साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
‘हिंदी प्रदेश और मुस्लिम समाज’
इस किताब का एक
दस्तावेजी अध्याय है, इसमें विस्तार से मुस्लिम सामाजिक सरंचना, इस्लाम का उदय और विकास, मुस्लिम समाज के
रीतिरिवाज, त्यौहार, मुस्लिमो की शैक्षिक तथा रोजगार की स्थिति पर विस्तार से विचार किया गया है।
मुस्लिम समाज पर इतना सुसंगत और समग्र अध्ययन कम देखने को मिलता है। हजरत मोहम्मद ने अरब के विभिन्न कबीलों को एक
सूत्र में बाँधने तथा अरब समाज से ऊँच-नीच,
अमीर-गरीब के मध्य
चली आ रही गैर बराबरी को समाप्त कर, समानता लाने के लिए 610 ई. के लगभग ‘इस्लाम धर्म’ का प्रवर्तन किया ।
उन्होंने स्त्री जाति को संपत्ति के साथ तलाक का अधिकार दिया । विधवा विवाह को मान्यता दी । तत्कालीन सामाजिक
व्यवस्था में भले ही यह महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कदम था, पर यह अधिकार पुरुषों के बराबर
हर्गिज़ न था । ‘इस्लाम’ का शाब्दिक अर्थ समर्पण है ।
इस्लाम धर्म का नाम 'इस्लाम' इसलिए रखा गया है कि यह अल्लाह के आदेशों का अनुवर्तन और आज्ञापालन है । 'इस्लाम' धर्म को मानने वाले लोग ‘मुस्लिम’ कहे गए । चूँकि हजरत
मुहम्मद अपने को आखिरी पैगंबर घोषित कर चुके थे, इसलिए उनकी मृत्यु के उपरांत
इस्लाम के नेतृत्व के लिए खिलाफत की
परंपरा शुरू हुई। पहले खलीफा को लेकर विवाद शुरू हुआ, परिणाम स्वरूप इस्लाम के
कई फाड़ हो गए , अली के अनुयायी शिया तथा अबू बकर के अनुयायी सुन्नी कहे गए। इस्लाम धर्म अपने
सामाजिक समानता के सिद्धांत तथा सूफी विचारधारा के कारण लोकप्रिय हुआ।
हिंदुस्तान में मुसलमानों के
आगमन के फलस्वरूप वे यहाँ की संस्कृति और सभ्यता से प्रभावित हुए और यहाँ के लोगों
को प्रभावित भी किया। अरब की
परिस्थितियों में उपजा यह धर्म जब हिंदुस्तान में आया तो भाईचारे एवं समता के
सिद्धांत के बल पर इसने लोगों को आकृष्ट किया और सामाजिक रूप से पिछड़े भारतीयों ने
इस धर्म को ग्रहण किया। इसके अतिरिक्त
आंशिक सच यह भी है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम राजाओं ने बलात धर्म
परिवर्तन कराया। मुसलमानों को भी जाति
प्रथा का ग्रहण लगा, लिहाजा शूद्र जाति से धर्मांतरित मुसलमान शेखों और सैय्यदों की तुलना में नीची जाति की श्रेणी में ही रहे ।
मुसलमान भारत में सत्ता पर भी काबिज हुए, जमींदार भी बने।
भारतीय समाज की कल्पना मुसलमानों के बिना नहीं की जा सकती। राही मासूम रज़ा ने लिखा है कि, “हिंदुस्तान के मुसलमानों
ने हिंदू संस्कृति और सभ्यता को अपने खूने-दिल से सींच कर भारतीय संस्कृति और
सभ्यता बनाने में बड़ा योगदान दिया है। ” भारत में स्थापित औपनिवेशिक ताकत (अंग्रेजों) ने मूल
या स्थानीय एवं बाहरी तथा गुलाम एवं शासक जैसे आख्यान रच कर भारत को दो बड़े
समुदायों के आधार पर बाँट दिया। यही वह विष था जिसने भारत में सांप्रदायिक ताकतों
को जन्म दिया। धर्म जब व्यक्ति और समाज को त्यागकर राजनीति का दामन थाम लेता है
तो उसकी मानवीय भूमिका समाप्त हो जाती है, तब वहाँ नफरत की फसल उगती है । सांप्रदायिकता और
कठमुल्लापन इसका दूसरा नाम है। 1947 में देश का विभाजन ही
नहीं हुआ बल्कि राजनीति ने धर्म को आधार बनाकर सदियों पुराने सामाजिक संबंधों में खटास ला दी । परिवार टूट गए और साझी
संस्कृति भी इस बँटवारे का शिकार हुई । राही मासूम रज़ा ने चेतावनी देते हुए कहा था
कि, “यदि
धर्म का सत्ता प्राप्ति के लिए इस्तेमाल नहीं रोका गया तो इससे देश को दुबारा बहुत
गंभीर परिणाम झेलने पड़ेंगे ।” एम फिरोज अपनी इस पुस्तक में इन सभी बातों पर विस्तार से
चर्चा करते हैं।
जमींदारी व्यवस्था टूटने के बाद
उत्तर भारत में मुसलमानों की स्थिति और भयावह हो गई । मुल्क के बँटवारे से उनके कंधे टूटे थे,
जमींदारी उन्मूलन
ने तो कमर ही तोड़ दी थी । जमींदारी व्यवस्था की ऐतिहासिक भूमिका समाप्त हो गई
जिसके चलते साधारण जन और छोटे किसानों को फायदा हुआ। मध्यवर्ग का संकट, जातीय संगठनों तथा
धार्मिक गठजोड़ों का मजबूत होना, धर्म परिवर्तन का होना लेकिन जाति का अपरिवर्तित रहना,
मुस्लिम समाज के
लिए चिंता का सबब बनता गया। साम्राज्यवाद द्वारा बोया गया सांप्रदायिक बीज तेजी
से फलने-फूलने लगा और यह भारतीय राजनीति
का अनिवार्य हिस्सा बन गया। आजादी के
सुनहरे सपने से सम्पूर्ण भारतीय जनता को एक उम्मीद थी। जाहिर है इसमें मुसलमान भी सम्मिलित थे । आज़ादी
के बाद आम आदमी बुरी तरह हताशा से घिरता चला गया। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण
मुसलमान समाज स्वकेंद्रित होने लगा। बहुसंख्यक वोट बैंक के तुष्टीकरण की राजनीति के चलते मुसलमान समाज सभी
स्तरों पर उपेक्षा का शिकार हुआ । वे अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी के शिकार होते चले
गए । मुस्लिम समाज की ये समस्याएं आज अन्य
समुदायों की तुलना में काफी भयावह हैं । इन बातों की पुष्टि सच्चर कमेटी समेत तमाम
रिपोर्टों द्वारा होती रही है । इन परिस्थितियों का कठमुल्लों ने फायदा उठाया और
ये लोग मुस्लिम समाज के स्वयंभू नेता बन गए और असुरक्षा बोध के चलते मुस्लिम समाज
धीरे-धीरे इन कठमुल्लों की गिरफ्त में आता गया। भारत में अन्य समुदायों की अपेक्षा
मुस्लिम समुदाय की स्त्रियों के हालात और भी बदतर हैं । शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, स्वतंत्रता हर मामले
में मुस्लिम स्त्री की दशा शोचनीय है । मुस्लिम समुदाय में स्त्रियों की दशा में
सुधार न होने का प्रमुख कारण है कि मुस्लिम समुदाय में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है,
साथ ही बड़े
पैमाने पर समाज सुधार के प्रयास भी नहीं हुए, जो बेहद जरूरी थे । मुस्लिम
औरतों के पास आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है, शिक्षा का अभाव है, वे स्कूल तो जाती हैं पर
चौथी-पाँचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं । उनकी पढ़ाई छोड़ने का कारण यह
नहीं है कि मुस्लिम औरतें पर्दे में रहती हैं, मुस्लिम औरत के नहीं पढ़ने का मूल कारण गरीबी है । उनकी
स्थिति अनुसूचित जाति की तरह है, जिस वजह से अनुसूचित जाति की औरत नहीं पढ़ पाती है, उसी वजह से मुस्लिम औरत
नहीं पढ़ पाती है । धर्म उतना बड़ा कारण नहीं है ।
इस किताब से गुजरते हुए हम यह देखते हैं कि इस्लाम की धार्मिक मान्यताएं तथा विश्वास हिंदू धर्म की
मान्यताओं के काफी करीब हैं । रोजा या उपवास की प्रक्रिया हिंदू धर्म में भी है,
जिसमें नवरात्रि
के 9 दिन
के व्रत प्रमुख हैं । इसी तरह तीर्थ यात्रा, दान देना (जक़ात), ईश्वर आराधना (नमाज)
इत्यादि की प्रक्रिया हिंदू धर्म से मिलती-जुलती है । आज सांप्रदायिक विभाजन के
दौर में इन बातों को रेखांकित किया जाना जरूरी है। मुस्लिम समाज के भी अपने कुछ
धार्मिक विश्वास हैं- कुरान, हदीस, कयामत,फरिश्ते, जन्नत , दोजख, पैगम्बर, जिन्न, जेहाद इत्यादि। भारत के अन्य समुदायों की तरह मुस्लिम
समुदाय के भी कुछ विशिष्ट त्योहार हैं जिन्हें वह उल्लास के साथ मनाता है (ईद,
बकरीद, शबे-बारात, मोहर्रम आदि) जिससे समाज में समय-समय पर उत्सवधर्मिता बनी रहती है,
ये त्योहार अपने
समाज से गहरे अर्थों में संपृक्त होते हैं । राही मासूम रज़ा का पूरा साहित्य
मुहर्रम के वर्णनों से भरा पड़ा है, वे मुहर्रम को ठेठ भारतीय त्योहार मानते थे ।
मुस्लिम समुदाय की रीतियों के लिए कोई मुस्लिम विधि निर्धारित नहीं की गई है फिर
भी हिंदुस्तानी समाज में गहरे रूप से इसकी स्वीकारोक्ति है। मुस्लिमों के जन्म
संस्कार, विवाह की रीतियाँ, मृत्यु संस्कार को ध्यान से देखने पर हिंदू संस्कारों
से पर्याप्त समानता देखने को मिलती है, हिंदुओं और मुस्लिमों में होने वाले जन्म से लेकर
मृत्यु तक के संस्कार एक दूसरे के अलगाव
के खिलाफ खड़े होते है।
यह किताब इस बात का बहुत ही साफ
तथा सटीक ढंग से मूल्यांकन करती है कि मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन
परस्पर भिन्न हैं तथा एक ही भू-भाग में रहने वाले हिंदू और मुसलमानों के आर्थिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में
समानता भी देखने को मिलती है । हिंदू और मुसलमानों की यह सांस्कृतिक एकता ‘मुस्लिम आस्मिता’
का सवाल उठाने
वाले कट्टर हिंदूवादियों के तर्कों को भी खारिज कर देती है ।मुस्लिमों की जनसंख्या
वृद्धि दर अन्य समुदायों की वृद्धि दर से ज्यादा है। इसका मुख्य कारण मुसलमानों
में शिक्षा का अभाव है। महिला साक्षरता दर की कमी एवं महिलाओं के विवाह की औसत आयु
का कम होना है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि असुरक्षा की भावना को ध्यान में रखते
हुए मुसलमान परिवार नियोजन को नहीं अपनाते, लेकिन 1991-2001 के बीच जनसंख्या वृद्धि
दर(2.58%) मुसलमानों में अब तक सबसे कम रही है, जबकि 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुस्लिम समाज सबसे
ज्यादा असुरक्षाबोध का शिकार हुआ है। इसलिए असुरक्षाबोध का यह तर्क उचित प्रतीत
नहीं होता। भारतीय मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में देश के अन्य समुदायों से पीछे
है। इस समुदाय में बड़े पैमाने पर फैली गरीबी और बेरोजगारी इसके लिए जिम्मेदार है।
मुस्लिम समुदाय की वे बिरादरियाँ जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक है, वे शिक्षा के मामले में
भी आगे हैं। आधुनिक सोच और शिक्षा से वंचित मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबका
मुल्ला-मौलवियों के प्रभाव से ग्रस्त जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। उनकी
साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है। प्राथमिक शिक्षा के बाद स्कूल छोड़ देने
वाले मुस्लिम बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी कारण स्नातक तथा स्नातकोत्तर
करने वाले मुस्लिम विद्यार्थियों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात में काफी कम
है।मुस्लिम समाज का अधिकांश हिस्सा भयंकर गरीबी से जूझ रहा है। इनकी स्थिति हिंदू
धर्म के मजदूर तथा श्रमशील जनता की तरह ही है। वह भी मजदूरी एवं कुटीर उद्योगों के
भरोसे जिंदगी गुजार रहे हैं। मुस्लिम समाज की अधिकांश आबादी स्वरोजगार पर भरोसा
करती है।
साहित्य और समाज परस्पर संबंधित
होते हैं । साहित्य की जड़ें समाज में होती
हैं । वह स्वयं एक सामाजिक उत्पादन है । इस स्थापना की झलक हिंदी उपन्यास में भी
देखी जा सकती है । एम फिरोज खान इसी स्थापना के तहत मुस्लिम समाज के सद्धांतिक
पक्ष पर लिखने के बाद उसे व्यहारिक रूप से समझने के क्रम में मुस्लिम समाज संबंधी
रचनाओं का विश्लेषण करते हैं । हिंदी उपन्यास अपने उदय के ऐय्यारी और तिलिस्म के
दौर से चलकर एक लंबी यात्रा तय कर चुका है ।
उसने भारतीय समाज के विविध पहलुओं को छुआ है । अब उपन्यास के जनतंत्र में ऐसे लोग जगह पा रहे हैं जो कभी
हाशिए पर ढकेल दिए गए थे । यह हिंदी उपन्यास
की चौहद्दी का विकास ही है कि आज मुस्लिम, दलित एवं आदिवासियों के जीवन पर उपन्यास लिखे जा
रहे हैं । डॉ. श्यामाचरण दुबे जैसे समाजशास्त्री ''देश विभाजन की त्रासदी पर सशक्त
और हिला देने वाले'' उपन्यास की माँग तो करते हैं पर उनकी नजर से भी देश विभाजन के बाद का मुस्लिम
जीवन का व्यापक परिवेश छूट जाता है । शानी ने सबसे पहले यह सवाल उठाया था कि
हिंदी उपन्यास में मुसलमान कहाँ हैं?
'समकालीन भारतीय साहित्य'
पत्रिका के 41 वें अंक में नामवर सिंह
से बात करते हुए शानी ने सवाल उठाया था कि ''क्या किसी भी देश का भौगोलिक,
सांस्कृतिक और
साहित्यिक मानचित्र 12-15 करोड़ मुस्लिम वजूद को झुठलाकर पूरा हो सकता है?...नामवर जी कई वर्ष पहले
आपने कहा था कि हिंदी साहित्य से मुस्लिम
पात्र गायब हो रहे हैं । मुस्लिम पात्र
जब थे ही नहीं तो गायब कहाँ हो रहे हैं ।
प्रेमचंद में नहीं थे, यशपाल में आंशिक रूप से थे । ...गोदान जो लगभग क्लासिकी पर जा सकता है और
हमारे भारतीय गाँव का जीवंत दस्तावेज है, उसमें गाँव का कोई मुसलमान पात्र क्यों नहीं हैं?
क्या अपने देश का
कोई गाँव इनके बिना पूरा हो सकता है? प्रेमचंद फिर भी उदार हैं, जबकि यशपाल के 'झूठा सच’ में नाम मात्र के
मुस्लिम पात्र नहीं हाड़-मांस के जीवंत लोग हैं । लेकिन उसके बाद? अज्ञेय, जैनेन्द्र, नागर जी या उनकी पीढ़ी
के दूसरे लेखकों में क्यों नहीं? और उससे भी ज्यादा तकलीफ़देह यह है कि आजादी के बाद के
मेरी पीढ़ी के कहानीकारों में और उसके बाद के कहानीकारों में भी नहीं हैं । ...हिंदी में ही क्यों नहीं हैं? जबकि तेलुगू में हैं,
असमिया में हैं,
बँगला में हैं ।’’
इस प्रकार यह सत्य है कि सन 65 में शानी के ‘काला जल’ के आने से पहले मुस्लिम जीवन हिंदी उपन्यास के हाशिए
पर था । ‘काला
जल’ में
शानी ने भारतीय मुसलमान के दु:ख-दर्द को पिरोने के क्रम में मुस्लिम समाज के आचार
व्यवहार, रूढ़ियाँ, रीतियाँ, भय, अंधविश्वास
तीज त्योहार, स्त्री की दयनीय दशा, अशिक्षा इत्यादि
का प्रामाणिक चित्रण किया है । इसी प्रकार नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘ज़ीरो रोड’ के संदर्भ मे एम फिरोज
लिखते हैं कि ‘ज़ीरो रोड उपन्यास में लेखिका ने समप्रदयिकता के स्वरूप पर प्रकाश डालने के लिए
हिंदू मुस्लिमों में व्याप्त होने वाली घृणा और उसके परिणामस्वरूप,उसकी प्रतिक्रिया और
व्यक्ति मन में चढ़े जुनून का चित्रण कर यह संदेश दिया है है कि जुनून में व्यक्ति
मानवता तक भूल जाता है और दंगा फसाद हो जाता है जबकि आम आदमी ऐसा करना नहीं चाहता।
दंगा फसाद कुछ ही व्यक्तियों की देन है।’ ‘विभाजन और मुस्लिम उपन्यासकर’ इस किताब का एक महत्वपूर्ण
अध्याय है, मुस्लिम उपन्यासकारों के उपन्यासों से गुजरते हुए इस अध्याय में विभाजन की
त्रासदी के मूल कारणों तथा विभाजन के बाद बदलते मुस्लिम मानस को समझने की कोशिश की
गई है। एम फिरोज इसके लिए शानी, बदीउज़्ज्मा, राही मासूम रज़ा, नासिरा शर्मा, मेहरुन्निसा परवेज़,असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह के
उपन्यासों की गहराई से पड़ताल करते हैं। वे लिखते हैं कि ‘विभाजन के पश्चात प्रभावित
मुस्लिम समाज का उल्लेख नासिरा शर्मा, रही मासूम रज़ा, बदीउज़्ज्मा, आदि उपन्यासकारों ने
किया है। विवेच्य संवादों में व्यक्त मानसिकता से स्पष्ट है कि अधिकांश मुसलमान न
ही पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में थे और न ही पाकिस्तान के प्रति उनमें कोई
रुचि थी......अर्थ कि अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए उससे प्रभावित होने वाले
जीवन और सम्बन्धों पर अपने अपने ढंग से असगर वजाहत , शानी, महरुन्निसा परवेज़ ने प्रकाश डाला
है।’
एम. फिरोज ‘छाकों की वापसी’ को भारत विभाजन के दस्तावेज़
के रूप में पढे जाने का आग्रह करते हैं, वे लिखते हैं कि ‘बदीउज्ज्मा ने विभाजित भारत के
मुसलमानों की मनोदशा का बड़े ही स्वाभाविक एवं सुंदर ढंग से चित्रण किया है
.........पाकिस्तान निर्माण के पीछे आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा को मुख्य रूप में
बदीउज्ज्मा के छाकों की वापसी उपन्यास में देखते हैं। पाकिस्तान की परिकल्पना और
उसके विरोध के दो पात्रों के बीच हुई बहस जीवंत कर देती है ।’ इस विषय पर 'छाको की वापसी' के हबीब भाई का यह
वक्तव्य बहुत मत्वपूर्ण है ''बहुत तकलीफदेह हकीकत है.... की बिहारी मुसलमान की बंगाली
मुसलमान के साथ गुजर नहीं हो सकती ।...मैं समझता हूँ कि बिहार के हिंदू इन बंगाली
मुसलमानों से यकीनन बेहतर थे ।'' इसी क्रम में एम फिरोज
महरुन्निसा परवेज़ का उपन्यास ‘कोरजा’ और नासिरा शर्मा के ‘ज़िंदा मुहावरे’ का मूल्यांकन करते हैं।
अगर वे कोरजा को मुस्लिम संस्कृति और जीवन के व्यापक चित्रण के रूप में मूल्यांकित
करते हैं तो जिंदा मुहावरे को ‘देश विभाजन के पश्चात व्याप्त आशंका, अशांत, द्वंद, संघर्ष विघटन’ के विविध परिदृश्य के
रूप में। अगर संपूर्णता में देखें तो यह पुस्तक समाज तथा साहित्यिक संदर्भों के
साथ मुस्लिम समाज का एक समाजशास्त्रीय आख्यान रचती है।
सुनील यादव,ई-मेल:sunilrza@gmail.com,पता-ग्राम-करकापुर,पोस्ट-अलावलपुर,जिला गाजीपुर(उ प्र)-233305