परिचर्चा:हमारा समय और डॉ. भीमराव अम्बेडकर

           साहित्य और संस्कृति की मासिक ई-पत्रिका            
'अपनी माटी' 
(ISSN 2322-0724 Apni Maati
इस अप्रैल-2014 अंक से दूसरे वर्ष में प्रवेश

चित्रांकन:रोहित रूसिया,छिन्दवाड़ा
आप किसी भी दिशा में मुड़ें, जाति का राक्षस आप को रास्ता रोके मिलेगा। जब तक आप इस दानव को खत्म नहीं करते तब तक आप न राजनीतिक सुधार कर सकते और न ही आर्थिक सुधार को अंजाम दे सकते हैं। (डॉ.अम्बेडकर, जाति का विनाश)

असल में सबसे बड़ी समस्या यह है समाज का संभ्रात वर्ग आदिवासी समाज को सहजता से स्वीकार करता है लेकिन दलित जातियों को स्वीकारने में भयानक कतराता है। दलितों में भी हरिजन उसके लिए सबसे ज्यादा अस्वीकार्य? क्यों? वह बात बात में गालियां भी देता है तो उसी तरह की जो इन जातियों के बारे में होती है और इनकी सामाजिक और सांस्कृतिक अनुपयोगिता पर होती है। जैसे सभ्यता के सभी सूत्र उसके पास है और वह जो चाहता है वही होता है। अम्बेडकर इसी घटिया समाजशास्त्र को चुनौती देते हैं। आखिर यह विचार बचपन से ही हमारे दिमाग में कौन सी संस्कृति भरती है? जहां जाति ही इंसान की पहचान बन जाती है। आज अम्बेडकर की स्वीकार्यता इस कारण से भी बढ़ रही कि उनके द्वारा कहीं गई बाते सही साबित हो रही है। अछूत समस्या दस वर्ष में खत्म करने का दावा केवल दावा ही साबित हुआ। फिर डॉ. अम्बेडकर का इतिहास ज्ञान इतिहास की पड़ताल करता है और उसको लागू करता है। जिसके कारण आज तमाम शूद्र और अतिशूद्र जातियों के जीवन में बुनियादी परिवर्तन देखा जा रहा है। ऐसे में गांवों में अगर जातिवाद उसी तर्ज पर बना रहता है तो यह सबसे खतरनाक है। उसका खात्मा होना चाहिए। जिसे ज्ञान कहा जाता है उसका प्रवेश गांवों की जकड़न को तोड़ता है तभी उसकी सार्थकता है। वैसे भी आर्थिक परिवर्तन के बाद भी समाज में दलितों का बराबर का दर्जा गांव नहीं देते। इसको नकारना फिर भूल करना है। 

युवा समीक्षक
कालूलाल कुलमी 
शास्त्र का कूड़ा जब तक हमारे दिमाग में ठूसा जाता रहेगा तब तक यह चलता रहेगा। जिसे राष्ट्र-राज्य के रुप में परिभाषित किया जा रहा है उसको बनाये रखने में लिए सभी को समान करना आवश्यक है। अम्बेडकर को पढ़ने का अर्थ यही है कि उनके विचार को जिया जाए। वे कहीं भी हवाई बात नहीं करते। ऐसे में उनके विचार गांव दलितों के लिए नरक है। इसका हमारे पास कोई जवाब नहीं है। हम यह कह सकते हैं कि अब दलितों का अपमान नहीं होता। वे अपना काम करते हैं और आरक्षण से उनको लाभ मिला और वे नौकरियों में भी आगे लेकिन उनको सामाजिक समानता नहीं मिली है। वे उस बराबरी करे प्राप्त करे। जो मनुष्य का अधिकार है। यह मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार ही बाबासाब का विचार है। अगर कोई धर्म उसको देने से मना करता है तो उस धर्म की किसी को कोई जरुरत नहीं है। 
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वरिष्ठ कथाकार
 रमेश उपाध्याय 
आज लिखने बैठे तो सवाल उठा : क्या डॉ. भीमराव अंबेडकर भी महात्मा गांधी की तरह ही आदरणीय किंतु उपेक्षणीय नहीं बना दिये गये हैं? जिस तरह गांधीवादी लोग गांधी जी को पूजते हैं, किंतु उनके बताये रास्ते पर नहीं चलते, क्या अंबेडकरवादी लोग भी ऐसा ही नहीं करते? अंबेडकर जाति व्यवस्था का उन्मूलन चाहते थे, जबकि अंबेडकरवादी लोग उसमें अपना लाभ देखकर उसे बनाये रखना चाहते हैं. अंबेडकर मानते थे कि जातिगत समता आर्थिक समता के बिना हासिल नहीं हो सकती और वह समाजवाद के बिना असंभव है. लेकिन अंबेडकरवादी लोग आर्थिक व्यवस्था में नहीं, केवल सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं.

अर्थात वे पूँजीवाद के अंतर्गत ही सामाजिक न्याय चाहते हैं. इसके लिए वे नव-उदारवादी या बाजारवादी पूँजीवाद तक का समर्थन करते हुए, चंद्रभान प्रसाद की तरह, दलित पूँजीवाद की बात करते हैं और 'फिक्की' की जगह 'डिक्की' से देश की अर्थव्यवस्था को चलाना चाहते हैं.

गनीमत है कि 'अपेक्षा' के संपादक तेज सिंह जैसे लोग भी दलित आंदोलन में हैं. उन्होंने 'अपेक्षा' में स्वयं द्वारा लिखित 'अंबेडकरवादी लेखक संघ का प्रस्तावित घोषणापत्र' प्रकाशित किया है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि "अंबेडकरवादी लेखक समान रूप से ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणी पितृसत्ता, सामंतवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष करने का आह्वान करते हैं."
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डॉ. विमलेश शर्मा
कॉलेज प्राध्यापिका (हिन्दी ) 
बाबा साहेब को बहुजन राजनीतिक चेता , विधिवेता और भारतीय संविधान के वास्तुकार के रूप में  भलिभांति जाना जाता है। उन्होने सर्वप्रथम दलितों और अन्य धार्मिक सम्प्रदायों के प्रति पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की । वे जीवन पर्यन्त दलित वर्ग में शिक्षा के प्रसार और उनके उत्थान के लिए काम करते रहे। उनकी नैतिक मूल्यों में गहरी आस्था थी । हमारा समाज आज अनेक सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों के विषम दौर से गुजर रहा है। मानव जीवन आज एक विचित्र स्थिति में आ पहुँचा है। निरन्तर असंतोष तथा नैराश्य स्त्री पुरूषों के मन में फैल रहे हैं। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में जीवन मूल्य आज हाशिए पर पहुँच गए हैं। हर व्यक्ति अपने कर्म क्षेत्र से मुँह मोड़ कर स्वछंद हो गया है। निस्संदेह  नैतिक प्रमापों के प्रति यही अनास्था का भाव हमारे समाज में फैल रहे अनेक अपराधों के लिए पूर्णतः उत्तरदायी है। वर्तमान में नैतिक मूल्यों में हो रहे विचलन को समझने औऱ उसके निराकरण  के लिए डॉ अम्बेडकर का नैतिक दर्शन उपयोगी साबित हो सकता है।

समाज में समरसता की स्थापना के लिए बाबा साहेब नीत्शे व डार्विन के विचारों का विरोध करते हैं तो सिर्फ इसलिए कि जनतांत्रिक मूल्यों में उनका अकाट्य विश्वास है। वे भौतिक व शारीरिक शक्ति को नैतिकता का स्रोत नहीं मानते हैं।  उनका नैतिक प्रमाप इस बात पर बल देता है कि जीवन मूल्यों को सहेजने में हर व्यक्ति की भागीदारी होनी चाहिए। उनके अनुसार नैतिकता का मूल स्रोत मनुष्य की मनुष्य से मैत्री की जो आवश्यकता है, वही है। इसमें ईश्वर की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है और न ही ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए आदमी को नैतिक बनने की आवश्यकता  है। अम्बेडकर के जीवन दर्शन में व्यक्ति और उसकी स्वतंत्रता को अत्यधिक महत्व दिया गया था। वे सत्य ही आधुनिक समाज में बुद्ध की तरह अवतरित हुए और उपेक्षितों के मुक्तिदाता कहलाए। आज विषमताओं , संकीर्ण मानसिकता , स्वार्थप्रेरित राजनीति और छींटाकशी जैसी भयावह समस्याओं  से गुजरती 21 वीं सदी को अम्बेडकर के सिद्धान्तों को अपनाने की आवश्यकता है। वर्तमान में सभी व्यक्ति आर्थिक प्रगति को ही सामाजिक बुराइयों के निराकरण का एकमेव उपाय मानते हैं जो तर्कसंगत नहीं है। आज दरकार है बुद्ध के उस नवीनीकृत सिद्दान्त  को व्यवहार में लाने की जो बाबासाहेब ने प्रस्तुत किया था । जो कि विशुद्द भातृत्व,स्वतन्त्रता और समानता के सिद्दान्तों पर आधारित था।
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दलित लेखिका
अनिता भारती 
दलित समाज ने कितनी प्रगति की है इसे मैं दलित स्त्री की प्रगति से तौलता हूं,’ जैसी गंभीर और विचारोत्तेजक व स्त्रियों के घोर पक्ष में की गई टिप्पणी के टिप्पणीकार डा. अम्बेडकर द्वारा स्त्रियों के पक्ष में किए गए कार्यों का अक्सर उपरी तौर पर दलित एवं गैर दलित साहित्यकारों द्वारा केवल वर्णन मात्र कर दिया जाता है, परन्तु उनमें यह गंभीर स्त्री चेतना कहां से आई उनके जीवन के इस सबसे महत्पूर्ण पहलू को चर्चा रहित छोड़ दिया जाता है। डॉ. अम्बेडकर के सम्पूर्ण जीवन दर्शन पर बात करें तो यह अतिश्योक्ति पूर्ण कथन नही माना जा सकता है कि स्त्री और दलित स्त्री उनके व्यक्तित्व व उनके दर्शन का अमिट हिस्सा है और यह स्त्री चेतना उनके परिवार, उनके आसपास, व विदेश में किए उनके अध्ययन व तरह-तरह के आन्दोलनों में जुड़ने से आई। निसन्देह उनके स्त्री दर्शन के विकसित होने का मूलाधार परिवार की महिलाओं की उनके उपर पड़ने वाली अमिट छाप भी है। डॉ. अम्बेडकर जब मात्र छः वर्ष के थे तब उनकी मां गुजर गई। मां के अभाव में कटे दिन उनके मन में स्त्री जगत के लिए हमेशा-हमेशा के लिए महत्वपूर्ण स्थान बना गए। मां की मृत्यु के बाद बालक भीमराव का पालन-पोषण उनकी अपंग बुआ ने बडे़ मनोयोग से किया। हालाकिं वह शारीरिक अपगंता के चलते घर का कुछ भी काम नही कर सकती थी, पर बालक भीमराव को प्यार से गोद में छिपाकर वह उसे भरपूर दुलार तो देती ही थी। जो थोड़ी बहुत मां की ममता की कमी रही भी तो बालक भीमराव की दोनो बड़ी शादी-शुदा बहने तुलसी और मंजुला ने पूरी की। भीमराव की बुआ शरीर से बौने कद की होने के साथ उनकी पीठ पर बड़ा सा कूबड़ भी था।;समाजिक न्याय के पुरस्कर्ता डॉ. भीमराव अम्बेडकर-डॉ. बृजलाल वर्मा पेज. 12द्ध उस समय ऐसी कन्या के विवाह होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी अतः बालक भीमराव अविवाहित बुआ के प्यार भरे सान्धिय में पले। शादी-शुदा बहने मंजुला और तुलसी दोनो बारी-बारी से घर आकर गृहस्थी के साथ बालक आनन्दराव और भीमराव को पालन करती थी। बड़ी बहन तुलसी और बालक भीमराव के जीवन की बाल काटने की घटना का वर्णन अनेक पुस्तकों में मिलता है। बचपन में एक बार भीमराव और आनन्दराव जब बाल कटाने नाई के पास गए तो नाई ने उनके बाल काटने से इंकार कर दिया। तब दोनो भाई अत्यन्त दुखी हो आंखों में आसंू भर घर लौटे। बड़ी बहन तुलसी ने भीमराव को ढाढंस बंधाते हुए कहा- भीवा! तू तो बहुत बहादुर है। इस तरह क्यों रोता है? तू चिन्ता मत कर, मै तेरे बाल काटे देती हूं। इतना कहते हुए तुलसी ने भीवा को एक चबूतरे पर बिठा कैंची से उसके बाल काटे। ;(सचित्र भीम जीवनी पृष्ठ 8 रचनाकार शान्त स्वरूप बौद्ध)
              
     भीमराव बचपन में अपनी बुआ के साथ ही सोते थे, वे अपनी बुआ से साये की तरह चिपके रहतें थे। उधर भीमराव की पढ़ाई के बढ़ते खर्चे के चलते पिता बार-बार अपनी बेटियों को दहेज में दिये गहनों को गिरवी रख जैसे तैसे भीमराव की पढ़ाई करवा रहे थे। इतना ही नही, अपनी पु़ित्रयों के जेवर जो उन्होने विवाह में दिये थे लेकर गिरवी रख देते और उस पैसे भीम के लिए पुस्तक खरीदते। पेंशन मिलने पर वे धीरे-  धीरे सारा पैसा पुत्रियों को वापस कर देते। ;समाजिक न्याय के पुरस्कर्ता डॉ. भीमराव अम्बेडकर-डॉ. बृजलाल वर्मा पेज. 20द्ध

          बहनों और बुआ के प्यार ने बालक भीमराव को हमेशा के लिए स्त्रियों का मददगार बनाने में मदद की। भीमराव अम्बेडकर बचपन से लेकर अपने सम्पूर्ण जीवन भर नारी जाति की अदम्य हिम्मत, साहस, बहादुरी, त्याग, बलिदान, सेवा, कर्मठता से रोज-रोज रूबरू होते रहे। घर में अपनी बेबस बुआ को देखा था जिसकी उसकी अपंगता के कारण विवाह ना हो सका, वे उनके दुखों से वाकिफ थे। बाद में अपने दाम्पत्य जीवन में पत्नी रमाबाई के असहनीय दुखों और कष्टों को भी अनुभव किया। पास-पड़ौस में, गली बस्ती और देश में जगह-जगह घूमते हुऐ उन्होंने स्त्रियों की दुर्दशा देखी थी इसलिए बचपन से ही जातिवाद के खिलाफ लड़ने के साथ-साथ उनके मन में स्त्रियों के हित उनके पारिवारिक, समाजिक व धार्मिक शोषण के खिलाफ लड़ने की भावना जाग चुकी थी। डॉ. अम्बेडकर के स्त्री चिंतन को प्रखर बनाने में सबसे अधिक योगदान अगर किसी का कहा जा सकता है तो वह नाम उनके पिता, बुआ और बहनों के बाद केवल उनकी पत्नी रमाबाई का ही हो सकता है। अक्सर दलित लेखक बाबा साहब का जीवन वर्णन करते समय, उनके सघर्षों को बताते समय, उनको भीमराव से बाबा साहब बनाने वाली रमाबाई के योगदान की चर्चा करना भूल जाते हैं। रमाबाई दलितों के महानायक डॉ. अम्बेडकर नामक विशाल वृक्ष मजबूत जड़ थी, जो आंधी तूफानों से भरे संघर्ष पूर्ण दिनों में उन्हें अविचल रूप से थामें मजबूती से खड़ी रही। रमाबाई के मूक बलिदान ने दलित आन्दोलन में रक्त प्रवाह का कार्य किया है। रमाबाई और डा. अम्बेडकर का जीवन आदर्श दाम्पत्य जीवन तो नही पर समझदार पति-पत्नी का जीवन तो अवश्य ही कहा जा सकता है। डॉ. अम्बेडकर के पढ़ने की क्षुधा को अपने खून पसीने से एक कर, रात-दिन कमा कर, एकांकी जीवन जीते हुए, उपले पाथते हुए, रात-दिन घर में खटते हुए वह रमाबाई ही थी जिसने डॉ. अम्बेडकर के अन्दर ज्ञान की कभी न मिटने वाली प्यास को धनाभाव के कारण बुझने नहींे दिया। जिस समय रमाबाई का विवाह हुआ उस समय रमाबाई को पढ़ना नही आता था। डॉ. अम्बेडकर ने जिस तल्लीनता से रमाबाई को पढ़ाया, रमाबाई ने भी उतनी ही लगन और ईमानदारी से पढ़ना-लिखना सीखा। बहुत कम लोग जानते है कि बाबा साहब जब विदेश में होते थे तो रमाबाई उनको बराबर पत्र लिखा करती थी और डॉ. अम्बेडकर भी उनको पढ़ाई की भारी व्यस्तता और धनाभाव के बावजूद उन्हें तुरन्त उत्तर दिया करते थे। रमाबाई अपने अथक प्रयासों एवं परिश्रम से डॉ. अम्बेडकर के मुक्ति संघर्ष में जुड़ी रही। अधिकतर लोग यह समझते है कि वह केवल आज्ञाकारी प्रतिव्रता स्त्री और कुशल परिवार चालक थी परन्तु उनके बारें में बहुत कम लोग ये जानते है कि उन्होने डॉ. अम्बेडकर के साथ दलित आन्दोलन तथा दलित हितो के लिए कंधें से कंधा मिलाकर काम किया। रमाबाई अक्सर डॉ. अम्बेडकर द्वारा किए जा रहे कार्याे पर बातचीत करती व अपनी उचित सलाह दिया करती थी व डॉ. अम्बेडकर उन्हें दलित समाज की सभाओं और खासकर दलित महिलाओं की सभा में अवश्य ले जाया करते थे। 29 जनवरी 1928 मुंबई में रमाबाई को दलित महिला की परिषद् में अध्यक्ष पद के लिए चुना गया और उन्होनें अध्यक्ष के पद को बड़ी बखूबी से संभाला। दलित वर्ग की बैठकों में रमाबाई जब डॉ. अम्बेडकर के साथ जाती तो बैठकों में आए दलित स्त्री-पुरूषों का उत्साह दुगुना हो जाता। इस परिवर्तन को डॉ. अम्बेडकर भी महसूस करते थे। चावदार तालाब यानि महाड़ सत्याग्रह के बाद सौभाग्य सहस्र बुद्धे और रमाबाई अम्बेडकर ने सवर्ण स्त्रियों की तरह दलित महिलाओं को साड़ी बांधना सिखाया।

                  डॉ. अम्बेडकर जब विदेश में पढ़ने गए तो वहां के स्वतन्त्र जीवन में उन्होनें स्त्रियों को चहुंमुखी विकास करते देखा तो उन्हे समझ में आया कि बिना स्त्री शिक्षा के बिना कोई भी प्रगति अधूरी है। विदेश में होते हुए वहां की स्त्रियों को स्वतन्त्रतापूर्वक जीवन जीते हुए, चिंतन-मनन करते हुए, उनकी प्रगति देख उनकी स्त्री चेतना को धार मिली। 1913 में न्यूयार्क में पढ़ते हुए, डॉ. अम्बेडकर ने अपने पिता के मित्र को जवाब देते हुए पत्र में लिखा यह गलत है कि मां-बाप बच्चों को जन्म देते है कर्म नही देते। मां-बाप बच्चों के जीवन को उचित मोड़ दे सकते है, यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम लोग अपने लड़कों की शिक्षा के साथ ही लड़कियों की शिक्षा के लिए भी प्रयास करें तो हमारे समाज की उन्नति तीव्र होगी। इसलिए आपको नजदीक रिश्ते दारों में यह विचार तेजी से फैलाना चाहिए।‘ ; (धनंजय कीर की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर - लाईफ एण्ड मिशन से उद्धृत)
                  
डॉ. अम्बेडकर एकमात्र ऐसे विश्वस्तरीय चिंतक है जिन्होने परिवार और समाज में स्त्री की स्थिति कैसी हो, इस पर गहन चिंतन-मनन किया। पुरूषों के साथ स्त्री को भी समानता व स्वतन्त्रता मिले, उसे समाजिक आजादी के साथ आर्थिक आजादी भी प्राप्त हो, परिवार में उसका दर्जा पुरूष के समान हो, इसके लिए उन्होने दलित गैर दलित स्त्रियों को समाज परिवर्तन के आन्दोलन में सक्रिय रूप से जुड़ने का आह्वान किया। दोनो जगत यानि घर और समाज में नारी की हीनतर स्थिति को देखकर उन्होने इस विषय पर खूब सोचा कि भारतीय स्त्री की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन कैसे आये। यह क्रांतिकारी परिवर्तन परिवार तथा समाज में नारी को विशेषाधिकार देकर ही किया जा सकता था। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि स्त्री तथा समाज की उन्नति, शिक्षा के बिना नही हो सकती। सुन्दर और सुशिक्षित व सभ्य परिवार के लिए आवश्यक है कि पुरूषों के साथ-साथ घर की स्त्रियां भी पढ़ी लिखी हांे ताकि वे समाज परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल हो सके। समाज के परिवर्तन द्वारा ही स्त्रियों की मुक्ति सम्भव है। डॉ. अम्बेडकर का अनुभव जगत देश-विदेश दोनो था। दोनांे जगत में स्त्रियों ने कितनी प्रगति की इसकी तुलना करने पर वह जमीन आसमान का अन्तर पाते थे। विदेशो में उन्होंने स्त्रियों को स्वस्थ वातावरण में पढ़ते-लिखते व उसकी प्रतिभा को विकसित होते देखा था, परन्तु भारत में हिन्दू स्त्री अनेक प्रकार की रूढ़ियों, अन्धविश्वासों व सामाजिक बन्धनों में जकड़ी थी। और हिन्दू स्त्री में दलित स्त्री की हालत तो और शोचनीय थी। घर और समाज में उनका मानसिक, शारीरिक, आर्थिक शोषण होता था। दलित स्त्री के लिए उसका परिवार किसी नरक से कम नही था। दलित परिवारों में स्त्री शिक्षा नाममात्र के लिए भी नही थी। उन्होनें विदेश में शिक्षित व खुशहाल स्त्री को देखा तो उन्हे उनकी खुशहाली का महत्व शिक्षा में निहित नज़र आया। 

डॉ. अम्बेडकर को विश्वास था कि शिक्षित होकर ही स्त्री अपने अधिकारों को छीन सकती है। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि परिवार में स्त्री शिक्षा ही वास्तविक प्रगति की धुरी है। जिस घर में पढ़ी लिखी स्त्री व मां हो उस घर के बच्चों का भविष्य अपने आप उज्जवल हो जाता है। स्त्री शिक्षा को डॉ. अम्बेडकर अत्याधिक महत्व देते हुए कहते है अगर घर में एक पुरूष पढ़ता है तो केवल वही पढ़ता है और यदि घर में स्त्री पढ़ती है तो पूरा परिवार पढ़ता है। डॉ. अम्बेडकर ने भारतीय साहित्य में प्राचीन से लेकर आधुनिक साहित्य के साथ-साथ विदेशी साहित्य का भी अच्छी प्रकार से अध्ययन मनन किया था। साहित्य अध्यययन के दौरान शिक्षित व स्वतन्त्र स्त्रियों उदाहरण के रूप में उनके सामने बुद्ध की थेरियों से लेकर सावित्री बाई फूले व उनकी कई महिला मित्र थीं जिन्होनंे पढ़-लिख कर समाज परिवर्तन के लिए काम किया। इसलिए वह दलित स्त्री को शिक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध थे। परिवार में औरत की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा के महत्व के साथ-साथ सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल विवाह, बहु-पत्निवाद, देवदासी प्रथा आदि के खिलाफ भी अपनी जनसभाओं में बात रखी। परिवार में लड़की-लड़के का पालन-पोषण समान रूप से होना चाहिए। उन्होनें दलित परिवारों से अनुरोध किया कि वे अपने बच्चों की खासकर लड़कियों की शादी बचपन में ना करें। पालक अपनी संतान की शादी कम उम्र में करके उनके जीवन को नरक ना बनाएं।डॉ. अम्बेडकर ने विवाह जैसे सवाल पर भी बातचीत की। पत्नी कैसी होनी चाहिए इस बारें में पुरूषों का विचार जाना जाता है। वैसे ही पति कैसा हो इस बारें में पत्नी का मन जान लेना जरूरी है। स्त्री एक व्यक्ति है और उसे भी व्यक्ति स्वतन्त्रता की सुविधा होनी चाहिए। ; धनंजय कीर की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर - लाईफ एण्ड मिशन सेद्ध डॉ. अम्बेडकर भारतीय परिवारों में लड़कियों की सुदृढ़ स्थिति चाहते थे। परिवार में लड़के-लड़कियों का सही प्रकार से पालन तभी हो सकता था जबकि परिवार में बच्चे कम हो। भारतवर्ष में खुशहाल परिवार के लिए प्रचलित परिवार नियोजन का नारा आजादी के बाद का है परन्तु बाबा साहब ने स्त्री के संदर्भ में परिवार नियोजन के फायदे बहुत पहले ही देख लिए थे। वे ये भी जानते थे कि इस सब के लिए देश के युवा वर्ग को समझाने व उसको साथ लेने से ही परिवार को खुशहाल बनाया जा सकता है इसलिए उन्होने 1938 में विधार्थियों की एक सभा में बोलते हुए कहा परिवार नियोजन की जबाबदारी स्त्री पुरूष दोनो की होती है बच्चों का लालन पालन हम अच्छी तरह कर सकते हैं। कम संतान होने पर स्त्रियां अपनी शक्ति बाकी कामों में लगा सकती हैं।’ ;

धनंजय कीर की पुस्तक से द्धे स्त्रियों की समानता और स्वतन्त्रता के संदर्भ में डॉ. अम्बेडकर बाकी चिंतको व समाज सुधारको से काफी आगे की समझ रखते थे। अन्य समाज सुधारक जहां नारी शिक्षा को परिवार की उन्नति व आदर्श मातृत्व को संभालने या नारी की स्त्रियोंचित गुणों के कारण ही उसकी उपयोगिता पर बल देते थे परन्तु नारी भी मनुष्य है उसके भी अन्य मनुष्यों के समान अधिकार है इस बात को स्वीकार करने में हिचकिचाते थे। उसकी इस मानवीय गरिमा को सर्वप्रथमतः आधुनिक युग में डॉ. अम्बेडकर ने ही स्थापित किया। वे चाहते थे कि पत्नी की स्थिति घर में दासी जैसी ना होकर उसकी हैसियत बराबरी की हो। उन्होने लड़कों के समान लडकियों को पढ़ाने के साथ-साथ उसका विवाह भी उचित उम्र में हो, इस पर बार-बार जोर दिया। इस विषय पर बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर कहते हैं शादी एक महत्पूर्ण जबाबदारी है। शादी करने वाली हर औरत को उसके पक्ष में खड़ा रहना चाहिए लेकिन उसको दासी नहीं बल्कि बराबरी के नाते या मित्र के तौर पर। यदि ऐसा करोगी तो अपने साथ समाज का भी अभ्युदय करोगी और अपना सम्मान बढ़ाओंगी। इस हेतु सभी स्त्रियों को पुरूष के बराबर हिस्सेदारी कर खुद को शासक की जमात बनाने हेतु प्रयास करना चाहिए। ; धनंजय कीर की पुस्तक डॉ. अम्बेडकर - लाईफ एण्ड मिशन सेद्ध डॉ. अम्बेडकर महिलाओं को उसकी समाज द्वारा दी गई भूमिकाएं मां, पत्नी, बहन एवं उसके स्त्रियोंचित गुणों से इतर उसको पूर्ण स्वतन्त्र, स्वस्थ एवं प्रगतिशील कर्मठ मानवी के रूप में देखते थे। उनके जीवन दर्शन में निहित स्वस्थ प्रफुल्लित शिक्षित, समाजिक सरोकारों में भागीदार दलित और गैर दलित स्त्री अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान पर स्थापित थी।
                    
                  डॉ. अम्बेडकर का काल दलित महिलाओं की अपनी व समाज की स्वतन्त्रता समानता को लेकर की गई सक्रिय व संघर्षपूर्ण भागीदारी का स्वर्ण काल है। डॅा. अम्बेडकर के समय में चले दलित आन्दोलन में लाखों-लाख शिक्षित-अशिक्षित, घरेलू, गरीब मजदूर किसान दलित शोषित महिलायें जुड़ी। उन्होनें जिस निर्भीकता बेबाकी और उत्साह से दलित आन्दोलन में भागीदारी निभाई वह अभूतपूर्व थी। दलित महिला आन्दोलन और डॉ. अम्बेडकर के साथ महिला आन्दोलन की सुसंगत शुरूआत 1920 से मान सकते है हालांकि सुगबुगाहट सन् 1913 से ही हो गई थी। 1920 में भारतीय बहिष्कृत परिषद की सभा कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहू जी महाराज की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इस सभा में पहली बार दलित महिलाओं ने भाग लेकर अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। पहली बार दलित स्त्रियों ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए इस सभा में सौ. तुलसाबाई बनसोडे और रूकमणि बाई ने घरेलू भाषा में लड़कियों की शिक्षा पर बात रखी उन्होने अपने विचार रखते हुए कहा कि लड़कियों की असली शक्ति शिक्षा ही है। इस परिषद में लड़कियों के लिए अनिवार्य और मुफत शिक्षा का प्रस्ताव पारित किया गया।

                  देश भर चल रहे दलित आन्दोलन के साथ दलित महिला आन्दोलन भी अपना आकार ले रहा था। 1920 से आरम्भ हुए दलित महिला आन्दोलन में दलित महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ती जा रही थी। 20 जुलाई 1924 में मुबंई में आयोजित बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की गई। इस सभा की स्थापना का मुख्य उद्देश्य अस्पृश्यता के खिलाफ जंग छेड़ने के अलावा दलित बस्तियों में स्कूल व छात्रावास खोलने सम्बन्धी प्रयास कर दलित समाज में जागृति व चेतना पैदा करना था। बहिष्कृत हितकारिणी सभा की अधिसंख्य सभाएं जो जगह-जगह गांव, देहातों में आयोजित की जाती थी उनमें दलित महिलाएं लगातार उपस्थित रहती थीं। इस समय दलित महिलाएं अपने समाज और परिवार जनित पीड़ा को सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त कर रही थीं। पर उनकी अभिव्यक्ति अधिकतर गानों व स्वागत गान के रूप में ही होती थी। बहिष्कृत हितकारिणी सभा की मिटिगों में वेणुबाई भटकर और रंगबाई शुभरकर अपने मधुर कंठ से दलित पीड़ा की मार्मिक और संघर्षपूर्ण अभिव्यक्ति को गीतों में ढालकर मनमोहक स्वर में गाकर सबका मन मोह लेती थीं।
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