आलेख:फणीश्वरनाथ रेणु:- हर कहानी में नये शिल्प का प्रयोग

फणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वरनाथ रेणु कहते थे,

‘‘अपनी कहानियों में मैं अपने आप को ही ढूढ़ता फिरता हूँ। अपने को अर्थात आदमी को! वे अपनी कहानियों के बारे में अलग से कुछ नहीं कहते सिर्फ शमशेर बहादुर सिंह की इन पक्तियों को प्रस्तूत कर चुप रह जाते है, ‘बात बोलेगी, हम नहीं, भेद खोलगी बात ही’.’’ 

अर्थात रचना अगर स्वयं नहीं बोलती तो अलग से स्पष्टीकरण देना आवश्यक नहीं।अज्ञेय ने रेणु को ‘धरती का धनी’ कहा है। निर्मल वर्मा ने रेणु की ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ का उल्लेख करते हुए अपने समकालीनों के बीच उन्हें ‘संत’ की तरह उपस्थित बताते हुए लिखा है कि ‘‘बिहार के छोटे भूखंड़ की हथेली पर उन्होंने समूचे उतरी भारत के किसान की नियति-रेखा को उजागर किया.’’

फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानियों, उपन्यासों में ऐसे पात्रों को गढ़ा जिनमें एक दुर्दम्य जिजीविषा देखने को मिलती है, जो गरीबी, अभाव, भूखमरी, प्राकृतिक आपदाओं से जुझते हुए मरते भी है पर हार नहीं मानते। रेणु उपर से जितना सरल थे अंदर से उतने ही जटिल भी थे। रेणु की कहानियां नादों और स्वरों के माध्यम से नीरस भावभूमि में भी संगीत से झंकृत होती लगती है। रेणु अपनी कथा रचनाओं में एक साधारण मनुष्य, जो पार्टी, धर्म, झंड़ा रहित हो, की तलाश करते नजर आते है। वे कहते है कि ‘‘मैंने जमीन, भूमिहीनों और खेतीहर मजदूरों की समस्याओं को लेकर बातें की। जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की पनपती हुई बेल की ओर मात्र इशारा नहीं किया था, इसके समूल नष्ट करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था.’’ रेणु के इस आत्म-वक्तव्य से स्पष्ट है कि उनका जीवन और समाज के प्रति उनका सरोकार प्रेमचंद की तरह ही है. इस दृष्टिकोण से रेणु प्रेमचंद के संपूरक कथाकार है। इसी वजह से प्रेमचंद के बाद रेणु को एक बड़ा पाठक वर्ग मिला।

यद्यपि हिन्दी के आलोचकों का एक बड़ा खेमा रेणु के कथा-साहित्य को खारिज करने की कोशिश करता रहा है. रेणु ने खूद ही कहा था कि ‘‘मेरे साधारण पाठक मेरी स्पष्टवादिता तथा सपाटबयानी से सदा संतुष्ट हुए है और साहित्य के राजदार पंडित, कथाकार, आलोचकों ने हमेशा नाराज होकर मुझे एक जीवन दर्शनहीन, अपदार्थ, अप्रतिबद्ध, व्यर्थ रोमांटिक प्राणी प्रमाणित किया है। सारे तालाब को गंदला करने वाला जीव! इसके बावजूद कभी मुझसे इससे ज्यादा नहीं बोला गया कि अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूढ़ता हूँ, अपने को अर्थात आदमी को!’’

रेणु की कथा-रचनाएं आंचलिक कही जाती रही है यद्यपि रेणु की कथा-रचनाओं को सिर्फ आंचलिक नहीं कहा जा सकता अपितू राष्ट्रीय भी है। रेणु की पहली कहानी ‘बट बाबा’ 27 अगस्त 1944 के सप्ताहिक विश्वामित्र पत्रिका में प्रकाशित हुयी थी। बहुत ही मार्मिक कहानी, बरगद के प्राचीन पेड़ के इर्द-गिर्द घूमती है, यह पेड़ पूज्य है गांववालों के लिए। एक पात्र निरधन साहू जो खूद कालाजार बीमारी से कंकाल हो गया है और उसे जानलेवा खांसी भी है जब सूनता है कि ‘‘बड़का बाबा सूख गइले का ? और गांव वाले जब उसे बताते है कि हां पेड़ सूख गया है तो निरधन साहू कहता है - अब ना बचब हो राम ! रेणु बताते है कि हिमालय और भारतवर्ष का जो संबंध है वही संबंध उस बरगद के पेड़ और गांव का था। सैकड़ों वर्षों से गांव की पहरेदारी करते हुए, यही है बटबाबा, पर यह क्या हुआ कि पूरे गांव को अपने स्नेह से लगातार सींचने वाला बट बृक्ष अचानक क्यों सूख गया ? बहुत ही मार्मिक ढ़ंग से रेणु एक जीवंत चित्र गढ़ते है।

सन् 1944 में ही रेणु का एक और कहानी ‘पहलवान का ढोलक’ प्रकाशित हुई थी। कहानी में पहलवान मर जाता है पर चित नहीं होता है अर्थात पराजित नहीं होता है. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यानी आजादी के पहले लिखी गयी इन कहानियों में रेणु अपनी तीक्ष्ण नजरों से विश्वयुद्ध के काल का भयावह चित्र बनाने में सफल हुए है। इसी काल में बंगाल में पडे भीषण दुर्भिक्ष ने संपूर्ण भारत को हिला कर रख दिया था, यह भीषण दुर्भिक्ष इतिहास में दर्ज है परंतु रेणु जैसे साहित्यकार द्वारा गढ़ी गयी कहानी ‘कलाकार’ का पात्र शरदेन्दु बनर्जी, जो एक चित्रकार था। रेणु का यह पात्र अलबेला, निराला, विरक्त कलाकार था जिसके पूरे परिवार को दुर्भिक्ष ने मार डाला। यही कलाकार दुर्भिक्ष पीडितों के सहायता के लिए पोस्टर बना कर जिंदा रहा, धन-दौलत की लालच से दूर यह कलाकार सौ प्रतिशत आदमी था। रेणु ने इस सौ फिसदी आदमी का चित्रण बहुत ही तन्मयता से किया है। रेणु की एक अन्य कहानी ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योकि इस कहानी का मुख्य पात्र एक चिकित्सक है जिसे रेणु के कालजयी उपन्यास ‘‘मैला आंचल’’ में डाक्टर प्रशांत के रूप में देखा जा सकता है। ‘न मिटने वाली भूख’ रेणु की मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसकी मुख्य पात्र उषा देवी उपाध्याय उर्फ दीदी जी एक विधवा है जिसका संयम अंत में टूट जाता है। 

इस कहानी में बंगाल के अकाल की शिकार एक पागल भिखरिन मृणाल नामक पात्र है जिसका शहर के काम-पिपासुओं द्वारा बलात्कार किया जाता है जिसके फलस्वरूप वो गर्भवति हो जाती है और उसकी गोद में एक बच्चा आ जाता है। रेणु ने इस कहानी के माध्यम से काम-पिपासा को न मिटने वाली भूख कहा है और मनुष्य इतना अमानवीय और राक्षसी प्रवृति का हो सकता है, इसकी ओर भी बहुत ही सटीक ढ़ंग से संकेत किया है। रेणु की एक कहानी ‘अगिनखोर’ एक साहित्यकार के कुकृत्य को इस अंदाज में लिखा है कि पढ़ते बनता है. कहानी की एक पात्र आभा का सूर्यनाथ द्वारा गर्भवति करना और फिर बाद में आभा का पुत्र एक ऐसा पात्र है जो अपने नाजायज होने का बदला साहित्यिक ढ़ंग से अपने पिता की हंसी उड़ाते हुए लेता है। वह पात्र अपना कवि नाम ‘आइक्-स्ला्-शिवलिंगा’ बताता है और ‘आइक्-स्ला’ को तकियाकलाम की तरह पूरी कहानी में इस्तेमाल करता है, पूछे जाने पर कि आइक्-स्ला शब्द का क्या अर्थ है बड़े ही निराले अंदाज में कहता है ‘‘ यह मेरे व्यक्तिगत शब्द-भंडार का शब्द है, जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता है.’’ साहित्यकारों की कथनी और करनी में अंतर का सटीक नमूना रेणु के कहानी ‘अगिनखोर’ में देख जा सकता है जब इस कहानी का पात्र कहता है ‘‘मैंने कवि कर्म छोड़कर फिलहाल, अपनी रोटी के लिए कामेडियन का काम शुरू किया है.’’

रेणु ने अपनी कहानी ‘रखवाला’ में तो एक नेपाली गांव की ऐसी कहानी लिखी है कि इस कहानी में बहुत सारे संवाद नेपाली भाषा में है। रेणु ने एक अन्य कहानी नेपाल के पृष्ठभूमि में ‘नेपाली क्रांतिकथा’ के नाम से लिखा, जो रेणु को हिन्दी का एकमात्र नेपाल प्रमी कहानीकार के रूप मे प्रतिष्ठित करता है। ‘पार्टी का भूत’ नामक कहानी जो 1945 ई. में दैनिक विश्वामित्र में प्रकाशित हुई थी, इसमें रेणु अपनी अवस्था का बयान करते हुए कहते है कि उनको जो हुआ है वो तो रांची का टिकट कटाने वाला रोग है। वस्तुत पार्टी का भूत राजनीति पर लिखी गयी राजनीति विरोध की कहानी है। एक अन्य अत्यंत मानवीय कहानी 1946 ई. में रेणु ने ‘रसूल मिस्त्री’ लिखी। इस कहानी का मुख्य पात्र एक ऐसा व्यक्ति है जो दूसरे के लिए जीता है। इस कहानी में प्रसिद्ध रोमन कथाकार दांते की ‘डिवाइन कामेडी’ की याद आती है जब रसूल मिस्त्री कहता है कि दोजख-बहिश्त, स्वर्ग-नरक सब यहीं है। अच्छे और बुरे का नतीजा तो यहीं मिल जाता है। रसूल मिस्त्री के दूकान के साइनबोर्ड पर किसी ने लिख दिया है, ‘यहां आदमी की भी मरम्मत होती है.’ जब सन् 1946 ई. में रेणु बीमार पड़े तो उन्होंने ‘बीमारों की दुनिया में’ नाम से एक कहानी लिखी। रेणु की कहानी आज भी उतनी ही प्रसांगिक है जितनी जब लिखी गयी थी तब थी। ‘बीमार की दुनिया में’ का एक पात्र है वीरेन जो और कोई नहीं खूद रेणु है और वीरेन अपने मित्र अजीत से जो कहता है वो आज के भारत की कहानी लगती है। वीरेन कहता है कि ‘‘ मैंने जिंदगी को आपके जेम्स जॉयस से अधिक पहचाना है। हमारी जिंदगी हिन्दुस्तान की जिंदगी है। हिन्दुस्तान से मेरा मतलब है असंख्य गरीब मजदूर, किसानों के हिन्दुस्तान से। हम अपनी मिट्टी को पहचानते है, हम अपने लोगों को जानते है। हमने तिल-तिल जलाकर जीवन को, जीवन की समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की है। ’’ 1947 ई. में रेणु ने ‘इतिहास, मजहब और आदमी’ नामक कहानी लिखी जिसमें देश का विभाजन, साम्प्रदायिक दंगे, भूखा और बीमार देश की गहरी पीड़ा है। जनवरी 1948 ई. में प्रकाशित ‘रेखाएं-वृतचक्र’ नामक कहानी में स्वतंत्रता, बंटवारा तथा अन्य राजनीतिक घटनाओं का सूक्ष्म वर्णन है परंतु इस कहानी में एक घायल सैनिक के माध्यम से रेणु ने एक फैंटेसी के शिल्प का भी प्रयोग किया है। इसी वर्ष एक अन्य कहानी ‘खंडहर’ आयी जिसमें रेणु लिखते है कि चारों ओर शांति है, स्वराज मिल गया फिर भी एक तनाव है।  इस कहानी में रेणु आधुनिक समाज की विशृंखलता की पड़ताल करते हुए भी आशावान दिखते है. इस कहानी में रेणु अपने समकालीन गजानन माधव मुक्तिबोध की तरह मन से लहूलूहान है।

स्वतंत्रता के बाद रेणु पूर्णिया से ‘नई दिशा’ नामक एक सप्ताहिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन करते थे। सन् 1949 ई. में ‘नई दिशा’ का ‘शहीद विशेषांक’ निकाला जिसमें उनकी ‘धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे’ नामक कहानी प्रकाशित हुयी थी जो कथा और शिल्प में उनकी अन्य कहानियों से भिन्न थी। लतिका राय चौधरी से विवाह उपरांत 1952 ई. में रेणु ने अपनी कालजयी रचना ‘‘मैला आंचल’’ लिखी। 1953 ई. में उनकी दो कहानियां ‘बंडरफूल स्टुडियो’ और ‘टोन्टी नैन’ प्रकाशित हुयी थी। मैला आंचल के एक दृश्य में चिनगारी जी रात में सोते समय सैनिक जी से कहते है कि मैं लक्ष्मी जी पर एक मुक्तछंद लिखना चाहता हूँ।

‘‘ ओ महान सतगुरू की सेविका
  लाभिका पवित्र धर्मग्रन्थ की
  ओ महान मार्क्स के दर्शन की दर्शिका
  सुदर्शन, प्रियदर्शनी
  तुम स्वयं द्वंद्वयुक्त भौतिकवाद की 
  सिनथेसिस हो !

मैला आंचल के प्रकाशन से पहले रेणु की कहानियों के फेहरिस्त का अंतिम कहानी ‘दिल बहादुर दाज्यु’ है जो एक गोरखा नौजवान पर लिखी शब्द-चित्रात्मक कहानी है.रेणु की हर कहानी में नये शिल्प का प्रयोग इनकी विशेषता है। रेणु एक ढर्रे पर कहानी लिखना पंसद नही करते थे। रेणु के उपन्यासों यथा मैला आंचल, जुलूस, परती परिकथा, ऋणजाल-धनजाल, नेपाली क्रांतिकथा, पल्टूबाबू रोड अलग-अलग भाषा-शैली और शिल्प में गढ़ी गयी कृतियां है।

                   राजीव आनंद
इन्डियन नेशन और हिन्दुस्तान टाइम्स के 
ज़रिये  मीडिया क्षेत्र का लंबा अनुभव हैं। 
परिकथा, रचनाकार डाट आर्ग, जनज्वार, 
शुक्रवार, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, 
प्रभात वार्ता में प्रकाशित हो चुके हैं।
वर्तमान में फारवर्ड प्रेस, दिल्ली से 
मासिक हिन्दी-अंग्रेजी पत्रिका में गिरिडीह,
झारखंड़ से संवाददाता हैं।इतिहास और 
वकालात के विद्यार्थी रहे हैं।

सम्पर्क:-
प्रोफेसर कॉलोनी,गिरिडीह-815301
झारखंड़ ईमेल-rajivanand71@gmail.com,
मो. 09471765417 


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