साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका
'अपनी माटी'
वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट |
‘कंकाल समाज की रूढ़िग्रत धार्मिकता तथा थोथी नैतिकता पर बडा गहरा व्यंग्य है।
ऊपरी सामाजिक व्यवस्था के भीतर कितना भंयकर खोखलापन है, इसे ‘प्रसाद’ ने प्रत्यक्ष कर दिया है।
आदर्श-प्रधान निवृति-मूलक साधना के प्रति ‘प्रसाद’ ने पूर्ण अनास्था प्रकट की है’।1.
कोई भी साहित्य समाज से इतर रह कर नहीं लिखा जा सकता। रचनाकार समाज में पैदा
होता है और उसी में रह कर लिखता है इसलिए साहित्य लिखते समय अनायास ही रचनाकार
समाज को लिख रहा होता है।
जयशंकर प्रसाद कृत कंकाल (1930) भारतीय समाज का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है।
कंकाल का अर्थ होता है- ‘अस्थि-पंजर का ढांचा’। ऊपर से स्वर्णिम दिखाई देने
वाला भारतीय समाज और इसकी सभी संस्थायें एक कंकाल ही तो हैं। उपन्यास में प्रसाद
इसी बात को दिखाते हैं। स्थान है प्रयाग, काशी, हरिद्वार, मथुरा और वृन्दावन के आसपास का क्षेत्र।
कंकाल उपन्यास के सभी पात्र किसी न किसी वर्ग को दर्शाते हैं। श्रीचंद
व्यवसायी वर्ग का है। समाज के कारण अपने प्रेम से अलग किशोरी अपनी चारित्रिक
दुर्बलताओं को लिये हुए एक अमीर औरत की स्थिति का चित्रण करती है। वह समाज में
दिखावा करके यश कमाने वाले वर्ग की प्रतिनिधि है। निरंजन ऐसा पात्र है जो परिवार
की मनौती के फलस्वरूप साधु बन जाता है। यमुना एक साधारण स्त्री है जो पुरूषों
द्वारा शोषण का शिकार होती है। जूठ्न पाने के लिये लड़ने वाले लोग दलित वर्ग से
हैं। बाथम इसाई है। मंगल समाज सेवक है पर शोषक है।
उपन्यास में श्रीचंद और किशोरी पति-पत्नी हैं। वे संतान कामना का आशीर्वाद
लेने के लिये निरंजन के पास आते हैं जो कि एक महात्मा है और किशोरी का बाल स्नेह
भी। किशोरी उससे संतान उत्पन्न करती है और अपने पति से अलग रहने लगती है। यहाँ
किशोरी भारतीय नारी के उस रूप का चित्रण करती है जो अपने प्रेम को स्पष्ट रूप से
व्यक्त नहीं कर सकती।
प्रसाद जी तत्कालीन भारतीय समाज में पवित्र कहलाये जाने वाली जगहों पर किस तरह
के अनीतिपूर्ण काम किये जाते थे इसे चित्रित करते हैं। निरंजन एक साधु है। उसे
किशोरावस्था में उसके माता-पिता ने एक बाबा को दे दिया था क्योंकि उसके जन्म के
लिए ऐसी ही मनौती माँगी गई थी। वह ब्रह्मचारी बन कर जीवन काटता है। किशोरी से वह ‘विजय’ और रामा से ‘यमुना’ का पिता बना। उस समाज
में प्रचलित था कि संतान आशीर्वाद से उत्पन्न होती है। इसलिये निरंजन के माता-पिता
और किशोरी-श्रीचंद सन्तान प्राप्ति के लिये साधुओं के पास जाते हैं। ऐसे ही
तथाकथित बाबा समाज की भोली-भाली जनता को उल्लू बना कर अपनी जेब गर्म करते हैं।
कंकाल में तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति का भी रूप देखने को मिलता है। तीर्थ
स्थान कैसे स्त्री के लिए अभिशाप बन जाता है यह तारा के द्वारा समझा जाता सकता है।‘तुम्हारे सामने जिस दुष्टा ने मुझे फँसाया था, वह स्त्रियों का व्यापार करने
वाली एक संस्था की कुटनी थी। मुझे ले जाकर उन सबों ने एक घर में रखा, जिसमें मेरी ही जैसी कई
अभागिनें थीं, परंतु उनमें सब मेरी जैसी रोनेवाली न थीं। बहुत-सी स्वेच्छा से आयी थीं और
कितनी ही कलंक लगने पर अपने घरवालों से ही मेले में छोड़ दी गयी थीं’। 2.
कलंक लगने का अर्थ स्त्री की यौन शुचिता खत्म हो जाना है। भारतीय समाज
पितृसत्तात्मक विचारों वाला है। यहाँ विवाह पूर्व संबंध बनाने की मनाही है। मंगल
कहता है।‘यह स्त्री कुचरियों के फेर में पड़ गयी थी; परन्तु इसकी पवित्रता में कोई
अंतर नहीं पड़ा’। 3.
स्त्री की पवित्रता उसकी देह है। तारा वेश्यालय में रही इसलिये अब वह घर में
रखने योग्य नहीं है। उपन्यास की यह घटना भारतीय समाज के यथार्थ को बताती है। यहाँ
अनेक स्त्रियाँ समाज के नियमों के कारण वेश्यावृत्ति में लिप्त होती हैं।भारतीय समाज में बाल-विवाह की प्रथा काफी पुरानी है। यहाँ बच्चों को नासमझी की
आयु में ब्याह दिया जाता है। बाल-विवाह का दुष्परिणाम बाल-विधवा है। जो लड़की संसार
को जानती तक नहीं वही विधवा होकर उसके कठोर नियमों का पालन करने के लिए मजबूर हो
जाती है। कंकाल में घंटी एक बाल-विधवा है। वह समाज के कारण भले ही अपनी भावनाओं को
दबाये पर उसकी भावनाएं मरती नहीं हैं। घंटी ब्रज में अपनी चंचल मनोवृत्ति के कारण
कुख्यात हुई। घंटी जैसी बाल-विधवा को कुरीतियों से भरे भारतीय समाज में कहीं आशय
नहीं था। वह कभी भीख माँगती है तो कभी विभिन्न पुरुषों के आशय में रहती है। उसका
कोई नहीं है पर वह सबकी सम्पत्ति बन जाती है। कंकाल में तत्कालीन समाज में आ रहे
बदलाव के फलस्वरूप विधवा के पुनर्विवाह के प्रश्न को भी उठाया गया।
कंकाल उपन्यास में प्रसाद जी ने धर्म परिवर्तन को भी चित्रित किया है। विभिन्न
धर्मों के तथाकथित संरक्षक तत्कालीन समाज में लोगों को बहलाकर, पाप-पुण्य के फेर में
उलझाकर धर्म परिवर्तन करवा रहे थे।कंकाल में जयशंकर प्रसाद हिंदु धर्म की आडम्बर भरी नीतियों को सामने लाते हैं।
उस समय समाज दलित और सवर्ण, गरीब-अमीर में बँटा हुआ था। कुछ लोग धर्म के नाम पर धन लुटा
रहे थे और कुछ खाने को भी तरस रहे थे। प्रसाद भारतीय समाज की आडम्बर पूर्ण नीतियों
पर व्यंग्य करते हैं।
‘जिन्हें आवश्यकता नहीं, उनको बिठाकर आदर से भोजन कराया जाये, केवल इस आशा से कि परलोक में वे
पुण्य संचय का प्रमाण-पत्र देंगे, साक्षी देंगे, और इन्हें जिन्हें पेट ने सता रखा है, जिनको भूख ने अधमरा बना
दिया है, जिनकी
आवश्यकता नंगी होकर वीभत्स नृत्य कर रही है-वे मनुष्य, कुत्तों के साथ जूठी पत्तलों के
लिये लड़े; यही तो तुम्हारे धर्म का उदाहरण है’। 4.
प्रसाद जी के समय का समाज दलितों से घृणा का भाव रखने वाला था। यह वह समय था
जब उन्हें अछूत माना जाता था। उनका भोजन सवर्णों की जूठन था। ये वो समाज है जिसमें
दलितों की वास्तविकता अर्थात उनकी गरीबी को दिखाया गया है। यहाँ किशोरी जैसी
महिलायें निरंजन जैसे भोगी के साथ मिलकर धर्म-कर्म का दिखावा करती हैं। ये ऐसा
समाज है जिसमें एक ओर ऐश्वर्य है तो दूसरी और भूख।
‘दासियाँ जूठी पत्तल बाहर फेंक रही थी। ऊपर की छत से पूरी और मिठाईयों के
टुकड़ों से लदी हुई पत्तलें उछाल दी जाती थीं। नीचे कुछ अछूत डोम और डोमनियाँ खड़ी
थीं जिनके सिर पर टोकरियाँ थीं, हाथ में डण्डे थे जिनसे वे कुत्तों को हटाते थे और आपस में
मार-पीट, गाली-गलौच
करते हुए उस उच्छिष्ट की लूट मचा रहे थे-वे पुश्त-दर-पुश्त के भूखे’। 5.प्रसाद जी के कंकाल में चित्रित सामाजिक यथार्थ पर प्रेमचंद कहते हैं।
‘प्रसाद जी ने इस उपन्यास में समकालीन सामाजिक समस्याओं को हल करने की चेष्टा
की है और खूब की है- प्रेमचंद’। 7.
आरती रानी प्रजापति
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‘मैं ब्याह करने की आवश्यकता यदि न समझूँ तो’? 8.
विजय भी विधवा घंटी से स्नेह रखता है पर वह विवाह की बात स्वीकार नहीं करना
चाहता। वह कहता है-घंटी, जो कहते हैं अविवाहित जीवन पाशव है, उच्छृंखल है, वे भ्रांत है। हृदय का सम्मिलन
ही तो ब्याह है। मैं सर्वस्व तुम्हें अर्पण करता हूँ और तुम मुझे। इसमं, किसी मध्यस्थ की
आवश्यकता क्यों – मंत्रों का महत्व कितना। 9.इस प्रकार 1930 में प्रकाशित ‘कंकाल’ तत्कालीन भारतीय समाज को चित्रित करता है। उस समाज में परिवर्तन और कुरीतियों
की जो लहर थी वह उपन्यास में दिखाई देती है।
संदर्भ ग्रंथ सूची-
हिंदी उपन्यास-डॉ. रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ-38, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी प्रथम संस्करण-2006 ई.
कंकाल-जयशंकर प्रसाद, राजकमल पैपरबैक्स, पृष्ठ-23 पहला संस्करण-1988, पाँचवी आवृत्ति- 2010
3. वही, पृष्ठ-24
4. वही, पृष्ठ-49
5. वही, पृष्ठ-48
6. वही, पृष्ठ-92
7. (हिंदी उपन्यास)-डॉ. रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ-38, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी प्रथम संस्करण-2006 ई.
8. कंकाल-जयशंकर प्रसाद, पृष्ठ-33
9. वही, पृष्ठ-118