सम्पादकीय : संतन के लच्छन रघुबीरा

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
 सितम्बर अंक,2013 

सम्पादकीय : संतन के लच्छन रघुबीरा

छायाकार-नितिन सुराणा  
कुछ दिनों पूर्व चर्चा में तथाकथित संत थे। उस महान चर्चा से हानि किसे हुई यह शोध का विषय हो सकता है परन्तु सबसे अधिक लाभ तो नि:संदेह रूप से मीडिया ने कमाया। पत्रकारिता और साहित्य का रिश्ता बहुत गहरा है इसलिए एक आलेख देर से ही सही मगर मेरे द्वारा भी लिखा जाना बेहद ज़रूरी था ताकि सनद रहे कि बंदा भी अपने दौर की नब्ज़ के बेकायदा हो जाने पर कलम घिसने में किसी से पीछे नहीं है। आप पूछ सकते हैं कि गंभीर विषय को हल्के-फुल्के अंदाज़ में क्यों पेश कर रहा हूँ ? तो हुज़ूर बात इतनी-सी है कि इस मामले में पूरे मुल्क के इतना  ज़्यादा संज़ीदा हो जाने पर मैं बेहद ग़मज़दा हूँ। तो ग़म से निज़ात की कोशिश में ही ये अंदाज़-ए- बयां शुमार किया जाए और गुस्ताखी माफ़ हो।

कवियों में मुझे दो बाबा बहुत पसंद हैं। एक हैं तुलसी बाबा और दूसरे हैं कबीर बाबा। दोनों ने जो लिखा वो  समाज का केवल आईना नहीं है बल्कि ज़बरदस्त कोशिश भी है कि आईने में दिखने वाले समाज का चेहरा भी साफ़-सुथरा भी बना रहे। लेकिन दोनों में एक अंतर  है। तुलसी बाबा चेहरा साफ़ करने के लिए ठंडे पानी से मुंह धुलवाते हैं और कबीर बाबा का पानी होता है गर्म बहुत गर्म। पर काम दोनों का मेरी नज़र में एक ही है।  अब चाहे वाम-दक्षिण ने दोनों को बाँट-बूंट कर अपने-अपने मतलब का बना लिया है पर अपने झोले में तो दोनों की किताबें हैं इसलिए बात भी दोनों की करना लाज़िमी है। कबीर बाबा ने फ़र्माया कि जोगी मन न रंगाया , रंगाया कपड़ा। तो तुलसी बाबा मानस के हर एक काण्ड में संतों की चर्चा कर ही देते हैं। पर अपने को तो भाती है अरण्य कांड के अंत में नारद के सवाल के जवाब में राम जी द्वारा पेश की गई संत के लक्षणों की सूची। नारद ने पूछा ' संतन के लच्छन रघुबीरा कहहु नाथ भव भंजन भीरा' बस राम जी ने भी ऐसी कर्री सूची पेश की है कि इस दौर के अधिकांश तथाकथित संत, संत ही नहीं कहलाएँगे । शुरुआत में ही कह दिया 'षट विकार जित अनघ अकामा'  षट विकार जिसका मतलब काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर को जिसने जीत लिया हो। इसके बाद तो ऐसी-ऐसी शर्तें हैं कि वर्तमान दौर के अधिकांश तथाकथित बाबाओं के फेल होने की पक्की गारंटी है। लेकिन सवाल यह है कि परीक्षा लेगा कौन ? मैंने अपने देश में बहुत-सी यात्राएँ की हैं और हर वर्ग के लोगों से बातचीत भी की है। पूरे देश में मुझे बहुत कम ऐसे लोग मिले जो आस्थावान न हों और आस्था कह रहा हूँ तो इसमें अकीदा भी शामिल समझियेगा वर्ना बात अधूरी हो जायेगी। तो गोया इस देश में हर मज़हब के लोग मुझे बेहद आस्थावान लगे लेकिन हर जगह के लोगों की आस्था मुझे सामान्यतया अंधी ही मिली। 

कबीर और तुलसी को गाने वाले लोग कपड़ों के रंग और बातों के लच्छों से इतने प्रभावित दिखे कि कोई और कसौटी ज़रूरी ही नहीं रह गयी। फ़िर एक और बाबा आये जिन्होंने इस देश को आर्थिक उदारीकरण का भजन सुनाया।  सच कहूँ तो मुझे  भी यह भजन अच्छा ही लगा। पूरा देश अकारण ही आर्थिक प्रतिबंधों की घुटन झेल रहा था। इसलिए कई ज़ंजीरों का कट जाना बहुत भाया लेकिन फ़िर शुरू हुआ लूट वाला खेल। उसकी बात करूंगा तो विषय से भटक जाऊँगा वैसे भी अब बताने को कुछ खास बचा नहीं है सबने हमाम भी देख लिया है और दूसरों और खुद की वस्त्र विहीनता से भी कोई अनभिज्ञ नहीं है। सब में मैं भी शामिल हूँ। तो हुज़ूर इस आर्थिक खुलेपन से अनेक स्थानों पर खुल जा सिम-सिम दोहराया गया और अनेक खजानों के द्वार भी खुले। बस फ़िर क्या था पैसा आया तो साथ में तमाशा भी आया। जिसका तमाशा जितना बड़ा था वो उतना महान हो गया। जिनके कपड़ों की सफेदी या रंग जितने ज़ोरदार थे वे उतने ही बड़े कहलाये। आश्रम पाँच सितारा हो गए और जोगी ब्रह्म को बिसार कर माया महा ठगनी के गुण गाने लगे। भक्तों को भी ठगनी ही लुभा रही थी इसलिए मांग और पूर्ति के सिद्धांत का पालन करते हुए उसी की आपूर्ति हुई जिसकी मांग थी। लेकिन अब वही ठगनी नैना चमका रही है तो हम बगले झाँक रहे हैं। और कर भी क्या सकते हैं ? खेल में शामिल तो अप्पन भी थे इसलिए कौन कहे किसको छलिया ? लेकिन साहित्य की बाँह थामकर चल रहा हूँ इसलिए उसके झोले से निकालकर कबीर और तुलसी के आईनों में ख़ुद को भी देख रहा हूँ और आपको भी दे रहा हूँ। अपने पूरे देश की तरह मैं भी बेहद आस्थावान हूँ। पर मेरी आस्था अंधी नहीं है इसलिए मैं ठगे जाने से इंकार करता हूँ  …………. और आप ?????

सम्पादक 
अशोक जमनानी 

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