शोध आलेख : लोकमानस में राम और रामकथा वाचक / दीपांशु पाठक

लोकमानस में राम और रामकथा वाचक
 - दीपांशु पाठक


शोध सार : भारत में जितना महत्व राम का है उससे कहीं अधिक महत्व रामकथा का है। तुलसीदास कहते भी हैं-


हरि अनंत हरि कथा अनंता कहि सुनहि बहु बिधि सब संता


            रामकथा भारत में अनंत वर्षों से कही जा रही है और विभिन्न प्रकार से कही जा रही है और इसका माध्यम भारत भर में कथावाचक रहे हैं जिन्होंने रामकथा को शास्त्रों से निकाल कर लोकजीवन में स्थापित कर दिया है। रामकथा वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास से होते हुए आज के कथावाचकों तक पहुंची है। रामकथा का आज के जनमानस में जो प्रचार और प्रसार हुआ है उसमें महत्वपूर्ण योगदान कथावाचकों का रहा है। साहित्य की दृष्टि वाल्मीकि,कंबन और तुलसीदास पर तो गई पर इसका प्रचार-प्रसार लोकमानस में करने वाले कथावाचकों पर कभी नहीं गई,जो कि जनमानस में गहरी पहुंच रखते हैं। तुलसीदास कहते भी हैं कि यह कथा मंगल की कथा है....

मंगल भवन अमंगल हारी उमा सहित जेहि जपत त्रिपुरारी


            इस मंगल कथा को भारतीय जनमानस में पहुंचाने का कार्य कथावाचकों ने किया है। राम श्रद्धा के साथ साथ इस देश की संस्कृति के आधार हैं। राम का जीवन विभिन्न आयामों से होकर गुजरता है। एक पुत्र के रूप में, एक भाई के रूप में, एक राजा के रूप में,एक तपस्वी के रूप में, एक मित्र के रूप में या जीवन के किसी भी रूप में राम का अनुशीलन किया जा सकता है। जिस प्रकार एक बात कहने के कई तरीके होते हैं ऐसे ही रामकथा कहने की कई परंपराएं हैं। उन सभी परंपराओ का यदि हम अध्ययन करते हैं तो हम पाते हैं कि रामकथा को किताबों से निकालकर आमजन तक उनकी ही भाषा बोली में उनके ही लोगों के द्वारा उनके ही सामाजिक संस्कारों को दर्शाते हुए रामकथा लोकमानस तक पहुंची।

बीज शब्द : राम, लोक, लोकमानस, तुलसीदास, कथावाचक, रामलीला, रामकथावाचक, रामभद्राचार्य, मोरारी बापू, राजनजी महाराज, प्रेमभूषण, समाज, संस्कृति, लोकसाहित्य

मूल आलेख : लोक का संबंध लिखित सामग्री की बजाए सुनने से है। आज हमें ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरों तक हर क्षेत्र में रामकथा को कहने सुनने वाले मिल ही जाते हैं। लोक के राम भाषा के माध्यम से लोगों की दिनचर्या का हिस्सा हैं। ये हिस्सा ऐसा भाग है जो लोकमानस के भीतर पानी की धार की तरह बह रहा है। यह हम सब जानते और मानते भी हैं कि भाषा संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। संस्कृति के मूल्यों को, विश्वासों को, परंपरा को और रीति- रिवाजों को अपने भीतर सँजो कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुंचाने का काम करती है भाषा। यह वह साधन है जिसके द्वारा संस्कृति पल्लवित होती है। अब भाषा भी कई स्तरों को अपने अंदर समाहित करके चलती है। भाषा के अंग के रूप में जहां शब्द होते हैं, वहीं शब्दों का मर्म और उन शब्दों को जीवित करने की ज़िम्मेदारी अर्थ की होती है। शब्द गढ़े जाते हैं संबंधित समाज द्वारा और उसमें अर्थ भरता है लोक। लोक मानस में जो कथा, चरित्र जिस रूप में बैठ जाता है, शब्दों के अर्थ उसमें उसी तरह से भरने का काम करते हैं। यहाँ हम बात कर रहे हैं शब्दरामकी। राम लोक मानस में तो हैं ही, साथ ही लोक- व्यवहार का एक अभिन्न हिस्सा भी हैं। बात जब लोक व्यवहार की हो रही है तब जाहिर सी बात है, यह बात लोक व्यवहार की भाषा की हो रही है। भाषा मेंरामशब्द की उपस्थिति कहाँ- कहाँ है, इसको देखा जा सकता है। लोक मानस शास्त्र के नियम से बिलकुल अलग है। लोक जगत की अपनी अलग शैली होती है यहां शास्त्र से अधिक लोक में व्याप्त सामाजिक संस्कारों की झलक अधिक होती। लोक मानस में राम एक तरफ मर्यादा पुरषोत्तम राम है तो दूसरी तरह वे परम ब्रह्म परमेश्वर है बाबा तुलसीदास कहते हैं -


होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
 को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
 अस कहि लगे जपन हरिनामा।
गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥


            तुलसीदास ऐसा शिव के माध्यम से कहलवाते हैं कि होगा वही जो राम को मंजूर होगा। आप ईश्वर को ऐसे ही देखेगे जैसा आप का विश्वास होगा अगर आप का विश्वास है राम लोक के राम है साधारण मनुष्य है तो वे साधारण मनुष्य और आप के नजर में अगर ये वे परम ब्रह्म है तो वे परमब्रहा है। एक तरफ राम जहां परमब्रह्म परमेश्वर हैं वहीं दूसरी तरफ आम जनमानस में राम एक सामान्य मनुष्य है जो भाई के लिए रोते है,पिता के लिए रोते है।लोकमानस में राम ईश्वर होते हुए भी जब जन्म लेते हैं तब उन्हें शिशु के रूप में देखा जाता है। उनके जन्म लेते ही राजा दशरथ के राज्य में खुशियों की लहर दौड़ जाती है, जैसे आम जनमानस में बालक के होते ही सोहर गाया जाता है ऐसे ही राम के होते ही राजा दशरथ के दरबार में सोहर के रूप में मंगल गीत गाए जाते हैं। इस प्रसंग का गायन कथावाचक राजनजी महाराज आज के कथा वाचक लोकशैली को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार गाते हैं -


अइसन मनोहर मंगल मूरत
 सुहावन सुंदर सूरत नू हो
राजा जी एकरे तो रहल जरूरत
महूरत खूबसूरत हो
 
हमरा जनाता बबुआ GM होइह
तो डीएम होइह हो
ललना हिन्द के सितारा तो सीएम होइह
उसे ऊपर पीएम होइह हो
 
रामभद्राचार्य मोरारी बापू
राजेश्वरानंद
प्रेमभूषण जी महाराज
राजन जी महाराज
रामकिंकर उपाध्याय

 

            ऐसे ही श्री राम जब विवाह के मंडप में जाते हैं तो उन्हें ईश्वर की जगह दूल्हे के रूप में देखा जाता है और आज के कथावाचकों द्वारा इसे गीत के रूप में इस प्रकार गाया जाता है।


आज मिथिला नगरिया निहाल सखिया,
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखिया।।
 
शेषमणि मोरिया कुंडल सोहे कनुआ,
कारी कारी कजरारी जुल्मी नयनवा,
लाल चंदन सोहे इनके भाल सखियां,
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखिया।।
 
श्यामल श्यामल गोरे-गोरे जुड़िया जहान रे,
अखियां ने देख ली नी सुन ली ना कान रे,
जुगे जुगे जीबे जोड़ी बेमिसाल सखिया,
चारों दूल्हा में बड़का कमाल सखिया।।

 

            इन सभी कथावाचकों के कथा कहने की शैली का भारतीय जनमानस में रामकथा पहुंचाने का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जो लोकगीत विलुप्त हो रहे थे इन कथावाचकों ने अपनी कहन शैली के माध्यम से उन्हें पुनर्जीवित किया है। जहां समाज में बर्बरता फैल रही है वहां अपनी कथा वाचन शैली से ये कथा वाचक प्रेम का पाठ पढ़ा रहे हैं। अपनी कथा में कहानियों को जोड़ कर ये कथावाचक रामकथा को लोकरुचि के माध्यम से जनमानस तक पहुंचा रहे हैं। आज व्यक्ति सबके साथ रहते हुए भी अकेला है वह चाह रहा है कि उसका कोई साथ दे, उसका कोई मार्गदर्शन करे। इस मार्गदर्शन का कार्य रामकथावाचक रामकथा के माध्यम से कर रहे हैं। व्यक्ति यदि इन कथावाचकों के कथा समागमों में जाता है या किसी प्रकार से इनकी कथा को सुनता है तो कुछ कुछ संस्कार वह लेकर ही लौटता है। वे सीख कर जाता है कि पिता के साथ कैसे रहना है, मां सीख के जाती है बच्चों को किस प्रकार के संस्कार देने हैं, भाई सीख के जाता है कि भाई से प्रेम कैसे करना है, मित्र सीख के जाता है कि मित्र से व्यवहार कैसे रखना है, तपस्वी सीख के जाता है कि तपस्या का वास्तविक महत्व क्या है तथा इसके क्या मायने हैं। व्यक्ति यहां ये सीख के जाता है कि त्याग और समर्पण के क्या अर्थ हैं। यह सभी कुछ भारतीय जनमानस को देने का कार्य ये सभी कथावाचक कर रहे है।

            भगवान श्रीराम परमात्मा होते हुए भी लोकमानस के राम हैं। जैसे लोक में एक प्रेमी या एक पति अपनी प्रेमिका या अपनी पत्नी के जाने के बाद दुख व्यक्त करता है ऐसे ही लोक के राम मां सीता का हरण हो जाने पर रोते हैं और पेड़ पौधों और समस्त प्रकृति से पूछते हैं- "हे खग मृग मधुकर श्रेणी तुम देखी सीता मृगनयनी" लोक के राम भी सीता को उतनी ही व्याकुलता से ढूंढ़ते हैं जैसे कोई आम व्यक्ति अपनी पत्नी से बिछड़ जाने पर व्याकुल होगा।

            रामकथा वाचक राम के माध्यम से जीवन शैली, संस्कृति, संस्कार, प्रेम, भावनात्मक जीवन सिखा रहे हैं जो कि आधुनिक समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। 140 करोड़ जनता को कैसे रहना चाहिये, कैसे चलना चाहिए, मानसिक संतुलन कैसा होना चाहिए, धैर्य कैसे रखना, विनम्र कैसे बने रहना है, लक्ष्य के प्रति समर्पित कैसे होना है, त्याग कैसे करना है,,ये सभी संस्कार भारतीय जनमानस में रामकथा वाचकों के माध्यम से पहुंच रहे हैं।

            राम ईश्वर होते हुए भी लोक के राम हैं।जैसे उनके प्रगट होने पर एक ओर तो गाया जाता है भए प्रगट कृपाला दीनदयाला, कौसल्या हितकारी वहीं लोक जीवन में प्रभु के प्रगटीकरण में सोहर भी गाया जाता है। जैसे आज गांव देहातों में किसी पुरुष के विवाह पर गीत गाए जाते हैं ऐसे ही आज के कथा वाचक राम विवाह के प्रसंग को किसी क्षेत्र विशेष के सामाजिक संस्कार से जोड़ देते हैं। ऐसे ही रामकथा में आए सभी प्रसंग कथावाचक सीधा लोगों से तथा उनकी भाषा से जोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए कथाकार कुमार विश्वास रामकथा में आए भरत राम के मिलन के प्रसंग को बताते हुए कहते हैं कि ... जब राम चित्रकूट जाने लगते हैं तो वनदेवी से आग्रह करने लगते हैं कि हे!वनदेवी यहां आते हुए जो कांटे मेरे पैरों में चुभे हैं उन्हें धरती में समा लीजिएगा। ये सुनकर वनदेवी कहती हैं क्या रघुवंश कुल में इतने सरल और कोमल लोग जन्म लेते हैं जो कांटों की पीड़ा भी नहीं सह सकते। ये सुन राम कहते हैं कि हे मां मेरा एक भाई है भरत वो कुछ दिनों में मुझे खोजता हुआ नंगे पैर इन्हीं रास्तों से आएगा वह इतना कोमल तो नहीं लेकिन जब उस बावले को ये पता चलेगा कि भैया के पैरों में भी ये कांटे चुभे होंगे तो उसका हृदय दर्द से फट जाएगा।इस कारण कृपा कर आप ये कांटे अपने भीतर समा लीजिएगा। ये बात ईश्वर नहीं एक लोक के राम ही कह सकते हैं। एक अन्य प्रसंग जिसमें लक्ष्मण को शक्ति लगती है जिसका वर्णन तुलसी ने बड़े मार्मिक ढ़ंग से किया है इसी प्रसंग का वर्णन जब कथावाचकों ने अपनी शैली में किया तो ये मार्मिक होने के साथ ही लोगों में रच बस गया। इसी प्रसंग का एक चित्रण राधाश्याम कथावाचक ने किया है जो कि लोकमानस में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। ......


क्यों काल कहीं पर सोया है
क्यों मौत नहीं जाती है,
क्यों प्रलय नहीं दिखती नभ में,
क्यों धरा ये फट जाती है,
क्यों राम अभी तक जीवित है,
क्यों लखन नहीं कुछ कहता है,
गोद पड़े हैं अनुज कहो कुछ,
कैसे मानस दुख सहता है,
तुम बिन सूर्य उगेगा कैसे,
तुम बिन ये शाम ढलेगी क्या,
सीता को क्या बतलाऊंगा,
तुम बिन वो महल चलेगी क्या,
हनुमत क्या पाप किया मैंने,
विपदाएं क्यों जाती हैं,

 

            ये विलाप किसी ईश्वरीय राम का नहीं है ये तो लोक के राम का है।  विलाप में राम कहते हैं मैं बड़ा अभागा हूं वन आते हुए पिता जी का स्वर्गवास हो गया, मेरी प्रिया सीता का हरण हो गया और अब जब संकट की घड़ी में मेरा भाई साथ में था तो अब वह भी मुझसे बिछड़ा जा रहा है, मैं कितना अभागा हूं ये एक साधारण मनुष्य ही कह सकता है इसलिए परमपिता परमेश्वर होते हुए भी राम लोक के राम है।

            रामकथा के विकास में कथावाचकों की भूमिका ठीक उन डाकियों के समान है जो लोगों तक खत पहुंचाते हैं। कथावाचक उस डाकिए का कार्य कर रहे हैं जो पूज्य गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं। कथावाचक कथा कहते हुए राम के जीवन के प्रसंगों को कहने के लिए और भी मनोरंजित बना रहे हैं। कथावाचक राजेश्वरानंद चाहे केवट की कहानी सुनाते हों या कुमार विश्वास राम और भरत के प्रेम की कथा सुनाते हों या फिर मुरारी बापू शेरों-शायरी को गाकर कथा में लाते हों चाहे राजन महाराज और प्रेमभूषण जी महाराज द्वारा सोहर का गीत और कजरी गाई जाती हो ये सब लोकमानस से जुड़ने का प्रभाव है जो आज रामकथा जन-जन तक उनकी ही भाषा सामाजिक संस्कारों में उन तक रोचक ढंग से पहुंची हो ये सभी प्रयोग कथावाचकों ने स्वयं किए हैं। ये कथा वाचक देश ही में नहीं विदेशों में भी रामकथा को गा रहे हैं। अभी हाल ही में मोरारी बापू को साऊदी अरब ने रामकथा कहने के लिए आमंत्रित किया था। ये दिखाता है कि रामकथा कथावाचकों के माध्यम से केवल प्रचारित की जा रही है बल्कि इस कथा का मर्म लोगों के लिए कैसे कल्याणकारी सिद्ध हो ये भी कथावाचक तय कर रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं -


"मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा चंदन तरु हरि संत समीरा॥"


            अर्थात् जिस प्रकार चंदन का वन कितना ही विशाल हो यदि हवा चले तो उसकी सुगंध से वृक्षों के गुणों से सभी सुधि जन वंचित रह जाएंगे। इसी प्रकार यदि ये कथावाचक होते तो हमारे लोकजीवन में या उस गांव के साधारण मनुष्य तक कथा कैसे पहुंचती जो ही हिंदी को पढ़ सकता है और ही शास्त्रों की गूढ़ बातों का सरलीकरण कर सकता है। कथावाचक रामचरितमानस में आए दर्शन सिद्धांत ए्वं गूढ़ चौपाईयों को सरल कर लोगों तक पहुंचा देते हैं उसे उन्हीं लोगों के सामाजिक संस्कारों से जोड़ देते हैं। ये कथावाचक आज के समय में उस वायु की तरह हैं जो चंदन के वृक्षों की सुगंध को लोगों तक पहुंचाते हैं और उनका कल्याण करते हैं। लोक के कथावाचको में मुख्य राधेश्याम कथावाचक भी रहे है उन्होंने पूरी राधेश्यामी रामायण लिखी जिससे पूरे अवध और पूर्वांचल में रामलीला खेली जाती है और राम को प्रदर्शित किया जाता है। राधेश्याम कथावाचक की मुख्य भूमिका रही है राम को लोक का राम बनाने में। राधेश्याम कथावाचक ने लोकमानस में राम को पहुंचाने का जो काम किया है शायद ही किसी कथावाचक ने किया हो।राधेश्याम कथावाचक ने जिस प्रकार मनुष्य जैसे राम को जनता तक पहुंचाया ये उनकी लिखी राधेश्यामी रामायण से ही संभव था। उन्ही की लिखी कथा पर रामलीला का मंचन संभव हो पाया। गांव से लेकर शहर तक के लोगों ने राम को नये रूप में जाना। गांव देहात में मंचित होने वाली रामलीला में राम का यह रूप उस साधारण मनुष्य जैसा है जो धैर्य,साहस और विनम्रता से कैसे साधारण मनुष्य ईश्वर की श्रेणी में जाता है।राधेश्याम रामायण में  एक दृश्य आता है जब राम को जाते हैं और वे मां कौशल्या से विदा लेने आते है महल के कक्ष में  मां कौशल्या के साथ सीता पहले से उपस्थिति रहती हैं और सीता रो रही हैं राम के वन गमन होने पर राम सीता से कहते हैं -


सीते,सीते,क्यों रोती हो क्या धरा वेदनाओं में है।
सुख दुख है एक समान, उन्हें बल जिनकी आत्माओं में है।
मैं जान रहा हूं पति वियोग तुम नहीं प्रिये, सह सकती हो।
फिर भी आत्मा में बल लाओ,बल होगा तो रह सकती हो।


आगे सीता कहती है--स्वामी मैं आप के बिना नहीं रह सकती श्री राम कहते है -


चलने को तो चल सकती हो ,पर भ्रमन तुम्हारे योग्य नही।
हे राजभवन की राजवधूवनगमन तुम्हारे योग्य नही।
यह कोमल तन,सुकुमार कहाँ ,वह कहाँ विपिन संकटमय है।
जिसमे वनचरों,राक्षसों का,व्यालों का, बाघों का भय है।


और फिर राम अपनी मां कौशल्या से कहते हैं -


मैया-मैया क्या बतलाऊं अब तो विचार ऐसा ही है
मुझको तो जैसा राजतिलक,वन जाना भी वैसा ही है
मुझसे भी अधिक चाकरी को,है भरत आपका दास यहां
दुख क्या है वन जा रहा एक, दूसरा पुत्र है पास यहां


            इस पूरे दृष्य में राम कोई परमब्रह्म नहीं हैं बल्कि वे आम जनमानस के राम हैं और राम के इस स्वरूप को जनमानस तक पहुंचाने का काम राधेश्याम कथावाचक ने किया है।

निष्कर्ष : भारतीय जनमानस में इन कथावाचकों के प्रभाव का अंदाजा इनके कथा पांडालों में जुटने वाले श्रोताओं से लगाया जा सकता है जिनकी संख्या लाखों में पहुंचती है।डिजिटल प्लेटफॉर्म पर इनकी कथा, इनके भजन के लाखों देखने सुनने वाले हैं।हिंदी सिनेमा के गाने की जगह इनके भजन पर रील्स बन रहे हैं। जो सोहर, कजरी, लोकगीत आदि विलुप्त हो गए थे वो इनकी कथा के माध्यम से आज घरों में गाए जा रहे हैं। रामकथा के माध्यम से छोटी-छोटी कहानिया प्रशिद्ध हो रही हैं जिसमें से राजेश्वरानंद जी की जज वाली कहानी, एकादशी की कहानी आदि लोगों का राम पर विश्वास और भी सुदृढ़ कर रहे हैं। इनकी कथाओं के माध्यम से राम एक साधारण मनुष्य भी हैं और राम ब्रह्म रूप भी हैं ये जनमानस तक पहुंच रहा है। वाल्मीकि और तुलसी की रामायण को सरल भाषा में भारतीय जनमानस से दुनिया के कोने कोने तक पहुंचाने का कार्य इन कथावाचकों द्वारा ही संभव हो पाया है।

संदर्भ :
1. रामचरितमानस-गोस्वामी तुलसीदास
2. राधेश्यामी रामायण-राधेश्याम कथावाचक
3. लोकवादी तुलसीदास- विश्वनाथ त्रिपाठी
4. तुलसी और मानवता- सुय्यं नारायण भट्ट,
5. यूट्यूब चैनल- राजनजी महाराज एवं अन्य राम कथावाचक

 

दीपांशु पाठक
सहायक प्राध्यापक, सत्यवती महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय
deepanshupathakdu@gmail.com 9911706135

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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