रूपक:बागोर की हवेली 'मेवाड़ी संस्कृति का अप्रतिम झरोखा' /नटवर त्रिपाठी

           साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            
'अपनी माटी' 
(ISSN 2322-0724 Apni Maati
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश
रूपक:बागोर की हवेली 'मेवाड़ी संस्कृति का अप्रतिम झरोखा' /नटवर त्रिपाठी

(समस्त चित्र स्वतंत्र पत्रकार श्री नटवर त्रिपाठी के द्वारा ही लिए गए हैं-सम्पादक )

चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा
बागोर की हवेली। महज एक हवेली नहीं है, बल्कि यह मेवाड़ के गौरवशाली इतिहास, सामन्ती जनजीवन तथा लोक-संस्कृति का अप्रतिम झरोखा है। यह हवेली तत्कालीन शिल्प सौन्दर्य, कला-कौशल की प्रतीक और उस काल की स्मृतियों का सुनहरा पन्ना है। इस हवेली में आज भी उस कालखंड की विरासत, विश्वास तथा अभिरूचियों के दर्शन होते हैं। विश्व विख्यात पीछोला झील के किनारे बनी यह हवेली राजप्रासाद से सटी हुई है। एक पहाड़ी के निचले छोर पर पीछोला के पूर्वी तट पर निर्मित तीन मंझिली इस हवेली से पीछोला झील की अठखेलियां करती अपार जलराशि और इसके प्राकृतिक छवि के आकर्षण से सैलानी यहां खींचे चले आते हैं। 
   
बागोर की हवेली के चौक-चौबारे, झरोखे, सीढ़ियां, गोखड़े, चौपाड़, बारादरी, कक्ष, सकड़े भूल-भूलैया भरे आने-जाने के मार्ग, मेवाड़ी शान-शौकत और सामन्ती ठाठ-बाट के प्रतीक हैं। यहां आज भी हवेली के चप्पे-चप्पे पर रियासती संस्कृति की इबारत लिखी हुई है। समय ने करवट ली और उदयपुर स्थित मेवाड़ी वास्तु शिल्प के इस अप्रतिम गवाक्ष - बागोर की हवेली के हर कक्ष और हर कौने में पहले से उलट अब यहां लोक-कलाकारों की आवाजाही तथा लोक संस्कृति की अनुगूंज है। यहां हाथियों की चिंगाड़ और घोड़ों की हिन-हिनाहट के स्थान पर एकतारा और रावणहत्थे की स्वर लहरियां गूंजती सुनाई पड़ती है। अब यहां रजवाड़ी शान-शौकत वाले सामन्ती स्त्री-पुरुषों की जगह लोक कलाकारों तथा शिल्पियों ने ले ली है। अब पायल के झंकार के स्थान पर घुंघरूओं पर लोक लहरियां झंकृत होती है।  

रियासत काल में जगह-जगह ‘हवेली’ परम्परा रही, परन्तु अन्य रजवाड़ी हवेलियों से बागोर की हवेली की बात ही न्यारी है। इस हवेली के चौक-चौबारेे, जनानी-मर्दानी ड्यौढ़ियों में बागोर के राजकुमार और मेवाड़ के भावी महाराणा खेला करते थे और यहीं उनके निकटतम परिजन रहते थे। यह कहा जा सकता है कि उस काल में यह हवेली राणाओं के राजप्रासाद का ही एक लघु रूप थी। रियासतों के राज्यों में विलय के साथ ही वक्त ने करवट ली और समूचा परिदृश्य बदल गया। पर्यटकों के स्वर्ग उदयपुर स्थित मेवाड़ी वास्तुशिल्प के इस अनुपम स्थल बागोर की हवेली का कौना-कौना उस काल खण्ड के रहन-सहन, खान-पान, पूजा-पाठ, शौर्य, वीरत्व और सांस्कृतिक जनजीवन की मुंह बोलती कहानी बयां करता है। यह हवेली इस लिहाज़ से राजमहलों की मान मर्यादा, रीतिरिवाज, रहन-सहन की ही अनुकृति है। इस रियासती हवेली में अब पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र का मुख्यालय है, जहां चप्पे-चप्पे पर, हवेली के लगभग 138 स्थलों एवं कक्षों में पश्चिम भारत की लोक संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन एवं उन्नययन के कार्य-कलाप गत ढ़ाई दशक से संचालित हैं।

विश्व प्रसिद्ध विशाल जलराशि वाली ऐतिहासिक पीछोला झील के किनारे तथा उदयपुर के राजमहलों के पार्श्व में स्थित यह हवेली इतिहास प्रसिद्ध गणगौर  घाट पर स्थित है। यह हवेली और गणगौर  घाट रियासती काल से गणगौर  और तीज़ त्योहारों का केन्द्र रहा और अब देशी-विदेशी सैलानियों की यह रमण स्थली है। पीछोला झील में बने ख्याति प्राप्त ‘जगनिवास’ (लेकपेलेस) जो अब ताज ग्रुप का पांच सितारा होटल है और ‘जगमन्दिर’ जहां शहजादे खुर्रम को मेवाड़ के महाराणा द्वारा आश्रय दिया गया था। पर्यटक हवेली से इस नैसर्गिक सौन्दर्य को निहारते-निहारते प्रफुल्ल होे जाते हैं और दिन भर कैमरों की यहां क्लिक गूंजती रहती है। एक ओर जहां उन्हें हवेली का पुरातन शिल्प लुभाता है, वहीं दूसरी ओर झील की दृश्यावली तथा वहां से आता मन्द-मन्द पवन उनके हृदय में सिरहन पैदा करता है। झील के तटों पर बने, लालघाट, नावघाट, जनानाघाट, राजघाट से चांदपोल तक वीरूघाट, मौरसिरी घाट शिवालय तथा अन्य देवी-देवताओं के अनेक मन्दिर, सामन्तों की हवेलियां  सैलानियों के लिए विशेष आकर्षण हैं। 

गणगौर  घाट पर विस्तृत इस तीन मन्जिली हवेली में राजप्रासाद शैली का पौराणिक शिल्प सौन्दर्य, निमार्ण की विशिष्ट रीति का आला-गीला, आयरिश, घुटाई तथा संदला काम, आकर्षक चित्रकारी, नक्काशी और काँच पर सूक्ष्म पच्चीकारी कला तो सैलानियों के आकर्षण हैं ही, साथ ही इन्हें प्रतिदिन सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा संचालित सांस्कृतिक आयोजन ‘धरोहर’ के माध्यम से प्रदेश की लोक संस्कृति के अनेक आयामों के साथ रू-ब-रू कराया जाता है।  यह हवेली अपने आप में वास्तविक स्थापत्य शैली का संग्रहालय है, जिसमें पहले राजसी मन्त्रणायें होती थी, पारिवारिक रास रंग, तीज-त्यौहार, गणगौर  के उत्सव होते, गीत और बधावे गाये जाते थे अब यहां के चौक-चौबारों में लोकगीतों, नृत्यों और परिष्कृत संगहालय में रजवाड़ी संस्कृति के सहज दर्शन होते हैं। पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने, हवेली का पुनर्नवीनीकरण कर संग्रहालय स्थापित किया जिसमें शाही परिवारों की जीवन शैली, स्थापत्य, सांस्कृतिक लोकाचार एवं पुरातन गौरव को हुबहू प्रदर्शित किया गया। रियासती रहन-सहन और हवेली जनजीवन पर आधारित संग्रहालय जिसमें संगीत शिक्षा कक्ष, बैठक, रसोड़ा, परेण्डा, माजीसा का कमरा, पूजा कक्ष, स्नानागार, श्रृंगार कक्ष, गणगौर कक्ष, आमोद-प्रमोद कक्ष, शयन कक्ष आदि हैं, वहीं केन्द्र की अन्य गतिविधियों में कठपुतली कक्ष, पुस्तकालय, चित्र बीथी, चित्रकारों के लिए ग्राफिक गतिविधियां अबाध रूप से चलती रहती है। फव्वारा चौक और तुलसी चौक जो कभी राजसी लोगों के मनोरंजन और वार्तालाप के स्थल थे, अब वहां नित रोज लोकगीत एवं नृत्यों से शाम सजती है। इसके अतिरिक्त यहां समय समय पर कार्यशालाएं, संगोष्ठियां तथा प्रशिक्षण शिविर आयोजित होते हैं।

संगमरमरी प्रासाद के दरवाजों, झरोखों, ताकों में पच्चीकारी का काम व कॉच के बेलबूटे, फूल और गुलदावरी की कतारें, पक्षियों की आकृतियां आदि का मनमोहक कार्य आज भी पुरातन झलक लिये हुए है। कॉच की इस कारीगिरी में निर्जन वन में डोलते हाथी की तस्वीरें ऊकेरी गई हैं। बाहर दोनों झरोखों में कॉच के नयनाभिराम मोर बने हुए हैं। इसी कॉच की कारीगिरी और प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण इस हवेली को सदा से प्रसिद्धि मिलती रही। हवेली में रंगीन कॉच के शीशों के जरिए कमरों में आती-जाती धूप एवं प्रकाश का नजारा एक अलग ही प्रकार के आनन्द की अनुभूति देता है। तीव्र गर्मी और धूप में भी कॉच के प्रभाव से झील का शीतल मनोरम दृश्य मन को छू लेता है। यहीं नहीं समूची झील का प्रतिबिम्ब इस हवेली पर पड़ता है, तो हवेली की खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं।

यह हवेली रियासत के प्रधान बड़वा अमरचंद द्वारा निर्मित करवाई गई थी, जिसमें वह मृत्यु पर्यन्त रहा। अमरचन्द महाराणा प्रतापसिंह द्वितीय (वि.स. 1808-1810 ई. स. 1751-1753), महाराणा राजसिंह (वि.स. 1810-1817, ई.सन् 1754-1761), महाराणा अरिसिंह (वि.स. 1817-1829, ई.सन् 1761-1773), तथा महाराणा हमीर सिंह (वि.स. 1829-1834, ई.सन् 1773-1778) के काल में मेवाड़ के प्रधान रहा। महाराणा प्रतापसिंह ने ई.सन् 1751 में अमरचंद को ‘ठाकुर’ का खि़ताब और ताज़ीम देकर अपना मुसाहिब बनाया। प्रतापसिंह महाराणा बनने से पहले  कैद था, उस समय बड़वा अमरचंद ने उसकी बड़ी खैरख्वाह के साथ नौकरी की थी।  

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (वि.स. 1767-1790, ई.सन् 1710-1754) के चार पुत्र थे। ज्येष्ठ जगतसिंह (जो मेवाड़ के महाराणा हुए, वि.स. 1790-1808, ई.सन् 1734-1751), इनके अनुज नाथसिंह को बागोर (भीलवाड़ा) की जागीरी प्रदान की गई। इस प्रकार महाराणा जगतसिंह के अनुज नाथसिंह बागोर ठिकाने के प्रथम पुरुष थे। महाराणा के भाई (अति निकट संबधी) होने से बागोर तथा करजाली और शिवरती के सभी सरदारों को महाराज की पदवी मिली। महाराणा जगतसिंह के अनुज नाथसिंह के बाद दूसरे व तीसरे अनुज बाघसिंह और अर्जुनसिंह को क्रमशः करजाली और शिवरती के ठिकाने दिए और वे भी महाराज कहलाए। बागोर के महाराज नाथसिंह के पुत्र सूरतसिंह के वंश में शिवसिंह को नेतावल की जागीर मिली।   

मेवाड़ के महाराणा जवानसिंह का कार्यकाल (वि.स. 1885-1899, ई.सन् 1828-1838) था। उनकी निःसंतान मृत्यु के पश्चात् मेवाड़ की गद्दी पर बागोर के नाथसिंह की तीसरी पीढ़ी में महाराज शिवसिंह के ज्येष्ठ पुत्र महाराणा सरदारसिंह वि.स. 1895-1899, ई.सन् 1838-1842), महाराणा सरदारसिंह ने अपने अनुज सरूपसिंह को गोद लिया और वे मेवाड़ के महाराणा बने जिनका कार्यकाल वि.स. 1899-1918, ई.सन् 1842-1861 रहा। इनके बाद बागोर के शार्दुलसिंह के पुत्र शंभुसिंह बागोर से महाराणा हुए (वि.स. 1918-1931 ई.सन् 1861-1874) तथा इसी वंश में शक्तिसिंह के पुत्र सज्जन सिंह (1831-1941, ई.सन् 1874-1884) बागोर ठिकाने से गोद लिए गए और मेवाड़ के महाराणा हुए ।  

प्रधान बडवा अमरचंद की मृत्यु के पश्चात यह हवेली मेवाड़ राज्य के शाही परिवार के आधिपत्य में आ गई।   इस हवेली में बागोर ठिकाने के महाराणा सरदारसिंह, सरूपसिंह, शंभूसिंह तथा सज्जनसिंह तथा निकटतम परिजन महाराज शक्तिसिंह, शेरसिंह, शिवदानसिंह, रूपसिह, समृतसिंह सोहनसिंह, बागोर हवेली से शिवसिंह, समन्दरसिंह, भैरूसिंह, मोतीसिंह, भोपालसिंह आदि सामन्तगण  नेतावल हवेली से सम्बद्ध रहे थे। महाराज नेतावल भोपालसिंह की मृत्यु पर महाराणा भूपालसिंह वि.स. 1969 ई.सन् 1912 में मातमी बैठक के लिए नेतावल हवेली में आये। हरिसिंह नेतावल के अन्तिम महाराज थे। 

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के तीसरे पुत्र (महाराज नाथसिंह के भ्राता बाघसिंह) के वंश में झालिमसिंह को नेतावल जागीर मिली तथा सन् 1840 ई. में इसी परिवार के शिवसिंह को बागोर की हवेली के पाशर््व में उस समय खाली पड़ी जगह जहां धोबी कपड़े धोया करते थे वि.स. 1946 ई.सन् 1889 में दी गई, वहां नेतावल हवेली निर्मित हुई।                                                                                                                                                                                                                               
 नेतावल हवेली अब बागोर हवेली का ही अहं हिस्सा है।महाराणा सज्जनसिंह के काल में ई.सन् 20 सितम्बर, 1875 से लगातार तीन दिन तक ऐसी वर्षा हुई जैसी पिछले तीन सौ वर्ष में नहीं हुई थी। नदी नाले बड़े वेग से बढ़ने लगे। पीछोला में जल बहुत चढ़ जाने के कारण उदयपुर में चांदपोल और ब्रह्मपुरी में जल प्लावन से अनेक घर डूब गए और बागोर की हवेली में इतना अधिक पानी आया कि किश्तियां चलने लगी। त्रिपोलिया और हनुमानघाट के यहां ऐसा बहाव था जैसे कोई नदी बह रही हो। 

 बागोर के महाराजा नाथसिंह के कुल से चार महाराणाओं के उपरान्त अन्य वारिस न होने से छोटे भाई बागोर के महाराज अर्जुनसिंह (शिवरती) के वंश से फतहसिंह महाराणा बने।  बागोर ठिकाने के राजकुमारों में से बने महाराणाओं का बचपन इस हवेली में चौक-चौबारे और गलियारों में बीता और ये महाराणा बाद में भी विवाह और जन्म-मृत्यु के अवसरों पर अपने निकटस्त परिजानों के पास हवेली में आना-जाना रहता था। महाराणा सज्जनसिंह के पिता महाराज शक्तिसिंह और इनसे पूर्व के बागोर महाराज गण भटियानी चौहट्टा स्थित बेमाली हवेली में रहते थे। उदयपुर के महाराणा ने ई.सन् 1808 में बागोर के महाराज शिवदान सिंह को जयपुर से बुलवाया, बागोर की जागीर का हकदार बनाया और अमरचंद बड़वा की हवेली जो बागोर हवेली कहलाई में निवास करने के लिए आज्ञा दी।  महाराणा के पिता महाराज शक्तिसिंह ने बागोर की हवेली में निवास के दौरान त्रिपोलिया पर कच्छ महल का निर्माण करवाया, जिसका 1878 में विधिवत मुहुर्त हुआ। महाराणा की ओर से महाराज शक्तिसिंह को  65 हजार रु. वार्षिक भत्ते के साथ बागोर की हवेली में रहने की अनुमति प्राप्त हुई। सन् 1880 में महाराणा सज्जनसिंह स्वयं बागोर की हवेली गये और सरदारों की उपस्थित में महाराज शक्तिसिंह को  पट्टा प्रदान कर उन्हें बागोर का स्वामी घोषित किया गया।  कच्छ महल में निर्मित काँच की नक्काशी बहुत सुन्दर और खूबसूरत है। संगमरमरी प्रासाद के दरवाजों, झरोखों और ताकों में काँच के बेलबूटे, गुलदावरी की कतारे, पक्षियों की नयनाभिराम आकृतियां, निर्जन वन में डोलता मदमस्त हाथी और काँच पर जो उत्कीर्ण है बरबस लुभा देने वाले सावन के नृत्यरत मोर किस किस के मन को न छू लेता हैं। दर्शक, सैलानी, गायक, नर्तक, कलाकर्मी और हर रंग में रंगे लोगों को यह चित्ताकर्षक पच्चीकारी सकून देती हे। रंगीन काँच के शीशों और दरवाजों पर यह सब प्रस्तुत किया गया है। इन शीशों के जरिये अन्दर आती धूप-छांव तथा प्रकाश का आनन्द एक अलग ही माहोल उत्पन्न करते हैं। अलग-अलग रंगों के काँच और मौसम का अपना अलग महत्व व गणित है। यही नहीं सम्पूर्ण पीछोला झील की जलराशि का प्रतिबिम्ब इस हवेली पर पड़ता है, तो हवेली की खूबसूरती में चार चांद और जड़ जाते हैं। शरदपूर्णिमा की रात्रि की चांदनी में इस हवेली का नज़ारा कुछ और ही होता है। जब बागोर ठिकाने में कोई उत्तराधिकारी नहीं रहा तो महाराणा फतहसिंह ने बागोर की हवेली को वि.स. 1946, ई.सन् 1889 में राज्य के अधीन कर लिया।  उनके उत्तराधिकारी महाराणा भूपालसिंह (1930-1955) ने इस हवेली का पुनर्निर्माण करवाया तथा इसे राज्य का तीसरी श्रेणी का देशी सत्कारालय (इण्डियन गेस्ट हाउस) बनाया, जहां अन्य राज्यों से आये हुए देशी मेहमान ठहराये जाने लगेे।  प्रधान बड़वा अमरचंद ने पीछोला के पूर्वी किनारे राजघाट (गणगौर घाट) तथा त्रिपोलिया का निर्माण करवाया, जहाँ पर प्रतिवर्ष चैत्र (मार्च/अप्रेल) माह में गणगौर उत्सव मनाया जाता है।  

बागोर के महाराजा शिवदानसिंह तथा कर्नल डॉड अभिन्न मित्र थे। दोनों एक दूसरे के प्रति स्नेह एवं भाईचारा रखते थे। कर्नल टॉड के अनुसार शिवदानसिंह का साहित्य, इतिहास, संगीत-नृत्य के प्रति अनुराग था। संगीत शास्त्र के अन्तर्गत स्वर एवं वाद्य के सिद्धान्तों की उन्हें अच्छी जानकारी थी। स्वर संगीत की रागों के भेद तथा प्रत्येक राग की छह रागनियों की व्याख्या वह बड़ी निपुणता से करते थे। मेवाड़ के अच्छे गाने वाले स्त्री-पुरुष उसके आश्रय में रहते थे जिन्हें शिवदानसिंह कभी-कभी कर्नल टॉड को सुनवाते थे। संगीतकारों के मध्य हवेली में संगीत गोष्ठी का आयोजन प्रायः ग्रीष्म ऋतु की चांदनी में रात में बिछे हुए गलीचों पर होता था।   

पीछोला की ओर खुले झरोखे, उसमें से झांकती बरबस निगाहें, मेहराबदार गुम्बद और मेवाड़ी वास्तुकला के गोखड़ों में बैठे लोग, निहारते दृश्य, यहां पर आयोजित होने वाले उत्सव, त्यौहार और समारोहों पर परस्पर हेल-मेल और समूचे परम्परागत परिदृश्य व ठाठ-बाट को नयनों में समेटते रजवाड़ी स्त्री-पुरुषों की यह दृश्यावली सहज ही आंखों के सामने उतर जाती है। यही नहीं सर्दी में गरम और गर्मियों में ठण्डे रहने वाले इन राजप्रासादों में मर्दाने चौक-चौबारे, घुड़साल, हाथीठाण, ऊपर-नीचे बनी तिबारियां, नीम के वृक्ष, तुलसी चौरा, मेहराबदार स्तम्भ, स्नान घर, श्रृगांर-कक्ष, शयन कक्ष और उनकी स्थिति उसके कालक्रम में उनकी रहनी-सहनी की खुली पुस्तक है। हवेली का मुख्य द्वार  मेवाड़ी राजप्रासाद के दरवाजों की ही तर्ज पर बड़े ही सुन्दर ढंग से बना हुआ है, जिसकी शोभा अपने आप देखते ही बनती है। इस हवेली की छत से भव्य राजप्रासादों की शोभा, जगह-जगह पक्के घाट, शिवालय, सरदारों की हवेलियां, कहीं-कहीं बाग-बावड़ियों की बहार, समीपस्त पर्वतमालाओं से टकराती जलतरंगो का दृश्य, नाना प्रकार की वन वृक्षावलियां, जल में मगरमच्छ, मछलियां, कछुए के किलोल, बतक, हंस, बक, सारस, शुक, सारिका, कमाल आदि सुन्दर पक्षियों के मनोहारी कलरव के उठने से सब प्रकार का यह स्थल सुहावना बना रहता है। झील के किनारे, जलबुर्ज दरवाजे के निकट मन्दिरों की अवलियां तथा वहां कभी रही साधु सन्यासियों की पर्णकुटियां वाला यह स्थल तब तपोवन सा लगता था, जिसकी झलक अब भी दिखलाई पड़ती है। उदयपुर के प्रसिद्ध महल सज्जनगढ़, पीछोला में स्थित जगनिवास (लेकपेलेस) तथा जगमन्दिर, नटनी का चौरा, झील के ईर्द-गिर्द मन्दिरों की विस्तृत श्रृंखला और नगर के एक हिस्से की बसावट सहज आंखों में समा जाती है। शरद पूर्णिमा के दिन बागोर की हवेली का प्रतिबिंब एक अलग ही आभायुक्त लगता है। नटनी का चौरा (चबूतरा) कभी दरीखाना रहा, यहां फ़कीर जलालशाह रहते थे जिसे जलाल्या भाटा के नाम से भी जाना जाता है। वस्तुतः यह चबूतरा महाराणा सज्जनसिंह ने बनवा कर इसका नाम चन्द्रप्रकाश रखा था जो शरद ऋतु व चैत्र मास की चन्द्रिका की शोभा निहारने में प्रयुक्त होता था। 

बागोर की हवेली में प्रवेश करने के पूर्व गणगौर  घाट से सटा हुआ एक स्थान है, जो दरवाजे से बंद ‘‘पखाल घाट’’ कहलाता है। यहां से भिश्ती तब मशकों से पानी भरते थे। प्रवेश द्वार से पहले मोर चौक है। बायीं तरफ बागोर ठिकाने के महाराज नाथसिंह के छोटे भाई सूरतसिंह के वंश में शिवसिंह की नेतावल हवेली है। दायीं ओर नीचे घुड़साल उसके ऊपरी मंन्जिल पर दरीखाना व कॉच के शीशमहल हैं। प्रवेश द्वार से सटा हुआ कमरा मुनीम कामदारों का है। इसके साथ सटे कमरे हैं, वे पहले नहीं थे, अन्दर की घुड़साल होती थी। सामने हाथी गढ़-हाथीढ़ाण था। इसके आसपास फराश खाना हुआ करता था। अन्दर संकरे-संकरे गलियारे नुमा रास्ते बनाए गए। यह भी कहा जाता है कि हवेली के अन्दर ही अन्दर से राजमार्ग तक का रास्ता हुआ करता था, पर इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। गणेश ड्योढ़ी में प्रवेश से पहले दायीं ओर पीछोला झील पर जाने का मार्ग और घाट है। राजप्रासाद में नाव से आने-जाने एवं गणगौर  की सवारी में आने-जाने का विशेषकर जनानी डोलियां उतरने-चढ़ने का मार्ग है। यही बने दो कमरों में से एक गणगौर  माता का है जिसमें गणगौर  की मूर्ति और उनके वस्त्रादि रखे जाते थे। यहीं से सीढ़ियां चढ़ते ही फव्वारा चौक आता है। यहीं बाणनाथजी का मन्दिर है जिसकी छत पर पानी के हौज बने थे जिनमें रहट द्वारा पानी भरा जाता था। बाणनाथजी (नर्मदेश्वर) के मन्दिर के झरोखों से पानी गिरता था जो फिर से पीछोला में मिल जाता था। यहां पानी से चौक में फव्वारे चलते थे, जो हवेली को गर्मी में शीतलता देते थे। यह हिस्सा जनाना चौक का हुआ करता था। तब यहां बाणनाथजी की बड़े मनोभाव से पूजा अर्चना होती थी। चौक महिलाओं की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। इसे कभी कमल चौक भी कहते थे। यहीं कंवरपदा महल है। चौक के ऊपरी मंजिल पर जहां इस समय गेस्ट हाउस ह,ै दरीखाना हुआ करता था जहां हर महिलाओं के बैठने का स्थान निश्चित था। पुरुषों की भांति महिलाओं के भी दरीखाना हुआ करते थे। कमल चौक के पार्श्व में ठाकुरजी का चौक है, जिसे अब तुलसी चौक जाना जाता है। यह चौरस भवन है। इसमें ऊपर दो मन्जिल और इसके नीचे एक और मन्जिल है, जो माणक चौक में खुलता है। 

जनानी ड्यौढ़ी में ऊपर-नीचे सात-सात कमरे और ठाकुरजी के दो कमरे अलग से हैं। इन कमरों के नाम यहां रहने वाली सामन्तों की पत्नियों ठिकानों के नाम से होता था। ऊपर तीसरी मन्जिल के कमरे आवास के थे जो और नीचे के कमरे निजि सामान होते थे। इस जनाना महल के कमरों के नाम इस तरह थे: बहू बीकानेरी, मांजी मेड़ताणी, दादी सास की चौपाड़, सिरोहीजी आदि। महिलाओं के नाम से नहीं बल्कि ठिकानों के नाम से कमरे जाने जाते थे। जब जिस ठिकाने की विवाहोत्तर महिलाएं यहां आती थी उन कमरों के नाम उनके ठिकानों के अनुरूप बदल जाते थे। पीताम्बर नाथजी ठाकुर जी के चौक, जनानी ड्यौढ़ी के ऊपर कंवरपदा महल के ऊपर रंगमहल है। इसकी विशेष स्थिति है। यहीं सुन्दर चित्रकारी की हुई है। यू तो पूरे महल के प्रमुख हिस्सों में चित्रकारी है तथापि प्रमुख हिस्सों में बहुत उम्दा चित्रकारी हुइ है। जो अब काफी फीके हो गए हैं, कहीं सफेदी पुत गई है, किरायेदारों ने हवेली के कई हिस्सों को क्षत-विक्षत भी किया,  परन्तु हवेली के पुनर्नवीनीकरण के समय इनका रिटचिंग और रिलीफ कार्य करके इसके चित्रकारी के मूलस्वरूप को फिर से उभारने के प्रयत्न किए गए।  इस हवेली में भी आने जाने के अनेक संकड़े-संकड़े रास्ते हैं और छोटे-छोटे दरवाजों वाले प्रवेश द्वार जिनका महत्व सुरक्षा की दृष्टि से हुआ करता था ताकि कोई अचानक पीछे से तलवार उठा कर न मार दे। यही व्यवस्था महाराणाओं के राजप्रासादों में भी रही है। यही नहीं प्रत्येक आंतरिक महल से बाहर आने जाने के रास्ते अलग-अलग एवं अनेक सीढ़ी मार्ग हैं।

इस हवेली की छत पर छोटी बुर्ज, बड़ी बुर्ज है, जहां से पीछोला, सज्जनगढ़ और सामने के रम्य प्राकृतिक दृश्यावली व गणगौर उत्सव के दृश्य देखे जा सकते हैं। नीचे माणक चौक में ऊपर जनाना महल का ही एक हिस्सा ह,ै जो पीछोला झील की ओर है। इसे पहले कोस्ट्यूम और अब कठपुतली म्यूजियम बनाया गया है। यही नहीं रनिवास के सामान्य कामकाज़, दरीखाना एवं महलों आन्तरिक हिस्सों में चलते रहने वाली पारिवारिक गतिविधियों का हिस्सा थी। छत पर जल घड़ी हुआ करती थी। कपास के दिये जलाये जाते थे। बाणनाथजी एवं पीताम्बर नाथ जी के सेवापूजा की खास व्यवस्था थी और महलों रहने वाले स्त्री-पुरुष इन दोनों हवेली मन्दिरों में सेवा-पूजा करते थे। पीछोला की ओर खुलने वाले दरीखाने व कमल चौक में मुज़रे हुआ करते थे और मनोरंजन के तथा नृत्य-गान-भजन आदि के आयोजन भी हुआ करते थे। इस समय नेतावल हवेली का जो हिस्सा है, उस समय रसोड़े हुआ करते थे। 

हवेली के ईर्द-गिर्द एवं पीछोला के घाटों पर अनेक मन्दिर हैं। कुछ मन्दिर प्राचीन तो कुछ समय-समय पर निर्मित हुए। सुबह-शाम यहां घंटा नांद एवं पूजा-अर्चना होती है। बागोर की हवेली से ही सटा हुआ एक त्रिपोलिया दरवाजा जो राजनगर के सफेद संगमरमर से बना सुन्दर कॉच की नक्काशी और चित्रकारी युक्त है। इसका निर्माण अमरचंद बड़वा ने करवाया। अमरचंद ने यहीं ‘अमरकुण्ड’ बनवाया जिसके चारों ओर घाट बनवाए थे। सज्जनसिंह के समय पीछोला का विस्तार हुआ और उत्तर व दक्षिण के घाट पीछोला विस्तार के लिए तोडे गए। यहीं पूर्व में पीछाला के तट पर जो गणगौरघाट (राजघाट) है, यहां तत्कालीन राणाओं की मेवाड़ी संस्कृति से लगा कर आज तक यह त्यौंहार इसी घाट पर धूमधाम से मनाया जाता है। मेवाड़ उत्सव का अब यह आयोजन स्थल है। उत्सव में सब कुछ वैसा ही बस राजसी ठाठ-बाट और वैसी रौनक अब देखने को नहीं मिलती है। समूचा उत्सव वर्तमान सामाजिक एवं धार्मिक परिवेश में होता है। यहीं समूचे नगर के जाति समाज की गणगौरें लाई जाती है और गणगौर  की छवि निखरती है। राणाओं के काल के उत्सव और सवारी की बात ही न्यारी थी। तब राणाजी हाथी पर सवार हो कर राजसी सभासदों व सामन्तों के साथ उपस्थित होते थे। पूरा राजघाट गाजे-बाजे, समारोह की मनमोहक सजावट, रंग-बिरंगे सतरंगी परिधानों में सजीली सामन्ती नारियां, अचकन पहने, हथियारबंद रियासती लोग, सजी-संवरी गणगौर,  ईसरजी तथा आम लोगों की उपस्थिति से  वातावरण सराबोर रहता था। 

इस हवेली में रहने वाले बागोर के सामन्त महाराणाओं की मान्यताओं, रस्म रिवाज़ों को मानने, करने वाले और सामन्तों की बिरादरी में महत्वपूर्ण थे। समान व्यवहार, समान रहन-सहन और खान-पान हुआ करता था। हवेली शासन व्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा थी। जिस प्रकार राजमहलों में दरबार और दरीखाना हुआ करते थे, इस हवेली में भी दरीखाना होता था। दरीखाना से अभिप्राय है कि हवेली के सामन्तों से दरबारियों अथवा उनके समकक्ष सरदार व उमरावों का एक शिष्टाचार के अनुसार बैठने, मिलने और बातचीत का स्थल। दरीखानें में प्रत्येक आगन्तुक के लिए स्थान निश्चित रहता था और सामन्तों के साथ बैठक उनके पद, ओहते, सम्बन्ध के अनुरूप होती थी। इसी प्रकार जनाना दरीखाने होते थे और इन दरीखानों में आने-जाने, बैठने-उठने के शिष्टाचार निर्धारित थे। बातचीत और मंत्रणाएं दरीखानों हुआ करती थी। इस हवेली में भी मर्दाने और जनाने दरीखाने हुआ करते थे। जन्मोत्सव, त्यौहार, शौक, तलवार बंदी (उत्तराधिकारी के लिए जागीर की मान्यता) तथा महाराणा या विशिष्ट लोगों के आगमन पर भेंट और मुलाकात का स्थल बैठक दरीखाना कहलाता था, जहां मान्य शिष्टाचार का पालन होता था। महाराज के सामने, आजू-बाजू और मुंह के सामने (मूंडा बराबर बैठक) किसकी बैठक रहेगी तय था। हवेली के अन्य सदस्यों के लिए भी बैठने का स्थान निर्धारित था। 

हवेली के सामन्तगण हिन्दू रीति-रिवाजानुसार धार्मिक उत्सव और त्यौहार मनाते थे। वर्ष का प्रत्येक माह किसी न किसी तयौहार से सम्बन्धित होता है। महाराणा द्वारा राजमहलों में मनाए जाने वाले गणगौर, होली, दीपावली तथा दशहरा, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, गणेशचतुर्थी, नवरात्रि आदि त्यौहारों में हवेली के सामन्तगण सक्रियता से सम्मिलित होते और पारिवारिक अंग के तौर पर इनमें हिस्सा लेते थे। प्रत्येक त्यौहार में महाराणाओं के आसपास और उनकी जिम्मेदारी तय रहती थी, जिसके अनुरूप हवेली के सामन्तों को निर्वाह करना होता था। इस हवेली के महाराज को महाराणा के दांयी ओर मुंडा बरोबर बैठक थी। इन त्यौहारों के अवसर पर हवेली में एक अलग ही रौनक रहती थी। गणगौर के अवसर पर महाराणा नक्कारे की आवाज पर घोड़े पर बैठकर राजघाट (गणगौरघाट) पीछोला की झील के किनारे आते थे। एकलिंगगढ से तोपों की सलामी होती थी। महाराणा के दोनों और ‘चंवर’, ‘छत्र’, ‘छंहागीर’, ‘किरणिया’, ‘अडाणी’ आदि लवाजमा होता था। इस समय वीरता और दोहों के गान सवारी की शोभा बढ़ाते थे। डा. राजेन्द्रनाथ पुरोहित के अनुसार गुलाब और चमेली की सुगन्ध के मध्य मेवाड़ी महिलाओं की भीड़ छायी रहती थी। बागोर की हवेली की छत, झरोखों और गोखड़ों से सामन्ती परिजन इस आनन्द को लूटते और समूचे परिदृश्य के कहीं न कहीं हिस्सेदार होते थे। यहां आतिशबाजी होती थी। राजमहल से सजी काष्ट गणगौर माता के दोनों ओर 'चंवर’ होते और हाथी-घोड़ों का लवाजमा रहता था। राजघाट पर घूमर नृत्य होता था। त्योहारों पर राजमहलों में दावतें होती जिसमे हवेली के सामन्त सपरिवार सम्मिलित होते थे। 

राणा और सामन्त अत्यन्त सहिष्णु पर नियम कायदों के कठोर किन्तु सादगी भरा जीवन जीने वाले थे, दिखावे और ऐशो-आराम  जिन्दगी से परे थे। मेवाड़ सदा ही युद्ध में संलग्न रहा, परन्तु जब शान्ति काल आया तो अवश्य ठाठ-बाट में किंचित बढ़ोतरी देखी गई। उसी अनुपात में सामन्तांे और हवेली के सभासदों के जीवन में भी थोड़ा अन्तर अवश्य देखने को मिला। अन्य सामन्तों ही के समान इस हवेली के सामन्त भी अपने राणा के आन-बान-शान और मर्यादा के लिए सदा उद्यत्त रहते थे। जब कभी महाराणा हवेली में आते तो सामन्त सदा ही दरीखाने में नीचे ही बैठते थे। कुर्सियां और सोफे नहीं होते थे। दरीखाने में दरी ओर ऊपर बड़ा गद्दा तथा मखमली चादर होता था। पीछे मोडा और पार्श्व में गोल तकिए होते थे। राणाजी यहां आकर सामन्तों की तथा परिवार की कुशलक्षेम पूछते थे। हवेली में प्रातःकाल उठते ही बहुओं को सास के पास पैर छूने, पगे लागने जाना होता था। इनकी पहली सन्तान का विवाह स्वयं राणाजी करवाते थे। पहली शादी का खर्च और बन्दोबस्त महलों से होता था। गहने-कपड़े-लत्ते महलों से आते थे। रिश्ता भी राणाजी की सहमति से होता था। शेष पुत्र-पुत्रियों का विवाह सामन्तों के अपने खर्च से होता था परन्तु वर निकासी महलों से होती थी। पहली संन्तान का नामकरण स्वयं दरबार करते थे। हवेली के सामन्तों के यहां पुत्र-पुत्री के जन्म होने पर राजमहल में तीन दिन का सूतक माना जाता था। तद्परान्त राजमहल का शुद्धिकरण किया जाता था। महाराणा इनके यहां होने वाले विवाह समारोह में सम्मिलित होते और भेंट प्रदान करते थे। 

महाराजगण शिकार के शौकीन थे। महाराणा के साथ शिकार में भी ये सम्मिलित रहते थे परन्तु अपनी स्वेच्छा से भी ये छोटे-मोटे शिकार के लिए अपने लवाजमें के साथ निकल पड़ते थे। हवेली में भी नाच-गान, संगीत सभा, नौका विहार तथा कुश्ती, के आयोजन होते थे। हवेली में जनाना के लिए गंजीफा, चौपड़ तथा ताश के खेल थे। तोते पाले जाते थे। माण्डने और चित्रकारी का प्रचलन भी हवेली के जनाना में था। महाराणा के केम्प में बागोर का डेरा महाराणा के दायीं ओर रहता था। धायबाई बाल-बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करती थी। हवेली के बाणनाथजी और पीताम्बरजी मन्दिर में सालाना वर्ष गांठ, बच्चों के जन्म दिवस पर विशेष अनुष्ठान और उत्सव होते थे। 

हवेलियों के गोखड़ों में निर्माण तकनीक भी वही समानता होती थी, परन्तु किसी भी हवेली में राणाजी के महलों की बराबरी नहीं की जाती थी। गोखड़ों के नीचे रंगीन रेजे की ज़ाजमें बिछती थी। गादी-मोडां पर रेशमी-मखमल के कलप किए हुए कवर लगाए जाते थे। पर्दे झरमरियों वाले होते थे। रंगीन कॉच वाला महल शीश महल व कच महल कहलाता था। हवेलियों में पीतल के हुक्के, छत पर रंगीन हांडियां, मोमबत्ती रखने का लालटेन का चौरहा, दीपक-दीवड़, सजावटी खिलौने, हाथी-दांत की वस्तुएं, पींजरे, पक्षी, कई डिजायनों के रूई के पर्दे होते थे। जनाना महल को ‘रावला’ बोलते थे। पलंग जो चांदी के पायों का होता था उसे ‘सांगवो’ कहते थे और उस पर निवार रहती थी। निवार पर कवर रहता। बड़ा बिस्तर व गलीचा बिछा रहता था। पलंग पर 4-6 तकिए रहते थे। गाल तकिए भी होते थे। हाथ तकिए अलग से रहते थे। पलंग के स्लोप होते जिसे ‘पड़पाया’ कहते हैं। पलंग के चादर को वजनी शेर से बंधा रखते ताकि चादर इधर-उधर खिसके नहीं। सामान रखने की पेटियों को मंजूष कहते हैं। इन पर सुन्दर कपड़ा लगा रहता था। एक पोषाक की ओवरी होती थी, तथा भण्डार में घरेलू सामान होते थे। गहने रखने के लिए चांदी के डबूसे रहते। शराब पीने के प्याले, चुश्किियां चांदी के होते थे। हवेलियों में हाथी ठाण व घुड़साल से समूची हवेली में रौनक रहती थी और महलों सी गतिविधियां संचालित होती थी। 

अधिकांश सरदार प्रातः सूर्योंदय के समय उठते थे। उठकर इष्टदेव के दर्शन करते। शौच आदि से निविृत हो मिट्टी से बारह बार हाथ पक्षालन करते। दातुन नीम या बबूल का करते थे। चाय का प्रचलन नहीं था। स्नान बाजोट पर बैठ कर, घडे़ से लौठे द्वारा होता था। पुरुष गड़बा लेकर खड़ा रहता था। साबून का प्रयोग नहीं था। स्नान के अंत में घड़े के पानी में जरा गंगाजल मिलाया करते थे और अन्तिम स्नान गंगाजल से करते थे। स्नान के समय कंधे पर एक उपवó रहता था। शरीर पौंछने के लिए लंबा वस्त्र ‘डील पूंछणियो’ तोलिया होता था। स्नान से पूर्व क्षौर कर्म होता था। प्रायः स्नान बंद कमरे में होता था पर कभी खुले में भी। स्नान के समय पुरोहित सिर और धड़ तक हाथ लगा सकते थे, परन्तु नाई आदि नीचे के अंगों को पौंछते थे। स्नान घर में कड़े वाली कोठियां, गंगाजली और लौठा होता था। सामन्ती महिलाओं को नायनजी स्नान कराती थी। अस्वस्था के दौरान स्नान नहीं होता था। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के पश्चात स्नान अनिवार्य था। मर्द स्नान से पूर्व मालिश करते और वर्जिश, पहलवानी भी करते थे। राणाजी के बुलावे पर पहलवानी महलों में होती अन्यथा कहीं बाहर होती। अखाड़े की व्यवस्था हवेलियों में प्रायः नहीं होती थी। स्नान के उपरान्त मलमल का कुर्ता, मलमल की बगलबण्डी, सफेद धोती, सिर पर अंगोछा, गले में रुद्राक्ष की माला और जनेऊ धारण करतेे थे। 

स्नानान्तर सामन्त विभूति लगाते  सदैव धारण करते और पूजा के आसन पर बैठ कर बाणनाथजी महादेव के मस्तक पर बीलपत्र व पुष्प चढ़ाते तथा श्रद्धावनत होते थे।   कर्मांत्री या कथा भट्ट विधि विधान से पूजा कराता था। स्वयं सामन्त ब्राह्मण के साथ-साथ मन्त्रोचारण करते। पूजा प्रायः एकलिंग महादेव और अपने-अपने इष्टदेव की होती तथा सामन्तों के पुरोहित विष्णु, शिव, गणेश तथा शक्तियों के दर्शन कराते। माला जप चलता और प्रातः पूजा के पश्चात् कथा शुरु होती। कथा वाचन भट्ट-मेवाड़ा ब्राह्मण करते थे। इस समय महाराजगण सपरिवार उपस्थित रहते थे। जनाना पर्दे में बैठते थे। पूजा-पाठ के काम काज के लिए सेवक रहता था। महाराज शिवरात्रि पर कैलाशपुरी स्थित एकलिंगेश्वरजी में मनोरथ मनाने जाते थे। ऐसे समय कई बार हवेली के सामन्त महाराणा के साथ होते थे। नवरात्रि स्थापना पर होम यज्ञ होता था। पूजा के उपरान्त ब्राह्मण भोजन और गौग्रास निकालने का चलन था। श्रावण मास में सामन्त पुरोहित के घर जाते और भेंट देते थे।  नवरात्रि में हवेलियों में हवन-पूजन के विशेष आयोजन होते थे। मन्दिर में सदा भोग चढ़ता था। पूजा के उपरान्त पक्षियों को धान डाला जाता था। ब्राह्मण को तिस से भरा कटोरा दान निकलता था। श्रावण मास में बाणनाथजी के बील पत्र चढ़ाए जाते थे और 1-2 बार पुरोहित के निवास स्थल पर जाते थे। 

स्नान-पूजा पाठ के बाद सामन्तगण मध्याह्न पूर्व भोजन करते। भोजन अपने परिवार, सगे और जनाना के साथ करते। सायं 15-20 लोगों का भोजन होता था। जब पुरुष भोजन कर रहे होतेे तो जनाना नहीं होता था। शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन की पृथक व्यवस्था रहती थी। सामन्त गलीचे और गादी पर बैठते, जबकि अन्य दोनों ओर पंगत में सफेद पांतिए पर भोजन करते थे। भोजन के समय बैठे-बैठे ही अभिवादन (मुज़रा) का रिवाज़ था। भोजन में चांदी के थाल के नीचे पलाश के पत्ते की बाज ‘‘पनावड़ा’’ रखना अनिवार्य था। बर्तन चांदी के होते थे। भोजन करने से पूर्व भोजन को देवार्पण (अपुसान) करने के समय कर्मांन्त्री मन्त्रोचारण करता रहता था। तद्परान्त गंगाजल से आचमन के उपरान्त भोजन प्रारंभ होता था। जो सरदार भोजन नहीं करते उन्हें थाल में से परसादी दी जाती थी। पेयजल के लिए अनुचर रहता था जिसे पानेरी कहते हैं। पात्रों पर नाम खुदा रहता था। भोजन के उपरान्त ताम्बूल का सेवन किया जाता था। सायंकाल का भोजन प्रायः जनानी ड्योढ़ियों में होता था।

रसोड़े दो प्रकार के थे, एक ब्राह्मणी और दूसरा सामिष। अधिकतर खान-पान, रहन-सहन महलों के समान ही होता था। सामिष भोजन में दो-तीन प्रकार के मांस, मोटी घृत युक्त, आधी घी-युक्त, चुपड़ी और बिना चुपड़ी रोटी होती थी। कई बार सामन्तगण भोजन के लिए महाराणा के यहां आमन्त्रित रहते थे। भोज्य सामग्री में सोयता, पुलाव, रोटी, चावल-दाल, चना, उड़द, मूंग, तुअर की दालंे, मेवाड़ की प्रचलित मिठाईयां, लड्डू, जलेबी, फीणी, घेवर, खाजा, सीरा, लाप्सी तथा मौसमी सब्जियां आदि होती थी। भोजन के बाद आराम और फिर महलों में जाना होता था। मद्यपान का प्रचलन था और सामन्त अपने वर्ग के सामन्तों, ठिकानेदारों के साथ अथवा अपने जनाने के साथ मद्यपान करते थे। मद्य में आसो, गुलाब, दुबारा आदि मद्य पेय होते थे। पीने के बर्तनों में दारू चुश्की, प्याला व गिलास आदि रहते थे। शराब के साथ ‘‘खारबूझणा’’ खाद्यों में सूला, फासला, टिकिया, समोसा, पिश्ता, काजू और बादाम आदि परोसे जाते थे। रात्रि भोजन जनाना के साथ ही चलता था। सामन्तों की महिलायें भी मद्यपान करती थी। भोजनोपरान्त हस्त प्रक्षालन के लिए एक ‘‘मर्दानियां’’ नाई हाथ में गढ़वा लिए होता जो ‘‘पाले’’ बर्तन में पक्षालन कराता था।

यूं सामन्तों के आहार में इन चीज़ों के अलावा फीणी, घेवर, ससकुली, अमरस, काली रोटी, मठड़ी, जलेबी, शक्कर की रोटी, दूध की रोटी, केसरिया भांत खिचड़ी, गूंजा, खुरमा, खीर, मुरब्बा, मीठा खीच, पापड़, पापड़ी, खेरा, आचार, दूध-दही,-छाछ तथा पछावर आदि रहते थे। फलों में मौसमी, बड़बोर, सेव, अंगूर, केला, नाशपत्ती, अनार व अमरूद प्रमुख है।दोपहर में आराम होता था और कोई रियासत के कामकाज हों तो उन्हें निपटाये जाते थे। दोपहर के बाद महाराणा के साथ और स्वतन्त्र रूप से भी नगर की सैर जलबुर्ज, बड़ी तालाब, सज्जननिवास बाग, सहेलियों की बाड़ी, चौगान, हजारेश्वर, फिल्ड क्लब, फतहसागर, महाकाल, अन्य सरदारों और उमरावों के निवास तथा कर्मचारियों के बीमारी में स्वास्थ्य पूछने जाते थे। सायंकाल हवेली में बाणनाथजी के मन्दिर में ज्योति दशर्न करते थे। रात्रि 9 बजे पश्चात शयन होता था। सामन्तों का दिन में कुछ समय धार्मिक चर्चाओं में बीतता था और शिवरात्रि, नर्जला एकादशी, दशामाता आदि पर उपवास रखते थे। हवेली के सामन्तगण पारिवारिक और सामाजिक बन्धनों और उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते थे।  

महाराज पगड़ी, अंगरखी, चूड़ीदार पाजामा, कमरबन्दा तथा गले में रूमाल पहनते थे। त्यौहार के समय अमरशाही पगड़ी, डोढ़ी तथा डुप्पट्टा पहनते थे। कभी कभी अंगरखी पर अचकन भी पहनते थे। इसके अलावा मौसम और राजकीय उत्सवों अनुसार भी पहनावे में अन्तर था। पूजा के समय एकलंगी धोती, अंगोछा, दुशाला पहनते थे। सर्दी में दुशाला के अतिरिक्त ‘पामरी’ भी पहनी जाती थी। हवेली में जनाना की पोषाक अन्य रियासतों की पोषाक की ही भांति थी। जनाना पोषाक में मुख्य रूप से गोटा-किनारी की काँचली, कुर्ती, लहंगा अथवा पेटीकोट अथवा घाघरा और साड़ी या ओढ़नी पहनी जाती थी। साड़ियों में लेहरिया, काला लेहरिया, लेहरिया चूंदड़ी, फागणिया और राजाशाही लेहरिया प्रचलित थे। श्राद्ध पक्ष के अलावा महिलाएं गोटा-किनारी के वस्त्र पहनती थी। हवेली में चांदी के झूले और बर्तन होते थे। 

 हवेली में राणाजी की रीति-रिवाज वाली ही पगड़ियां बान्धनी होती थी। हवेली में भी रंगमहल के ही रस्म-रिवाज थे। पगड़ियां कई प्रकार की थी। अलग-अलग प्रकार की पगड़ियां अलग-अलग समय पर पहनी जाती थी। अमरशाही पगड़ी, बखरमा पगड़ी, मरजादिक पगड़ी, अरसीशाही पगड़ी तथा भीमशाही पगड़ी होती थी। साधारण पगड़ी को बखरमा पगड़ी कहते थे। मरजादिक पगड़ी उत्सवों में, अरसीशाही पगड़ी की खड़ी सीधी ‘टोंक’ को मोड़कर तथा सामने की ओर के सलों के अपेक्षा बंटमा ओटे लगाकर पहनी जाती थी। उमरावों के कंवरों को भीमशाही पगड़ी बांधनी होती थी। उत्सव के समय पगड़ी पर तुर्रा व छोगा लगाना आवश्यक था। सामन्तों के कंवर होकार पक्षी की कलंगी लगाते थे। बहुत पहले पगड़ी पर बालाबंदी लगाई जाती थी, परन्तु कालान्तर में पछेड़ी का रिवाज़ प्रारम्भ हुआ। प्रत्येक सामन्त को अपनी कमर में तलवार तथा गुप्ती बांधना जरुरी था। सफर में बन्दूक आवश्यक थी। बसन्त पंचमी से दीपावली तक अमरशाही पगड़ी, तथा ‘‘डोढ़ी’’ दीपावली से आगे पहनी जाती थी। पांव में जूतियां पहनी जाती थी। 

आभूषण में पुरुष कुण्डल, कर्णफूल, हार, लड़, जड़ाऊ पौचा, बाजूबन्द तथा मुद्रिका आदि जेवर पहनते थे। पुरुष पगड़ी पर सरपेच, रत्न जड़ित चन्द्रमा,  पछेवड़ी कान में मोती, गले में मोतियों का हार, नाद, पहुंचिये, कड़े, अंगूठी, पांव में लंगर, पगसांकला तथा तोडिये  पहते थे। महिलाओं की पोषाक में मुख्य रूप से गोटा-किनारी की कांचली, घाघरा और ओढ़नी पहनी जाती थी। साड़ियों में काला लेहििरया, लेहरिया चूंदड़ी, फागणिया, राजाशाही लेहरिया प्रचलित थे। स्त्रियों के आभूषणों में सिर मांग पर बोर-रखड़ी, कानों में कर्ण फूल, कर्ण कुलुजा, मच्छिया, पीपलपतरा, एरिंग, नाक में नथ तथा कांटा, गले में अनेक प्रकार के हार, कंठी, पन्ना जटित तिमणिया, तुलसी, कंठसरी, कंठमाला, चन्द्रहार, हाथों के बाजूबंद, हथफूल, चांदी-सोना के कड़े, चूड़ियां, डंके की चूड़ियां, घुंघरियों की चूड़ियां, पहुंचिये, कांकण, भुजबन्द, टीपें, लाख और हाथी दांत की चूड़ियां, अंगूठी, कन्दौरा, पायल, घुंघर, झांझरिया, तोड़िया, लंगर, बिछुड़ियां तथा जोड़ होती थी। प्रसाधन में स्नान हेतु उबटन तथा इत्र का प्रयोग था। महिलाएं दर्पण, कंगा, खुशबूदार तेल, इत्र हीना, लवेंडर व गुलाब आदि प्रयोग में लेती थी। केवड़ा सेवंत्री, मोगरा और मोती के इत्र प्रचलित थे। 

बागोर के सामन्तों की नियुक्ति मेवाड़ राजतंत्र की कुलीय आधार पर थी, जो मेवाड़ के प्रमुख महाराणा द्वारा अपने शासन तंत्र को निर्बाध चलाने के लिए सगोत्री बांधव सम्बन्धी व कुल के लोगों से सहायता प्राप्त करते थे। अन्य सामन्तों की तरह बागोर के महाराज जागीरदार के साथ साथ शासन तंत्र के अहं भूमिका का निर्वाह करने वाले थे। बागोर की हवेली के अनेक सामन्तों का बचपन उनके ठिकानों में ही बीतता और वहीं उन्हें शिक्षा-दीक्षा तथा शस्त्र विद्या सिखाई जाती थी, जिसमें घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवार एवं बन्दूक चलाना सम्मिलित थे। नवरात्रि पर इस हवेली में नौ दिन माताजी का पूजन होता था। 

हवेली में जनाना कमरे अलग थे। उनको न तो कोई देख सकता था और न ही बातचीत कर सकता था। पीहर पक्ष के मिलने आते तो उन्हें दरीखाने में ठहराया जाता था तथा उनके मिलने का स्थान और समय निश्चित कर दिया जाता था।  हवेली में रहने वाली महिलायें लहंगा, कांचली, ओरना आदि पहनती थी परन्तु त्यौहारों पर विशेष वस्त्र पहने जाते थे। डावड़ियों और ठुकराईन के कपड़ों में केवल गुणवत्ता का अन्तर होता था अन्यथा वस्त्र समान होते थे। हवेली की ठुकराइने अपने सामन्तियों की हवेलियों में मेलजोल और त्यौहार पर पालकी में बैठ कर जाती थी। हवेली की महिलायंे रानी साहिबा के साथ त्यौहार मनाती थी और उनके महल में उनके लिय स्थान भी निश्चित रहता था। महिलाओं की वेशभूषा रंग को छोड़कर समान होती थी परन्तु बड़ी रानी के वस्त्र गुणवत्ता में उच्चता लिये होते थे। त्यौहारों पर कपड़ांे के प्रकार निश्चित थे। हरियाली अमावस्या पर हरा, फागण पर फागुणी और बसन्त पंचमी पर पीलिया आदि पहना जाता था।  
आजादी के उपरान्त यह हवेली राज्य के पी.डब्ल्यू.डी. विभाग के अधीन आई, जिसे राज्य सरकार के कर्मचारियों के निवास के लिए उपयोग में लिया। लगभग चालीस वर्ष तक हवेली के रख रखाव पर ध्यान नहीं दिए जाने के कारण यह जर्जर अवस्था में पहुँच गई। वर्ष 1986 में जब पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र का गठन हुआ तो राज्य सरकार ने बागोर की हवेली को केन्द्र का मुख्यालय स्थापित करने के लिए सौंपा। देश में तब सात सांस्कृतिक केन्द्रों की स्थापना हुई, उसमें से पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, एक पंजीकृत संस्था है। पश्चिम राज्यों में राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा तथा केन्द्र शासित प्रदेश दमण, दीव नागर हवेली का मुख्यालय राजस्थान राज्य को मिला। उस समय केन्द्र के मुख्यालय के भवन स्थल का निर्णय होना था। एक मत था कि, शहर से दूर प्राकृतिक रम्य वातावरण में अच्छा और आधुनिक भवन निर्मित किया जाये अथवा मेवाड़ की सांस्कृतिक स्थली रहे बागोर की हवेली जो पीछोला के घाट पर बनी है को चुना जाय। इस विषय पर लम्बी-चौड़ी बहसे समाचार पत्रों से लेकर विभिन्न बैठकों में हुई। अन्ततः मेवाड़ राज्य की यह धरोहर केन्द्र के मुख्यालय के लिए चुना गया। इस हेतु एक तकनीकी शाखा का सृजन किया गया। इस हवेली में 138 जीर्ण-शीर्ण कक्ष, बरामदे व गलियारे थे जिन्हें हवेली की प्रामाणिकता व स्थापत्य शैली को ध्यान में रखते हुये पारम्परिक आयरिश प्रणाली और घुटाई कार्य करवा कर इसके  पुनर्निर्माण में हवेली के प्राचीन स्वरूप ज्यों का त्यों बनाये रखा जो अत्यन्त कठिन और श्रम साध्य था। हवेली के मूल स्वरूप को परिवर्तित नहीं किया गया और मेवाड़ी शैली को संरक्षित रखा। कई जगह फर्श नया लगाया गया, लकड़ी, झाली, झरोखें के कार्य किए। इस प्रकार मृत प्रायः भवन का पुनरूद्धार किया गया। 

बागोर की हवेली के ऐतिहासिक महत्व व स्थापत्य सुन्दरता को देखते हुये केन्द्र ने प्रारम्भ से ही इसे संग्रहालय में बदलने का सोचा गया था। प्रारम्भिक विचार के अनुसार राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा भारत के पश्चिमी राज्यों की संस्कृति को प्रदर्शित करने सम्बन्धित संग्रहालय स्थापित करने का प्रस्ताव था। दूसरे विचार के अनुसार यह महसूस किया गया कि हवेली की आकर्षक स्थापत्य शैली एवं इसकी अद्भुदता स्वयं इसकी विशेषता है। यह हवेली अपने आप में वास्तविक स्थापत्य शैली का संग्रहालय है, इसलिये इसे महाराष्ट्र व गोवा की संस्कृति से सम्बन्धित संग्रहालय के रूप में स्थापित किया जाना हवेली की स्थापत्य कला के दृष्टिगत में अप्रासंगिक समझा गया। 

इस हवेली के संरक्षण का दूसरा दौर हवेली में एक संग्राहलय बनाने के निर्णय के साथ वर्ष 1991-92 से इस मानसिकता के साथ हुआ कि विविध उपायों से इस हवेली को सीलन से बचाव किए जाए। दीमक और कीटाणुओं पर नियन्त्रण हो, रोशनदानों में सुधार हो। पुरातन तत्व को सुरक्षित रख उन्हें मजबूती दिये जाते रहने के उपाय किए जाय। पुराने निमार्ण से छेड़छाड़ न की जाए और बचे हुए भीतिचित्रों को संरक्षित रखा जाये। मजबूती और ठोस देने के लिए ढ़ांचागत विशेषताओं को अक्षुण्य रखा जाये, गोखड़े और झरोखों को उसी स्वरूप में रहने दिया जाय तथा कालम व क्रास बार तकनीक का इस्तेमाल हो। अजनबी और बाहरी बेहिसाब परिवर्तनों और परिवर्धनों को हवेली मौलिक के अनुकूल हटाए गए, पुरातन स्वरूप की तमाव विशिष्टताओं को बनाए रखा और किंवाड़ों के पुरातन स्वरूप को भी उसी प्रकार बनाए रखा।   

बागोर की हवेली के ऐतिहासिक महत्व व स्थापत्य सुन्दरता को देखते हुये केन्द्र ने प्रारम्भ से ही इसे संग्रहालय में बदलने का सोचा। प्रारम्भिक विचार के अनुसार राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा भारत के पश्चिमी राज्यों की संस्कृति को प्रदर्शित करने सम्बन्धित संग्रहालय स्थापित करने का प्रस्ताव था। दूसरे विचार के अनुसार यह महसूस किया गया कि हवेली की आकर्षक स्थापत्य शैली एवं इसकी अद्भुदता स्वयं इसकी विशेषता है। यह हवेली अपने आप में वास्तविक स्थापत्य शैली का संग्रहालय है इसलिये इसे महाराष्ट्र व गोवा की संस्कृति से सम्बन्धित संग्रहालय के रूप में स्थापित किया जाना हवेली की स्थापत्य कला के दृष्टिगत में अप्रासंगिक समझा गया। पांच वर्ष के श्रम साध्य प्रयास एवं विशाल धनराशि व्यय करके हवेली का पुनर्नवीनीकरण कर 1 दिसम्बर, 1997 को यह संग्रहालय स्थापित किया जिसमें शाही परिवारों की जीवन शैली, स्थापत्य, सांस्कृतिक लोकाचार एवं पुरातन गौरव को हुबहू प्रदर्शित किया गया। यह हवेली अपने आप में वास्तविक स्थापत्य शैली का संग्रहालय है

केन्द्र के अधीन राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र गोवा व केन्द्र शासित प्रदेश दमन, दीव व दादरा नगर हवेली हैं। इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत बहुत समृद्ध है। इस प्रदेश में एक तरफ जहां ऐतिहासिक मरू प्रदेश राजस्थान है, वहीं दूसरी ओर अरब सागर के समुद्र तट को छूता हुआ गोवा प्रदेश है, जो अपने पुराने पुर्तगाल शासन की यादें समेटे हुए हैं। इस केन्द्र की स्थापना पश्चिमी क्षेत्र राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा व केन्द्र शासित प्रदेश दमन, दीव व दादरा नगर हवेली में सांस्कृतिक रचनात्मक विकास, प्रदर्शनकारी कलाओं, चाक्षुष कलाओं, साहित्यिक कार्य, पारम्परिक लोक व जनजाति कलाओं के उन्नयन व संरक्षण के लिए की गई। इस केन्द्र की स्थापना का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत को बंद दर्शक दीर्घाओं की बजाय विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाओं को बढ़ावा देकर देश के करोड़ों लोगों तक पहुँचाना है। इसके अतिरिक्त यत्र-तत्र फैली अनुपम कला एवं शिल्प शैलियों को प्रोत्साहित कर वहां की समृद्ध व विस्तृत सांस्कृतिक विरासत के बारे मे जन चेतना जागृत करना तथा ग्रामीण अंचलों में सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रसार करना है। इसके साथ ही इन सांस्कृतिक गतिविधियों में लोगों की सहभागिता हासिल करने एवं सांस्कृतिक पुनर्जीवन तथा क्षेत्र की लुप्त प्रायः कला व शिल्प शैलियों के प्रलेखन की आयोेजना निश्चित की गई। इस सांस्कृतिक केन्द्र के अधीन एक से अधिक राज्य मिलाने का मूल उद्देश्य यह था कि इन राज्यों में परस्पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान चलता रहे। छोटे कस्बों से गांवों तक के लोगों से सांस्कृतिक जुडाव बना रहे और देश की मूलभूत संस्कृति तथा समृद्ध विरासत विद्यमान रहे, इसके लिए इन केन्द्रों के मुख्यालय महानगरों और राज्यों की राजधानियों से दूर रखे गए।  

हवेली और राज परिवारों से हमारी कला को यथोचित प्रश्रय मिला तथा कई परिवारों का कला से ग़हरा जुड़ाव रहा है। इस परंपरा के अनुरूप संग्रहालय में सृजित संगीत कक्ष राजपरिवार का संगीत के प्रति लगाव का प्रतीक मात्र है। इस कक्ष में एक ऐसी संगीत शाला का प्रतिरूप है जहां रानियाँ संगीत की शिक्षा ग्रहण करती थी। इस कक्ष में संगीत के शिक्षण और निमित अभ्यास के लिये प्रयुक्त होने वाले विभिन्न पुस्तकों, वाद्य यंत्रों, सारंगी, तबला, ढ़ोलक, बाँसुरी, चंग, ढ़पली, नगाड़ा, शहनाई आदि को दर्शाया गया है। 

हवेली एवं राजघराने में रसोई घर के पास पीने के पानी के संग्रह का स्थान होता था। पीने के पानी की शुद्धता और पवित्रता की दृष्टि से कक्ष में एक पवित्र स्थान सुरक्षित रखा जाता था, जो परेण्डा-जलगृह कहलाता था। यहां मिट्टी, धातु पात्रों से शुद्ध जल भरा जाता था। इन पात्रों से केवल राििनयों की विशिष्ठ सेविकाएं ही जल भर कर पानी पिलाती थी। रानी अपनी सखियों के साथ बैठकर वार्तालाप करती थी। इसे दरीखाना कहा जाता था। इस दरीखाने में रानियों के बैठने के तौर तरीके व साज सज्जा को दर्शाया गया है। राज परिवारों में भोजन के लिए रसोड़-रसोई घर की पृथक व्यवस्था होती थी जहां राजपरिवार एवं उनके महमानों के लिए स्वादिष्ट भोजन बनता था। इस रसोई घर में बड़े स्तर पर भोजन बनाने के लिए धातु, काठ के बड़-बड़े पात्र होते थे। अनाज व अन्य खाद्य सामग्री के लिए भण्डारों की भी व्यवस्था होती थी। 

हवेली के जनानखने में बड़ी बुजुर्ग राजमाता (माजी सा.) के कक्ष में पूर्णतः श्वेत वस्त्रों का ही उपयोग किया जाता था व इस कक्ष में उनके इष्ट-देव, उनके पति व धार्मिक चित्र ही लगाए जाते थे। हवेली व राजघरानों की रानियां अपने इष्ट देवों का पूजन अपने निवास हवेली व महलों ही किया करती थी। इसके लिए हवेली में ही अपना पूजा गृह बनाया जाता था। रनिवास के स्नानागार की व्यवस्था ऋतुओं के अनुकूल की जाती थी । पीतल, तांबे व कांसे की कुडियों, गोलों में जल रखा रहता तथा स्नान कक्ष में लकड़ी के पट्टे पर बैठा कर पिट्ठी, मुलतानी मिट्टी, आंवला-रीठा तािा मैल इत्यादि निकालने के लिए झावर का प्रयोग किया जाता था।श्रृंगार कक्ष में मौसमानुकूल वस्त्र रखने के मंजूष मेवाड़ प्रत्येक ऋतु के लिए निर्धारित रंग के परिधान धारण किए जाते थे, जैसे फाल्गुन मास में फागनियां, श्रावण में लहरिया इत्यादि। कक्ष में जेवर रखने के लिए मंजूषा होती तथा बेशकीमती अलंकारों के लिए पृथक से एक पात्र-डबूसा होता था। श्रृंगार के उपरान्त इत्र, फुलैल व गुलाब जल छिड़काव किया जाता था। इत्र मुख्यत‘ मोगरा, चंदन इत्यादि के होते थे। 


मेवाड़ रियासत में गणगौर व तीज़ महोत्सव बड़ी प्रधानता से मनाये जाते थे। इस उत्सव में शिव व पार्वती को ‘ईसर व ‘गणगौर’ के रूप में पूजा जाता था। आज भी त्रिपोलिया दरवाजे, गणगौर घाट पर जब गणगौर की सवारी पहंुचती है तो सारे उदययपुर का जन समूह पूजा-अर्चना के लिए उमड़ पड़ता है। शयन कक्ष इस प्रकार बना होता है कि प्रत्येक ऋतु में वे आरामदेह स्थिति में विश्राम कर ससकें। ग्रीष्मकाल में शयन कक्ष को ठण्डा एवं हवादार करकने के लिए पंखों आदि का प्रयोग था तािा पंखा झलने का कार्य डावड़ियां करती थी। शीतकालीन सत्र में कक्ष के तापमान को बनाए रखने के लिए सिगड़ियों का प्रयोग होता था। कक्ष की सज्जा रानियों की रूची के अनुरूप् की जाती थी तथा कक्ष में मुख्यतः एक ढ़ोलिर्या अािात् पलंग रहात था, जिस पर गद्दा, रज़ाई, तकिया, पंखी इत्यादि के अतिरिक्ति पलंग के पास ही पानी का पात्र आरामदेह पगरखी, मंजूष अत्यादि रखे जाते थे।आमोद-प्रमोद आरंभ से ही मनुष्य के जीवन का प्रमुख अंग रहा है तािा इसके लिए प्रत्येक वर्ग ने अपने-अपने खेल बनाए। मेवाड़ मे घरानों में शतरंज, चौपड़, सांप सीढ़ी प्रमुख खेल रहे हैं जो मानसिक व्यायाम के साथ शासकीय रणनीति निर्माण में सहायक होता था। इसी परम्परानुरूप सृजित इस कक्ष में शतरंज, चौपड़, सांप सीढ़ी औरं गंजीफे दर्शाए गए हैं जहां राजपरिवार की महिलाएं उन्मुक्त होकर खेल खेलती थी। 

उत्तर भारत के राज्य राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश आदि में शिरस्त्राण धारण करने की प्राचीन परम्परा प्रचलन में हैं। शिरस्त्राण अर्थात सिर पर धारण की जाने वाली-पगडी। इन प्रदेशों में पाग-पगडी को गौरव, सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक माना गया हैं। पगडी तथा उसको पहनने के तरीके से उस व्यक्ति के व्यवसाय, जाति तथा क्षेत्र की पहचान होती हैं, साथ ही इससे उस व्यत्त्कि का परिवार में पद अथवा पदवी का ज्ञान होता हैं। इतिहास में पगडी बदल कर बंधुत्व की भावना को प्रबल करने वाले अनेक उदाहरण हैं।पाग-पगडी के परिद्रश्य में मुख्य बिन्दु यह है कि भारत में अनेक अवसर, मोसम तथा पहचान के अनुरूप अलग-अलग रंग व प्रकार की पगडी धारण की जाती हैं। ऐसी भी मान्यता है कि पगडी शत्रू एवं प्रेतात्माओं से आपकी रक्षा करती हैं।बागोर की हवेली संग्राहालय में प्रदर्शित 30 किलोग्राम की पगडी विश्व की सबसे बडी पगडी है जिसे गुजरात के बडोदा के श्री अवन्ती लाल पी. चावला ने विशेष रूप से सृजित की हैं।पगडी की उचाई 80 से.मी.ओर घेरा 320 से.मी. व अनुमानित 9 से.मी. बनारसी साडी का मोटाई वाले गोल रोल के अन्दर रूई ओेर कोएर फोम (नारियल रस्सि/जुट) दोनो को मिलाकर भरकर इस इतनी बडी पगडी को बांधा गया। इस अदभुत पगडी को लगभग छः माह के भितर बांधकर तैयार किया गया।

राजस्थान में झालावाड रियासत के राजराणा द्वारा 125 वर्ष पूर्व बनवाया गया, यह रथ जिसे दो हाथियों द्वारा खिचा जाता था। लोहा, लकडी, बांस, तथा चर्म कि बारिक जालिया से सुसज्जित यह रथ शोभा यात्राओं में प्रयुक्त होता था। दशहरा व दिपावली जैसे महापर्वो पर लोक आराध्य देवी, देवताओं को इस रथ में बीठा कर रथ यात्रा के मनोरथ पूर्ण होते थे।झालावाड नगर पालिका ने यह रथ सन् 1989 में पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र को भेट किया जिसका प्रदर्शन बागोर की हवेली के मुक्तागण में किया गया हैं। यह रथ बागोर की हवेली में झीर्ण अवस्था में लाया गया, जिसका केन्द्र द्वारा सावधानी पूर्वक झीर्णेद्वार करवाया गया।

भीड़भाड़ से और कोलाहल से दूर अपार जलनिधि के किनारे यह हवेली अपने में अनेक प्राचीन रहस्यों और कुतुहलों को समेंटे हुए है। जगह-जगह भूल-भूलैया वाले मार्ग और अत्यन्त आकर्षक तराशे हुए नक्काशी युक्त झालीदार झरोखे, गोखड़े और दीवारों के परिवेश में लोकसंगीत और लोकनृत्यों से सजी शाम देशी-परदेशी पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण है। हवेली से सीटी पेलेस जाने के लिए सीधा मार्ग है जहां से पर्यटक पैदल और रिक्शा से सहज जाते हैं। बागोर की हवेली में ‘धरोहर’ आयोजना के अन्तर्गत पर्यटकों के लिए प्रतिदिन राजस्थानी लोकसंस्कृति की शाम सजती है। शाम को विद्युत के झिलमिल प्रकाश में हवेली का प्राचीन रंग-रूप और रियासती जमानें की शान-शौकत उभर आती है। हवेली का तुलसी चौक जिसे पहले कमल चौक भी कहा जाता था, यहीं भगवानं बाणनाथजी का मन्दिर है, स्थित चौक में सर्व प्रथम शंख और ढ़ोल की थाप पर कार्यक्रम का आगाज़ होता है और आगन्तुक मेहमानों के आगमन पर राजस्थानी ताल और स्वर में स्वागत लोकगीत की प्रस्तुति के साथ विविध लोकगीतों और नृत्यों की शृंखला सजती है। दर्शक गवरी, चरी, तेरहताली, घूमर, भवई, कठपुतली आदि कई प्रकार के रसप्लावित गीत और नृत्यों की प्रस्तुतियां हर किसी का मन मोह लेती है। धरोहर का यह आयोजन गत एक दशक से अबाध रूप से हर रोज सायंकाल 7 बजे से रात्रि 8 बजे तक चलता है और पर्यटकों का सैलाब यहां राजस्थानी झलक पाने के लिए उमड़ता है। 

केन्द्र ने प्रदर्शनकारी कलाओं, चाक्षुष कलाओं, शिल्प, भारतीय इतिहास कला व संस्कृति साहित्य से सम्बन्धित बोधगम्य पुस्तकालय की स्थापना की। पुस्तकालय सन्दर्भ सामग्री के उपयोग के लिये खुला रहता हैं।केन्द्र ने वर्ष 1988 में लीथोग्राफी, इचिंग एवं प्रिन्टिग की सुविधाओं से युक्त ग्राफिक स्टूडियो की स्थापना की है। ग्राफिक स्टूडियो में कलाकारों को इस स्थान पर काम करने व सुविधाओं का उपयोग करने का अवसर मिलता है। स्टूडियो में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय लीथोग्राफी स्तर के शिविर सहित विभिन्न गतिविधियां आयोजित की जाती है।मुगलकक्ष से लगे हुये विभिन्न कक्षों एवं भूतल गलियारों को सावधानी पूर्वक पुर्ननवीनीकरण कर इन्हें आधुनिक विद्युतसज्जा से युक्त कला वीथी में परिवर्तित किया है। केन्द्र के स्वागत कक्ष के पास भंडारण क्षेत्र की लगभग 350 वर्ग फीट दीवारों में 70 से 80 चित्रों की प्रदर्शनी स्थापित की गई है। कलावीथी युवा एवं उभरते कलाकारों को प्रदर्शनी लगाने के लिए मंच प्रदान करती हैं।

सहभागी राज्यों की कला व संस्कृति की विविधताओं व विशिष्टताओं को संरक्षित करने व विकसित रखने, एक सूत्र में पिरोने व इनकी आम लोगों में सहज जानकारी उपलब्ध कराने के उद्देश्य से केन्द्र की प्रकाशन योजना चल रही है। त्रैमासिक ”कला प्रयोजन“ पत्रिका का प्रकाशन नियमित चल रहा है। कला प्रयोजन ने साहित्य जगत में अपनी एक अद्वितीय पहचान बनाई है।प्रलेखन कार्य केन्द्र की एक महत्वपूर्ण गतिविधि है। केन्द्र लुप्त प्रायः कला शैलियों की पहचान, संरक्षण एवं प्रलेखन के लिए प्रतिबद्ध है। केन्द्र द्वारा सदस्य राज्यों की अनेक कला व शिल्प शैलियों का नियमित रूप से प्रलेखन किया जा रहा है।उदयपुर से 3 किलोमीटर पश्चिम में भारत का गौरव ग्रामीण कला व शिल्प परिसर स्थित है जिसे शिल्पग्राम के नाम से अधिक जाना जाता है। यह पश्चिम क्षेत्र के लोक एवं जनजाति लोगों की वास्तुकला व जीवन शैली का विशाल संग्रहालय है। यह परिसर अरावली की गोद में 130 बीघा पहाडी भूमि पर बना हुआ है जो सदस्य राज्यों की 31 झोपड़ियों का प्रतिनिधित्व करता है। इन झोपड़ियों में पश्चिमी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैली मानव जातियों के रहन-सहन एवं पारम्परिक स्थापत्य शैली को यथावत प्रदर्शित किया गया हैं। इन झोपड़ियों की प्रामाणिकता बनाये रखने के लिये उन क्षेत्रों मे निवास करने वाले लोगों द्वारा उसी क्षेत्र की निर्माण सामग्री लाकर इन्हें निर्मित किया गया हैं।

इन पारम्परिक झोपड़ियों में दैनिक जीवन में घर में काम आने वाली वस्तुएं चाहे मिट्टी की हो या टेक्सटाईल, लकड़ी की हो या धातु की, कृषि यंत्र या शिल्पकारों के औजार प्रदर्शित किये गये है। इन झोंपड़ियों को ऐसे ढंग से बनाया गया है जिससे कि लोगों के जीवन की वास्तविक झलक स्पष्ट दिखाई दे सके एवं इनका मूल अस्तित्व सुरक्षित रह सके।इन झोंपड़ियों में पारम्परिक ग्रामीण जीवन शैली को दर्शाया गया है जहां कुम्हार, सुथार, लौहार एवं बुनकर की झोंपड़ियों को परस्पर श्रृंखला-बद्ध तरीके से बनाया गया है जिससे कि ये सभी लोग आपस में सौहार्दपूर्ण तरीके से आदान-प्रदान कर सके। ये झोंपड़ियां एक दूसरे से सटाकर बनाने का उद्देश्य यह है कि क्रियाकलापों की सोच के आधार पर इनमें मधुर सम्बन्ध एवं गतिशीलता बनी रह सके।

शिल्पग्राम में राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने वाली 7 पारम्परिक झोपड़ियँां है। इनमें से दो रामा एवं सम झांेपडियॉं पश्चिमी राजस्थान के रेतीले इलाके का प्रतिनिधित्व करते है। तीसरी झोपडी़ उदयपुर से 70 कि.मी. दूर पश्चिम में स्थित ढोल गांव की है जो कुम्हार जाति का प्रतिनिधित्व करती है। यहां दो झोंपडियां भील एवं सहरिया कृषक जनजाति समुदाय की है, जो दक्षिणी राजस्थान का प्रतिनिधित्व करती है।यहां गुजरात राज्य की 12 झोंपडियां स्थित है इसमें कच्छ के बन्नी क्षेत्र की रेबारी, मेघवाल एवं मुस्लिम समुदाय की दो-दो झोंपडियां है। यह समुदाय बुनाई, कशीदाकारी, मोती एवं कांच के कार्य के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर उत्तर गुजरात के पोशीना के पास लाम्बडिया गांव की कुम्हार की झोंपड़ी अवस्थित है जो कि मिट्टी के घोड़ो के लिए प्रसिद्ध है। इस झोंपड़ी के पास में छोटा उदयपुर जिले के बसेडी गांव के बुनकर की झोंपडी भी स्थित है। यहां पर पारम्परिक पिथोरा चित्रकारी को दर्शाती जनजाति समुदाय की राठवा झोंपडी है। यहां कृषक जनजाति के डांग समुदाय की डांग झोंपडी है जो उनकी अनूठी जीवन शैली को दर्शाती है। यहां पर लकडी पर नक्काशी युक्त पेठापुर हवेली है जो गुजरात के गांधीनगर के पास पेठापुर गांव से यहां लाकर हु-बहू उसी रूप में यहां स्थापित की गई। भुजोडी झोंपडी कच्छ क्षेत्र के रेबारी समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है।

शिल्पग्राम में महाराष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाली 7 झोंपडियां है। रायगढ़ जिले के कोंकण समुद्र तट पर गहन सर्वेक्षण करने के बाद शिशोर क्षेत्र की कोली झोंपडी का चयन किया गया। कोली झोंपडी के पास दक्षिणी महाराष्ट्र के चर्म शिल्पकार का प्रतिनिधित्व करने वाली कोल्हापुर झोंपडी है। यहां थाने जिले की वारली झोंपडी है जो पारम्परिक दीवार चित्रकारी का अद्भुत नमूना है। इसके पास ही गोंड व मारिया जनजाति समुदाय की झोंपडिया है जो पूर्वी महाराष्ट्र में डोकरा शिल्प के लिए प्रसिद्ध है। इसके पास में कुनबी कृषक समुदाय की झांेपडी है जो महाराष्ट्र के भण्डारा जिले का प्रतिनिधित्व करती है। सातवीं झोंपडी महाराष्ट्र के वर्धा जिले का प्रतिनिधित्व करती हैं।यहां गोवा सदस्य राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाली पांच झोंपड़ियां है। यहां पर गोंवा के लेटेराइट पत्थर से बनी ब्राह्मण झोंपड़ी के पास बिलोचिम गांव की कुम्हार की झोंपड़ी निर्मित है। यहां पर मण्डोवी नदी किनारे की मछुआरे की झोंपड़ी है वहीं मडगांव क्षेत्र की अनूठी जीवन शैली को दर्शाने वाली ईसाई झोंपड़ी है। यहां पर दक्षिणी गोंवा के कानकोन क्षेत्र की कृषक जनजाति समुदाय की कुलम्बी झांेपड़ी है।यह संग्रहालय शिल्पग्राम के मध्य में स्थित है जो ग्रामीण व जनजातीय लोगों की जीवन शैली एवं रहन सहन को दर्शाता है। मृण संग्रहालय में मिट्टी की कलात्मक वस्तुएं तथा मुखौटा संग्रहालय में पारम्परिक मुखौटे प्रदर्शित किये गये है जो देश के विभिन्न क्षेत्रों की कला शैलियों का प्रतिनिधित्व करते है। कोठी संग्रहालय में विभिन्न क्षेत्रों की कलात्मक कोठियां प्रदर्शित है। इनका उपयोग पश्चिमी भारत के विभिन्न समुदायों द्वारा अन्न को सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है। यहां पर जनजाति संग्रहालय है जिसका निर्माण जनजाति शोध संस्थान उदयपुर द्वारा किया गया है। इसमें राजस्थान के गरासिया भील, मीणा, सहरिया व कथोड़ी समुदाय के दैनिक जीवन में उपयोग आने वाले उपकरण कृषि औजार, वेशभूषा, वाद्य यंत्र व छायाचित्र प्रदर्शित हैं।

यहां पर मुक्ताकाशी रंगमंच है जिसे एक पहाड़ी को सीढ़ीनुमा काटकर लिपाई द्वारा बनाया गया है जहां 8000 से अधिक दर्शक एक साथ बैठकर कार्यक्रम देख सकते है। शिल्पग्राम उत्सव के दौरान यहां पर सैकड़ों कलाकार अपने कार्यक्रम प्रस्तुत कर इसे जीवन्त बनाये रखते है।पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र ने नाट्य विधा को विकसित करने के लिए एक विशेष कार्यक्रम हाथ में लिया है जिसमें शौकिया अव्यावसायी नाट्यकर्मी दल अपने नाट्य कौशल का प्रदर्शन कर सके। इसके लिए शिल्पग्राम में दर्पण नामक पेक्षाग्रह का निर्माण कराया जहां हर माह विविध विषयों पर नाट्यकर्मी नाटकों का प्रदर्शन करते हैं। केन्द्र का यह आन्दोलन युवाओं में जागृति उत्पन्न कर रहा है और यहां सफलतापूर्वक नाट्य कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं।  शिल्पग्राम के शिखर पर मूर्तिकला पार्क है, जहां अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मूर्ति शिल्प प्रदर्शित है। शिल्पग्राम में ग्रामीण परिवेश से युक्त जगह-जगह पूजा के देवरे बने हुये है। शिल्पग्राम स्थित ढाबे में पारम्परिक व्यजंन उपलब्ध हैं वहीं पर्यटकों व बच्चों के मनोरंजन के लिए ऊंट सवारी, घुड़ सवारी एवं झूलों की सुविधा उपलब्ध हैं।

बागोर के स्वामी महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के नाथसिंह दूसरे कुंवर थे और महाराज उनकी उपाधि थी। नाथसिंह के पीछे उसके पुत्र भीमसिंह का बेटा शिवदानसिंह बागोर का स्वामी हुआ। शिवदान के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र सरदार सिंह पीछे से जवानसिंह का और सरूपसिंह सरदारसिंह का उत्तराधिकारी हुआ। इसके बाद शेरसिंह बागोर ठिकाने का मालिक हुआ। इसके उपरान्त शेरसिंह का उत्तराधिकारी शंभुसिंह हुआ। महाराणा सरूपसिंह ने शंभुसिंह को गोद लिया जिससे वह मेवाड़ का महाराणा हुआ और उसके भाई सोहनसिंह को बागोर का स्वामी बना दिया। भाईयों के कलह में सोहनसिंह को बनारस भेज दिया गया। ब्रिटिश सरकार की सलाह पर सोहनसिंह को वापस बुला लिया और 10 हजार रु. वार्षिक निर्वाह के लिए मुकरर्र किए तथा पिता शंक्तिसिंह को बागोर का स्वामी बनाया। शंभुसिंह के निःसतान मर जाने पर महाराज शक्तिसिंह का पुत्र सज्जनसिंह महाराणा हुआ। सोहनसिंह के कोई पुत्र न होने तथा महाराज शक्तिसिंह के ज्येष्ठ पुत्र सुजानसिंह के बाल्यावस्था में मर जाने से महाराणा फतेहसिंह ने बागोर की हवेली को खालसे कर लिया।  

करजाली के स्वामी महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के तीसरे पुत्र बाघसिंह हैं और उन्हें महाराज की उपाधि थी। बाघसिंह के वंशजों को नेतावल की जागीर थी और बागोर की हवेली में नेतावल हवेली का हिस्सा है जो रसोड़ो के रूप में प्रयुक्त होता था। शिवरती के स्वामी महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के चौथे कुंवर अर्जुनसिंह के वंशज हैं और महाराज की उपाधि है। मेवाड़ पर जब मराठाओं के आक्रमण हुए तो राणा के इन दोनों भाईयों के पारिवारिक योद्धाओं ने पुरजोर लड़ाइयां लड़ी और मेवाड़ की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया। शिवरती वंश में दलसिंह के पीछे उसका ज्येष्ठ पुत्र शिवरती का मालिक हुआ। महाराणा सज्जनसिंह की नाबालिगी के समय वह राजकाज में हिस्सा बटाता था। उसके पुत्र न था जिससे अपने छोटे भाई फतेहसिंह को अपना उत्तराधिकारी स्थिर किया। -राजपूताने का इतिहास, दूसरी जिल्द, रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, वैदिक मंत्रालय, अजमेर। वि.स. 1983 पृ. 1238-42 

बड़वा अमरचंद आत्मज शंभुराम सनाढ्य ब्राह्मण था। उसके पूर्वज बाहर से मेवाड़ में आकर बसे थे।  शंभुराम महाराणा जगत्सिंह द्वितीय के समय महाराणा के ‘रसोड़े’ (पाकशाला) का अध्यक्ष था। जगत्सिंह के पुत्र प्रतापसिंह जब करणविलास में था तब अमरचंद ने उसकी अच्छी सेवा की। इसलिए प्रतापसिंह ने गद्दी पर बैठते ही अमरचंद की अच्छी सेवा के उपलक्ष्य में उसे उसे ‘ठाकुर’ का खिताब और ताज़ीम देकर अपना मुसाहिब बनाया।  जब अरिसिंह और सरदारों के बीच विरोध खड़ा हुआ, अनेक सरदार मारे गये, मल्हारराव होल्कर मेवाड़ पर चढ़ाई कर ऊंटाले तक चला आया  और 51 लाख रु. लेने के बाद लौटा, जिससे मेवाड़ की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई। महाराणा की स्थिति विकट हो गई। उधर माधवराव के उदयपुर चढ़ आने की खबर से राणा विचलित हो उठा। ऐसे समय में राणा को ऐसे योग्य व्यक्ति की तलाश थी जो इस शोचनीय स्थिति को संभाल सके। महाराणा ने अमरचंद के घर जाकर पुनः प्रधान पद ग्रहण करने का आग्रह किया। इस पर अमरचंद ने उत्तर दिया ‘‘ मैं स्पष्ट वक्ता और तेज़ मिज़ाज का हूं। मैंने पहले भी जब काम किया तब पूरे अधिकार के साथ ही। आप किसी की सलाह मानते नहीं और अपनी इच्छा से सब कुछ करते हैं। इस समय की अवस्था बहुत विकट, वेतन न मिलने से सिपाही विद्रोही, खज़ाना खाली और प्रजा गरीब है, अतएव आप मुझे पूरे अधिकार दे ंतो कुछ उपाय किया जा सकता है। महाराणा ने कहा जो कुछ तुम कहोगे वही करेंगे। इस पर उसने पद को स्वीकार कर लिया।  उसने सोने-चांदी के बर्तन मंगवा कर उसके कम कीमत के सिक्के बनवाये तथा रत्नों को गिरवे रख कर सेना का वेतन चुका दिया और माधवराव से लड़ने की सब प्रकार से तैयारी करली। माधवराव तो मेवाड़ पर चढ़ आया, परन्तु समुचित तैयारी के कारण कुछ लाख रुपये लेकर वह लौट पड़ा। सिन्धिया लोभी था और धन चाहता था, परन्तु अमरचंद बड़वा ने संधी पत्र फाड़ डाला और लड़ाई जारी रखी। कुछ समय बाद सिन्धिया अपनी तरफ से सुलह कर नियत राशि से 10 लाख कम लेकर ही लौट गया।  इस युद्ध के उपरान्त महाराणा के विरोधी सरदारों ने भी भारी सेना के साथ मेवाड़ पर चढ़ाई करदी। स्वयं अमरचंद बड़वा भी राणा और सेना के साथ युद्ध में उतर गया और विद्रोही सेना भाग खड़ी हुई।महाराणा अरिसिंह ने अमरचंद को वि.स. माघ सुदि 9, 1829 ई.सन् 1 फरवरी, 1773 को ग्राम आठुण प्रदान कर परवाना दिया।   

महाराणा अरिसिंह द्वितीय के काल में अमरचंद ने राज्य की स्थिति बड़ी अच्छी प्रकार सम्भली, परन्तु अरिसिंह का पुत्र छोटी अवस्था में सिंहांसनारूढ़ हुआ तो राजमाता शासन को अपनी इच्छानुसार चलाने लगी और दासियांे का हौंसला बढ़ गया। राजमाता ने अपनी दासी रामप्यारी के बहकावे में अमरचंद पर कहर बरपाने शुरु कर दिए। अमरचंद ने अपना कुल जेवर, असबाब छकड़ों में भरवा कर ज़नानी ड्योढ़ी पर भिजवा दिया तथा वहां जाकर कहा कि मेरा कर्तव्य तो आप और आपके पुत्रों का हितचिन्तन करना है, उसमें चाहे कितनी बाधाएं क्यों न उपस्थित हों। आपको तो चाहिए कि मेरा विरोध करने की अपेक्षा मेरी सहायता करतीं।’’ उसके कुछ दिनों बाद उसकी मृत्यु हो गई और उसके घर से कफ़न के लिए पैसा भी न निकला। उत्तर क्रिया राज्य की तरफ से हुई।   इसका उल्लेख कर्नल टॉड ने भी अपने ग्रथ टॉड राजस्था जिल्द 1 पृ. 58-59 पर किया है। 

अमरचंद बुद्धिमान, तेज़ मिज़ाज, स्पष्टवक्ता, वीर अपनी बात पर दृढ़ रहने वाला, निःस्वार्थी और राजय का सच्चा हितचिन्तक मन्त्री था और राज्य-हित चिन्तन में ही उसका प्राणान्त हुआ। उसने अपने समय में पीछोला तालाब के एक हिस्से को, जो अमरकुण्ड नाम से प्रसिद्ध है, जनता के आराम के लिए दोनों तरफ़ सुन्दर घाट सहित बनवाया, जो अब तक उसकी स्मृति को जीवित रखे हुए है।  -राजपूताने का इतिहास, दूसरी जिल्द, रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा, वैदिक मंत्रालय, अजमेर। वि.स. 1983 पृ. 1308-10



नटवर त्रिपाठी
(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं। राजस्थान सरकार में जीवनभर सूचना और जनसंपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' आदि सांस्कृतिक अध्ययनों पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं।संपर्क:-सी-79,प्रताप नगर,चित्तौड़गढ़   पूरा परिचय  

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