ग़ज़ल:लता चंद्रा

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका 
अपनी माटी
अक्टूबर अंक,2013 
छायांकन हेमंत शेष का है

    
 एक

ज़िंदगी,ज़िंदगी को खबर करती है
जिन हालातों पर वो बसर करती है
जिंदगी रूठ कर जब खफा होती है
भटकता है इंसान वह दर बदर करती है
मोहब्बत वो हस्ती है के ज़माने में
ज़र्रे ज़र्रे पर अपना असर करती है
सर झुकाती है कभी मंदिर मस्जिद में
कभी पीकर खुद को बेखबर करती है
जिसका काम है चलना उसे क्या डर
जिंदगी हर मौसम में सफर करती है

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दो  

ज़िंदगी को इस तरह भी जिया हमने
जहर ज़िंदगी का हँस कर पिया हमने
मेरे वजूद का जो सर काट कर गया
उसका सदा दिल से भला किया हमने
छल कपट झूठ से मुक्त होकर ही अब
सफर कठिन राहों का ते किया हमने
खुशी दे या गम ये उसकी मरजी थी
जो भी दिया उसने वो ले लिया हमने
कभी हँस हँसके और कभी रो-रो के
ज़िंदगी को हर हाल में जिया हमने
हमको उसी ने लूटा है हमेशा 'लता'
भरोसा जिस पर जब भी किया हमने
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तीन 

जब से दुभर घर को अपने घर बनाना हो गया
कितना मुश्किल घर के अंदर सर छुपना हो गया
पाहुन आए तो मनाते थे खुशी कुछ इस तरह
मिलके सबके रात में गाना बजाना हो गया
अब तक दिल से गई न माटी की गंध
हमको रहते शहर में इक जमाना हो गया
बगुलो ने किनारों से जबसे कर ली है दोस्ती
भ्रम ये दरिया ताल को इक सुहाना हो गया
स्वार्थ ईर्ष्या देश की परवरिश क्या खूब है
अब जरूरी घर में दीवारें बनाना हो गया
समझ सके ना रोशनी में अंधेरा क्या चीज़ हैं
इसलिए जरूरी ठोकरों का आज आना हो गया
अब तो हरेक बात पर बजने लगी हैं तालियाँ
सही गलत को
जान पाना 'लता' मुश्किल हो गया
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लता चन्द्रा
एम ए,समाज शास्त्र 
हिन्दी,शिक्षा शास्त्र
जन्म -2 मार्च 1966 
कविता,गीत ,गज़ल लेखन 
देश के विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं 
में प्रकाशित 
सम्मान -विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं 
द्वारा सम्मानित 
सम्प्रति-शिक्षिका 

सम्पर्क
डी 3/406 दानिश नगर ,
होशंगाबाद रोड
भोपाल,मध्यप्रदेश-241902 

मो-08305899942

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