माणिक की सात कवितायेँ


आदिवासी-7











ये सातवें दिन के हाट भी गज़ब हैं
हाँ इकलौते बड़े ज़रिये हैं
मिलने-मिलाने
गीत गाते दुःख बिसराने के
रोचक साधन है खिलखिलाने के
साधनहीनों का मन बहलाने के
ज़रूरी साधन है हाट

मुलाकातों की ये पंचायत
देवीय उपहार सी लगती है
उन तमाम सांवले वनवासियों को
दे जाती है स्वप्न
रात काटने के लिए
थमा जाती है एक विषय
बतियाने-गपियाने का

उस दिन वे भूल जाते हैं
दम तोड़ते जंगल का रोना
नदी के पानी में फेक्ट्री के गंदे निकास का दर्द
घरों में भूखे मरते ढिंकड़े-पूंछड़े
भूल जाते हैं
बाँध बनने से खाली होती
उनकी अपनी बस्तियों की कराह

क्रोध को मुठ्ठियों में भींचे युवाओं को
उस रात
नज़र नहीं आते
थोक के भाव आरा मशीनों में कटते हुए पेड़
असल में
उत्साह के मारे थकी देह जल्दी सो जाती है
उस रात

उन्हें उस रात याद नहीं आता
पथरीली शक्ल का ठेकेदार
जो कम तोलकर कम देता है
मौड़े,अरण्डी,कणजे,तेंदू पत्तों का मोल
मजबूरी में मजूरी का आभास
खो जाता है उस रात

उन्हें सिर्फ याद रहता है क्रम
हाट के लगने और फिर उठने का
वे जानते हैं
उन्हें सोमवार को जाना है पृथ्वीपुरा
चूक गए तो मंगल का दिन घंटाली जाना पड़ेगा
ये भी न हुआ तो दूजे इलाके में
दानपुर का बुधवारिया हाट तो है ही

पढ़े लिखे स्कूली बच्चे तक जानते हैं
गुरुवार को अरनोद में मेला लगना है
औरतें शुक्रवार की बाट में हैं जहां
तेजपुर में वे गुदना गुदायेगी
उन्होंने मालुम है
काजल,टिक्की और लिपस्टिक का
एक बाज़ार ज़रूर लगेगा
उनकी काली देह के सजने-संवरने के लिए

वही व्यापारी,वही दुकाने
वही स्नेह,वही उधारी की सामान्य शर्ते
इस तरह कट जाता है
सात दिन का इंतज़ार
विश्वास और पहचान के सहारे

अरे हाँ विश्वास और भोलापन ही तो
इनके पास अवशेष है अब

शनि को सालमगढ़ और रवि को दलोट लगेगा
बिग बाज़ार की माफिक
उनकी दुनिया में एक मेला
जहां फिर से
सबकुछ बिकेगा
सब्जी भाजी से लेकर मायरे-मुंडन के सामान
शादी-मोसर से जुड़े कपड़े-लथ्थे
सब सब सब

सच बोलेन तो
हाट से पैदा ये आनंद और उल्लास
इन्हीं की किस्मत में हैं
मुआफ़ करना
आपको कसम है
इनके इतने से उल्लास पर
नज़र पर मत लगाना
आपकी अब तक की बाकी करतूतों की तरह

आदिवासी-8









हमारा 'मौन' ,हमारी 'मेहनत'
सब शोध का विषय है
विषय होना चाहिए
हमारी स्थिरता,विवशता
हमारे जीवन की तरह
अब तक
हाशिये पर दर्ज हमारे बयान
पढ़े जाने चाहिए
किसी नए चश्मे से

जाने क्यों
टुकुर-टुकुर देखते हैं सब हमें
निगाहें टिकी रहती हैं हम पर
देर तक
चुपचाप जीवन खरचते है
हम लोग
कभी बाँसवाड़ा,कभी धार
या फिर
बस्तर की बस्तियों में
रहते हैं हम बिना हँसे
दिनों तक टेंशनशुदा
अजीब ढाढ़सबंधे लोग हैं हम
मगर तुन्हें इससे क्या?

कभी सोचना फुरसत में
कि हमारी चीखें
अब तक अनसुनी क्यों रही

जो दिल्ली के रास्ते निकली थी रैलीनुमा
बहुतों बार
बहला फुसला कर
दिशाभ्रमित कर दी गयी
कहाँ और किधर को
जो हैं आज तक लापता

चीखें जो कभी दंतेवाड़ा से निकली
कभी लीकेज हुई
बेतुल के बियावान से
कभी निकलने की सोच में ही खप गयी
बारां की सहरियाँप्रधान तहसीलों में
वे तमाम चीखें अंशत: अब भी मौजूद है
इस आकाश में
ग़र तुम सुनना चाहो तो

यक्ष प्रश्न है हमारा
कि लौट आयी वे तमाम चीखें
खाली हाथ
जो होकर निराश दिल्ली से
यूंही लौटती रहेगी
ग़र  हाँ तो कहो कब तक?

कितनी बार एक ही बयान देंगे
हम बार-बार रोयेंगे अपना रोना
कि
कई बार छले गए हम
हमारे भोले मन सहित
भाले गोपे गए
हमारी छातियों पर

कई बार सांप,गोयरे,बिच्छू रेंगे
घारे से लिपे हमारे आँगन में
हम कई बार मरे और जिए
खैर इससे तुम्हे क्या ?

डसे गए वे बच्चे हमारे ही थे
जो मरते मरते बचे कई बार
रातों में नींद नोचते
ठेकेदारों की गिरफ्त में
लुटे हम वक़्त-बेवक्त कई बार

मगर चुप रहे अक्सर
सही वक़्त की बाट में
हम न हिले न डुले
न तोड़ा अनुशासन कभी हमने
तुम्हारी तरह रोज़

सोचा कभी तो हिलोगे तुम
अपनी गद्दियों से
कभी तो डुलोगे अपने कुपथ से
झाँकोगे दांये-बांये
आखिर कभी तो


निरुत्तर
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स्कूल का हेंडपंप
थाले में पड़ी तगारी
हत्थे पर हाथ आजमाता दिनेस्या

इसी बीच मेरा एक अचूक प्रश्न
दिनेस्या की तरफ
उस और से आता
पीड़ादायक चेहरे  से नीचे उतरता
मजबूरी में सना लंबा उत्तर

नासाज तबियत के साथ पिताजी
नरेगा में खपती माँ
दो बड़े भाइयों की फैक्ट्री में दिहाड़ी
ठीक बड़े भाई का पिताजी की जगह
गाँव में जूते गांठने जाना
बहिनों का ससुराल चले जाना
भांजी का स्कूल चले जाना
बचे कुचे सारे काम मेरे ज़िम्में

गुरूजी आप तो जानते हों ना
घर-गुवाड़ और बकरी-बछड़ों के ख़याल से
आखिर यहीं रूकना पड़ता है मुझे

अब मत पूछना स्कूल क्यों नहीं आया
दिनों तक रहा गायब क्यों ?

बस मेरे निरुत्तर होने के लिए इतना काफी था
अब मैं उन बच्चों को सोच रहा था जो
रोज च्वनप्राश खाते हैं

पता लगाना ज़रूरी हैं
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लग रहा है
कुछ वक्त बिताना ही पड़ेगा
अकेले

नदी किनारे
या फिर
पहाड़ की किसी ऊंची चट्टान पर
टिके रह कुछ देर

कुछ ना हुआ तो
किसी बूढ़े दरख़्त की छाँव में
लेटकर दो घड़ी
आगे चलने के ठीक पहले
खुद में झांकना ही होगा

कि दोस्त 

अब
थाह लगाना बेहद आवश्यक हैं
दूर के निश्चय से ठीक पहले

हाँ अभी
कि कितनी बची है समझ खुद में
अवशेष है कितनी हिम्मत
और सफ़र में कौन साथ हैं हमारे

पता लगाना ज़रूरी हैं
कौन अभिनय में मगन हैं और
हैं कौन हाथ थामे
सच में साथ खड़ा हमारे



सब रूठ गए हैं 
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नदी,पहाड़,जंगल
सब रूठ गए हैं

इस जमात की करतूतों ने
फूँका है ज़हर इस कदर 
जहां में 

अब उत्तर दो 
जाएँ कहाँ भला हम ?
जीने की कला सीखने
मथने अपना मन
और 
उमंग खुद में सींचने
जाएँ कहाँ हम

माँ-पिताजी

उनके पास सब्र रखने के सिवाय 
अब कोई रास्ता भी तो नहीं रहा
अफसोस
वे मेरे आने का सिर्फ इंतज़ार ही कर सकते हैं 
वे दोनों के दोनों
खुद से ही पूछते होंगे बार बार मेरे आने की खबर
और फिर देर तक चुप हो जाते  होंगे

अनगिनत लोग गाँव के
ज़रूर पूछते होंगे मेरे बारे में उनसे
अरे हाँ
एक दूजे को बतलाने की परम्परा अब भी ज़िंदा है गांवों में 
कमोबेश ही सही
लोग अब भी
मुस्कराते हैं आते-जाते एक दूजे से

जाने क्या क्या बहाने साझा करते होंगे 
वे अपने पड़ौसी  दोस्तों के साथ
मेरे नहीं जा पाने पर

और मैं लफंगा 
यहाँ 
जाने किन अनजाने और कमज़रूरी कामों में
फंसा हुआ होकर खुशनसीब होने का ढोंग कर रहा हूँ

(मुआफी,साथियों ये कविता नहीं भावों के उदगार हैं/)

आयोजन 

अपने ही मित्र वक्ता होंगे
टोक देंगे अधबीच
जब भी मन भर जाएगा हमारा

अतिथि भी हमारी अपनी पसंद से हैं
माला,नारियल,तिलक,तमगे
दें या न दें
चल जाएगा

सादगी की हद है भाई
बोलने का मसौदा तक बदल देंगे अतिथियों का
अपनी मर्जी से
तो भी वे बेफ़र्क सजह रहेंगे

टेंट,कनात,कुर्सियां क्या
सब की सब
पसंद से तय की है हमने

नास्ते के मीनू से लेकर
साउण्ड-फाउंड
चाय-पानी के लौटे-गिलास
बैनर-झंडे
कार्ड-लिफ़ाफ़े

फोटो-विडियोग्राफी सरीखे
सारे धन्धफ़न्द
हमारी देखरेख में पूरे हुए हैं

आधी रोटी पर दाल लेते
श्रोता-दर्शक
छांट-छांट कर आमंत्रित किए हैं
हमने इस बार

इतनी आज़ादी
इतना उल्लाबुल्ला चबुतरा
किसी आयोजन का
इतना खुला आँगनभी हो सकता है
जाना है इन दिनों में पहली बार


                                                                
माणिक 
अध्यापक

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