शोध:'खड़ा है ओस में चुपचाप हरसिंगार का पेड़' / फ़िराक वाया विशेष कुमार राय

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                       
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
उर्दु अदब की दरयाफ़्त करें तो सिर्फ चंद नाम ऐसे याद आते हैं जिन्होंने अपनी राहें रिवायत से अलहदा बनाई और बज़ाहिर ‘फिराक गोरखपुरी’ उनमें से एक हैं। फ़िराक़’ की ख़ासियत यह है कि उन्होंने रिवायत को अपने सुख़न में जज़्ब करते हुए एक नई रिवायत क़ायम की। ‘फ़िराक़’ की शाइरी में एक नर्मी और ख़ामोशी बारहा मिलती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि उनकी शाइरी ‘अदबी ज़बान’ होने के बजाय ज़िन्दगी की ज़बान है और खुद ‘फिराक’ का भी यही मानना था। ‘सुमत प्रकाश शौक से हुई गुफ़्तगु’ में ‘फ़िराक़’ साहब साफ़-साफ़ फ़रमाते हैं कि: कला और भाषा की दृष्टि से मेरी कोशिश यह रही है कि एक नया नग़मा पैदा हो जाए, शब्दों में नई झंकारें पैदा हो जाएँ और शाइरी इंसानियत की आवाज़ के साथ तालमेल स्थापित कर सके।“1

‘फ़िराक़’ शाइर की दुनिया और ज़िन्दगी को अहसासों की दुनिया और जिन्दगी मानते थे। अपने सुख़न में वो बारहा इन्हीं अहसासों को मुसलसल बयान करते रहे।


‘मैंने इस आवाज़ को मर-मर के पाला है फ़िराक।/आज जिसकी लौ नर्म है शम्मे मेहराबे हयात।।’

‘फ़िराक़’ के वालिद साहब ख़ुद शाइर थे। ‘फ़िराक़’ ने जब उर्दू अदब की दुनिया में कदम रखा तो ‘ग़जल’ के ढांचे पर प्रगतिशीलता की चोट पड़ने लगी थी और उसे ‘सामंती विधा’ कहा जा रहा था। ऐसे वक़्त में ‘फ़िराक़’ ने ‘ग़ज़ल’ को इक नई गोयाई अता की और उसका लहज़ा बदल दिया। ‘फ़िराक़’ अंग्रेजी के ‘स्वच्छन्दतावाद’ से प्रभावित थे चुनाँचे उनके कलाम में एक ताज़गी का अहसास होता है। वो अपने हमअस्रों को मुसलसल ‘अंग्रेजी अदब’ से सीख लेने की सलाह देते रहे। ये ‘फ़िराक़’ की ही सलाहियत थी कि अपने तमाम हमअस्रों ‘इकबाल’, ‘सीमाब अकबरबादी’, फ़ानी बदाँयूनी’, ‘हसरत मोहानी’, ‘मजाज’, ‘जोश’, ‘फ़ैज’ और ‘मख़दूम’ इत्यादि के रहते हुए उन्होंने अपनी राह अलहदा बनाई। ‘फ़िराक’, ‘तरक़्क़ी पसन्द तहरीक से वाबस्ता थे अगरचे उनकी वाबस्तगी इससे ‘फै़ज’ आदि की तरह नहीं थी। ‘फ़िराक़’ अपनी शाइरी में हमें कुदरत के तमाम ख़ुबसूरत मनाज़िर से रू-ब-रू करवाते-करवाते ज़िन्दगी के मसाइलों की तरफ़ हमारी निग़ाह ले जाते हैं। उनकी मशहूद नज़्म ‘आधी रात’ से हम गुजरते हैं और ‘आधी रात’ के नशे में डूबने लगते हैं:-

‘खड़ा है ओस में चुपचाप हरसिंगार का पेड़।/दुल्हन हो जैसे हया की सुगंध से बोझल।।/ये मौजे-नूर ये भरपूर ये खिली हुई रात।/कि जैसे खिलता चला जाये एक सफेद कंवल।।’

इतने में ही हमारा ध्यान इस ओर जाता हैः-

‘सिपाहे-रूस हैं अब कितनी दूर बर्लिन से’
याः- ‘न मुफ़लिसी हो तो कितनी हसीन है दुनिया’

‘फ़िराक़’ अपनी ग़ज़लों के लिए ज़्यादा जाने जाते हैं अगरचे उनकी नज़्में भी आलातरीन हैं। उनके संग्रहों में ‘रूप की रूबाइयाँ’, रम्ज-ओ-कियानात’, ‘रूह-ए-कायनात’ और ‘शबनमिस्तां’ प्रमुख हैं। ‘फ़िराक़’ का नाम ‘इश्किया शाइरी’ के क्षेत्र में अग्रणी है। उनकी ‘इश्क़िया शाइरी’ फ़क़त प्रेमिका की याद में ज़ार-ज़ार रोना नहीं बल्कि अपनी शाइरी में वे अपने दर्द का विस्तार करते हैं। अगर ‘फै़ज़’, ‘ईश्क’ से ‘आजिज़ी’ और ‘गरीबों की हिमायत’ करना सीखते हैं तो ‘फ़िराक़’ भी उससे सबक लेते हैं; बहुत कुछ सीखते हैं-

‘सिखा गया है दुख मेरा परायी जानना’

इस तरह ‘फ़िराक़’ के यहाँ शाइरी फकत मनोरंजन की वस्तु नहीं है। उनकी अदबी दुनिया हमें ज़िन्दगी के तमाम मसाइलों से रू-ब-रू कराती है। अगरचे उनकी शाइरी में बहुत अन्तर्विरोध मिलते हैं मगर उन्हें यदि उनकी ज़िन्दगी से जोड़ कर देखा जाए तो बात समझ में आती है। उनकी शाइरी में हमें ‘आदमी’ और ‘आदमियत’ की बात बारहा मिलती है:- ‘जब-जब इसे सोचा है दिल थाम लिया मैंने इंसान के हाथों से इंसान प जो गुज़री है’।

कहना न होगा कि इस ‘आदमी’ और ‘आदमियत’ का शदीद अहसास उन्हें अन्य तरक़्की-पसंद शाइरों से अलग करता है और यही उनकी प्रगतिशीलता को समझने का ज़रिया भी है। अपनी निजी ज़िन्दगी और अपनी शाइरी में फ़िराक़ कितने भी ग़मगीं क्यों न हों मगर वो ‘आदमी’ और ‘आदमियत’ पर अपना भरोसा क़ायम रखते हैं और उम्मीद नहीं छोड़ते। उनका कलाम इसकी तस्दीक करता हैः

‘उसी नए जहाँ में आदमी बनेंगे आदमी/जबीं पॅ शाकहारे-दह्र का निशां  लिए हुए’

‘फ़िराक़’ की शाइरी के बारे में ‘उर्दू साहित्य की परंपरा’ में ‘जानकी प्रसाद शर्मा’ लिखते हैं - फ़िराक़ की ग़ज़लें ये साबित कर देती हैं कि ग़ज़ल प्रेम-कविता के अलावा और भी बहुत कुछ है। क्योंकि फ़िराक़ के यहाँ प्रेम और सौन्दर्य की लालसा अपने समय के अन्तर्विरोधों में झाँकने का बाइस बन जाती है। यह मनुष्य की दुनिया को सुन्दर बनाने की जद्दोजहद से भिन्न नहीं है। उनके शाइर के लिए धरती पर प्रेम की विधमानता मनुष्य के बचे रहने की अलामत है। प्रेम और सौन्दर्य का ऐसा विराट वैभव उर्दू ग़जल में अपना कोई बदल नहीं रखता।’2

इस तरह हम देखते हैं कि ‘फ़िराक़’ ने उर्दू शाइरी को उसकी तमाम ख़ासियतों के साथ उसे जीवन-जगत से जोड़ा, जिसका उर्दू शाइरी में अभाव था। इसलिए उनके यहाँ आदमियत का अहसास बड़ी शिद्दत से उभरता है। ऐसा नहीं है कि ‘फ़िराक़’ के अलावा उर्दू शाइरी में ‘आदमी’ और ‘आदमियत’ की बातें नहीं थी। ‘तरक़्की पसंद तहरीक’ से वाबस्ता शाइर यह काम कर रहे थे मगर ‘फ़िराक़’ इस तरह की किसी लीक पर नहीं चलना चाहते थे। उर्दू अदब में ‘फ़िराक़’ को इक कमी यह नज़र आई कि उर्दू शाइरी भारतीय सभ्यता से वाबस्ता नहीं हो पाई है। ‘गुफ़्तगु’ में वे फरमाते हैं कि - ”हज़ारों साल से ज़िन्दा रहने वाली भारतीय सभ्यता से उर्दू शायरी बहुत कम आत्मीयता स्थापित कर सकी है।“3

अपने कलाम के ज़रिये उन्होंने इस महत्त्वपूर्ण कमी को पूरा करने की कोशिश की। ‘नक़श’ के संपादक ‘मुहम्मुद तुफ़ैल’ को लिखे ख़़्ात में उन्होंने कहा था-

”क़ौमी ज़िंदगी और आलमगीर ज़िंदगी की इन क़दरों और हिन्दुस्तान के कल्चर के मिजाज को अपनी शाइरी में समोना, मुल्की और आलमी ज़िंदगी के पाकीज़ा मुहर्रिकात को गोयाई अता करना ही मेरा मक़सदे-शाइरी रहा है।“4

और जब हम ‘फ़िराक़’ के कलाम से गुज़रते हैं तो देखते हैं कि वो अपने ‘मक़सदे-शाइरी’ में सफल रहे हैं-

‘अदा में खिंचती थी तस्वीर कृश्नो-राधा की/निगाह में कई अफ़साने नल-दमन के मिले-

‘फ़िराक़’ ने अपनी शाइरी में औरत के हर रूप की तस्वीर पेश की। उनकी शाइरी में औरत महज़ महबूबा ही नहीं बल्कि वह मां, बहन, बेटी और पत्नी भी है। अभी तक उर्दू शाइरी में औरत केवल माशूक थी और उसके अन्य रूप शाइरी से नदारद थे। ‘फ़िराक़’ कहते हैं-

‘मां और बहन भी और चहेती बेटी/घर की रानी भी और जीवन साथी’

‘फ़िराक़’ के यहाँ औरत का देवी रूप भी मिलता है। ग़ालिबन यह स्वच्छन्दतावाद की देन है। उनकी शाइरी में कोरी जिन्सियत का इस्तेमाल नहीं हुआ है बल्कि उन्होंने औरत की सुंदरता का वर्णन इतनी सादगी से किया है कि मुझे ऐसा  उदाहरण पूरे अदब में अभी तक नहीं मिला-

‘ये रूप ये लोच ये तरूनुम ये निखार/बच्चा सोते में मुस्कुराये जैसे’

जिन्होंने कभी किसी बच्चे को ‘सोते में’ मुस्कुराते हुए देखा होगा वे इन पंक्तियों की गहराई को समझ सकते हैं। इसके आगे दुनिया के तमाम सुंदरता के उपमान फीके मालुम पड़ते हैं। इतना ही नहीं ‘फ़िराक़’ औरत की ममता पर सब कुछ कुर्बान करने को तैयार है-

‘तमाम इल्मो-अमल उसकी ममता पे निसार’

‘फ़िराक़ की शाइरी में उदासी, ख़ामोशी, रात, धुँधलका, शाम इत्यादि बारहा इस्तेमाल हुए हैं। कहना न होगा कि यह उनकी निजी ज़िन्दगी के असरात हैं जो उनकी शाइरी पर छाए रहते हैं। ‘अज्ञेय’ ने ठीक कहा था ‘दुख सबको मांजता है’ चुनाँचे फ़िराक़ कहते हैं- ‘सिखा गया है दुख मेरा परायी पीर जानना’, ‘फ़िराक़’ की शाइरी में बहुत जगह विरोधाभास मिलते हैं जिससे कही गई बात का असर दूर तक जाता है-

‘मिला हूँ मुस्कुराकर उनसे हर बार/मगर आँखों में थी कुछ नमी सी’

यह ठीक है कि फ़िराक़’ के यहाँ उदासी बारहा मिलती है मगर तमाम उदासियों के बीच वह उम्मीद नहीं छोड़ते। अगर रात की गहरी उदासी में वह यह कहते हैं - ‘ग़ज़ल के साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात’ तो वह यह भी कहते हैं ‘सुखन की शम्अ जलाओ बहुत अँधेरा है’।

जहाँ ‘फ़ैज़’ अपनी नज़्म ‘रक़ीब से’ में अपने रक़ीब से मुख़ातिब होते हैं तो ‘फ़िराक़’ भी अपने रक़ीब से कहते हैं-

‘रक़ीबे-ग़मज़दा अब सब्र कर ले/कभी इससे मेरी भी दोस्ती थी’

‘फ़िराक़ के यहाँ ‘आईना’ का इस्तेमाल बारहा हुआ हैं कभी उनके यहाँ आईना है बरसात की रात तो, कभी ‘आईना-दर-आईना है शफ़फ़ाफ़ बदन’ और ‘आईना-दर-आईना सुहानी झलक’। आईना शमशेर के यहाँ भी बहुत है। वह ‘फ़िराक़’ ही थे जो कह सकते थे ‘अब भीग चली है रात मुझमें आ जा’। वह ‘फ़िराक़’ का ही कलाम है जिसमें ‘हवाएँ नींद के खेतों से जैसे आती हैं’, और ‘वो सोचता हुआ बदन खुद एक जहाँ लिए हुए हैं।’ ‘फ़िराक़’ उर्दू की अदबी दुनिया में ‘मीर’, ‘ग़ालिब’ और ‘सौदा’ से बहुत प्रभावित थे। यह ‘मीर’ का प्रभाव ही था कि उनके लहज़े में एक नर्मी और धीमापन मिलता है। वह इस प्रभाव को स्वीकार भी करते हैं।

‘गुले-नग़मा’ की भूमिका में ‘मुहम्मद इसन अस्करी’ साहब बजा फरमाते हैं -

”उनकी शायरी आहटों की शायरी है कहीं महबूब की आहट हैं, कहीं विश्व की, कहीं स्वयं उनकी मनःस्थितियों की। उनके शेरों को पढ़ते हुए दिमाग़ को एक हल्का-सा धचका लगता है। किन्तु इसकी वज़ह बड़ी मद्धिम और मुलायम मनःस्थितियाँ होती हैं।“5

हम जानते हैं कि ‘फ़िराक़’ यूरोप के ‘स्वच्छन्दतावाद’ से प्रभावित थे मगर हमें ध्यान रहना चाहिए कि उनका जुड़ाव ‘तरक़्की पसंद तहरीक़’ से भी था। इसलिए उनकी शाइरी में ‘स्वच्छन्दतावाद’ और ‘यथार्थवाद’ दोनों के रंग मौजूद हैं। अगर ‘फ़िराक़’ लिखते हैं-

‘जब नींद की साँस कहकशाँ लेती है/ऐसे में काश! तेरी आहट आए’
तो वह यह भी कहते हैं-

‘अभी तो धन-गरज सुनाई देगी इन्क़लाब की/अभी तो गोश-बर-सदा है नज़्म आफ़्ताब की’

उनकी नज़्म ‘आधी रात’ में तो ‘स्वच्छन्दतावाद’ और ‘यथार्थवाद’ का अद्भुत मिश्रण मिलता है।‘ग़ालिब’ की तरह ‘फ़िराक़’ भी कहते हैं ‘घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर’ मगर जहाँ ग़ालिब कह उठते हैं ‘दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं’ वहीं ‘फ़िराक़’ बेख़ौफ़ कहते हैं ‘मुझे गुमरही का नहीं कोई ख़ौफ तेरे घर को हर रस्ता जाए है’। इस तरह हम देखते हैं कि ‘फ़िराक़’ का शाइरी ‘इश्किया शाइरी’ होते हुए भी हमारी दुनिया, हमारी ज़िंदगी से बहुत गहरे वाबस्ता है। ‘फ़िराक़’ ने ‘उर्दू की इश्किया शाइरी के मानी बदल दिए हैं। ग़ालिबन उन्होंने उर्दू शाइरी का ‘दाइरा-ए-शऊर’ विस्तृत किया है। उन्होंने ग़ज़लें, नज़्में, रूबाइयाँ और दोहे भी लिखे अगरचे उन्हें उनकी ग़ज़लों के लिए ज़्यादा याद किया जाता है। उन्होंने उर्दू शाइरी को रहस्यवाद के घेरे से बाहर निकाला और उसे एक नए यथार्थवाद का रास्ता दिखाया। बकौल ‘जानकी प्रसाद शर्मा’:-

”गरज़ यह कि फ़िराक़ ने रिवायती शायरी की दाखि़लीयत या अन्तर्मुखता से बचाव करते हुए और सामाजिक सोद्देश्यता से रिश्ता कायम करते हुए एक ऐसा तर्जे़ सुख़न ईजाद किया जिसमें दृष्टि और कला के स्तर पर परम्परा और सामाजिक बोध का द्वंद्व बज़ाहिर दिखाई देता है। वे एक ऐसे सौन्दर्यात्मक परिप्रेक्ष्य को हासिल करने की जद्दोजहद में रहे हैं जहाँ कि ग़ज़ल ‘सुनाई दे ख़बर होकर, दिखाई दे नज़र होकर।’6

‘फ़िराक़’ की शाइरी में जहाँ-जहाँ व्यक्ति की निजता’ फूटकर बाहर आना चाहती है वहाँ ग़ालिबन ‘स्वच्छन्दतावाद’ का प्रभाव है मगर जहाँ भी वे ज़िन्दगी के तमाम मसाइलों से रू-ब-रू होते हैं वहाँ ‘यथार्थवाद’ का प्रभाव है। इस तरह हम देखते हैं कि ‘फ़िराक़’ की शाइरी में दोनों का असर मौजूद है। ‘फ़िराक़’ हमारी साझी संस्कृति’ का हिस्सा हैं। उनका अदब आज भी हमारे उतने ही काम का है जितना वह पहले था।

विशेष कुमार राय
पीएच.डी. जेएनयू
नई दिल्ली-110067
मो 9013743215
ई-मेल:isheshrai074@gmail.com
‘नज़्मे-ज़िंदगी: रंगे शायरी’ की भूमिका में ‘फ़िराक़ साहब’ ने लिखा थाः
”‘फ़िराक़’ ने बस इतना ही चाहा है कि इन्सानी ज़िन्दगी को अपनी ज़िन्दगी बना ले और इन्सानी ‘फिराक़’ की जिन्दगी को अपनी ज़िन्दगी बना ले। मेरा अलग कोई अस्तित्व नहीं है। मैं आप ही लोगों में से एक आप ही लोगों जैसा व्यक्ति हूँ।“7इस तरह हम कह सकते हैं कि ‘फ़िराक़’ की शाइरी हमारी अपनी दुनिया, हमारी अपनी ज़िन्दगी की शाइरी है। ‘फ़िराक़’ की शाइरी ‘आदमी’ और ‘आदमियत’ की शाइरी हैं तभी ‘फ़िराक़’ कहते हैंः-

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों/वो गुत्थी आज भी सुलझा रहा हूँ’

संदर्भ ग्रंथ
1. फ़िराक़ गोरखपुरी-गुफ़्तगु, पृ. 12,वार्ताकार-सुमत प्रकाश ‘शौक’,अनुवाद-डॉ. परमानन्द पांचाल,वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण - 2004
2. जानकी प्रसाद शर्मा-उर्दू साहित्य की परंपरा, पृ. 124, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण - 2009
3. फ़िराक़ गोरखपुरी- गुफ्तगु, पृ. 19, 
4. फ़िराक़ गोरखपुरी, मन आनम (पत्र संग्रह), पृ. 11, लिप्यंतरण: प्रदीप साहिल, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण - 2001
5. फ़िराक़ गोरखपुरी गुले-नग़मा (काव्य संग्रह), पृ. 8, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008 संस्करण
6. जानकी प्रसाद शर्मा - उर्दू साहित्य की परंपरा, पृ. 123 
7. फ़िराक़ गोरखपुरी - बज़्मे-ज़िन्दगी: रंगे शायरी (काव्य संग्रह), पृ. 14, चयन व लिप्यंतरण - डॉ. जाफ़र रज़ा, भारतीय ज्ञानपीठ, 2004 संस्करण
8      ’ ‘सभी कविताएं गुले नग़मा’ और ‘बज़्में ज़िदंगी: रंगे शायरी’ से

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