पुस्तक समीक्षा:कोई तो रंग है: विनोद पदरज / डॉ रेणु व्यास

मई -2013 अंक (यह रचना पहली बार 'अपनी माटी' पर ही प्रकाशित हो रही है।)

                

                 विनोद पदरज
     कवि और बैंक में प्रबंधक हैं।
        फरवरी,उन्नीस सौ साठ में 
                       मलारना,
            सवाई माधोपुर में जन्म।
       इतिहास में में एम ए हैं।
कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और 
आकाशवाणी-दूरदर्शन से प्रसारित हैं।

सम्पर्क
3/137,हाउसिंग बोर्ड,सवाई माधोपुर,
राजस्थान
मो-09799369958
विनोद पदरज की कविताओं की पहली नज़र में देखी गई विशेषता एक शब्द में बतानी हो तो मैं कहूंगी - ‘मासूमियत’। निदा फाज़ली का एक शेर है -

‘‘मेरे दिल के किसी कोने में एक छोटा सा बच्चा 
बड़ों की देख कर दुनिया, बड़ा होने से डरता है’’

बड़ा होने का अर्थ केवल समझदार होना ही नहीं होता, कभी-कभी दुनियादार होना, साफ़ शब्दों में कहें तो मतलबी होना और किसी भी तरह के आदर्श और शुभत्व में आस्था खोना भी होता है। बच्चा होने का अर्थ आशा, आस्था और सहज विश्वास के साथ-साथ दूसरों के सुख-दुख में खुश या दुखी हो सकने की क्षमता भी है। निदा की तरह ही एक छोटा सा बच्चा विनोद पदरज की कविताओं में भी मौज़ूद है, जो ज़माने की तमाम विदू्रपताओं के बावज़ूद अपनी मासूमियत, सदाशयता और शुभत्व में अपने विश्वास, अर्थात् अपनी मनुष्यता को, बचाये हुए है। यही हम सबका मूल स्वरूप है जिसे बड़े होने पर हम काफ़ी हद तक खो देते हैं। ‘पिता और पेड़’ कविता में विनोद पदरज शुभत्व में अपनी इसी आस्था को व्यक्त करते हैं -

‘‘चारों तरफ लकड़हारे हैं
फिर भी पेड़ कहाँ हारे हैं।’’

एक ज़माना था जब कविता बुद्धि के आतंक से त्रस्त थी - चाहे वह प्रगतिवादी कविता हो, प्रयोगवादी या फिर नई कविता, सामाजिक सरोकारों को लक्ष्य रख कर लिखी गई हो या इनसे निरपेक्ष रह कर लिखी गई कविता। ‘यथार्थ’ और ‘अनुभूति की सच्चाई’ को अपनी कसौटी मानने के बावज़ूद उस दौर की अधिकांश कविताएँ जीवन के सीमित दायरे में बंधी रह गईं। अधिकांश कविताओं में यथार्थ से अर्थ किताबी यथार्थ हो गया - जिसमें बाहरी दुनिया से एकमात्र रिश्ता वर्ग-स्वार्थ या वर्ग-संघर्ष का था और भीतरी दुनिया का मतलब था कवि की अपनी अनास्था और कुंठाएँ। कविता के विषयों पर मानो विद्रूपताओं का एकाधिकार हो गया। यथार्थ का नाम लेते-लेते ये कविताएँ, यथार्थ से ही दूर होती गईं। 

मगर जीवन उतना एकरस और रंगहीन नहीं था। फिर एक दौर आया, जब कविता में पुनः रंगों की वापसी हुई। पेड़, नदी, पहाड़, चिड़िया, तितली, फूल, बच्चे, बूढ़े, हँसना, रोना - इन सभी की कविता में वापसी के साथ कविता में जीवन की वापसी हुई। विनोद पदरज के संकलन ‘कोई तो रंग है’, जीवन के इसी तरह के रंगों को बचाने का या यों कहें कि मनुष्य की बची हुई मनुष्यता को शब्द देने का प्रयास है।

‘अच्छे लोग’ कविता में मछुआरा, बिणजारा, चरवाहा मनुष्यों में इसी बची हुई मनुष्यता के प्रतिनिधि हैं। ‘नदी’ कविता में कवि का मासूम सा सवाल है -

‘‘पानी के उज्ज्वल इतिहास
और उसकी संभावनाओं से भरी
यह सूखी नदी
क्या नदी नहीं है ?
तो फिर हमारा घर
जो इसके पास है
किसके पास है ?
और हमारे खेत
जो इसके पार हैं
किसके पार हैं ?’’

शुक्ल जी ने ‘लोभ और प्रीति’ निबंध में लिखा है - बिना परिचय के प्रेम कैसा ? विनोद पदरज का परिचय है - नदी से, फूलों से, चिड़िया से, मधुमक्खी से, प्रकृति के हर कण से। यह गहरा लगाव, कवि की सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता के साथ ही जीवन के प्रति गहरे लगाव, गहरे प्रेम को भी प्रदर्शित करता है। जहाँ दरजिन चिड़िया को देख कर कवि को माँ की याद आती है, पेड़ को देख कर पिता की, नदी से दादी की और फूल को देख कर फूल सी बेटी की। प्रकृति उनके परिवार का हिस्सा भी है और जीवन को समझने के लिए दृष्टि भी इससे हासिल होती है। ‘यात्रा और पेड़’ कविता में ‘तिलिस्मी खोह’ यानी शहर जाते बेटे के विछोह में माँ और पिता की संवेदना में टेªन से पीछे छूटते पेड़ भी बराबर के शरीक हैं -

‘‘ट्रेन लगातार शहर की ओर दौड़ रही है
पेड़ गाँव की ओर दौड़ रहे हैं
मेरे बारे में उन तमाम सूचनाओं के साथ
जिनके लिए माँ चिंतित है।’’ 

निर्जीव पगदंडी भी कवि के लिए सजीव हो उठती है और इसके माध्यम से कवि बड़ी बात बहुत ही आसान तरीके से कह जाता है -

‘‘वह लोकतंत्र की तरह विद्रूप नहीं
हकीकत में पाँवों की सृष्टि है
पाँवों द्वारा, पाँवों के लिए
इसीलिए आदमी को 
चेहरे से नहीं
पाँवों से पहचानती है’’

‘दीवार’ फिल्म में छोटा भाई, बड़े भाई को सिर्फ यह कहकर परास्त कर देता है कि ‘‘मेरे पास माँ है’’। विनोद पदरज की कविताएँ खुशनसीब हैं कि उनके पास माँ भी है, पिता भी, दादी, पत्नी और बेटी भी है। पारिवारिक रिश्तों की गर्माहट को दर्शाती कविताएँ इनके रचनाकर्म का एक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। ‘सर्दियाँ’ दादी की याद लेकर आती हैं, तो ‘भाई की शादी में माँ’ कविता सालों पहले दुनिया छोड़ चुकी माँ को, उसकी ममता की उपस्थिति को महसूस करती है। कवि को बुद्ध की करुणा की उपमा माँ की मुस्कान में मिलती है। ‘बूढ़ा और बच्चा’ ‘पार्क में’, ‘बेटी के हाथ की रोटी’ भी इसी तरह की कविताएँ हैं। ‘गुदड़ी’ कविता में तो ‘गुदड़ी’ कवि के लिए रंग-बिरंगे कपड़ों का समवाय नहीं है, वह खुसरो और सूरदास समेत पूरी परंपरा की निशानी है, जो मोहनजोदड़ो के स्नानागार तक पीछे जा पहुंचती है।
प्रकृति और परिवार से प्रेम का अर्थ यह नहीं है कि कवि अपने आस-पास के परिवेश की विषमता से बेख़बर है। किंतु कवि की प्रगतिशील दृष्टि किसी विचारधारा-विशेष की बंधक नहीं है। ‘पणिहारी का नया गीत’ कवि की उस संवेदनशील दृष्टि को बताता है, जो पणिहारी के माथे पर धरे जेगड़ के बोझ को, दाझते पांवों के छालों, उसकी कामणगारी आँखों में घुमड़ती दुख की घटाओं को भी देख लेता है। ‘कैसे बचूँ’ कविता में सांप्रदायिकता के बड़े-बड़े प्रश्नों पर विचार करने के बजाए कवि की चिन्ता यह है कि ‘मोहन’ हो या ‘मतीन’, ‘हिन्दू’ हो या ‘मुसलमान’, वह ‘काफ़िर’ या ‘म्लेच्छ’ कहे जाने से कैसे बचे ? ‘मुम्बई’ कविता में इनकी यह टिप्पणी बड़ी मार्मिक है -

‘‘गाँवों में खेत हैं
खेतों में अन्न 
गाँवों में कुँए हैं
कुँओं में जल
गाँवों में वृक्ष हैं
वृक्षों पर फल
फिर भी रोटी ?
रोटी है मुम्बई में’’

‘सड़क बनाने वाले’ कविता में कवि की प्रगतिशील दृष्टि और भी साफ़ हो जाती है, जब वे चूल्हे की आग को ‘दुनिया की सबसे पवित्र और निर्मल आग’ कहते हैं और यह यक़ीन रखते हैं कि -

‘‘सड़कों पर मिट्टी बिछाते ये लोग
सड़कों पर गिट्टी कूटते ये लोग
सड़क तैयार होते ही
सड़क छोड़ देते हैं
और पहुँच जाते हैं वहाँ
जहाँ सड़क बननी शुरू होगी
मुझे यक़ीन है
जब भी सड़कें करवट लेंगी
वे ही सबसे आगे होंगे।’’

कविता की भाषा का जो आदर्श भवानी प्रसाद मिश्र ने दिया था - ‘‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख/ और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।’’ विनोद पदरज ने भी उसी आदर्श पर चलने की कोशिश की है। विनोद पदरज की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये जीवन की भाषा में लिखी गईं हैं। जिनमें राजस्थानी शब्दों के रूप में स्थानीय मिट्टी की गंध मौज़ूद है। ‘दाझना’, ‘निवाया’, ‘ठंडा टीप’, ‘आँटण पड़े हाथ’ इसके कुछ उदाहरण हैं। यद्यपि ‘‘नींद की चिड़िया बैठती है/ मेहनत के पेड़ पर’’ जैसी पंक्तियों में रूपक देखा जा सकता है, किन्तु मैं इन कविताओं में कोई अलंकार या कारीगरी ढूँढने की कोशिश नहीं करूंगी क्योंकि इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता - इनकी आडंबर-विहीनता है। कवि की संवेदनशील दृष्टि सामान्य में कुछ विशेष देखती है और इस मानसिक अभिव्यंजना को यथासंभव उसी रूप में पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयास करती है। फिर भी इस संकलन में वचन-वक्रता के कुछ उदाहरण मिलते हैं -

‘‘जिन स्त्रियों ने मुझे पाला
वे खूबसूरत नहीं थीं
पर सुन्दर थीं’’  

यहाँ ‘खूबसूरत’ और ‘सुन्दर’ शब्द का प्रयोग सोद्देश्य है। यहाँ ‘सुन्दर’ से तात्पर्य ‘सूरत’ के परे रहने वाली सुन्दरता से है।  तीन पंक्तियों की छोटी सी कविता ‘पेड़’ की जान इसी प्रकार का उक्ति-वैचित्र्य है -

‘‘काटे जा रहे हैं पेड़
जो तना है
वह कटेगा।’’  

सूरजमुखी के रूपक से अवसरवादी प्रवृत्ति को धिक्कारा गया है -

‘‘जिधर जिधर सूरज
उधर उधर तू
सूरजमुखी
थू थू थू।’’

तीन-चार पंक्तियों की ये छोटी-छोटी कविताओं से बड़ी बात संप्रेषित करना कवि-कौशल का परिचायक है।
‘लाठी और दराँती’ कविता में दुनिया की हर चीज़ की उपयोगिता मापने की कवि की कसौटी इंसान के दैनिक जीवन में उसकी सार्थकता है -

‘‘मुझे तलवार भी अच्छी लगती

डॉ.रेणु व्यास
हिन्दी में नेट चित्तौड़ शहर 
की युवा प्रतिभा
इतिहासविद ,विचारवान लेखिका,
गांधी दर्शन से जुड़ाव रखने वाली रचनाकार हैं.
वे पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही 
रेडियो पर प्रसारित होती रहीं हैं,
उन्होंने अपना शोध 'दिनकर' के 
कृतित्व को लेकर पूरा किया है.

29,नीलकंठ,सैंथी,
छतरीवाली खान के पास
चित्तौडगढ,राजस्थान 
renuvyas00@gmail.com
यदि उससे साग बिनारा जा सकता
या लावणी की जा सकती
और बंदूक भी
अगर कोई अंधा
उसे छड़ी की तरह ठकठकाता
रास्ते से गुज़रता
और मन, प्रसन्न हो कहता
यह अंधे की बन्दूक है’’ 

कवि ने किस तरह मुहावरे के अर्थ को न सिर्फ बदल दिया है, बल्कि उसे सोद्देश्यता भी प्रदान की है; यह विशेष उल्लेखनीय है। 

संक्षेप में कहा जा सकता है कि न तो कवि का प्रकृति-प्रेम मनुष्यता से परे है और न ही उनकी कविता। इन सबकी सार्थकता मानवता-सापेक्ष है। यही आधुनिक युग की प्रतिनिधि कविता की शक्ति है, विनोद पदरज की कविता भी इसी का उदाहरण है। ‘साबार ऊपरे मानुष’ कविता कवि की विचारधारा और आस्था को स्पष्ट कर देती है-

‘‘मेरी आत्मा का आकुल पंछी
कुदरत की जिस शाख पर
सबसे ज़्यादा सुकून पाता है
वह मनुष्य है’’


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