे. इसे सबसे पहले पहचाना आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने और इस पर सविस्तार लिखा उनके शिष्य नामवर सिंह ने. ‘छायावाद’ के अंतर्गत वे लिखते हैं, “छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढ़ियों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से.”[9] निराला की कबीर से, प्रसाद की तुलसी से और महादेवी की मीरा से तुलना बेवजह नहीं की जा सकती. निराला से पूर्व मैथिलीशरण गुप्त रामकाव्यधारा के अतिशय प्रभाव में वंचना के अनछुए प्रसंगों पर कविताई करके राष्ट्रवाद की नए सिरे से अलख जगाने का कार्य कर रहे थे. किन्तु बकौल नामवर सिंह यह हाय-हाय की आत्मधिक्कार तक अधिक सीमित था. निराला की ‘राम की शक्ति-पूजा’ में वह दीनहीन मनःस्थिति नहीं वरन न थकने का संकल्प दिखाई देता है. ‘वह और एक मन रहा राम का जो न थका’ की व्याख्या राम के संघर्ष के साथ-साथ स्वयं निराला एवं गाँधीजी के संघर्ष के तौर पर हिंदी की अकादमिक दुनिया में ख़ूब होती रही है. लेकिन यह कविता क्रन्तिकारी आन्दोलन से भी जुड़ती है. ‘राम की शक्ति-पूजा’ के अंतर्गत एक पंक्ति है-

‘भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल.’[10]


कुछ आलोचकों ने तद्युगीन परिस्थितियों में इस मशाल को लाला हरदयाल की ग़दर पार्टी से जोड़कर देखा है. एक दौर में जब युवा आबादी गाँधीवादी तरीकों में राष्ट्र की आज़ादी का स्वप्न पूरा होते नहीं देख पा रही थी तब उसने क्रन्तिकारी रास्ते भी अख्तियार किए. कम दिलचस्प नहीं है कि निराला के राम, शक्ति-पूजा हेतु जिस साधनात्मक पद्धति को अपनाते हैं वह हठयोगियों की पद्धति है जिसके तार सुदूर में कबीर और नाथपंथी योगियों से जुड़ते हैं. कृतिवास कृत बांग्ला रामायण में आए भक्ति-तत्वों में निराला ने परिष्कार किया है. ये वही निराला हैं जो एक ओर ‘सिंहों की मांद में आया है सियार आज’ लिखकर साहित्य के रास्ते से स्वाधीनता की चेतना हेतु लोगों को उद्वेलित कर रहे थे तो दूसरी ओर राम की शक्ति-पूजा जैसी कविता लिखकर उस पुराने साहित्य में नए अर्थ का सृजन भी कर रहे थे जिसकी जड़ें भक्ति-काव्य में मौजूद हैं.   

तुलसी के राम की विकास यात्रा निराला के राम में देखी जा सकती है. इसके अलावा तुलसीदास पर स्वतंत्र कविता लिखकर निराला उस युग में क्या करना चाह रहे थे यह भी समझने की बात है. सांस्कृतिक पुनरुत्थान/पुनर्जागरण ही उस दौर में अपने खोए हुए स्वाभिमान की पुनर्प्राप्ति का साधन था. अतैव निराला हों या रामचन्द्र शुक्ल, कोई कविता तो कोई इतिहास/आलोचना के माध्यम से इस काम को अंजाम दे रहा था. इस प्रक्रिया में शायद भक्ति आन्दोलन जैसा कोई दूसरा शिखर उनके सामने मौजूद न था.

संतकाव्यधारा से सम्बन्धित अधिकांश कवि प्रायः तथाकथित निचली जातियों से ताल्लुक़ रखने वाले कवि हैं. भक्तिकाल में उनकी उपस्थिति एक समतामूलक और द्वेषहीन समाज की आकांक्षा रखने वाले कवियों के रूप में दर्ज की जाती रही है. कबीर-रैदास आदि संत काव्यधारा की सबसे प्रखर मेधाएँ हैं. स्वाधीनता आन्दोलन को सामान्यतः भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़कर देखा जाता है. जबकि स्वाधीनता का इस अर्थ के इतर एक व्यापक अर्थ भी है. इस व्यापक अर्थ के प्रति गाँधी से लेकर अम्बेडकर सभी की अपनी-अपनी एक दृष्टि सक्रिय थी. स्वाधीन यानी ‘अपने अधीन’ अर्थात किसी बाह्य नियंत्रण से परे अपने अनुकूल अपना जीवन जीने का तरीक़ा. तुलसीदास ने ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ की बात बहुत पहले कह दी थी. संत कवि भी स्वाधीनता के मूल्य को बहुत महत्व देते हैं और यह स्वाधीनता बिना समानता के संभव नहीं. कबीर के असंख्य पदों में इस समानता की पुकार की गूँज और फटकार दोनों है. जिस स्वाधीनता के वृहद् परिप्रेक्ष्य की बात ऊपर की गयी है; क्या फुले और अम्बेडकर दोनों अपने समय में इसी समानता को स्थापित करने के प्रयास नहीं करते जो स्वाधीनता हेतु अपरिहार्य है. यदि हम संविधान को पढ़ें तो स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 19-22) से पूर्व समानता का मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14-18) वर्णित है. यह प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर की दूरदृष्टि का ही परिणाम था. अम्बेडकर जिस परिवार में पले-बढ़े वह कबीरपंथी परिवार था. कँवल भारती ने अपने लेख “कबीर’स् ‘निर्गुनवाद’ इन्फ्लुएन्सड अम्बेडकर” के अंतर्गत विस्तार में अम्बेडकर पर कबीर के प्रभाव की तार्किक चर्चा की है. सिर्फ़ प्रत्यक्ष प्रभाव को रेखांकित करने वालों के लिए उन्होंने यह डिस्क्लेमर भी दिया है, “अम्बेडकर के आलोचक कह सकते हैं कि उन्होंने अपने कार्यों में कहीं भी कबीर को उद्धृत नहीं किया है. लेकिन फिर उन्होंने फुले को भी बहुत उद्धृत नहीं किया है. क्या उन्होंने फुले को अपना गुरु नहीं माना?”[11] भारत के अलग-अलग जनसमूहों के लिए (कमोबेश एक जैसे होते हुए भी कुछ प्रश्नों पर) स्वाधीनता के लिए अलग-अलग मायने थे. अंग्रेज़ों की दासता से तो सभी मुक्ति चाहते थे लेकिन समाज के वंचित तबकों के लिए सिर्फ़ अंग्रेज़ों से मुक्ति पूरी स्वाधीनता नहीं हो सकती थी. फुले-अम्बेडकर के प्रयासों को उसी कड़ी के रूप में देखा जाता है.

 संत काव्यधारा ने समाज के सिर्फ़ निम्नवर्गीय लोगों को प्रभावित किया हो, ऐसा नहीं है. हम टैगोर के कबीर सम्बन्धी अनुवाद को नहीं भूल सकते हैं. अपने निबंध ‘भारतवर्ष में इतिहास की धारा’ के अंतर्गत भी उन्होंने बड़े सम्मान से कबीर के महत्व को रेखांकित किया है. राष्ट्रीय आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता रहे टैगोर के लिए कबीर बेवजह इतने महनीय नहीं थे जबकि उनके ही बंगाल में भक्तकवि चैतन्य हो चुके थे लेकिन चर्चा कबीर की! ऊपर गाँधी जी के संदर्भ में संत काव्यधारा के असर की एक झलक देखी जा चुकी है. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने लिखा है, “भारत का सूर्य जाज्वल्यमान पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर कहलाया तो आधुनिक युग में गाँधी बना.”[12] व्यक्तिगत जीवन में गाँधी एवं कबीर दोनों ने ही सादगी एवं मितव्ययिता को एक मूल्य के रूप में अपनाया. कबीर जुलाहे थे - अतः सूत कात कर अपना जीवन यापन करते थे, वहीं गाँधी जी ने भी चरखे पर सूत कात कर वही वस्त्र पहने और स्वदेशी तौर-तरीक़ों पर बल दिया. दादाभाई नौरोजी की ‘ड्रेन ऑफ़ वेल्थ’ थ्योरी गाँधीजी से पहले ही राष्ट्र का दिशा-निर्देशन कर चुकी थी. उनसे भी बहुत पहले कबीर-रैदास जैसे संत कवियों के जीवन ने श्रम की महत्ता स्वाधीनता के पक्ष में प्रस्तुत कर दी थी. इतिहासकार इरफ़ान हबीब के शोध ने हमें बताया है कि सल्तनत युग में तथाकथित निचली जातियों के उत्थान के सन्दर्भ में उस युग की परिवर्तित अर्थ-व्यवस्था की ख़ासी भूमिका रही है. प्रेमचंद ने लिखा है कि – ‘जब किसान के बेटे को गोबर में बदबू आने लग जाए तो समझ लो कि देश मे अकाल पड़ने वाला है!’ यह अकाल सिर्फ़ पेट पर नहीं पड़ता; बुद्धि पर भी पड़ता है. ग्राम्शी की ‘ऑर्गेनिक इन्टेलेक्चुअल’ की अवधारणा इसी सन्दर्भ से जुड़ी हुई है. स्वाधीन चेतना हेतु श्रम का महत्व कबीर से लेकर गाँधी तक को था तभी वे सिद्धांत से लेकर व्यवहार तक व्यापक जनसमुदाय को श्रम से जुड़े कार्यों में संलग्न रख उसे आन्दोलन का रूप दे पाए.

कृष्ण काव्यधारा को मूलतः प्रेम और सौन्दर्य की काव्यधारा के तौर पर जाना जाता है. यह धारणा पर्याप्त तौर पर सही है. राष्ट्रीय स्वाधीनता हेतु जैसे संघर्ष की आवश्यकता थी उसकी पूर्ति हेतु राम का व्यक्तित्व अधिक प्रेरक रहा होगा सम्भवतः तभी मुहम्मद इक़बाल राम को ‘इमाम-ए-हिन्द’ कहकर सम्बोधित करते हैं; किन्तु राम के व्यक्तित्व में अन्याय के प्रति जैसी आक्रामकता है वह उनके अनुयायियों हेतु अतिशय स्थिति में ‘अपेक्षित’ स्थितियों के विपरीत परिणाम भी ला सकती है. शायद तभी मुहम्मद इकबाल जिस धार्मिक शब्दावली के तहत ‘राम’ को ‘इमाम’ कहते हैं, यही धार्मिकता बलवती होते हुए जब साम्प्रदायिकता का रूप लेती है तो इकबाल पाकिस्तान की माँग के अहम् पैरोकार के रूप में सामने आते हैं. ‘गोधरा काण्ड’ और ‘बाबरी विध्वंस’ ऐसी ही धार्मिक-अतिवादी मानसिकताओं के एक्सटेंशन हैं. बहरहाल जहाँ तक बात कृष्ण काव्य की है तो आलेख के आरम्भ ही कृष्ण पर लिखित एक नज़्म से की गयी है, और यह भी देखा गया है कि नज़्म के लेखक हसरत मोहानी ने प्रेम की मिसाल क़ायम रखते हुए हिन्दुस्तान के बँटवारे का ख़ासा विरोध किया था. प्रेमशंकर ने प्रगतिवादियों के हवाले से लिखा है, “कृष्णकाव्य अधिक ‘सेक्युलर’ है, उसे हर वर्ग की मान्यता मिली.”[13] किन्तु कृष्ण के व्यक्तित्व को सिर्फ़ कोमलकांत प्रेम की लहरियों तक समेटकर देखना बुद्धिमानी की बात न होगी. मैनेजर पाण्डेय ने ‘भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य’ पुस्तक के अंतर्गत विविध सामाजिक सन्दर्भों का हवाला देते हुए सूरदास की कविता को किसान जीवन की त्रासदी के रूप में वर्णित किया है. यह अकारण नहीं हो सकता कि प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का मुख्य पात्र ‘सूरदास’ है! प्रेमचंद सिर्फ़ बंद कमरे में लिखने वाले लेखक नहीं थे. स्वाधीनता आन्दोलन में अपने स्तर पर योगदान देने वाली सक्रियता भी उनमें थी. बेवजह उन्होंने गाँधीजी के आह्वान पर नौकरी नहीं छोड़ दी थी और न ही 'सोज़े-वतन’ कोई चुटकुलों की किताब थी जिसे अंग्रेज़ों को प्रतिबंधित करना पड़ा. ऐसे में उनके उपन्यास में भक्तिकाल का नामधर्मा कवि ‘सूरदास’ क्या कर रहा था? संयोग से दोनों के संघर्ष भी काफ़ी मिलते जुलते हैं. महाकवि सूरदास सामंती दौर की ऋण व्यवस्था से त्रस्त हैं तो प्रेमचंद का सूरदास पूँजीपति मानसिकता से संघर्ष के क्रम में अपनी ज़मीन न बेचने के लिए संघर्ष करता है. सूरदास की कविता को सिर्फ़ प्रेम और वात्सल्य के मनोरम चित्रों तक सीमित करने वालों के लिए ही मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है, “हिंदी में ऐसे आलोचकों का अभाव नहीं है जो कहते हैं कि कविता की व्याख्या में समाज को लाना कविता के साथ अत्याचार है. लेकिन जिस कविता में समाज होगा उसकी व्याख्या सामाजिक चिंता के बिना कैसे होगी? जो व्यक्ति ऋण की प्रथा की क्रूरता से अपरिचित होगा वह ‘सूर मूर अक्रूर गए लै, ब्याज निबेरत ऊधौ’ में निहित अर्थ की गहराई और गोपियों की यातना की गंभीरता भी नहीं समझ सकता.”[14] यह सूरदास के निजी जीवन की यातना है जो गोपियों द्वारा ‘मूल और ब्याज’ की शब्दावली में अभिव्यक्त हुई है. अन्यथा वे स्वयं क्योंकर लिखते – ‘सूरदास की यहै बीनती, दस्‍तक कीजै माफ’. सूरदास की इस विनती को यदि रंगभूमि के सूरदास के संघर्ष और अंग्रेजी अर्थव्यवस्था के प्रति राष्ट्रीय आन्दोलन के विभिन्न नेताओं की अनुनय-विनय और क्रान्तिकारियों के संघर्ष के साथ मिलाकर नहीं पढ़ा जाएगा तो इन दोनों महान आन्दोलनों के अंतर्संबंध को नहीं समझा जा सकता.

स्त्रीकाव्य के अंतर्गत मीराबाई भक्ति युग की प्रखर आवाज़ हैं. विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने हालिया इंटरव्यू में उन्हें हिंदी का/की सबसे निर्भीक कवि/कवयित्री बताया है. मीराबाई राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में स्त्रियों हेतु प्रेरणा का स्रोत बनी रहीं. यह बात हमें तथ्य के रूप में याद रखनी चाहिए कि महादेवी वर्मा ने इलाहाबाद में मीराबाई की जयंती मनाना आरम्भ किया था. इससे पूर्व हिंदी आलोचना में मीराबाई की आज जैसी चर्चा नहीं होती थी. स्त्रियों की अस्मिता के प्रश्न को भक्तिकाल में तो छोड़िये राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में भी बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया. जब तक मीराबाई की ‘संतन ढिग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई’ की वेदना को ‘अपने घर का परदा कर ले मैं अबला बौराणी’ के साहस के साथ एवं महादेवी के ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’ के संताप को ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ के विचारोत्तेजक गद्य के साथ मिलाकर नहीं पढ़ा जाएगा तब तक इन दोनों युगों की स्त्रियों के स्वाधीनता-बोध एवं उसकी प्राप्ति के लिए हुए संघर्ष को नहीं समझा जा सकता. महादेवी वर्मा ने लिखा है, “यह समझना कि राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाली स्त्रियाँ अन्य क्षेत्रों में कार्य नहीं करतीं या शिक्षा आदि क्षेत्रों में कार्य करने वाली पाश्चात्य आधुनिकता से दूर रह सकी हैं, भ्रांतिपूर्ण धारणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है.”[15] स्त्रियों की सामाजिक भूमिका को संदेह की निगाह से देखना नया नहीं है. राष्ट्रीय स्वतंत्रता की लड़ाई में ऐसी स्त्रियों की संख्या कम नहीं थी जिन्होंने पुरुषों के साथ कन्धा मिलाकर अपनी उल्लेखनीय भूमिका निभाई. बावजूद इसके इतिहास की पुस्तकों में उनका पर्याप्त वर्णन नहीं मिलता. स्त्रियों ने अपनी स्वाधीनता के प्रश्न को देश की आज़ादी के संदर्भ से जोड़कर देखा परन्तु दुर्भाग्यवश देश की आज़ादी के बाद उनकी स्वाधीनता के लिए उतने कार्य नहीं किए गये जितने अपेक्षित थे. यहाँ तक कि हिन्दू कोड बिल पर पं. नेहरू, डॉ. अम्बेडकर और कुछ अन्य संसद-सदस्यों को छोड़ दें तो ठीक से इस विधेयक की पक्षधरता भी देखने को नहीं मिली. ‘90 के दशक के बाद की स्त्रियों के स्वयं के प्रयासों से ही स्थितियों में बदलाव आने शुरू हुए. इस दशक से लेकर अब तक की स्त्री काव्यधारा यदि मीराबाई और महादेवी को सबसे बड़ा आदर्श मानती है और महादेवी को ‘आधुनिक युग की मीरा’ का सम्बोधन दिया जाता है तो इससे इन दोनों युगों के पारस्परिक अन्तःसूत्रों का भी पता चलता है.    

क्रमशः विभिन्न काव्यधाराओं पर चर्चा करने के उपरांत कुछ शेष एवं समेकित टिप्पणियाँ करना यहाँ उचित होगा. मसलन भाषा के प्रश्न पर भक्तिकाव्यान्दोलन ने जो मॉडल प्रस्तुत किया; जाने-अनजाने वह स्वाधीनता की लड़ाई में भी हमारे काम आया. सारे भक्त कवि अपनी-अपनी भाषा में अपनी वाणी प्रस्फुटित कर रहे थे. कुछ सन्दर्भ छोड़ दें तो भाषा की टकराहट का कोई बड़ा विवाद उस दौर में था ही नहीं. सबने अपनी भाषा को अपने स्वाभिमान का प्रतीक बनाया. स्वाधीनता आन्दोलन में भी ऐसा देखने को मिलता है. यद्यपि भाषा कुछ मामलों में विवाद का विषय बन सकता था लेकिन कांग्रेस की भाषाई नीति के प्रयासों से यह विवाद टलता रहा और आज़ादी के बाद ही इस मसले पर निर्णय लिए गये. सुखद यह रहा कि अहिन्दी क्षेत्र के नेताओं ने देश की जनसांख्यिकी और जनसंपर्क को ध्यान में रखते हिंदी को प्रोत्साहन दिया. इस सम्बन्ध में ‘गुजराती गाँधी’ की भाषा नीति से हम सब परिचित हैं. दूसरी बात भक्तिकाव्यान्दोलन की सीमा से जुड़ी हुई है. भक्ति आन्दोलन अपने तमाम प्रयासों के बावजूद अपने एवं दूसरे सम्प्रदायों की धार्मिक एवं सामाजिक जड़ताओं को दूर न कर पाया. परवर्ती राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में भी ये जड़ताएँ बनी रहें और राष्ट्र के सामने ऐसे प्रश्न उपस्थित रहे जिनका समाधान होना अभी भी शेष है.

माओत्से तुंग से जब यह पूछा गया कि फ़्रांसीसी और रूसी क्रांति का दुनिया पर क्या प्रभाव पड़ा है तो उसका जवाब था – इस पर टिप्पणी करना अभी जल्दबाज़ी होगी. ग़ौरतलब है कि माओ ने यह बात तब कही थी जब बहुत से इतिहासकार इन क्रांतियों को सिर्फ़ इतिहास की चीज़ मान चुके थे. माओ की इस बात को उधार लेकर यदि अखिल भारतीय सन्दर्भ में भक्ति आन्दोलन के लिए कहा जाए तो यह अतिशयोक्ति न होगी. भक्ति आन्दोलन के असर को स्वाधीनता आन्दोलन (और परवर्ती भारतीय इतिहास) पर देखें तो संवेद्य-गझिनता का क्रम ही मिलेगा. फिर वह युग-विशेष की राजनीति हो, समाज हो या कि साहित्य हो. के. दामोदरन ने सही लक्ष्य किया है, “मध्य युग के इस महान आन्दोलन ने न केवल विभिन्न भाषाओं और विभिन्न धर्मों वाले जन समुदायों की एक सुसम्बद्ध भारतीय संस्कृति के विकास में मदद की, बल्कि सामंती दमन और उत्पीड़न के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष चलाने का मार्ग भी प्रशस्त किया.”[16] 

अतैव स्वाधीनता आन्दोलन पर भक्तिकाव्यान्दोलन के प्रभाव के अध्ययन के सन्दर्भ में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भक्तिकाल की विभिन्न काव्यधाराओं ने स्वाधीनता आन्दोलन की विभिन्न धाराओं को अपने-अपने तईं मुतासिर किया. यह प्रभाव राजनीति, समाज और साहित्य सब पर दिखाई देता है. राजनीति के सन्दर्भ में रामकाव्यधारा के तुलसीदास का सर्वाधिक असर गाँधी पर पड़ा तो संतकाव्यधारा के मूल्यों ने अम्बेडकर को बहुत प्रभावित किया. कृष्ण काव्यधारा से प्रभावित कवि साम्प्रदायिक तंगदिली के विरुद्ध संघर्ष करते रहे तो स्त्रीकव्यधारा की मीरा का प्रभाव वाया महादेवी वर्मा आज तक असंख्य जानी-अनजानी स्त्रियों हेतु प्रेरक-पुंज है. सीमाओं के बावजूद इस महान काव्यान्दोलन हेतु (इतिहास की चक्रीय या रैखिक किसी भी गति में विश्वास करने वाले लोगों से) एक सहृदय व्याख्या की माँग बनी रहेगी. 

 

सन्दर्भ :
[2] ख़लीक़ अंजुम, हसरत मोहानी (अनुवादक-जानकीप्रसाद शर्मा), प्रकाशन विभाग, दिल्ली, 1998, पृष्ठ- 74
[4] मलिक मुहम्मद जायसी, पद्मावत (संपादक-रामचन्द्र शुक्ल), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2019, पृष्ठ- 479
[7] मोहनदास करमचन्द गाँधी, हिन्द स्वराज, नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद, पृष्ठ- 78
[9] नामवर सिंह, छायावाद, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृष्ठ 17
[10] निराला, रागविराग (सम्पादक-रामविलास शर्मा), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2014, पृष्ठ- 94
[11] https://www.forwardpress.in/2017/07/kabirs-nirgunvad-influenced-ambedkar/ (Ambedkar’s critics might say that nowhere in his works he has quoted Kabir. But then, he has not quoted Phule either. But did he not consider Phule his guru?)
[13] प्रेमशंकर, भक्तिकाव्य का समाजदर्शन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ 222
[14] मैनेजर पाण्डेय, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1997, पृष्ठ 298
[15] महादेवी वर्मा, श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृष्ठ 43
[16] के. दामोदरन, भारतीय चिन्तन परम्परा, पी. पी. एच. दिल्ली, पृष्ठ 315

  

मनीष कुमार
शोधार्थी, हिंदी विभागजामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली,
(गैस्ट फैकल्टी, एन. सी. डब्ल्यू. ई. बी., दिल्ली विश्वविद्यालय)

 

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
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