शोध आलेख : मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन में दक्षिण भारतीय संतों की भूमिका (आलवार और नयनार संतों के परिप्रेक्ष्य में) / डॉ. प्रशान्त कुमार एवं डॉ. अजीत कुमार राव

मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन में दक्षिण भारतीय संतों की भूमिका
(आलवार और नयनार संतों के परिप्रेक्ष्य में
)
- डॉ. प्रशान्त कुमार एवं डॉ. अजीत कुमार राव


शोध सार : भक्ति आंदोलन की पूर्वपीठिका का आध्यात्मिक जीवन बहुत अस्त-व्यस्त हो गया था जैन एवं बौद्ध आदि वेदोत्तर सम्प्रदायों में आरंभ में जो बौद्धिक स्वस्थता का वातावरण था वह समाप्त हो चूका था बौद्ध मत की छत्रछाया में पनपने वाले वज्रयान, सहजयान जैसे वाममार्गी संप्रदायों ने लोक जीवन को दूषित आचरण और भ्रष्ट आदर्शो के विकृत उपासना मार्गों की ओर धकेल दिया था पारंपरिक दोषों  से ग्रषित होकर वैदिक धर्म कांतिहीन हो चुका था और एक समर्थ पथप्रदर्शक के अभाव से उसकी गति मंद हो गई थी ऐसे समय एक ओर दक्षिण भारत के आलवार और नयनार संतो ने प्राचीन भक्ति परम्परा में उपलब्ध भक्ति को सरलीकृत रूप प्रदान कर धर्म की पुनर्स्थापना की, वही दूसरी ओर जाति-पांति और ऊँच-नीच के भेद-भाव मिटाकर सबको सामान रूप से भक्ति मार्ग में भाग लेने का अवसर एवं अधिकार भी प्रदान किया भजन, कीर्तन, नामस्मरण आदि को भक्ति का साधन बनाकर उन्होंने भक्ति को ऐसा भावमूलक स्वरुप प्रदान किया जो उस युग के  जनमानस हेतु उपयुक्त था और आज भी प्रासंगिक बना हुआ है

बीज शब्द : मध्यकालीन, भक्ति, आन्दोलन, दक्षिण, भारतीय, आलवार, नयनार, संत

मूल आलेख : भारतीय आध्यात्मिक साधना के इतिहास में भक्ति मार्ग का विशिष्ट स्थान है यद्यपि वैदिक साहित्य के रचनाकाल तक उसके अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता वैदिक काल में यज्ञ अथवा कर्मकाण्ड के माध्यम से धार्मिक कृत्य हुआ करते थे वैदिक लोग प्राय: प्राकृतिक देवता की कल्पना कर उसे प्रसन्न करने हेतु यज्ञ आदि का आयोजन करते थे प्रार्थना एवं विनय भी उनके दैनिक जीवन का अंग थी उनका ध्यान प्रमुखतः भौतिक सुखों की प्राप्ति पर केंद्रित था और वह अंतःकरण की साधना की अपेक्षा बाह्य विधानों का अनुसरण करने की ओर अधिक बल देते थे परंतु इन सभी का उद्देश्य पवित्र था जिस कारण उनके यज्ञादि अनुष्ठान श्रद्धा से प्रेरित रहते थे श्रृद्धाविहीन यज्ञ का कोई अर्थ  था इसी से श्रद्धामूलक भक्ति की उत्पत्ति हुई भक्त के लिए यह अनिवार्य हो गया कि वह विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों को साथ में लाकर अपनी भक्ति किसी एक शक्ति को अर्पित करें

प्राचीन काल से ही भारतीय मनीषियों द्वारा जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति बताया गया है तथा उसे प्राप्त करने के तीन मार्ग- ज्ञान, कर्म, एवं भक्ति को माना गया है भक्ति का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वेतर उपनिषद में मिलता है।2 भक्ति के दो पक्ष हैं- एक तो ईश्वर के प्रति सेवा पर आधारित भक्ति का पथ था, जिसमें भक्त पूरी तरह ईश्वर की दया के भरोसे था इसे समर्पण का मार्ग कहा गया है यह तर्क दिया गया है किभक्तशब्द का मूलभागहै इस प्रकार भक्ति का शाब्दिक अर्थ होता है एक ऐसा व्यक्ति जिसे भाग या हिस्सा प्राप्त हो मूल रूप सेभक्तशब्द का प्रयोग एक सेवक अथवा अनुचर को इंगित करने के लिए होता था, अतः आगे चलकर इस शब्द का प्रयोग ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति के लिए भी होने लगा जिसमें दास-भाव अथवा सेवा-भाव होता था भक्ति का दूसरा पक्ष विशुद्ध प्रेम पर आधारित बंधन का था यह सेवा के स्थान पर समानता पर आधारित था इसमें मुक्ति के स्थान पर दैवी जीवन में भागीदारी का आदर्श स्थापित हुआ। परन्तु धीरे-धीरे इस बंधन की व्याख्या प्रेमी और प्रेयसी के बीच के प्रेम के रूप में होने लगी और इसके लिए राधा और गोपियों के साथ कृष्ण के संबंध को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया इसका प्रथम प्रत्यक्ष प्रतिपादनभागवत पुराणमें हुआ जिसे नवीं सदी का बताया जाता है 3

उत्तर भारत की भक्ति परम्परा के सामान ही दक्षिण भारत में द्रविड़ संस्कृति से उत्त्पन्न पृथक भक्ति परंपरा का सूत्रपात हो चुका था। यह परंपरा ईसा पूर्व कई शताब्दियों से चली रही थी इसमें शरणागति और समर्पण की भावना प्रबल रूप से पाई जाती थी और जो कालांतर में दक्षिण के आचार्यों द्वारा उत्तर भारत में भी लोकप्रिय बनी। वास्तव में ईस्वी सन के प्रारंभ में ही उत्तर और दक्षिण की दोनों परंपराओं का मिलन हो गया था। दक्षिण भक्ति परम्परा के अंतर्गतपूजाको भक्ति का मुख्य साधन माना गया है, जिसेशिवकी भांति तमिल भाषा का शब्द ठहराया गया है। स्वयंभागवतको भी कन्नड़ प्रदेश में रचित कहा गया है। यह ग्रंथ मध्यकालीन भक्ति परंपरा का प्रमुख प्रेरणा स्रोत बना।4

भक्ति आन्दोलन का विकास- भक्ति आंदोलन के उद्भव और विकास को का इतिहास काफी लंबा है, भक्ति आंदोलन अपनी उत्पत्ति से लेकर विकास के विभिन्न चरणों एवं अवस्थाओं को पार करता हुआ, वर्तमान रूप में आया है वैदिक युग के कर्म-मार्ग की अनुपयुक्तता और उपनिषदों के ज्ञान मार्ग की कठिनता के समक्ष परवर्ती युग के भक्ति आंदोलन की सहजता एवं सरलता ने जनसाधारण का बहुमत प्राप्त किया और भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बना दिया सर्वप्रथम  उपनिषद काल में आकर ही हमें भक्ति का स्पष्ट रूप प्राप्त होता है उसके पश्चात रामायण, महाभारत एवं पुराणों के काल तक आते-आते भक्ति आंदोलन का काफी विकास हुआ। इस प्रकार वेद, उपनिषद, महाकाव्य, गीत, प्रबन्धम, भागवत आदि भक्ति आंदोलन के विकास के विभिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करते है।

 धर्म साधना की दृष्टि से वैदिक युग से लेकर ब्राह्मण ग्रन्थों के काल तक धर्म साधना की दो पद्धतियां कर्म और ज्ञान प्रचलित हो चुकी थी किंतु वैदिक युग के ज्ञान और कर्म में से ब्राह्मण ग्रन्थों ने यज्ञीय कर्मकांड को पराकाष्ठा की सीमा पर पहुंचा दिया था, और स्थिति यह हो गई थी कि धर्म के क्षेत्र में केवल पुरोहितों का बोलबाला रह गया और उनके एकाधिकार को चुनौती देते हुए उपनिषदकारों ने चिंतन एवं तत्वान्वेषण का मार्ग बताया। जिसका मूल ऋग्वेद में भी विद्यमान था 5 ६०० ईसा पूर्व का समय आर्यों की धर्म साधना के अनुकूल नहीं रह गया और यह समाज के लिए भी अनुपयुक्त सिद्ध हुआ। अनुपयुक्तता का प्रधान कारण आर्थिक होने के साथ-साथ सामाजिक भी था। यज्ञ अनुष्ठान एवं वैदिक कर्मकांड जनसामान्य के लिए आर्थिक दृष्टि से कठिन होने के साथ ही जनसामान्य के लिए उसमें स्थान भी नहीं था। यह स्मरणीय है कि उत्तर वैदिक युग तक आते-आते ज्ञान के क्षेत्र में दार्शनिक क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मण पुरोहितों के एकाधिकार को चुनौती मिलने लगी थी। अब धर्मोपदेश और तत्वान्वेषण केवल ब्राह्मणों के एकाधिकार तक सीमित होकर क्षत्रिय राजाओं के आश्रय में होने वाले विद्वत सम्मेलनों तक पहुंचता है।6 परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण देश का सांस्कृतिक वातावरण कुछ ऐसा हो गया जिसमें वैदिक धर्म उपयुक्त नहीं रह गया। इन्हीं परिस्तिथियों  में भागवत, जैन तथा बौद्ध संप्रदायों की नींव पड़ी भागवत धर्म प्राचीन ब्राह्मण धर्म के अंग के रूप में विकसित हुआ, जबकि बौद्ध एवं जैन धर्म दोनों ब्रह्मणेत्तर या ब्राह्मण विरोधी सिद्ध हुए।7 जैन और बौद्ध धर्म को जनसाधारण का समर्थन प्राप्त हुआ और यह संपूर्ण देश पर छा गए। परंतु जब वे भी आचरण के क्षेत्र में पतित्त होने लगे तो एक नई स्थिति उत्पन्न हुई।

गुप्त काल में भागवत धर्म और पौराणिक धर्म का पूर्णरूप से विकास हुआ उनमें केवल भक्ति के द्वारा ही ईश्वर प्राप्ति संभव थी। ज्ञान और कर्म का महत्व अब काम हो गया भागवत संप्रदाय में प्राचीन वैदिक देवताओं और उनकी पारंपरिक कथाओं को कुछ परिवर्तन और परिवर्धन के साथ प्रस्तुत किया गया, और इन  मूर्तियों को नए ढंग से संवारा गया।8 भक्ति के विकसित स्वरूप को सर्वसाधारण में प्रसारित करने का श्रेय श्रीमद्भगवद्गीता को है। गीता भक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय ग्रंथ है जिसकी प्रेरणा से मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को बहुत सहायता मिली थी। इसमें वैष्णव धर्म के जन्मदाता भगवान श्री कृष्ण ने वैदिक धर्म में  अपेक्षित सुधार करके भक्ति, कर्म, एवं ज्ञान का समन्वय करते हुए एक नूतन धार्मिक संप्रदाय का प्रवर्तन किया। गीता के अध्याय बारह में भक्ति का विवेचन किया गया है। इसमें प्रेम से परिपूर्ण निष्काम कर्म की अति प्रशंसा की गई है।9 वास्तव में गीता का सिद्धांत यही है कि जीवों को भगवान के चरणों में ही अपने चंचल चित्त को केंद्रित करना चाहिए, उसे भगवान का ही भजन, पूजन एवं नमन करना चाहिए। ऐसा करने से वह भगवान को प्राप्त करेगा।10 सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि भगवान श्री कृष्ण ने कहीं भी वेदों एवं उनके देवताओं तथा उनकी उपासना पद्धति पर प्रहार नहीं किया। वस्तुतः गीता में प्राचीन भक्ति मार्ग के परिष्कृत रूप भागवत धर्म का ही विवेचन हुआ है।11 किन्तु भागवत धर्म में ब्राह्मणों का एक आधिपत्य बना रहा और जनसाधारण को धार्मिक क्षेत्र में कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सका। चातुर्वर्ण व्यवस्था के कारण धर्म पर उच्च वर्ण के अल्पसंख्यकों का अधिकार बना रहा। इसी युग में धार्मिक क्षेत्र में भागवत धर्म को सर्वसामान्य के लिए उपयुक्त तथा धर्म के साधन पक्ष को सुगम, सुलभ और आकर्षक बनाने हेतु इसके व्यापक क्षेत्र में सुधार लाने की मांग हुई। इस धार्मिक परिष्कार और पुनरुत्थान की पूर्ति के लिए दक्षिण भारत के तमिल प्रदेश के आलवार एवं नयनार संतों ने भक्ति आंदोलन प्रारंभ किया। आलवार एवं नयनार संतों ने धर्म के साधन पक्ष भक्ति मार्ग को सभी के लिए उपलब्ध बनाने के साथ ही शास्त्रों की भक्ति को भावात्मक रूप प्रदान किया। भक्ति आंदोलन के इतिहास में यह सर्वप्रमुख घटना थी।12

आलवार एवं नयनार संत और उनकी भक्ति- छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर दसवीं शताब्दी तक के काल में दक्षिण भारत के वैष्णव आलवार एवं शैव नयनार संतों ने भक्ति के दुसरे पक्ष अर्थात् जिसमें इन संतों ने अपने आराध्य के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति का विधान है, पर बल दिया। पल्लव शासकों के काल में तमिल प्रदेश से आरम्भ होकर भक्ति आन्दोलन दक्षिणी तमिल प्रदेश में पांड्य राज्य एवं केरल में चेर राज्य समेत सम्पूर्ण दक्षिण भारत में फ़ैल गया। इस आंदोलन की बहुत सी नवीन विशेषताएं और ऐसे आकर्षक तत्व थे जिनके कारण भक्ति आंदोलन व्यापक जन आंदोलन का रूप धारण कर सका। इसका प्रचार-प्रसार बहुत सारे लोकप्रिय संतों ने किया जिन्हें आलवार अथवा नयनार (शिवभक्त संत) एवं आलवार (विष्णुभक्त संत) कहा जाता था। इन संतों में केवल ब्राह्मण ही नहीं, अपितु निम्न जातियों के भी कई संत थे। उनमें अंडाल नामक एक महिला संत भी थीं। जिन्होंने कहा कि ईश्वर के साथ भक्त का संबंध अपने पति के साथ स्नेहिल पत्नी के संबंध जैसा होता है। संतों के विस्तृत आधार वाले चरित्र के कारण यह स्पष्ट हो गया की प्रेम पूर्ण भक्ति का उनका संदेश किसी एक वर्ग के निमित्त नहीं था, अपितु उसे सभी लोग ग्रहण कर सकते थे, भले ही उनकी जाति, परिवार अथवा लिंग जो भी हो। अत: इस आंदोलन का दृष्टिकोण समतावादी था जिसमें जाति भेद का कोई स्थान नहीं था।13

वैष्णव आलवार एवं शैव नयनार संतों के विचार में अनेक बातों में समानता थी, उन दोनों का उद्देश्य मूलतः एक ही था। वह यह था कि नास्तिक विचारों का सामना करना और आस्तिक विचारों का प्रतिपादन कर जनता में वास्तविक भक्ति भावना का जागरण कराना। इसके लिए दोनों ने तमिल में ऐसे साहित्य का निर्माण किया जो उच्च कोटि के भक्तिभाव से ओत-प्रोत है।14 आलवार एवं नयनार संतों ने सबसे पहले जो महत्वपूर्ण कार्य किया वह था, पूर्व प्रचलित भक्ति परंपरा में उपलब्ध भक्ति का सरलीकृत रूप प्रस्तुत करना। आलवारों के पूर्व वैष्णव भक्ति आंदोलन का जो रूप दिखाई देता है, उसमें भक्ति का सुगम व्यावहारिक रूप नहीं था। वैदिक धर्म में यज्ञादि की जो व्यवस्था थी, वह जनसामान्य के लिए साध्य नहीं थीं, गीता में भक्ति का सरल मार्ग तो प्रतिपादित किया गया था परन्तु ब्राह्मणों ने अपने प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए उसका प्रसार  जनसाधारण में नहीं किया। आलवारों ने वेद, उपनिषद और गीता से विचार ग्रहण कर भक्ति का सहज एवं सरलतम रूप जनता के सम्मुख रखा। उसमें कर्मकांड और ज्ञान मार्ग की कठिनाई नहीं थी, वैदिक भक्ति के स्वरूप को सुधार कर पहली बार उसको उसे सबके लिए सुलभ, साध्य एवं भावमूलक रूप आलवार भक्तों ने ही दिया।15

 वैष्णव आलवार एवं शैव नयनार संतों ने भक्ति आंदोलन को व्यापक रूप देने के निमित्त जनमानस की भाषा में ही अपनी विचारधारा का व्यापक प्रचार किया था। वैदिक धर्म का धार्मिक साहित्य जो संस्कृत में था, वह जनसामान्य की पहुंच से दूर था। आलवार एवं नयनार संतों ने जनहित के लिए अपने भक्ति साहित्य का निर्माण जनसाधारण की भाषा तमिल में किया, जिससे जनता उनकी विचारधारा से परिचित हो सकी और उनके भक्ति काव्य का व्यापक प्रचार-प्रसार हो सका। हृदय को द्रवित कर देने वाली भक्ति भावना को प्रकट करने के लिए तमिल भाषा में पर्याप्त सुविधा थी और अपने भावमय गीतों से जनता को मंत्रमुग्ध कर देने की शक्ति उन भक्तों की तमिल शैली में थी। संस्कृत में वेद का जो स्थान है, वही इन आलवार भक्तों के गीतों को तमिल प्रदेश में दिया जाने लगा। आलवार एवं नयनारों का भक्ति साहित्य पूर्ण रूप से गेय था। गेय होने के कारण इन संत कवियों के गीतों ने सर्वसाधारण को बहुत अधिक प्रभावित किया। इन भक्तों की जीवनियों से पता चलता है कि यें भक्त विभिन्न स्थानों में जाकर अपने भक्ति गीत गाते थे और जनता में भक्तिभाव जागाते थे, उनके पदों को सुनकर और गाकर जनमानस भी आत्मविभोर  हो जाते थे, इसका परिणाम यह हुआ कि भक्ति आंदोलन से सर्वसाधारण जुड़ने लगा था।16

 आलवार एवं नयनार संत कवियों ने अपनी भक्ति के प्रचार में गेय पद्धति को अपनाकर जनमानस में एक नवीन उन्मेष का संचार कर दिया था, यह महत्वपूर्ण है कि भक्ति आंदोलन को व्यापक रूप प्रदान करने में वैष्णव और शैव भक्तों के गीतों ने बड़ा सहयोग दिया था।17 यह भी उल्लेखनीय है कि परवर्ती समय में भी भक्ति साहित्य के गेय होने के कारण भक्ति को आंदोलनात्मक रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आलवारों ने विशेषरूप से लोकगीतों की शैलियों को अपनाया था।18 इसी कारणवश भक्ति गीतों का जनमानस पर अत्यधिक प्रभाव हुआ। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि लोकगीतों में जनसामान्य के हृदय को आसानी से  द्रवित एवं वशीभूत करने की जो शक्ति होती है। आलवार भक्तों ने भक्ति आंदोलन के प्रचार के लिए विशेष रूप से लोक शैली में जिन भक्तिमय गीतों की रचना कि उनका गायन आज भी विभिन्न धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर किया जाता है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को आलवार एवं नयनार संतों से ही प्रेरणा प्राप्त हुई थी।19

 मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को व्यापक जनआंदोलन का रूप देने में दक्षिण के मंदिरों का भी पर्याप्त योगदान रहा है। मंदिर ही एक ऐसा स्थान है, जहां भक्तिमय वातावरण सहज एवं सरलतापूर्वक उत्पन्न किया जा सकता है। तमिल प्रदेश की इस विरासत ने भक्ति आंदोलन के युग में धार्मिक वातावरण को बनाए रखने में बहुत सहायता की। आलवार और नयनार संतों ने भक्ति के सगुण रूप पर ही अधिक बल दिया था, आराध्य भगवान के विविध रूपों को स्वीकार करते हुए भी इन्होंने जनसाधारण की भक्ति के लिए भगवान विविध रूपों को सरल एवं सुलभ बनाया। यें स्वयं मंदिरों में जाकर उनमें उपस्थित देवमूर्तियों के दर्शन करते और भजन-कीर्तन करके आत्मविभोर हो जाते थे। इनके साथ बड़ी संख्या में उनके शिष्य और भक्त रहते थे, जो विविध स्थानों में जाकर भक्ति का प्रचार करते और आलवारों और नयनारों के द्वारा रचित भक्ति गीतों को गाया करते थे।20 मंदिरों में जाकर भगवान के दर्शन करना, भगवान की सेवा में उपस्थित होना, सामूहिक रूप से भजन-कीर्तन आदि करना भक्ति आंदोलन को आलवारों और नयनारों की महत्वपूर्ण देन है।

मध्यकालीन भक्ति आंदोलन को प्रेरणा प्राप्त होने का एक प्रमुख कारण यह भी था कि आलवार और नयनार संतों ने जाति-पांति और ऊँच-नीच के भेद-भाव को भूलकर सबको समान रूप से भक्ति मार्ग में भाग लेने का अधिकार घोषित किया था। इन्होंने शूद्रों के साथ-साथ नारियों को भी भक्ति मार्ग में प्रविष्ट होने का अवसर दिया और भक्ति मार्ग में सबका समान अधिकार घोषित किया। इन्होंने केवल घोषणा ही नहीं कि बल्कि अपने स्वयं के जीवन के आदर्शों से इस तथ्य का निरूपण भी किया कि कोई उच्च वर्ग के कारण बड़ा नहीं बनता अपितु अटूट भक्ति के कारण ही श्रेष्ठ समझा जाता है। भक्ति आंदोलन के संतों ने स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच तथा वर्ग विभेद को मिटाकर सबको समान मानने की घोषणा कर दी थी, यह भारतीय सामाजिक जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना थी।

निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है की भक्ति की जो लहर उत्तर भारत में 14वीं शताब्दी के बाद दिखाई पड़ती है, उसका प्रेरणा स्रोत दक्षिण की वैष्णव एवं शैव भक्ति में है। दक्षिण में यह परंपरा बहुत प्राचीन काल से आलवार और नयनार सम्प्रदायों के रूप में प्रतिष्ठित थी। उत्तरी भारत में जो पौराणिक भक्ति भावना पहले से ही विद्यमान थी वह दक्षिण भारतीय भक्ति के समपर्क में आकर शक्तिशाली रूप में प्रकट हुई। धीरे-धीरे बहुअवतारवाद ने जोर पकड़ा और एकांतिक प्रेम साधना का प्रचार हुआ। भजन, कीर्तन, नाम स्मरण इत्यादि को भक्ति का साधन बनाकर उन्होंने भक्ति आंदोलन को ऐसा भाव मूलक रूप प्रदान किया जो उस युग के लिए बहुत ही अनुकूल था। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आज वैष्णव एवं शैव धर्म का जो रूप दृष्टिगोचर होता है वह रूप देने का पूरा-पूरा श्रेय आलवार और नयनार संतों को ही है।


संदर्भ :

  1. डॉ. नगेन्द्र : हिंदी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, 1973, पृ.71
  2. गिरि, महेशानन्द (अनु.) : श्वेताश्वेतर उपनिषद, श्री दक्षिणामूर्ति मठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1975, 6/33
  3. चन्द्र, सतीश : मध्यकालीन भारत सल्तनत से मुग़ल काल तक (दिल्ली सल्तनत 1206-1526), जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, नई दिल्ली, 2000, पृ. 252
  4. डॉ. नगेन्द्र, पूर्वोक्त, पृ.71
  5. मोहम्मद, डॉ. मलिक : वैष्णव भक्ति आन्दोलन का अध्ययन, राजपाल एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 1971, पृ.13
  6. वैद्य, सी. वी. : हिस्ट्री ऑफ़ मेडियवल हिन्दू इंडिया, दी ओरिएण्टल बुक एजेंसी, पूना सिटी, 1921, पृ.102
  7. भटनागर एवं शुक्ला : मध्यकालीन भारतीय संस्कृति का इतिहास, भाग-1, रतन प्रकाशन मंदिर, आगरा 1979, पृ.290
  8. वही, पृ.302
  9. श्रीमद्भगवद्गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर, 1993, 12/17

10.   वही, 9/34

11.   वही, 10/20-21

12.   भटनागर तथा शुक्ला : पूर्वोक्त, पृ.303

13.   चन्द्र, सतीश : पूर्वोक्त, पृ.252-253

14.   मोहम्मद, डॉ. मलिक : पूर्वोक्त, पृ.95

15.   आयंगर, डॉ. एस. कृष्णा स्वामी : हिस्ट्री ऑफ़ तिरुपति, भाग-1, पृ.73–74

16.   मोहम्मद, डॉ. मलिक : पूर्वोक्त, पृ.97

17.   मजुमदार, आर.सी. : दि हिस्ट्री ऑफ़ दि इंडियन पीपुल, भाग-5, भारतीय विद्या भवन, बम्बई, प्रथम संस्करण, 1957, पृ.408

18.   मोहम्मद, डॉ. मलिक : आलवारों भक्तो का तमिल प्रबन्धम और हिंदी कृष्ण-काव्य, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, 1964, पृ. 424-425

19.   उपाध्याय हरिऔध, पंडित अयोध्या सिंह : हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, किताब महल, इलाहाबाद, 1958, पृ.218

20.   पिल्लई, प्रो.एस. वैयापुरी : हिस्ट्री ऑफ़ तमिल लैंग्वेज एंड लिटरेचर, न्यू सेंचुरी बुक हाउस, 1956, पृ.102   

 


डॉ. प्रशान्त कुमार एवं डॉ. अजीत कुमार राव
सहायक आचार्य, इतिहास विभाग, हर्ष विद्या मन्दिर (पी.जी.) कॉलेज, रायसी, हरिद्वार, उत्तराखण्ड-247671
prashantkumar.hvmpg@gmail.com


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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