सम्पादकीय:बोल कि शब्द आज़ाद हैं तेरे

अगस्त-2013 अंक 
चित्र: मुकेश शर्मा 

" एक समय था मैं सोचता था कि लेखक के रूप में मेरा संसार बहुत बड़ा है। रवीन्द्र, शरत, प्रेमचंद, मंटो, चेखव, टॉलस्टॉय, गोर्की, बालज़ाक और ऐसे अनेक नामों की दुनिया थी। लिखते-लिखते अब मेरा संसार छोटा होता जा रहा है। अब मैं देश के विषय में ही सोचता हूँ। प्रांत, भाषा के झगड़े मेरा ध्यान खींचते हैं। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि मेरा और मेरे देश का यह अजीबोग़रीब पतन-सा हो रहा है।"

शरद जोशी जी की यह पीड़ा दुनिया के हर एक सच्चे साहित्यकार की ही नहीं वरन हर एक सच्चे संवेदनशील मनुष्य की भी पीड़ा है। जब दुनिया अपने फैलाव में सब कुछ साझा करने की बात कर रही है, तब स्वार्थों में डूबी क्षुद्रता सबके साथ-साथ दुनिया भर के शब्दों को भी उसी क्षुद्रता के रंग में रंगना चाहती है। वैसे आर्थिक-राजनैतिक ताकतों के लिए अभी बहुत ज़रूरी है कि वैश्विक रंग में बहुत कुछ रंगा जाये इसलिए उदार वैश्विक रंग का लेपन हर एक वीभत्स चेहरे पर बहुत ही होशियारी से किया गया है। और चाहे-अनचाहे लेखक समाज भी इसी खेल का हिस्सा बन चुका है इसलिए यहाँ सब की बात करने के स्थान पर मैं केवल लेखकों की बात करना चाहूँगा। आज दुनिया में ऐसे कितने लेखक हैं जिनके चिंतन में विराट चिंतन का भी कुछ सच्चा दर्शन होता है? ऐसे कितने लेखक हैं जो अपने क्षेत्रीय स्वार्थों से पूर्ण मुक्त हैं ? ऐसे कितने लेखक हैं जो वैचारिक प्रतिबद्धता को किसी पट्टे की तरह अपने गले में नहीं बांधे फिरते? ऐसे कितने लेखक हैं जिनके लिए वर्ण, जाति, धर्म, लिंग, भाषा, वैचारिक प्रतिबद्धता, समूह, राष्ट्र आदि कोई मायने नहीं रखते ? ऐसे कितने लेखक हैं जिनके चेहरे पर कोई रंग नहीं चढ़ा हुआ है ? ऐसे कितने लेखक हैं जो आर्थिक-राजनैतिक ताकतों के रंग से पूर्णत: बेअसर हैं ? और यदि ये सब महत्वपूर्ण हैं तो फिर उदारता का ढोंग और भ्रम लेखन में क्यों पाला और प्रचारित किया जाता है ? 

वामपंथी-दक्षिणपंथी प्रतिबद्धता वाले लेखकों के मध्य टुच्चेपन-लुच्चेपन के आरोपों का दौर ज़ारी रहे , दलित और सवर्ण घोषणा कर दें कि लेखक होने के बावज़ूद दोनों एक दूसरे की कहानी तक नहीं लिख सकते, स्त्री-पुरुष दोनों का लेखन अलग-अलग हो जाए , भाषा अपनी सरहदें तय कर दे, समूहों के उप समूह अस्तित्व की लड़ाई में शामिल होकर उसे और विकट कर दें, साहित्य के स्थान पर साहित्यकार अधिक महत्वपूर्ण हों और लेखकों को लेखक बनाने वाले सारे के सारे शब्द प्रभा और प्रभाव विहीन हो चुके हों तब भी चिंतनशील लेखकों को कोई चिंता नहीं होती। उन्हें चिंता तो तभी सताती है जब उनके स्वार्थों के वज़ूद पर संकट आता है। और इस व्यवहार का कारण है हमारी क्षुद्रता। लेकिन उसी क्षुद्रता और स्वार्थों को छुपाकर उदारता का मिथ्या प्रचार परम होशियार लेखक समुदाय ने इस ढंग से किया है कि वास्तविकता पर बात करना भी कठिन हो गया है। ऐसे में इस मानसिक दिवालियेपन का इलाज़ कौन करे? वैसे तो सभी अपनी-अपनी प्रतिबद्धता के बावज़ूद बेहतर इंसान और लेखक भी हो सकते हैं और घटिया होने की अपूर्व मिसाल भी पेश कर सकते हैं। लेकिन प्रतिबद्धता का ध्यान पहले रखा जाना है इसलिए वास्तविकता को हाशिये से भी बाहर रखना ज़रूरी हो गया है और इस कोशिश में लगभग सारे वास्तविक गुण-अवगुण मुखौटों के पीछे छुपे हुए हैं और पूरा जीवन बीतने के बाद भी साहित्यकार कभी सहज रूप में व्यक्त नहीं होता क्योंकि वो चेहरे के स्थान पर मुखौटे का पोषण करने में अपने आप को भी भूल चुका है । और इसी दोगलेपन के कारण क्षुद्रता की ज़रुरत दिन पर दिन बहुत बड़ी होती जा रही है लेकिन रोचक तथ्य यह है कि प्रचार में हर ओर विराट उदारता है । 

कुल मिलाकर बात इतनी है कि टुच्चेपन के दौर में महानता पर चर्चा की जा रही है , अपने आस-पास से अनजान लेखक वैश्विक चर्चा में क्षुद्र चेहरों पर उदार मुखौटे बेहतरीन ढंग से सजाकर पूरे जोशोखरोश के साथ शामिल हैं और समाज को दर्पण दिखाने वाले अपना चेहरा भी भूल चुके हैं । 

शरद जोशी जैसे चंद लोग यह स्वीकार करते हैं कि उनका संसार क्षुद्र होता जा रहा है लेकिन सब ऐसा कहाँ कर पाते हैं ? लेकिन यदि किसी भी किस्म की प्रतिबद्धता लेखक में है तो मिथ्या उदारता का ढ़ोंग छोड़कर उसे यह स्वीकार करना होगा कि वो उदारता की केवल बात करता है लेकिन उसके शब्द तो किसी प्रतिबद्धता के ग़ुलाम हैं । यह स्वीकरोक्ति और कुछ न भी कर पाये तब भी झूठ की क़ैद में फंसे शब्दों को आज़ाद होकर सच्चाई के साथ सामने आने का मौका तो दे ही देगी । तुलसी बाबा ने निज मन मुकुर सुधारि लिखा है । क्या हम सब लिखने वाले लिखने से पहले अपने मन का दर्पण साफ़ कर पायेंगे ? यदि कर पाए तो शब्दों की आज़ादी की दिशा में शायद यह पहला कदम होगा … 

सम्पादक अशोक जमनानी 

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