आलेख:अमरकांत की कहानियों में आम-आदमी /कविता उपाध्याय

साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati )                 दिसंबर-2013 
               
     
चित्रकार:अमित कल्ला,जयपुर 
“जो आपके सामने घटित हो रहा है सिर्फ वही रचना नहीं है बल्कि उसे देखकर, अपने चारों ओर देखने के बाद आपके भीतर जो घटित हो रहा है, वह रचना है|”1अमरकांत का उपरोक्त कथन उनकी कहानियों के संवेदनात्मक घनत्व को समझने के लिए एक सार्थक संकेत प्रस्तुत करता है| यह उनका मात्र वैयक्तिक अनुभव ही नहीं है वरन सर्जनात्मक अनुभव भी है| इसी सर्जनात्मक अनुभव की सफलतम अभिव्यक्ति उनके सम्पूर्ण रचनाकर्म विशेषतः कहानियों में हुई है|

      अमरकांत नई कहानी आंदोलन से संबंधित कथाकार रहे हैं जो अपने आप में ही विविधतापूर्ण और अंतर्विरोध भरा साहित्यिक प्रत्यय है| डॉ० सुरेन्द्र चौधरी ने नई कहानी पर विचार करते हुए लिखा है कि “ नई कहानी आजादी के बाद के हिंदी संसार के उस प्रसरणशील मानस की अभिव्यक्ति थी जो देश-काल के परिवर्तनों और संभावनाओं से आंदोलित होने के साथ ही साथ कहीं संशयशील और तनावपूर्ण स्थितियों से भी गुजर रहा था_ _ _यह परिवर्तन भारतीय परिवेश में एक ओर जहां अनिवार्य कारणों से अंतर्विरोध ग्रस्त था वहीँ दूसरी ओर उसमें लगभग उन्हीं कारणों से संगत भविष्य की परिकल्पना भी शामिल थी|”2 यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक ही उठता है कि सुरेन्द्र चौधरी जिस प्रसरणशील मानव की बात कर रहें हैं वह मानव कौन है और उसकी आकांक्षाएँ क्या हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें अमरकांत की कहानियाँ बहुत ही मुखर रूप में देती हैं| कहना न होगा कि यह मनुष्य कोई और नहीं वरन ‘आम आदमी’ ही है| अमरकांत ने इसी आम आदमी को और उसके व्यक्तित्व की द्वंद्वात्मकता को अपनी कहानियों का केन्द्र बिंदु बनाया है| इसके अंतर्गत शुभ और अशुभ का द्वंद्व, व्यष्टि और समष्टि का द्वंद्व, आशा और निराशा का द्वंद्व, परम्परा और आधुनिकता का द्वंद्व समाहित है|

      
अमरकांत जी 
समाज में जिस आम-आदमी को संघर्षरत देखा जाता है उसे साधारण रूप से लेखन में स्थान देने का कार्य अमरकांत की विशेषता रहा है| चूँकि यह आम आदमी जीवन जीने की प्रक्रिया में रहता है अतः जीवन की तमाम तरह की विसंगतियाँ, विद्रूपताएं, कुंठा, क्रोध, संत्रास एवं भय उसके स्वतःस्फूर्त विशेषण बन जाते हैं| अमरकांत ने इस आम आदमी के मनोविज्ञान को बहुत बारीकी से चित्रित किया है| कहीं उसकी जिजीविषा का प्रश्न महत्वपूर्ण है तो कहीं उसके अस्तित्व का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है| आम आदमी के अधूरे सपनों, उसकी अधूरी इच्छाओं को अमरकांत उनकी तमाम कमजोरियों के साथ चित्रित करते हैं| भारतीय मध्यवर्गीय तथाकथित आदर्शों के घटाटोप में छटपटाते आम आदमी की पूर्ण संवेदना यहाँ मुखरित हुई है|

      नई कहानी से संबद्ध होने के बाद भी अमरकांत की कहानियाँ बिना किसी जलसे जुलूस की सुलभ नारेबाजी के अपना संवेदनात्मक घनत्व तराशती हैं| वे सहज रूप से दिखाती हैं कि एक व्यक्तित्व संपन्न, मूल्य सजग और उत्तरदायी रचनात्मक दृष्टि क्या होती है| एक कहानीकार के रूप में उन्हें न किसी से जय चाहिए न किसी से पराजय वरन उन्हें चाहिए आम आदमी का भोग हुआ यथार्थ और उसका प्रामाणिक जीवन| अमरकांत की कहानियों के पात्र ओढ़ी हुई बौद्धिकता के अहंकार में अपने परिवेश से कट नहीं जाते वरन उनकी सहज मानवीय संवेदनाएँ बाह्य परिस्थितिओं से टकराकर ऐसे चरित्रों को जन्म देती हैं जो हमें नितान्त निजी लगते हैं| यदि त्रिलोचन के शब्दों में कहें तो-

“ पथ का वह राज-कण हूँ जिस पर छाप पगों की
यहाँ-वहाँ है, मूक कहानी सहज डगों की”3(दिगंत)

अमरकांत की कहानियों पर ऐसे अनगिनत पगों की छाप देखी जा सकती है|अमरकांत सामान्य से विशेष की ओर, विषय से विचार की ओर दिलचस्पी लेने वाले कहानीकार हैं| इनकी कहानियों का कोई सामान्य सा विषय क्रमशः वस्तु और उसके मूल्य में बदल जाता है| एक अति सामान्य लगने वाली रचना के बीच विशिष्ट विचार या विशिष्ट जीवन मूल्य बड़े सहज ढंग से लेकर आना ही उनकी एक खास विशेषता है| वस्तुतः इसी सन्दर्भ में अमरकांत की कहानियों को देखना उचित है|

      अमरकांत ने जब रचनाकर्म में प्रवेश किया तब की सामाजिक स्थिति आजादी के बाद मोहभंग की प्रतिक्रियास्वरूप देखी जा सकती है| मूलतः यह वही समय था जब द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद तमाम अस्तित्ववादी विचारधाराएं साहित्य को प्रभावित भी कर रहीं थीं| अपने अस्तित्व के लिए मनुष्य की जो जिजीविषा है उसे अतियथार्थ रूप में अमरकांत ‘जिंदगी ओर जोंक’ में प्रस्तुत करते हैं| इस कहानी के माध्यम से अमरकांत ने मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय अंतर्विरोधों को बड़ी गहराई से प्रस्तुत किया है| इस कहानी का मुख्य पात्र ‘रजुआ’ है, जो तथाकथित मानव समाज में एक कुत्ते या बैल जैसा निरीह चरित्र है, जिसे जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता की पूर्ती के लिए करुण काइयांपन करना पड़ता है| इस तरह इस कहानी में “ एक साधारण चरित्र के जीने की असाधारण लालसा का मर्मस्पर्शी और कारुणिक अंकन हुआ है|”4

रजुआ जीवन में ऐसा आसक्त है जो सूअर की तरह भी जी सकता है-“ उसके हाँथ में एक रोटी और थोड़ा अचार था और वह सूअर की भाँती चापुड़-चापुड़ खा बीच-बीच में वह मुस्कुरा पड़ता जैसे कोई बड़ी मंजिल सर करके बैठा हो|”5 उसके जीने की यह लालसा सचमुच चौकाने वाली है| इस कहानी में लेखक ने उस मानसिकता को भी उद्घाटित किया है जो सोचती है ‘नीच और नींबू को दबाने से ही रस निकलता है’ जिसके प्रतीक हैं शिवनाथ बाबू| रजुआ को निरपराध पीटने व घर का काम करवाने के बाद भी वे इसे न्यायसंगत और सही ठहराते हैं| “यह निर्लज्जता की पराकाष्ठा है| इस चोरी प्रसंग के जरिये कथाकार ने भारतीय समाज–व्यवस्था की विषमता और अछूतों तथा दलितों के प्रति सवर्णों तथा उच्च जाति के लोगों की घृणा एवं नफरत को तल्खी से चित्रित किया है| शिवनाथ बाबू के चरित्र के द्वारा लेखक ने मध्यवर्ग की घृणित सोच को बेपर्द कर दिया है| कथाकार ने आदमी के अंदर छिपे जानवर को निकाल कर रख दिया है|”6

 समाज की नजर में रजुआ की जिंदगी में कुछ नहीं है जीने के लिए किन्तु उसे इस बात का अहसास नहीं है वह जिंदगी में जीने का रस कई प्रकार से ले सकता है| वह अजीब से हँसता है , कबीर की उल्टी-सीधी बानियाँ बोलता है, प्रचिलित नारे लगाता है| मोहल्ले भर की महरियों से भौजी का रिश्ता जोड़ लेता है| कथाकार ने रजुआ के अंदर संवेदना और स्वाभिमान भी दिखाया है, जो उसे पशु से अलग करता है| वह पगली को शरण देता है, अपनी शारीरिक आवश्यकता की पूर्ती भी करता है| वह भीख नहीं मांगता, काम कर के खाना चाहता है| उसका जुझारूपन अद्भुत है अपितु इससे उसकी अमानवीय स्थिति का एहसास कम नहीं होता बल्कि वह और तीव्र हो उठती है|

      जिन्दा रहने की उसकी मुक्तिहीन मजबूरी अस्तित्व को साधे रखने के एक-एक तार के टूट जाने पर भी पीछा नहीं छोड़तीं| वह रुग्ण और घिनौने शरीर को बचाने के लिए टोटके का सहारा लेता है, अपने मरने की झूठी खबर उड़ाता है| जीवन के प्रति वह गजब का आशावादी और अस्थावान है| कहने को अमरकांत ने अपने अस्तित्व के लिए लड़ते एक ऐसे पात्र की रचना की है जो अपने जीवन जीने के प्रतिमान खुद निर्धारित करता है | साथ ही गहरे अर्थ में यह कहानी भारतीय समाज की कई परतों को भी खोलती है|

      रजुआ के बहाने अमरकांत ने उस वर्ग को रेखांकित किया है जो गाँव से शहर स्वप्निल सुख के लिए आता है| गाँव का गोपाल शहर का रजुआ बन जाता है| यह परिवर्तन मात्र नाम के स्तर पर नहीं होता अपितु उसके पूरे अस्तित्व को ही मिटा कर रख देता है| महानगर धीरे-धीरे मानव की मनुष्यता को टुकड़ों में निगल जाता है| कहने को रजुआ पूरे मोहल्ले का काम करता है, वह बिन पैसे का नौकर है| पर जब वह बीमार पड़ता है तो किसी के मन में उसके प्रति संवेदना नहीं होती| यहाँ रजुआ की स्थिति किसी वैश्या से कम नहीं है|

      रजुआ को देखकर सत्यकाम जी को बहुराष्ट्रीय कम्पनी की तरफ दौड़ते आई० टी० आई० प्रोफेशनल और आई०आई०टी० के मेधावी छात्रों की याद आती है| जो अपना अस्तित्व, अपनी अस्मिता साथ ही आदमी होने के अर्थ को ही भूलते जाते हैं| इनमें और रजुआ में बस ऊपरी फर्क है|

 कहानी में रजुआ ‘गान्ही महात्मा’ के अद्भुत किस्से सुनाता है जो गांधीजी की प्रासंगिकता के साथ लोकधारा में किंवदंतियों और मिथकों के निर्माण की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं| रजुआ की स्थिति को देखकर कई आलोचक इसे घीसू और माधव के समकक्ष रखते हैं| घीसू और माधव शोषित हैं लेकिन भोले नहीं हैं वे भुने हुए आलू खाने के लिए एक दूसरे को धोखा देते हैं पर रजुआ का शातिरपन पगली को पटाने में देखा जा सकता है| घीसू और माधव एक नम्बर के काइयां हैं पर रजुआ का काइयांपन करुण है| रजुआ एक ऐसा पात्र है जिसकी जरूरतें इतनी कम हैं की एक अमानवीय व्यवस्था भी उसे असंतुष्ट नहीं कर सकती है | रजुआ की जिंदगी को चकमा देकर जीते रहने की अभिशप्त नियति को कहानीकार सामने लाता है| वस्तुतः कहानी का महत्व भी इसी बात में है कि रजुआ कभी भी मर नहीं सकता है क्योंकि वह एक व्यक्ति नहीं मनुष्य का आदिम स्वभाव है उसकी प्रवृत्ति है| मनुष्य की अपार जिजीविषा जो किसी भी परिस्थिति में उसे जिलाए रखती है|

      आधुनिकता का पर्याय बने आज के मध्यवर्गीय समाज में किस तरह जाति व लिंग के आधार पर भेद भाव व्याप्त है ‘असमर्थ हिलता हाथ’ कहानी इन पक्षों को बड़ी ही मार्मिकता से उठाती है| कहने को आज हमने बहुत तरक्की कर ली है किन्तु क्या आज के समय में महिलाओं की स्थिति उस स्थिति से बेहतर है जब वैदिक समय में स्त्रियां विदुषी हुआ करती थीं| जब मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी, जाति कर्म द्वारा निर्धारित होती न कि जन्म के द्वारा| अमरकांत बड़े ही सरल ढंग से इन प्रश्नों को इस कहानी के माध्यम से उठाते हैं| आधुनिकता की होड़ में मध्यवर्गीय समाज की वह स्थिति जो स्त्री को स्वतंत्रता तो देती पर एक सीमा तक, जहां उसके रूढ़िगत संस्कार जो उसके सामान्य बोध का अंग भी हैं और जो तर्कों से परे है, आड़े नहीं आते| वहीं ये पित्रसत्तात्मक व्यवस्था भी उस पर तमाम पाबंदियां लगाने लगती है| अमरकांत ने इसी गड्ड-मड्ड मानसिकता को इस कहानी में उतरा है|

      कहानी में मुख्य पात्र है ‘मीना’ और उसकी माँ ‘लक्ष्मी’| दोनों ही रुढिवादी व्यवस्था में अपने सपनों का बलिदान करती हैं| लक्ष्मी साहस के आभाव में ऐसे व्यक्ति से शादी करती है जिससे वह प्रेम नहीं करती| जिससे उसके अंदर एक नकारात्मक भाव उत्पन्न होता है और वह इसी जाति और धर्म का सहारा लेकर दूसरों की भावनाओं को आहत करती है| इससे स्त्री के द्वारा संयुक्त परिवार के विघटन की समस्या एवं घर के सुख-शांति में एक अशांति व विषाद का माहौल भी फैलता है|

अमरकांत ने यह भी दिखाया है कि लक्ष्मी जब अपनी बेटी को भी उसी अवस्था में पाती है तो उसे उससे घोर इर्ष्या होने लगती है प्रतिक्रियास्वरूप वह उस पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाती है| किस तरह से परिस्थितियाँ ही एक स्त्री को स्त्री का दुश्मन बना देती हैं यह कहानी इस परिस्थिति को भी बड़े ही सहज ढंग से पेश करती है|

जिस समाज में ‘कामसूत्र’ जैसा साहित्य, अजंता एलोरा एवं खजुराहो की मूर्तिकलाएं और ताजमहल जैसी इमारत, प्रेम जैसे शाश्वत मूल्य की प्रामाणिक ऐतिहासिक विरासत हैं, उसी समाज में प्रेमियों को अनैतिक दृष्टि से देखा जाता है| यह बात इस कहानी में अपनी पूरी संवेदना के साथ उजागर हुई है| मीना का गैर ब्राह्मण लड़के से प्रेम करना ही उसके प्रति घरेलू हिंसा को बढ़ावा देता है| आज के मध्यवर्गीय परिवार की यह वास्तविक स्थिति है कि वह विजातीय बौद्धिक, सरल और श्रेष्ठ व्यक्ति से तमाम मेल-मिलाप रखता है किन्तु जब उससे रिश्ते बनाने की बात सामने आती है तो उसके वही जड़ संस्कार उसी श्रेष्ठ व्यक्ति को ‘नीच’ की तथाकथित संज्ञा से विभूषित करते नहीं थकते| कहानी में जब मीना का प्यार दिलीप से खुल जाता है तो यह मध्यवर्गीय ढोंग भी खुद-ब-खुद खुल जाता है| दिलीप हर प्रकार से उस ब्राह्मण वर्ग से श्रेष्ठ है जो अपने परिवार के अंदर ही स्त्री पर तमाम पाबंदियां लगाता है ओएश्रेस्थ होने का दवा करता है| यह गैर ब्राह्मण बहुत बुद्धिजीवी है जो औरतों के विषय में उदार सोच रखता है| वह स्वयं प्रेम का प्रस्ताव भी रखता है| यह समस्या कोई नई नहीं है अपितु आज तो हम अपने आस-पास इसे रोज घटित होते हुए देखते हैं| आज भी भारत में अंतरजातीय विवाह करने पर प्रेमी-प्रेमिकाओं को प्रताड़ित किया जाता है| गाँव के गाँव इसके विरोध में अमानवीयता की हद पार करने से भी नहीं चूकते, प्रेमियों की हत्या तक कर देने के बाद भी उन्हें कोई शर्मिंदगी नहीं महसूस होती| यह कहानी अप्रत्यक्ष रूप से आम आदमी की इसी मानसिकता को उजागर करती है|

      अपनी स्वतंत्रता के लिए मृत्यु-शैय्या पर पड़ी अपनी माँ की मृत्यु की बात सोचना भी मीना को आत्मग्लानी से भर देता है| ये उसके सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार के संस्कार ही थे| वह माँ की सेवा में दिन-रात एक कर देती है और उसके चार साल के प्रेम की मीठी यादें बस याद बनकर उसके अंतर्मन को आश्वासन देती हैं| यहाँ मीना जैसे उस आम लड़की का रूप धरण कर लेती है जो हमें अपने आस-पास कहीं भी दिखाई दे जायेगी| अमरकांत ने मीना के मनोविज्ञान को पकड़ने की सार्थक कोशिश की है| यहाँ मीना का व्यक्तिगत द्वंद्व भी दिखाई देता है| यह द्वंद्व है प्रेम और परिवार के बीच किसी एक पक्ष के साथ होने का, एक के चुनाव का| मजबूरन मीना अपने अरमानों का गला घोंटकर दिलीप को रिश्ता तोड़ने के लिए पत्र भी लिखती है| यहाँ अमरकांत ने स्त्री की घोषणात्मक शक्ति का भी संकेत दिया है जब मीना की सहेलियां उसके उपर लगी पाबंदियों के खिलाफ आमरण अनशन की बात करती हैं|

      कहानी के अंत में लक्ष्मी को मीना के चेहरे में ‘ एक पवित्र और निर्दोष जीवन की निष्फलता’ का दर्शन होता है और असमर्थ, असहाय अवस्था में मीना की सरल आत्मा को चुनौती मानकर उसे प्यार देना चाहती है, उसे बताना चाहती है कि मीना को उसके जीवन का फैसला खुद लेना चाहिए| वह अपनी अंतिम साँसें गिनते हुए जीवन की सच्चाई और मानवीय भावनाओं का सहज समर्थन करती है| लेकिन सामर्थ्य न होने की स्थिति में उसका असमर्थ हिलता हाथ’ इस बात का प्रतीक बन जाता है कि मीना फिर उसी इतिहास को दोहराएगी| लक्ष्मी की तरह वह भी इस रूढ़िवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आत्माहुति के लिए प्रस्तुत होने की स्वीकारोक्ति करती है—“अम्मा, माफ करो मैं वचन देती हूँ कि मैं वही करुँगी जो तुम्हारी इच्छा थी```|”7 यहाँ आम जीवन के यथार्थ पर लेखक ने व्यंग्यात्मक टिप्पणी की है| आम आदमी अपनी स्थितियों की तबदीली की तमाम कोशिशों के बाद भी असमर्थ है, वह परिस्थितियों का गुलाम बन जाता है| कुल मिलाकर कहानी का मुख्य “सवाल सिर्फ प्रेम-विवाह या अंतर्जातीय विवाह नहीं है| सवाल है मुक्ति का, आजादी का और इससे भी महत्वपूर्ण जड़वत संस्कारों को छोड़ने का|”8 अपनी परवर्ती कहानी ‘तूफ़ान’ में अमरकांत ने मीना से अलग एक और विकसित मानसिक स्थिति की नारी पात्र की रचना की है| सुमन नाम की यह लड़की अपने असमर्थ पिता के आगे अपनी नियति नहीं टेकती| वह अपने पिता को अपने प्रेम-विवाह का जो की अंतर्जातीय भी है, उसका निर्णय सुनाने में जरा भी नहीं हिचकिचाती| इस तरह हम देखते है कि अमरकांत के यहाँ आम-स्त्री के भिन्न-भिन्न चरित्र बिखरे हुए हैं| जो अपनी परिस्थितियों से मुठभेड़ करते संघर्षशील पात्र हैं| चाहे ‘रिश्ता’ कहानी की अनुपमा हो या ‘पक्षधर’ की दिव्या| ये सभी स्त्री पात्र सामान्य हैं और सामान्य परिवेश में पली-बढ़ी स्त्रियाँ हैं, लेकिन साथ ही अपने अंदर कहीं असामान्यता और असाधारणता का अंश लिए हुए|

      दोपहर का भोजन’ कहानी में भी एक अलग प्रकार की स्त्री का चरित्र अमरकांत सामने लाते हैं| यह कहानी निर्मम तटस्थता के साथ एक परिवार के माध्यम से समूचे निम्न-वर्ग के पीड़क आभावों को अंकित करती है| निम्न-मध्यवर्गीय भारतीय परिवार के वे लाखों आम-आदमी यहाँ पिता-पुत्र के माध्यम से आए हैं, जो काम की तलाश में दर-दर की ठोकरें खाते हैं| यह श्रम बेचने वाला वर्ग इस देश में कितना पीड़ित और शोषित है उसका चित्रांकन सफल रूप से करते हैं अमरकांत| अमरकांत के इस आम आदमी का चित्रण सहज ही हमें प्रेमचंद के पात्रों की याद दिला जाता है| जवानी की उम्र में भी चेहरे पर झुर्रियों का अम्बार, घर की स्थिति से वाकिफ़ और भूख लगने पर भी यही कहना कि “अधिक खिलाकर बीमार करना की तबियत है क्या?”9 इस अभावग्रस्त जीवन पर एक पीड़ादायी व्यंग्य है|

      पूरी कथा में सभी पात्रों द्वारा एक दूसरे की वास्तविक स्थिति को जानने के बाद भी परस्पर छुपाने की कोशिश कहानी को अतिकारुणिक बना देती है| परम्परागत प्राप्त तमाम भावनात्मक सम्बन्ध-सूत्रों और उनके माध्यम से बिखरने-बिखरने आ रहे ढाँचे को कायम रखने की एक निष्फल दयनीय चेष्टा पूरे प्रसंग में नजर आती है| कहानी को सीधे-सपाट ढंग से कहने के सन्दर्भ में सुरेन्द्र चौधरी का यह कथन उल्लेखनीय है—“ दोपहर का भोजन जैसी कहानियाँ अमरकांत की कहानियों में एक खास स्थान रखती हैं| ऐसी कहानियों के लिए अमरकांत को बुनावट की आवश्यकता नहीं होती है जो मार्मिक बनाए जाने के लिए काम में लाए जाते हैं| वातावरण और व्यक्ति के सार का अंतर्विरोध सहज ही इस कथ्य को प्रभावकारी बना जाता है| ऐसी कहानियाँ प्रेमचंद ने बड़ी सफलता से लिखीं हैं| प्रेमचंद के बाद साधारण जीवन के कथ्य पर ऐसा सहज अधिकार अमरकांत में ही मिलता है|”10

कहना न होगा कि बुनावट की जरूरत तो अमरकांत जी को ‘हत्यारे’ कहानी के लिए करनी पड़ी होगी, जो अपनी भिन्न कथन शैली के कारण उनकी कहानियों में अपनी एक अलग पहचान रखती है| यह प्रसिद्द कहानीकार हेमिंग्वे की कहानी ‘किलर्स’ का अनुवाद है| पूंजीवाद के पसरते पाँव ने जिस तरह की दोमुंही, मक्कार जीवन-शैली निर्मित की उसकी बहुत सहज परिणिति अमरकांत की हत्यारे जैसी महत्वपूर्ण कहानी है| वस्तुतः आजादी से आम आदमी का जो सपना जुड़ा हुआ था , दुष्यंत कुमार के शब्दों में—‘कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए’| वह आजादी के बाद टूट जाता है— कहाँ एक चिराग भी मयस्सर नहीं शहर के लिए’| यह कहानी उसी विकृत समाज को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत करती है| तथाकथित सभ्य समाज के बदले हुए दोगले रूप को बड़े ही सामान्य ढंग से पेश किया गया है|

‘हत्यारे’ एक प्रतीक हैं उस व्यवस्था की हत्या के जो स्वाधीनता आंदोलन के समय एक ‘यूटोपिया’ की भांति भारतीय मानस में थी| समाज में ये तत्व कोई एक या दो नहीं हैं बल्कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी मौजूद है यहाँ| इस कहानी के व्यापक सन्दर्भ में डॉ० नामवर सिंह लिखते हैं—“ सामन्य सी घटना, साधारण लोग| न मृत्यु का भयावह चित्रण और न चरित्रों में किसी महत्व का आरोप! किन्तु आभाषित होने वाली साधारणता के तल में एक ओर मृत्यु है ओर दूसरी ओर निरावरण निहत्था मानव! दोनों अपने असली और नग्न रूप में आमने-सामने! मृत्यु से भी भयानक क्या यह आत्मबोध नहीं है? कौन है जिसमें इस आत्मबोध तथा असहायता के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न न होगी! इस विषाक्त वृत्त से मुक्त होने की यह उत्कट आकांक्षा कहाँ कहानी का विषय और कहाँ कहानी का विचार ! कहानी किसकी है ? हर मानव की या एक मानव दल की, जिसने इस सामजिक व्यवस्था के अंदर एक ख़ासपेशा अपना लिया है?”11

      अमरकांत एक ऐसे रचनाकार हैं जो विषय से नीचे उतरकर अथवा ऊपर उठाकर किसी जीवंत सत्य को पकड़ने की कोशिश करते हैं| हत्यारे इसी प्रक्रिया की प्रामाणिक  अनुभूति है बदलते समाज में कैसे परिस्थितियाँ अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को निगल रही हैं | यहाँ युद्ध सीधे-सीधे नहीं अपितु शीत युद्ध है| यहाँ साम्राज्यवाद सीधे नहीं मानसिक रूप से हमें गुलाम बनाए हुए है| यह हत्या कोई चीख-पुकार-सनसनी पैदा नहीं करती अपितु यह ह्त्या है हमारे मूल्यों की| ये हत्यारे किसी व्यक्ति के हत्यारे नहीं हैं, वे सम्पूर्ण मानवीय विवेक, निर्णय क्षमता, और जीवन मूल्यों के हत्यारे भी हैं|12 और जो व्यवस्था उन्हें शरण देती है इससे भिन्न वह भी न कुछ हो सकती है और न है| अपनी अन्य कहानियों में भी अमरकांत इन हत्यारों की भिन्न-भिन्न तस्वीर पेश की है जो ‘गगन बिहारी’ कहानी भी इन्हीं हत्यारे युवकों का चित्र पेश करती है| ‘पलाश के फूल’ कहानी के राय साहब भी इन्हीं पात्रों की तरह स्वार्थी तथा आत्मकेंद्रित वर्ग के प्रतीक हैं|

      इन्हीं हत्यारों के चलते आज के आम-आदमी का अथक परिश्रम ‘डिप्टी कलक्टरी’ के पद के लिए, व्यर्थ चला जाता है| डिप्टी कलेक्टरी अमरकांत की पुरस्कृत कहानी है, जिसे आजादी से हुए मोह-भंग की स्थितियों की कहानियों के समकक्ष रखा जाता है| यह निम्न-मध्यवर्गीय उस मानसिकता को उजागर करती है जो अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का सपना डिप्टी –कलेक्टरी का पद पाने में देखता है| देश के लाखों युवक इस सपने को लिए गाँव से शहर की ओर पलायन करते हैं| इस कहानी के माध्यम से अमरकांत ने इस वर्ग की मानसिकता की कई परतों को खोला है| यह वर्ग जितना अपने कर्मों पर विश्वास रखता है, उतना ही भाग्यवादी है| इस आशा-निराशा के झूले में झूलते बाप-बेटे का द्वंद्व भी सामने आता है| सर्वप्रथम तो शकलदीप बाबू अपने निकम्मे बेटे की कटु आलोचना करते हैं और उसके डिप्टी-कलक्टरी के सपने का मजाक उड़ाते हैं| और बाद में अपने पुत्र को अध्ययनरत् पाकर स्वयं उसके इस लक्ष्य में पूरी जी जान से सहायता करते हैं| शकलदीप बाबू का यह करना जितना अस्वाभाविक लगता है, असल जीवन में यह उतना ही स्वाभाविक है|

      इस कहानी में कथाकार ने असफल युवकों के पीछे कुछ उनकी नैतिक कमजोरी, कुछ व्यवस्थागत भ्रष्टाचार दोनों ओर संकेत किया है| साथ ही शकलदीप बाबू के गहरे मनोविज्ञान को छूने की सार्थक कोशिश है| इस कहानी के सामाजिक सरोकार की बात न भी हो तो भी यह आम आदमी के संवेदनात्मक घनत्व को पूरी भावुकता के साथ उजागर करती है| “‘डिप्टी-कलक्टरी’ किसी समाज की उपलब्धि न हो तो भी उसके साथ जुड़ी बाप की महत्वकांक्षाएं एक बारगी ही अप्रासंगिक नहीं हो जातीं|”13

      अमरकांत की कहानियों में जो आम-आदमी की सम्वेदना है वह अपने बड़े मार्मिक रूप में ‘मौत का नगर’ कहानी में दिखाई देती है| यह कहानी सांप्रदायिक दंगों से होने वाली आम जीवन की परेशानियों को बड़े क्रूर रूप में उठाती है| अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए बड़े-बड़े राजनीतिक कार्यकर्ता इन दंगों को हवा-पानी देते हैं और परेशान होता है आम-आदमी जिसके रोजमर्रा के जीवन में न जाने कितनी जरूरतें बिना किसी भेद-भाव के ही पूरी होती हैं| अमरकांत अपनी इस कहानी के माध्यम से यही दिखाना चाहते हैं कि किस प्रकार यह दंगे एक दूसरे धर्म के प्रति भेद-भाव उत्पन्न करते हैं| सिर्फ इस आधार पर कि रिक्शे में बैठा दूसरा आदमी मुसलमान है राम का सारा शरीर सुन्न पड़ जाता है| अमरकांत ने इसी संवेदना को पकड़ने के लिए परिस्थितियों का वर्णन बड़ी सतर्कता से किया है| जिससे हिंसक वातावरण की अंदरूनी प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं| मुख्यतः अमरकांत की कहानियाँ युग के मुख्य सामाजिक अंतर्विरोध की खरी और बेलौस तस्वीर प्रस्तुत करती है| अपने समय के निम्न-मध्यवर्गीय जीवन की यथार्थवादी संवेदना की जीवंत और सार्थक दस्तावेज हैं अमरकांत की कहानियाँ| इन कहानियों के बारे में जब राजेन्द्र यादव यह प्रश्न उठाते हैं कि “अमरकांत का शायद ही कोई पात्र अपनी नियती या स्थिति को बदलने की बात सोचता या करता हो? जहां-जहां ऐसा है वहाँ उठे हुए उबाल की तरह फौरन ही ठंडा हो गया है| मैं आजतक तय नहीं कर पाया कि ‘जिंदगी और जोंक’ जीवन के प्रति आस्था की कहानी है या जुगुप्सा, आस्थाहीनता और डिस्गस्ट् की|”14 तब मुझे आम-आदमी की अपनी नियती को स्वीकार करने की दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ याद आती हैं—

“न हो क़मीज तो पावों से पेट ढँक लेंगे|
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए|”

वस्तुतः यही आम-आदमी की नियति भी है| यदि उसकी स्थिति में सुधार हो सकता तो वह आम नहीं ख़ास होता| अमरकांत के पात्र इसी आम संवेदना से संपृक्त हैं|वास्तव में आज का आम-आदमी अमरकांत की कहानी ‘मौत का नगर’ का ही नागरिक है जहां वह अपने अस्तित्व के लिए ‘जिंदगी से जोंक’ की तरह चिपका है| जिंदगी जीने की इसी जद्दोजहद कोशिश में वह ‘दोपहर का भोजन’ भी पेट भर नहीं पाता| अपने लिए चैन और सुकून की तलाश में वह एक ऐसा ‘मकान’ भी नहीं खोज सकता जहां वह आराम से जी सके|

      
उस जैसे कुछ लोग मिलकर यदि ‘बस्ती’ बना भी लेंगे तो यह व्यवस्था उसे स्वीकार नहीं कर सकती| जो सही और गलत में ‘फर्क’ करना नहीं जानती| इस नगर में एक तरफ़ ‘डिप्टी-कलक्टरी’ का सपना देखने वाला आम-आदमी भी है तो बिना घोड़े पर चढ़े घुड़सवारी की बड़ी-बड़ी डींगें हांकने वाला ‘घुड़सवार’ भी है| जहां ‘गगन-बिहारी’ जैसे पात्र भी हैं और ‘मूस’ जैसा जीवन व्यतीत करने वाले पात्र भी हैं|

साथ ही इस व्यवस्था को कायम करने में सबसे ज्यादा योगदान दिया है मानव-मूल्यों के उन ‘हत्यारों’ ने जो दोगले चरित्र के साथ बहुसंख्य रूप में ‘पलाश के फूल’ की तरह खिले हुए हैं और इन्हें ही ‘देश के लोग’ की स्वीकारोक्ति भी प्राप्त है| अपनी पूरी सच्चाई जानने के बाद भी अपनी स्थिति को बदलने में इस आम-आदमी का ‘हाथ असमर्थ’ है|

आज कवि जब यह प्रश्न उठता है कि –
“कोई किसी की तरफ़ है
कोई किसी की तरफ़
कहाँ है कोई आज आदमी की तरफ”

तो हम बेझिझक कह सकते हैं कि अमरकांत अपनी पूरी संवेदना के साथ इसी आदमी की तरफ हैं|

         सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची

1.  अमरकांत: कृतित्व एवं व्यक्तित्व की पड़ताल; सम्पादक-रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, इलाहाबाद प्रेस प्रकाशन-१९७७, पृष्ठ संख्या-१०७
2.     ‘अमरकांत: आम आदमी की प्रतिबद्धता के लिए’- सुरेन्द्र चौधरी, पूर्वोक्त, पृष्ठ संख्या- १४४-१४५
3.     दिगंत- त्रिलोचन
4.     नई कहानी नए सवाल- सत्यकाम, अनुपम प्रकाशन-२००२, पृष्ठ संख्या- ४५
5.     ‘जिंदगी और जोंक’- अमरकांत, प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबैक्स-२००७, पृष्ठ संख्या- ५२
6.      नई कहानी नए सवाल- सत्यकाम, अनुपम प्रकाशन-२००२ पृष्ठ संख्या- ४९
7.      ‘असमर्थ हिलता हाथ’- अमरकांत, प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबैक्स-२००७, पृष्ठ संख्या- ४७
8.    ‘अमरकांत की कहानियों का फलक’- डॉ० रामचंद्र, शब्दयोग, संपादक- आर० के० अग्रवाल, मार्च-२००७, पृष्ठ संख्या- ३७
9.     ‘दोपहर का भोजन’- अमरकांत, प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल पेपरबैक्स-२००७, पृष्ठ संख्या- १०२
10.  ‘अमरकांत: आम आदमी की प्रतिबद्धता के लिए’-सुरेन्द्र चौधरी, पूर्वोक्त, पृष्ठ संख्या- १५०
11.  कहानी नयी कहानी- डॉ० नामवर सिंह, लोकभारती प्रकाशन-२००६, पृष्ठ संख्या- १२२
12.  ‘अमरकांत के बहाने हिंदी कहानी पर बातचीत’: मधुरेश, आलोचना, संपादक- नामवर सिंह, अप्रैल-जून-१९७७, पृष्ठ संख्या-११०
13.  ‘अमरकांत: आम आदमी की प्रतिबद्धता के लिए’- सुरेन्द्र चौधरी, पूर्वोक्त, पृष्ठ संख्या- १४७
14.  अमरकांत: कृतित्व एवं व्यक्तित्व की पड़ताल; पूर्वोक्त, पृष्ठ संख्या- १८७
                
     अन्य सहायक-ग्रन्थ
1.      कहानी की बात- मार्कंडेय, लोकभारती प्रकाशन- १९८४
2.      विवेक के रंग- देवीशंकर अवस्थी, वाणी प्रकाशन- १९९५
3.      नई कहानी संदर्भ और प्रकृति- देवीशंकर अवस्थी, राजकमल प्रकाशन-२००२
4.      पश्यन्ती- अप्रैल-जून-२००२
5.      आजकल-जुलाई- २००७ 


कविता उपाध्याय 
तदर्थ प्रवक्ता , 
सत्यवती कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
ई-मेल kavitajnu7@gmail.com
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