आलेख: उपभोगमूलक संस्कृति और हिंदी उपन्यास / डॉ. ललित कुमार श्रीमाली

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 दिसंबर-2013 

                         
चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर 
 संस्कृति का संबंध किसी जाति अथवा राष्ट्र के मानसिक अथवा बौद्धिक विकास से होता हैं कोई जाति अपने विकास के साथ-साथ कुछ विशिष्ट गुणों पर बल देने लगती है। इन गुणों के विकास में काफी समय लगता है तथ इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कार के रूप में मान्यता प्राप्त होती रहती है। ऐसे संस्कार जन्म गुण ‘संस्कृति’ कहलाते हैं, जिनके विकास में हजारों वर्ष लग जाते हैं। संस्कृति मानव जीवन के गुणों का परिचय कराती है, यह आभ्यन्तर है, इसे अपनाने में देर लगती है। 

भूमंडलीकरण के समय में तकनीक का विस्तार हो जाने से संस्कृति सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। आज संस्कृति का स्वरूप स्थानीय न रहकर भूमंडलीय हो गया है। भूमंडलीकरण के कारण बाजारवाद पनपा और बाजारवाद से उपभोक्तावाद। आज इन्सान की पहचान एक उपभोक्ता के रूप में ही रह गई है। इस कारण एक नई संस्कृति पनपी जिसे हम उपयोगमूलक संस्कृति कहते है। इसमें इन्सान सब कुछ भोग लेना अर्थात् उपभोग कर लेना चाहता है। हमारी प्राचीन संस्कृति में ऐसा नहीं था केवल ‘चार्वाक दर्शन’ में ही ऐसा माना गया कि ‘उधार लेकर भी घी पियो’। भूमंडलीकरण में यह चार्वाक दर्शन ही उपभोग मूलक संस्कृति के रूप में हमारे सामने उपस्थित है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने उत्पाद को खपाने के लिए ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित की जिससे हम इस ओर न चाहते हुए भी खींचे चले आ रहे हैं। उदारीकरण के कारण हम आज वस्तुओं के अंध आकर्षण की ओर जा रहे हैं। हम संतुलित और सार्थक जीवनचर्या को छोड़कर विलासितापूर्ण जीवन शैली की ओर भागे जा रहे है जो हमारे हित में नहीं है। हम बाजार व तकनीक के इतने अभ्यस्त होते जा रहे है कि जो चीज हमारी जरूरत की नहीं है उसे भी हम जबरदस्ती उठा लाते है। स्वयं प्रकाश के ‘ईंधन’ में स्निग्धा रोहित से शादी के बाद जब छोटे से घर में रहने के बावजूद भी आठ अटेचमेन्ट वाला वेक्यूम क्लीनर खरीदती है जो कि उनकी प्राथमिक आवश्यकता नहीं थी। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमें चरम उपभोक्तावादी संस्कृति के अंधे कुएँ की ओर लेकर जा रही है। कम्पनियाँ अपने उत्पाद को बेचने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है कम्पनी अपने उत्पाद की गुणवत्ता नहीं बढ़ाती वह ग्राहकों के लिए हालिडे प्रोग्राम की योजना लाती है। ‘दौड़’ उपन्यास में शरद जब बूट पॉलिस की कम्पनी चुनता है तो उसके सामने दुविधा हो जाती है कि हिन्दुस्तान में सिर्फ दस प्रतिशत लोग चमड़े के जूते पहनते है। अब अपने प्रोडेक्ट की बिक्री कैसे बढ़ावे।

 पवन उससे कहता है कि ‘‘डीलर को कोई गिफ्ट ऑफर दो, तो वह माल निकाले।’’
‘‘सबको सनशाइन रखने के लिए वाल रैक दिऐ हैं, डीलर्स कमीशन बढ़वाया है पर मैने खुद खड़े होकर देखा है, कउंटर सेल नहीं के बराबर है।’’
पवन के सुझाव दिया, ‘‘कोई रणनीति सोचो। कोई इनामी योजना, हालिडे प्रोग्राम।’’

‘‘इनामी योजना का सुझाव भेजा था। हमारा टारगेट उपभोक्ता स्कूल का विद्यार्थी है। उसकी दिलचस्पी टाफी या पेन में हो सकती है। हालिडे प्रोग्राम में नहीं।’’1 मीडिया के माध्यम से उत्पाद को आकर्षक बनाकर परोसा जाता है। रेडियों और टी.वी. पर दिन में सौ बार दर्शक व श्रोता की चेतना को झकझोरा जाता हैं ममता कालिया लिखती है कि, ‘‘दरअसल बाजार में दिन पर दिन स्पर्धा कड़ी होती जा रही थी। उत्पादन, विपणन और विक्रय के बीच तालमेल बैठाना दुष्कर कार्य था। एक-एक उत्पाद की टक्कर में बीस-बीस वैकल्पिक उत्पाद थे। इन सब को श्रेष्ठ बताते विज्ञापन अभियान थे जिनके प्रचार-प्रसार से मार्केंटिंग का काम आसान की बजाय मुश्किल होता जाता। उपभोक्ता के पास एक-एक चीज के कई चमकदार विकल्प थे।’’2 पवन का दोस्त अभिषेक जिस विज्ञापन एजेन्सी में कार्यरत था। उसकी कम्पनी का दूसरी कम्पनी से टूथपेस्ट युद्ध छिड़ा हुआ था। दोनों कम्पनियों के विज्ञापन एक के बाद एक टी.वी. के चैनलों पर दिखाकर डेन्टिस्ट के प्रामाणिक बयान बताये जा रहे है। जबकि दोनों टूथपेस्ट तकरीबन एक जैसे थे मात्र कम्पनी अलग होने से उत्कृष्टता सिद्ध करने की होड़ मची हुई थी। अभिषेक को अपनी कम्पनी के विज्ञापन के लिए ऐसी मॉडल ढूँढनी थी जिसके व्यक्तित्व में प्रधानता उसके दाँतों की हो। साथ ही खूबसूरत भी हो। यहाँ उपभोक्ता को मूर्ख बनाने के लिए किस तरह का संजाल बुना जाता है। जबकि वास्तविक स्थिति यह होती है कि जो मॉडल विज्ञापन कर रही है वह खुद भी उस प्रॉडक्ट का उपयोग नहीं करती है, लेकिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सच्चाई नहीं अपना उत्पाद बेचना होता हैं उपभोक्ताओं को कम्पनियाँ बुरी तरह से मूर्ख बना रही है। ‘दौड़’ में राजुल और अभिषेक में बहस हो जाती है, ‘‘पर लोग तुम्हारे विज्ञापनों को ही सच मानते हैं। क्या यह उनके प्रति धोखा नहीं हैं?’’

‘‘बिल्कुल नहीं। आखिर हम टूथपेस्ट की जगह टूथपेस्ट ही दिखा रहे हैं, घोड़े की लीद नहीं। सभी टूथपेस्टों में एक सी चीजें पड़ी होती है। किसी में रंग ज्यादा होता है किसी में कम। किसी में फोम ज्यादा, किसी में कम।’’
‘‘ऐसे में कॉपीराइटर की नैतिकता क्या कहती हैं?’’

‘‘ओ शिट। सीधा सादा एक प्रॉडक्ट बेचना है, इसमें तुम नैतिकता और सच्चाई जैसे भारी भरकम सवाल मेरे सिर पर दे मार रही हो। मैने आई.आई.एम. में दो साल भाड़ नहीं झोंका। वहाँ से मार्केंटिंग सीख कर निकला हूँ। आई. कैन सैल ऐ डैड रेट (मैं मरा चूहा भी बेच सकता हूँ) यह सच्चाई नैतिकता सब में दर्जा चार तक मॉरल सांइस में पढ़ कर भूल चुका हूँ मुझे इस तरह की डोज मत पिलाया करो, समझीं।’’3 बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पाद को उपभोक्ता तक पहुंचाने में कितने ही घिनौने कार्य कर रही है। मैनेजमेन्ट और मार्केंटिंग की किताबों में नैतिकता का चैप्टर नहीं होता है। तभी तो ‘दौड़’ का पवन, राजूल से कहता है, ‘‘दरअसल बाजार के अर्थशास्त्र में नैतिकता जैसा शब्द लाकर, राजुल, तुम सिर्फ कनफ्यूजन फैला रही हो।’’4 उपभोगमूलक संस्कृति बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की देन हैं कम्पनी की मीटिंग में भाग लेने के बाद पवन को भी आश्चर्य होता है कि ईंधन जैसी आवश्यक वस्तु को भी ऐच्छिक उपभोक्ता सामग्री के वर्ग में रखकर इसके प्रसार और विकास का कार्यक्रम तैयार किया जाता है। ममता कालिया कहती है कि, ‘‘बहुराष्ट्रीय कम्पनी की फितरत थी कि शुरु में वह अपने उप्पाद का दाम बहुत कम रखती है जब उसका नाम और वस्तु लोगों की निगाह में चढ़ जाते है तो वह धीरे से अपना दाम बढ़ा देती है।’’5

 उपभोग मूलक संस्कृति की हमारे दैनिक जीवन में घुसपैठ को स्वयं प्रकाश ने ईंधन में रोहित के माध्यम से व्यक्त की है कि, ‘‘मुझे यह बात किसी भी तरह नहीं जँचती थी कि अगर मैंने वुडलैण्ड के जूते नहीं पहने, पीटर इंग्लैण्ड की कमीज नहीं पहनी, जोएडिक की टाई नहीं लगायी, ली की पतलून नहीं पहनी, एंकर के कफलिंक नहीं लगाये, होल्डस्पाइस या आफ्टरशेव नहीं थोपा और टाइटन की घड़ी नहीं बाँधी तो मैं कुछ कम आदमी हूँ या हो जाऊँगा। मुझे नहीं लगता कि इसकी कोई तुक या सीमा है। कलाई घड़ी सौ रुपये से लेकर एक लाख रूपये तक की मिलती है। तथाकथित स्तरीय सामान अक्सर से ज्यादा घटिया साबित होता है। ब्राण्ड बनाने वाले उनका विज्ञापन भी हमीं से करवाते हैं। मैं समझ नहीं पाता था कि क्यों मुफ्त में अपने चश्में पर रेबेन, टी-शर्ट पर नाइके या एडिडास, बारामूडास पर रेंगलर या मार्क एंड स्पेन्सर का नाम या बिल्ला चिपकायें घूमूँ?’’6 इन्सान की कद्र उसके गुणों से होती है, उसके द्वारा इस्तेमाल करने वाली सामग्री से नहीं। जबकि वर्तमान समय मंे मँहगी से मँहगी वस्तु का इस्तेमाल व्यक्ति अपना स्टेट्स दिखाने के लिए करते है। यह उपभोगमूलक संस्कृति की हमारे जीवन में घुसपैठ को दर्शाती है। कोई व्यक्ति यदि सस्ती चीज इस्तेमाल करता है तो उसे निम्न हैसियत वाला माना जाता है। ‘ईंधन’ का नायक रोहित जब गेहूँ पिसवाने कनस्तर कंधे पर रखकर जाता है तो स्निग्धा सोचती है कि यह कार्य किसी को दो रुपये देकर भी करवाया जा सकता है। आज की संस्कृति में अपना काम अपने आप नहीं करके दूसरों से करवाना अच्छा माना जाने लगा है। रोहित जब स्निग्धा के साथ शॉपिंग करने जाता है और दूकान में दूकानदार से कहता है कि ‘जरा सस्ती दिखाइएगा’ या ‘बहुत मँहगी मत दिखाना भाई’ तो स्निग्धा को बहुत बुरा लगता है वह सोचती है कि दूकानदार ने हमारी औकात तौल ली। विज्ञापनों ने वर्तमान पीढ़ी की मानसिकता ही बदल डाली है। आज हम मँहगी से मँहगी चीज को अच्छी समझने लगे है। 

युवा समीक्षक
डॉ. ललित श्रीमाली 
याख्याता (हिन्दी शिक्षण)
एल.एम.टी.टी. कॉलेज,
डबोक, उदयपुर 
51, विनायक नगर, मण्डोपी, 
रामा मगरी,
 बड़गाँव जिला उदयपुर (राज.) 
मो-09461594159
ई-मेल:nirdeshan85@yahoo.com

ममता कालिया के ‘दौड़’ का नायक पवन उपभोग मूलक संस्कृति से पैसा कमाने में इतना व्यस्त है कि जब उसकी बात उसकी माँ से चल रही तो वह माँ से कहता है उसके पास इन कार्यों के लिए ज्यादा वक्त नहीं है उसके एजेन्डे में बहुत सारे काम है शादी के लिए केवल चार दिन खाली रख सकता है और आज के समय में पवन जैसे लोगों के पास धैर्य भी नहीं है। जब पवन को पता चलता है कि पी.सी.सी.एल. लगातार घाटे में चल रही है तो वह डूबते जहाज का मस्तूल संभालने की जगह दूसरी नौकरी का विकल्प खोजने में लग जाता है। उपभोग मूलक संस्कृति में पैसा बनाने की चाह में आज इन्सान पैसे के लिए शरीर का सौदा करने के लिए नहीं हिचकिचाता है। यहाँ तक की अपने बेटे-बेटियों का सौदा कर डालते है। प्रदीप सौरभ के उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ की शशि खोखरा जो दिल्ली के पास एक नर्सिंग होम का संचालन करती है, इस नर्सिंग होम की ख्याति अवैध गर्भपात के कारण दूर-दूर तक फैल जाती है। लेकिन जब डॉक्टरनी की बेटियाँ बड़ी हो जाती है तब उसकी छोटी बेटी जब कम्प्यूटर कोर्स करने लगती है तब उसका टांका एक पैसे वाले लड़के से भिड़ जाता है तो शशि खोखरा पहले लड़के की औकात मालूम करती है जब वह संतुष्ट हो जाती है कि लड़का पैसे वाला हे तो अपनी बेटी की कमान ढीली छोड़ देती हैं दोनों खुले आम मिलने-जुलने लगते है और उनके बीच नादानी की शुरुआत हुई तो जब नर्सिंग होम बेड़रूम बना उसके बाद ही समाप्त होती हैं लेकिन अन्त में लड़का डॉक्टरनी की बेटी को गर्भवती बनाकर छोड़ देता हैं इस उपभोग मूलक संस्कृति के सच से इक्कीसवीं सदी का उपन्यासकार अपरिचित नहीं है। आज का उपन्यासकार हारती, टूटती व कराहती मानवता से अत्यधिक चिंतित है और अपने उपन्यासों के माध्यम से अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता का परिचय दे रहा है।

संदर्भ:
1. ममता कालिया: दौड़, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009 पृ. 16
2. वही, पृ. 23-24
3. वही, पृ. 39-40
4. वही, पृ. 42
5. वही, पृ. 46
6. स्वयं प्रकाशः ईंधन, वाणी प्रकाशन, नई दिलली 2004, पृ. 46
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1 टिप्पणियाँ

  1. Very nice article. Thinking, examples are very good. I like it. I am N. B. Kadam. From solapur. Ph. D. Student of SF Pune university, pune. Thanks.

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