समीक्षा:ईमां मुझे रोके है तो खैंचे है मुझे कुफ्र/ डॉ. राजेश चौधरी

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                      
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
भूमंडलीकरण और हिन्दी उपन्यास शीर्षक से लेखक का अभिप्राय दोहरा है। पहला तो वे उपन्यास जो नई आर्थिक नीतियों के लागू होने से एक-डेढ़ दशक में उनके चौतरफा पैदा हुए दुष्प्रभाव को सीधे लक्ष्य बनाते हैं यथा-ईंधन, काशी का अस्सी, रेहन पर रग्घू, दौड़, हलफनामे, दूसरा वे उपन्यास जो समानान्तर इसी अवधि में सांप्रदायिकता, सांस्कृतिक द्वन्द्व, स्त्री, दलित एवं आदिवासी अस्मिता पर केन्द्रित हैं यथा शिगाफ, ए.बी.सी.डी., मुन्नी मोबाइल, धूणी तपे तीर आदि। इनमें भूमंडलीकरण प्रच्छन्न अथवा एक संदर्भ के तौर पर है। दूसरे शब्दों में भूमंडलीकरण के होने न होने से इनके स्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता।

नवसाम्राज्यवाद कहें अथवा उदारीकरण अथवा वैश्वीकरण-1990 के बाद का भारत छोटे पर चमचमाते और बड़े पर बजबजाते दो हिस्सों में बँट चुका है। भारतीय मध्यवर्गी युवा इस चमचमाते भारत में किसी भी सेंध से घुस पड़ने को और चकाचौंधी बाजार का मालिक बनने को आतुर है। यह अलग बात है कि बाद में उसे खुद के ही बिक जाने, खाली और खत्म हो जाने का अहसास हो। नकली अथवा गैरजरूरी सपनों को पूरा करने में रीतती ऊर्जा का दस्तावेजी चित्रण स्वयंप्रकाश के उपन्यास ईंधन में है। ललित श्रीमाली ने इसी लिहाज से इसका चुनाव और विवेचन किया है तथा तकनीक और बाजारवाद के घालमेल से उपजी उपभोगमूलक अपसंस्कृति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। क्यूबा के पूर्व राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने एक बार कहा था कि यदि तकनॉलॉजी आठ घंटे का काम चार घंटे में निपटाती है तो लोग शेष चार घंटों में संगीत सुनंे, थियेटर देखें यानी जीवन को सर्जनात्मक व आनन्दपूर्ण बनाएं।’ यह तकनीक का जीवन में रचनात्मक हस्तक्षेप होगा पर ईंधन यह बताता है कि इसका उलटा ही घटित हुआ है। बाजार और तकनीक ने मिलकर स्निग्धा के पापा को जीवनान्द से वंचित कर दिया है। स्वयंप्रकाश ने किताबी स्त्री-छवि की जगह यथार्थ की स्त्री को देखा है और उसे स्निग्धा के रूप में प्रस्तुत किया है। बाजार का आकर्षण स्त्री यानी स्निग्धा में पहले है, पति रोहित में उसकी मार्फत है। अधिकांश प्रकरणों में यह सच भी है। रोहित में धन और कथित स्टेटस के लिए जाग्रत तृष्णा के मूल में स्निग्धा है। काश! स्थिति इसके उलट होती, स्निग्धा अपने प्रेम-प्रभाव का इस्तेमाल रोहित के समृद्ध के बजाय संतुष्ट बनाए रखने में करती।

 ललित श्रीमाली का यह कथन युक्तियुक्त और यथार्थ है कि ‘‘बाजार का आकर्षण हमारे चारों ओर मायावाी शक्तियों की तरह व्याप्त है। हम इसकी आलोचना कर के भी इसमें जीने के अभिशप्त हैं। बकौल ब्रज श्रीवास्तव ‘‘इसकी दलील है हम बाजार हैं तो हैं/ लोगों को भी तलब है हमारी ही।’’ बाजार के इस ठसके ने ही रोहित को बाजार का ईंधन बना दिया है। स्निग्धा के पापा पैसा कमाने को व्यर्थ समझते हैं पर उससे बच नहीं पाते - स्वयंप्रकाश ने इस प्रसंग में उनसे कहलवाया है ‘‘इसका क्या किया जाए? इसका मोल क्या है? तब तंग आकर उसका एक ट्रस्ट बना दिया जाता है और नाशुकरे, अनडिजर्विंग लोग उसे (धन को) कुतर कुतर कर खत्म कर देते हैं।’’ स्वयंप्रकाश धनपशु होने की निन्दा करते हैं, बिल्कुल ठीक, नाशुकरे अनडिजर्विंग लोग उसे कुतर कुतर कर खत्म कर देते हैं - इसकी आलोचना भी बिल्कुल ठीक पर इसी लपेटे में ‘ट्रस्ट बनाने की प्रवृत्ति’ भी आ जाय? ललित श्रीमाली की इस पर दृष्टि जानी चाहिए थी।

आलोचक श्रीमाली ने नव औपन्यासिक प्रयोग ‘काशी का अस्सी’ को विवेचन का विषय बनाया है। काशीनाथसिंह ने विश्वविद्यालयी अध्यापक के अभिजात्य और कथित गरिमा को परे रखकर जनसंवाद स्थापित किया है - देख तमाशा लकड़ी का, संतो घर में झगरा भारी, संतों, असन्तों, घोंघाबसन्तों का अस्सी, पांडे कौन कुमति तोहे लागी, कौन ठगवा नगरिया लूटल हो - (पांच भाग मिलकर उपन्यास बनते हैं) में उपभोक्तावाद, भूमंडलीकरण की लोकव्यवहार में उपस्थिति को यथारूप अंकित किया है। ललित श्रीमाली ने भूमंडलीकरण की असलियत-पाश्चात्य वर्चस्व को ठीक पहचाना है पर इसके विपक्ष में वे भारतीय उच्च कुलीन संस्कृति को नहीं रखते अपितु प्रतिरोधक शक्ति के रूप में जनसंस्कृति को रखते हैं, यह स्वागत योग्य है।

काशीनाथ सिंह ‘काशी का अस्सी के चौथे हिस्से ‘पांडे कौन कुमति तोहे लागी’ में पं. धर्मनाथ शास्त्री डालर के फेर में अपने घर को किराएदार मादलेन के मुताबिक संशोधित करने के इच्छुक हैं - यहां तक कि पहले से घर में बने महादेव मंदिर को तोड़कर उसके स्थान पर मादलेन के लिए अटैच बाथरूम बनाने में उन्हें कोई हर्ज दिखाई नहीं देता - क्योंकि इसके लिए स्वयं महादेव जी ने ही उन्हें स्वप्न में आज्ञा दे दी है। हरिशंकर परसाई की व्यंग्य कथा वैष्णव की फिसलन की याद दिलाता यह प्रसंग यह संकेत भी करता है कि विदेशी पूंजी के आगमन/आक्रमण ने हमारी चेतना का हरण कर लिया है। 

ललित श्रीमाली ने काशी का अस्सी को स्वच्छन्द गद्य का नमूना माना है यह भी कि उनकी दृष्टि में यह ‘आवृत्त करने वाला गद्य न होकर उद्घाटित करने वाला गद्य है (पृ.30) काशीनाथ सिंह का उद्घाटित करने वाला गद्य यानी उनकी भाषा में भदेसपन यथार्थ प्रसूत है। वास्तविकता के आग्रह से रचना में मौजूद है पर सवाल यह भी है कि गालियाँ मुख्यतः स्त्री अंगों से संबंधित अथवा अप्रत्यक्षतः स्त्री को संबोधित गालियां अनजाने ही सही, क्या स्त्री अपमान का परिदृश्य नहीं रच रही? खासकर तब जबकि लेखक की ओर से इस शब्दावली के प्रति भर्त्सना का एक संकेत तक न हो।

ललित श्रीमाली ने अपनी आलोचना पुस्तक में दो महिला उपन्यासकारों को विवेचन हेतु चुना है और दोनों-ममता कालिया व मनीषा कुलश्रेष्ठ के विवेचित उपन्यास स्त्री-विमर्श की आरक्षित परिधि से बाहर की दुनिया की खोज खबर लेते हैं। ममता कालिया का ‘दौड़’ बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के उपकरण बन रहे उन युवाओं की व्यथा-कथा है जिनकी एक एक सांस गिरवी रखी जा चुकी है। उपन्यास का नायक पवन एम.बी.ए है तो एक अन्य पात्र अभिषेक भी एम.बी.ए. है। पवन की साथिन स्टैला कम्प्यूटर इंजीनियर है - यानी उपन्यास का एक भी पात्र साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र जैसे अकादमिक विषयों की शिक्षा पाए हुए नहीं है। यही कारण है कि व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त पीढ़ी का न कोई अतीत है न भविष्य - वर्तमान तो खैर कंपनियों में बंधक है ही। दौड़ का नायक पवन अहमदाबाद आकर शुरूआती दौर में जरूर अपने गृहनगर इलाहाबाद को याद करता है पर बाद में उसी दौर के हवाले हो जाता है जिसे ललित श्रीमाली ने खुदगर्जी, मुनाफे व निर्ममता की संस्कृति (पृ. 58) कहा है। 

राजू शर्मा के हलफनामे उपन्यास के केन्द्र में भारत का वह कृषक समुदाय है जो खेती को बचाने की जुगत में खुद ही हलाल हो जाता है। आलोचक श्रीमाली ने बाजारीकरण के दौर में नवीन ग्रामीण यथार्थ वाले उपन्यास के रूप में इसे चिन्हित करते हुए इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि पानी की समस्या से ग्रस्त किसानों के टूटने और पलायन करने को दर्शाने वाला संभवतः यह पहला उपन्यास है। किसान आत्महत्या से शुरू हुआ यह उपन्यास उदासीन शासन तंत्र, कर्ज के मकड़जाल की पड़ताल करता हुआ इस भयावह सत्य की और ले जाता है कि जमीन के नीचे पानी का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। यह देखा जाना चाहिए कि यह पर्यावरण से खिलवाड़ का ही नतीजा नहीं है अपितु बहुराष्ट्रीय उद्योगों, कोल्डड्रिंक कंपनियों द्वारा अत्यधिक जल दोहन का भी दुष्परिणाम है।

राजू शर्मा एवं ललित श्रीमाली दोनों ने किसान आत्महत्याओं के लिए कर्ज के फंदे को जिम्मेदार ठहराया है - यह सही है पर इस तथ्य पर भी ध्यान जाना चाहिए कि नकदी फसल के आकर्षण में किसानों ने कर्ज लिया था। यदि अधिकाधिक कमाने के फेर में न पड़े होते तो आंध्रप्रदेश में किसान कर्ज तदनन्तर मृत्युपाश में न बंधे होते। काशीनाथसिंह के विवेच्य दूसरे उपन्यास ‘रेहन पर रग्घू’ को श्रीमाली ने भूमंडलीकरण का प्रतिरोध करने वाला उपन्यास बताया है - यह प्रतिरोध उपन्यास के नायक साठ पार रिटायर्ड कॉलेज अध्यापक रघुनाथ उर्फ रग्घू की मार्फत उपन्यास में प्रकट होता है। रघुनाथ भूमंडलीय अपसंस्कृति के दृष्टा भी हैं, भोक्ता भी हैं और उससे मुकाबिल भी। काशी का अस्सी में जहां पूरा मोहल्ला कथा-नायक है तो रेहन पर रग्धू में एक व्यक्ति। श्रीमाली ने ठीक लक्ष्य किया है कि ‘यह वह कहानी है जिसमें एक घर, एक परिवार विश्वग्राम की मायावी चकाचौंध में टूट-बिखर रहा है। (पृ. 118) उपन्यासकार ने परिवार नाम की संस्था के छीजते जाने की कथा तो प्रस्तुत की ही है पर साथ ही रघुनाथ के बड़े पुत्र संजय की परित्यक्ता सोनल की रघुनाथ से आत्मीय रिश्ता बनाए रखने की चाहत में भूमंडलीय आँधी का प्रतिरोध भी देखा है।
डॉ. राजेश चौधरी
प्राध्यापक (हिन्दी)

महाराणा प्रताप राजकीय महाविद्यालय,
चित्तौड़गढ़-312001,राजस्थान 
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rajeshchoudhary@gmail.com
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रघुनाथ की बेटी सरला दहेज देकर शादी करने के खिलाफ है यह निश्चय ही मुखर और प्रभावी स्त्री-अस्मिता है - सरला दलित युवक सुदेश भारती से प्रेम विवाह की इच्छुक है यह भी एक प्रगतिशील रूझान है। वर्ण और जाति की रूढ़ मान्यताओं का टूटना ही अच्छा, पर अविवाहित सरला का उम्रदराज बाल-बच्चेदार कौशिक सर से प्रेम करना किस कोण से प्रगतिशील कदम है? काशीनाथसिंह ने संजय, धनंजय के गुणा भाग वाले कथित प्रेम प्रसंगों पर सवालिया निशान लगाए पर सरला व कौशिक सर के प्रेम प्रसंग को मानो उन्होंने स्वीकृति ही दे दी - यहाँ तक की सारनाथ में चौकीदार द्वारा पकड़े जाने पर सरला के जवाब - ‘‘चाचा वाचा’ होंगे तुम्हारे, मेरे तो प्रेमी है’’ में उन्होंने बरास्ता कौशिक सर सरला में हिम्मती लड़की के दर्शन किए। इस प्रसंग में सरला को बोल्ड बताना कहीं अदृश्य, अघोषित रूप से पुरुष के लिए स्त्री को उपयोग्य बनाना तो नहीं?

ललित श्रीमाली की यह पहली किताब विवेच्य बारह उपन्यासों में से पहले पढ़े गए उपन्यासों को दोबारा पढ़ने और अब तक न पढ़े गए उपन्यासों को पढ़ने की सलाह देती हुई, इच्छा जगाती हुई किताब है। एक अच्छी बात यह भी है कि श्रीमाली की आलोचना - भाषा शास्त्रीयता के बोझ से मुक्त है

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