रूपक:आख़री छोर पर है रोगान कला/नटवर त्रिपाठी

                 साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
    'अपनी माटी'
         (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
    वर्ष-2 ,अंक-14 ,अप्रैल-जून,2014

चित्रांकन :शिरीष देशपांडे,बेलगाँव 
कोई देखे तो देखता रह जाये, नजर वहां से  हटती नहीं। पल दो पल नहीं काफी देर तक कोई भी लाजवाब रोगान कलाकृति को अपलक देखता ही रह जाता है। रोगान कला कच्छ-भुज अंचल की प्राचीन और चित्ताकर्षक शिल्प कला है। इस समृद्ध कला के कच्छ-भुज में बहुतेरे कारीगर थे। भुज से उत्तर-पश्चिम में 40 किलोमीटर दूर निरोणा गांव में अब मात्र अरब भाई खत्री के परिवार में 5 सदस्य इस शिल्प को जीवित रखे हुए है शेष सभी गांवों और ठिकानों से यह मनभावन कला विश्राम में चली गई है। इस कला के चतुर चितेरे 58 वर्षीय अरब भाई की माने तो गुजरात की यह रोगान कला आखिरी धुरी-छोर पर पहुंच गई है। इस कला में रूचि कुछेक जिज्ञासुओं, शिल्प मेले लगाने वालों तथा कभी कभार गांव में पहुंचने वाले मुट्ठीभर विदेशियों में रह गई है। न शासन को और न ही अंचल के राजनेताओं को, सामाजिक और राजनैतिक दलों को, और तो और खुद इस कला के जानने वालों को अब अपना वजूद खोती कला की ओर न ध्यान है और न ही रूझान। कच्छ-भुज का नाम विश्व में इस कला के पीछे गूंजता है।

तथ्यात्मक स्त्रोतों के अनुसार रोगान पेन्टिग कला का प्रार्दुभाव परशिया ईरान से हुआ। मध्य-पूर्व देश ईरान में इस प्रकार की कला के संकेत परस्पर रिश्तेदारी के कथनों से पाए गए। उत्तर से होती हुई यह कला भारत पहुंची। इस कला को गुजरात में कच्छ का गौरव च्तपकम व िज्ञनजबी माना जाता है। कच्छ-भुज में यह कला फली-फूली। धीरे-धीरे इसमें भारत की माटी की सौंध जुड़ती चली गई। स्थानीय प्राकृतिक रंग इस कला में समाते चले गए। पहले राजे-रजवाड़े और रईस घरानें में इस शिल्प कला के लिए रूझान था। रजपूती चौल, मिसर और स्कार्फ रोगान कला युक्त होते थे। रजवाड़ों में इस कला की अपनी पहिचान थी। धीरे-धीरे अन्य संभ्रान्त और ऊंचे कृषक परिवार जन अपने कपड़े-लत्तों पर इस्तेमाल करना गौरव मानते थे। तब उस काल में रोगान शिल्प का मौटा कार्य ;ज्ीपबा ॅवताद्ध होता था। याने रोगान का सूत्र-धागा मोटा होता था और जो लाईनिंग उभरती थी वे आजकल की अपेक्षाकृत काफी मौटी होती थी। सरदार उमरावों का जमाना बीत गया और इस कला पर काले बादल मंडराने लगे। शिल्प और शिल्पी काल के साथ गरल होगए। इन शिल्पियों के पूर्व की पीढ़ियांे के हाथ से बने रोगान शिल्प कच्छ म्यूजियम और अहमदाबाद संग्रालय में मौजूद हैं।

यह शिल्प कला प्राकृतिक लाल-पीले सतरंगी विशेष प्रकार के पेस्ट से नुकीली लोहे की डंडी से सूती कपड़े के फलक पर शिल्पी अपनी मनभावन डिजायने उकेरता है, और फलक पर उकेरे गये कलात्मक बिंब युक्त परिधानों को कभी विशेष वर्ग के लोग तो कभी आम जन और अब कोई-कोई पहनता है। एक विशेष विधि से रोगान पेस्ट बनाया जाता है उसमें नैसर्गिक रंगों का मेल रहता है और शिल्पकार अपनी ही मर्जी के लुभावने ड्राईंग-फूल-पत्तियां-झाड़ और आकृतियां बनाता है। यदि कोई डिजाईन या ड्राईंग बना कर उस पर रंगों का प्रयोग करना हो तो शिल्पकार के हाथ-तूलिका-ब्रश काम ही नहीं कर पाते हैं। गुजरात की खासकर कच्छ-भुज अंचल की महिलायें कपड़े के फलक पर उत्कीर्ण पेन्टिग के कपड़े विशेष अवसरों पर खास कर उत्सवों और शादी-विवाह में पहनती रही है। एक बार कपड़े पर उकेरी गई डिजाईन के रंग न तो फीके पड़ते हैं और न हीं पानी या किसी अन्य पदार्थ से खराब होते हैं। 

रोगान कला के शिल्पी इस कला को अपने मन के भावों को कपड़े के फलक पर संवारतेे हैं।  रोगान पेन्टिग मुक्त हस्त से दायें हाथ में तूलिका की सहायता से बांये पंजे पर रोगान-पेस्ट का थक्का रखते हुए दायें हाथ का समान भार डालते हुए 6 से 10 इंच थ्रेड को थामें धीरे-धीेरे ज्यामितिक लाईनिंग द्वारा कपड़ों पर वैविध्य रंगों-लाईनों के प्रयोग से रोगान का थ्रेड बुना जाता है-पेन्ट किया जाता है। ज्यों-ज्यों रोगान-पेस्ट तूलिका से समाप्त होता जाता है नया थ्रेड पंजे पर पड़े रोगान में डूबो कर उठा लिया जाता है। एक रंग का कार्य पूरा हो जाने पर एक थ्रेड से एक रंग के बाद दूसरा रंग लेना होता है। लगभग कपड़े के आधे फलक पर रोगान आर्ट उकेरा जाता है।  कपड़े के विपरीत तरफ भी रोगान आर्ट की आर्टिफिशियल झलक दिखलाई देती है कारण पेस्ट का गाढ़ापन पारदर्शी होता है और यह झाई सकून देती है। सावधानी पूर्वक किसी भी शिल्प पीस को सूखने दिया जाता है ताकि उसकी डिजायन में कोई खरोच नहीं आजावे। सूखने के बाद डिजायन बिलकुल सुरक्षित रहती है।  

कच्छ-भुज अंचल में भुज से उत्तर पश्चिम के बाजू में 40 किलोमीटर दूर नीरोणा नामक एक गांव हैं।  लगभग दस से ज्यादा आबादी वाले इस गांव में एक तिहाई से ज्यादा किसी न किसी कला के शिल्पकार रहते हैं। शिल्प कला का यह अद्भुत खजाना है। लकड़ी पर लाख का शिल्प, चर्म शिल्प, ब्रॉस-बेल, मृण शिल्प और कढ़ाई-बुनाई के ढे़रों शिल्पी हैं जिनकी हस्त कला के चमत्कारिक रंग और नमूने यहां बिखरे पड़े हैं।  किसी भी दिन देशी-विदेशी पर्यटकों के टोले गांव में इन शिल्पकारों के घरों में हस्त शिल्प की सौंध लेते दिखते चले जाएगें। वे इस शिल्प को एकटक देखते हैं तो देखते रह जाते हैं, आंखे शिल्प पर गड़ी की गड़ी रह जाती है। रोगान कला के शिल्पकार भी इसी गांव में रहते हैं और यहंी से सारे विश्व में अपनी शिल्प कला के रंग बिखेरते हैं। ये पूरे वर्ष इस कला में संलग्न रहते हैं, हां बरसात की मौसम में ये बहुत कम काम करते हैं कारण रंग जल्दी नहीं सूख पाता और डिजायन बिगड़ने का संदेह रहता है।

एक समय था जब कच्छ-भुज में आम लोग विशेषकर स्त्रियां रोगान कला से बने घाघरे, ओढ़नी ओैर कपड़े पहनती थी। अब इस कला के शेष-अशेष शिल्पकार वाल-हेंगिंग, कूशन-कवर, बेड-शीट, टेबल-क्लाथ तथा फाईल-कवर बनाते हैं। देशी-विदेशी पर्यटक एवं अन्य लोग इस शिल्प-कला को देख कर दंग रह जाते हैं और आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रया व्यक्त करते हैं। आजकल विदेशी पर्यटकों के लिए निश्चय ही यह अजूबा है और पर्यटन उद्योग के पनपते इस बात की पर्याप्त संभावना है कि रोगान कलाकारों को उनकी कला की पूछ करने वाले मिलते रहेगें और देश-प्रदेश में लगने वाले शिल्प एवं उद्योग मेंलों में उनकी कला की सदैव पूछ रहेगी।  प्रोत्साहन और संरक्षण मिले तो चरमराते इस शिल्प के नये पंख लग सकते हैं।

वंश परम्परा से चले आरहे इस शिल्प कला के सबसे अधिक जानकार और अनुभवी शिल्पकार अट्ठावन वर्षीय श्रीअरब हासम खत्री हैं। दस बरस की आयु से रोगान कला का काम कर रहे हैं। अब्दुल गफूर 50 वर्ष को भारत सरकार से राष्ट्रीय पुरूस्कार सन् 1997 तथा 1988 मे मेरीर्ट अवार्ड से नवाजा व 1988 में गुजरात सरकार एवं अन्य अनेक गुजरात की संस्थाओं से पुरूस्कृत हुए। मास्टर सुमार भाई 23 भारत सरकार से राष्ट्रीय पुरूस्कार सन् 2003 तत्कालीन राष्ट्रपति श्री अब्दुल कलाम द्वारा विज्ञान भवन में शील्ड तथा अंग वस्त्र और 50 हजार रू. नकद पुरूस्कार दिए। 

  नैसर्गिक रंगो से इस आकर्षक शिल्प कला का संसार रचा बसा है। सभी प्रकार के रंग जिनमें पीला, लाल, नीला, हरा, नारंगी, गुलाबी, सिन्दुरी, मेहन्दी, सफेद और काला तमाम प्रकार के रंग प्राकृतिक उपादानों से प्राप्त होते हैं। अन्य कई प्रकार के रंग इन्हीं रंगों के परस्पर मेलझोल से बनाये जाते हैं। पीले रंग के लिए पेवड़ी, गेरू रंग के लिए वैसी मिट्टी, अन्य रंगों के लिए स्टोन, मिट्टी तथा पेड़ों की छाल, पत्तियां और फूलों का इस्तेमाल होता है। काले वस्त्र पर 4 और लाल वस्त्र पर पांच रंगों का प्रयोग किया जाता था।  प्रकृति में जो रंग देखने को नहीं मिलते उन अनेक रंगों का प्रयोग रंगों के मेल से इनकी कृतियोें में देखने को मिलते हैं। 

  रोगान बनाने और इसमें रंगों का समायोजन करने के लिए यह कार्य घरों से दूर आज भी जंगलों में किया जाता है।  रोगान बनाने मे गंध बहुत तेज और असहनीय होती है।  इसलिए जंगल में ही यह कार्य निबटाया जाता है।  सबसे पहले घर से जरूरत के अनुसार अरण्डी का तेल-केस्ट्रोईल लेजाना होता है और इस तेल को लगातार 2-3 दिन तक मंदी-मंदी आंच में थोड़ा चूना पत्थर व ठण्डा पानी मिला मिला कर गरम किया जाता है तथा मिट्टी, कई प्रकार के खनिज पत्थरों और विविध प्रकार के पौधों छाल, पत्तों और फूलों से तैयार किए गए अलग-अलग रंगों को गरम किए जारहे सोल्यूशन-पेस्ट में मिलाया जाता है। लाल रंग के लिए रेड लैड आक्साईड का प्रयोग लिया जाता है। जब पेस्ट पूरी तरह तैयार होने को होता है तो पेस्ट से ज्वलनशील शोले फूटने लगते हैं। रात-रात भर शोले भड़कते हैं। यह दृश्य बड़ा डरावना होता है। धीरे-धीरे यह तरल पदार्थ ठण्डा होते होते गाढ़ा होने लगता है और अच्छा गाढ़ा पेस्ट बन जाता है। इस पेस्ट को मिट्टी के बर्तनों में भर लिया जाता है और पानी मिला कर रखा जाता है ताकि पेस्ट सूख नहीं जावे। इस प्रक्रिया में तीन दिन लगते हैं।  

कच्चा माल कंकड़ की फार्म में होता है। फिर रंग डालते पीसते हैं। पूरा कलर पीस जाने पर रंग में पेस्ट डालने की तै्यारी होती है। पेस्ट और कलर दोनों को रात में मिश्रण करना होता है। रंग युक्त पेस्ट तैयार होने पर अलग-अलग छोटे कटोरों में पानी में डूबा कर रखा जाता है। कई दिन, सप्ताह और महिनों में जाकर एक आर्ट पीस बन कर तैयार होता है जिनकी कीमत हजारों में होती है। साड़ी 50 से 60 हजार की, वाल हेगिंग 8000 से 15000, स्कर्ट्स ड्रेस मटेरियल सामान्यतया 1000 से 4000 जिसे बनाने मेें पन्द्रह दिन लगना सामान्य बात है। 
नटवर त्रिपाठी
(समाज,मीडिया और राष्ट्र के हालातों पर 
विशिष्ट समझ और राय रखते हैं। 
मूल रूप से चित्तौड़,राजस्थान के वासी हैं।
राजस्थान सरकार में जीवनभर 
सूचना और जनसंपर्क विभाग 
में विभिन्न पदों पर सेवा की और आखिर में 
1997 में उप-निदेशक पद से सेवानिवृति। 
वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। 
कुछ सालों से फीचर लेखन में व्यस्त। 
वेस्ट ज़ोन कल्चरल सेंटर,उदयपुर से 
'मोर', 'थेवा कला', 'अग्नि नृत्य' 
आदि सांस्कृतिक अध्ययनों 
पर लघु शोधपरक डोक्युमेंटेशन छप चुके हैं।
संपर्क:-सी-79,प्रताप नगर,चित्तौड़गढ़ 

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अब्दुल गफूर दाउद को 1997 में जिस साड़ी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए नवाजा,उस साड़ी को लेने के लिए 2 लाख रू. भी लग गए परन्तु उन्होंने इसे अपनी साख के बतौर आज भी रखा है। इस शिल्प कला में यूं तो अनेक डिजायने हैं परन्तु पारंपरिक डिजायनों के नाम इस प्रकार हैं - नई डिजायनांे के नाम नहीं रखे गए हैं। फूलकॉंटा, केरी बूटा, पानफराई वेल, खारेक वेल, फणी वेल, बेसूर संगर, बंगसर, कंगरी आदि पारम्परिक हैं। आजकल झाड़ और कुछ भी सोच समझकार लोगों की पसंदीदा डिजायने बनाई जाती है। कुछ भी डिजाईन बनाते हैं पर उनका नामकरण किया है। बनाया हुआ माल अब शो-रूम में नहीं देते कारण कि उन्हें अपनी मजदूरी की कीमत वहां से नही मिल पाती है। जब जी में जो डिजायन आ जाये कपड़े के फलक पर उतर जाती है।

  अब एक कुटुम्ब के दो परिवार रोगान पेन्टिग को थामें और संजोये हुए है।  कच्छ-भुज के गौरव से अभिमण्डित यह शिल्पकला अस्थाचल की ओर तेजी से बढ़ रही है। यह कला अब अपने अन्तिम चरण में और आखिरी छोर को छू चुकी है। इसके तत्काल संरक्षण महति आवश्यता है।

 एक अच्छा काम करने में 3-6 माह लग जाते हैं। छोटे-छोटे कामों में यही कोई पन्द्रह दिन, दो महिना सामान्य बात है। मेहनत के कारण यह कारीगिरी महंगी है और इसका महंगापन भी इसके लुप्त होने का सबब बनती जा रही है। इस काम के लिए न ट्रेसिंग की जाती है और न ही मेजरिंग की जाती है। विदेशी पर्यटन को बढ़ावा मिले तो इस शिल्प की तस्वीर बदल सकती है। कच्छ-भुज में आने वाले पर्यटको का सिलसिला तो यही कहानी कहता है। अब यह शिल्प टसर सिल्क पर भी बनाया जा रहा है। टसर पर शिल्प का उभार अच्छा आता है।  

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