शोध:नागार्जुन के उपन्यासों की कथाभूमि/ डॉ.प्रफुल्ल कुमार मिश्र

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                        
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
संस्कृति वस्तुनिष्ठ रूप से मानवता का खरा उत्पाद है। समग्र मानवीयता की संपत्ति के रूप में संस्कृति का निर्माण पहले नृशाक्त बाद में समाजशास्त्र का विषय बना है। यह बात और है कि समाज और इतिहास के आलोक में संस्कृति के पहचान चिन्हों और प्रतीकों की पहचान तथा विश्लेषण की प्रक्रिया सही ढंग से शुरू होती है। सुप्रसिद्ध नृशास्त्री ‘हाबेल’ (Haeble) संस्कृति के विषय में अपने नितांत निजी मत के अनुरूप कि यह ‘एक अनोखी मानव घटना है; मानते हुए यह लिखा है- ‘‘यह संस्कृति ही है जो एक व्यक्ति को अन्य सभी व्यक्तियों से एक समूह को अन्य सभी समूहों से तथा एक समाज को दूसरे समाजों से पृथक करती है।’’1 सीधे शब्दों में कहें तो ‘संस्कृति’ सीखे हुए व्यवहारों की ‘समग्रता’ है, लेकिन संस्कृति की धारणा इतनी विस्तृत है, कि इसे केवल एक वाक्य में ही परिभाषित नहीं किया जा सकता। आमतौर पर यह कहा जा सकता है, कि ‘‘मनुष्य द्वारा अप्रभावित प्राकृतिक शक्तियों को छोड़कर जितनी भी मानवीय दशाएं हमें चारों ओर से प्रभावित करती हैं, उन्हीं की सम्पूर्ण व्यवस्था को हम संस्कृति कहते हैं और इस प्रकार संस्कृति के इस घेरे का नाम ही सांस्कृतिक पर्यावरण है।’’ जाहिर है कि संस्कृति का मतलब केवल शिष्टाचार के ढंगों एवं जीवन के पद्धतिक क्रियाकलापों एवं कलाओं तक नहीं बल्कि ‘‘संस्कृति एक व्यवस्था है जिसमें हम जीवन के प्रतिमानों, व्यवहार के तरीकों, बहुत से भौतिक एवं अभौतिक प्रतीकों परम्पराओं, विचारों, सामाजिक मूल्यों, मानवीय क्रियाओं और अविष्कारों को सम्मिलित करते हैं।’’2

दरअसल ‘सामजशास्त्रीय दृष्टिकोण से संस्कृति वह विशेषता है, जिसमें कई अन्य व्यक्ति भाग ले सकें। एकान्त, दूरस्थ क्षेत्र में बसने वाले किसी व्यक्ति के द्वारा हुई कोई महत्वपूर्ण खोज, चाहे उस व्यक्ति के लिए लाभकर हो पर दूसरे के लिए उपयुक्त न हो सकने की स्थिति में वह संस्कृति का अंग नहीं बन सकती। इसी प्रकार, यदि कुछ नए विचारों को समाज के दूसरे लोग ग्रहण नहीं कर पाते अपना कार्य करने के किसी ढंग को दूसरे व्यक्ति नहीं अपनाते, तब हम इन विचारों एवं प्रविधियों को भी संस्कृति में सम्मिलित नहीं करते, क्योंकि संस्कृति का संबंध उन्हीं तथ्यों से है, जिनमें दूसरे व्यक्ति हिस्सेदारी कर सकें। इसी आधार पर क्रोबर ने लिखा है कि- It is always something adopted, used believed, practiced or passesed by more than one person. It depends upon group life for its existence - व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी बनाने में जितने भी तत्वों का योगदान होता है, उन सभी की एक संकुल व्यवस्था का नाम ही संस्कृति है।

संस्कृति के लंबे, विस्तृत और जटिल प्रकृति को समझने के लिए ही इसके स्थूल अथवा भौतिक तथा अंतरंग (अभौतिक) तत्वों पर विचार किया जाता है। इसके स्थूल प्रतीकात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व अधिकांशतः नगरीय स्तर पर होता है जिसमें मूर्त्त एवं दर्शनीय पक्ष की प्रधानता रहती आई है। अंतरंग सांस्कृतिक पक्ष से तात्पर्य संस्कृति के उस पक्ष से है जिसका कोई खास प्रदर्शनीय रूप तो नहीं होता बल्कि वह विचारों एवं विश्वासों के माध्यम से मानव व्यवहारों को प्रभावित करती है। उदाहरणस्वरूव-अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत के द्वारा किसी समाज में जितने भी विचारों, विश्वासों नियमों, परंपराओं, लोकाचारों, प्रथाओं और जनरीतियों का विकास होता है, वे सभी संस्कृति के अभौतिक तत्व हैं। सही मायनों में देखें तो संस्कृति के इन्हीं अंतरंग और अभौतिक तत्वों, लक्षणों और उपादानों से गँवई-संस्कृति और लोकसंस्कृति का निर्माण होता है। हम यह देखते हैं कि काई व्यक्ति भौतिक संस्कृति से अनुकूल न करे तो इसका उसके सामाजिक अस्तित्व पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता लेकिन अपनी अभौतिक संस्कृति से अनुकूलन न करने पर उसे कठोर सामाजिक तिरस्कार का समाना करना पड़ता है। नागार्जुन के उपन्यास ‘लोक संस्कृति के प्रति किसी प्रतिबद्धता से बंधे हुए नहीं हैं। न ही उनकी रचनाओं में किसी रूप में उनका अपना या कोई विशेष अंचल ही मुखर रूप से उनके औपन्यासिक कथा लेखन का प्रतिनिधित्व करता दीखता है। वरन् नागार्जुन सही मायनों में ग्रामीण जीवन के रचनाकार हैं। इस ग्रामीण जीवन के जो तीसरी दुनिया के देशों के एक सार जीवन पद्धति के लगभग एक हजार वर्षों के अपरिवर्त्तित (या बहुत कम परिवर्तित) जीवन शैली का प्रतिनिधित्व करता है। यह लोकांचल उस अभौतिक संस्कृति का आश्रय प्रतिरूप है जिसकी प्रकृति अभूतपूर्व एवं अनुपम ढंग से स्थिर रही है। स्वयं इसके बड़े नियंता अथवा निर्धारक भी इसके रूप (रीति रिवाज, शैली क्रिया प्रणाली एवं विरासत के प्रदेशों) में परिवर्त्तन का साहस नहीं जुटा सकते। इस संस्कृति के इस पक्ष में एक अनिवार्य गुण ‘‘बाध्यता का गुण’’ है।

नागार्जुन इस ‘बाध्यता के गुण’’ को किसी उपादान लक्ष्य या फिर किसी उत्प्रेरक के रूप में नहीं दिखाते बल्कि एक पूरी पूरी ग्रामीण जीवनाकांक्षा संस्कृति बनकर उनके उपन्यासों में उतरती जाती है। इसमें तत्कालीन समय की एक समस्या भी है और सौन्दर्य भी । रूढ़ि भी है तो संस्कारी-मान्यताओं के प्रति प्रतिबद्धता भी है। जीवन के तमामतर कष्ट भी हैं, तो जीवन का ‘स्वांतः सुखाय’ पक्ष भी है। उपन्यासकार वर्ष 1948 में प्रकाशित ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास के द्वारा मिथिलांचल में विधवा समस्या, उनके जीवन के अपार कष्ट, व्याभिचार, अवैध गर्भधारण और गर्भपात तथा निर्लज्जता की हद तक पुरुषों के नाकारेपन और कामचोरी को जोड़कर दिखाते हैं। यहाँ का एक अल्पवयस् बालक भी जानता है कि ‘सवर्ण विधवा का कहीं भला ब्याह होता है?-

‘‘एक दिन दूर की किसी भाभी ने खुलासा कहा- ‘लाला, तुम्हारी चाची की अगर दूसरी शादी हो गई होती तो ठीक था।’ इस पर रतिनाथ ने भाभी को फटारते हुए बतलाया था कि पंडित की लड़की होकर तुम ऐसी बातें करती हो। दूसरी तीसरी शादी क्या कभी किसी विधवा या सधवा ब्राह्मणी ने की है?’’4

नागार्जुन अपने उपन्यासों में मिथिला के सौन्दर्य पक्ष को भी उसी खूबसूरती से दिखाते हैं। संस्कारों के अनुपम सौन्दर्य से अभिभूत रचनाकार के हृदय की अपनी कुछ रूचि भी है। नागार्जुन एक स्थान पर कोष्ठक बद्ध टिप्पणी करते हैं- ‘‘मिथिला की कुलीन ब्राह्मणियों के जीवन में इस तकली का बहुत बड़ा स्थान रहा है। कुटीर शिल्प का यह मधुर प्रतीक अब तो उठाता जा रहा है, फिर भी जनेऊ के लिए तकली से निकले इन बारीक सूतों की आवश्यकता अनिवार्य समझी जाती है। फुर्सत का वक्त स्त्रियाँ तकली के सहारे बहुत आसानी से काट लेती है।’’5 इस पहले ही उपन्यास में जातीय संस्कृति, तथा भौगोलिक पारंपरिक पहचान के प्रति उपन्यासकार का मोह एक बार रोमांटिक भी होता है- ‘‘बड़ी पोखर के भिंडे पर उत्तर की ओर मुँह करके जयकिशोर दातुन करने बैठे। आगे खेतों में धान के हरे हरे पौधे लहरा रहे थे। उनसे परे आमों के नील निकिड़ कुंज थे। उनसे भी परे सुदूर उत्तरी आकाश में हिमालय की धवल-धूमिल चोटियाँ थीं, जो उगते सूरज की पीली किरणों से उद्भाषित होकर स्वर्ण, श्रृंग सी लग रही थीं.......... सुजलां सुफलां मलयजशीतलां, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीं शुभ्रज्योत्स्ना पुलकितयामिनीं सुहासिनी सुमधुर भाषिणीं सुखदां वरदां मातृभूमि की वन्दना के लिए बंगीय बंकिम चन्द्र ने इन विशेषणों का उपयोग किया है। जयकिशोर का दावा है कि हमारी मातृभूमि भी ठीक इन्हीं विशेषणों की अधिकारिणी है।’’6 

वस्तुतः एक अमूर्त्त व्यवस्था के रूप में किसी भी समाज की ‘सामाजिक सम्बन्धों के जाल’ के रूप में ही अभिव्यक्त किया जाता है। सम्बन्धों के जाल का अभिप्राय सामाजिक सम्बन्धों जिसमें भौगोलिक व्यामोह एवं अपनत्व भी आता है, के उस जटिल व्यवस्था से है, जिसके द्वारा व्यक्ति परस्पर सम्बन्धित रहते हैं तथा स्वयं समाज को भी क्रियाशील बनाए रखते हैं। परिवार में तो रक्त सम्बन्ध एवं नातेदारी से पर अन्य लोगों से संबंध भौगोलिक क्षेत्र के प्रति एक मोह, पारस्परिक विश्वास और समान भावनात्मक विनिमय से स्थापित होता है। जिसके सम्बन्ध में मैकाइवर का कथन है- ‘Society is a system of usages and procedured, of authority and mutual aid of many groupings and division, of control of human behaviour and of liberaties. This everwanging complex system, we will society. It is the network of social relationships and it is always chaning." 

’मैकाइवर का यह कथन किसी भी जातीय एवं जातीय-सांस्कृतिक अवस्था-व्यवस्था के निर्माण के संबंध में एक स्थापना मानी जाती है। कोई उपन्यासकार अपने उपन्यास में जिस ‘जातीय अवस्था’ का आरेखन करता है; वह कई अर्थों में सांस्कृतिक-विन्यासपरक होते हुए भी अपनी जातीय निर्माण की प्रक्रिया मंे स्वयं एक दृष्टांत प्रस्तुत करता है। इसी सांस्कृतिक व्यवहार का मॉरिस गिंसबर्ग ‘‘व्यवहारों का एकत्रीकरण’’ कहता है- ^^ Society is the collection of individual units by certain relation or modes of behavior which mark them off from other's, who do not enter into those relations or who differ from them in behavior**8

वस्तुत समाज मात्र व्यक्तियों का आवश्यकता से परिचालित समूह भर नहीं है बल्कि उनके बीच पाए जाने वाले सम्बन्धों की व्यवस्था भी है। नागार्जुन अपने ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बलचनमा’, वरूण के बेटे, ‘पारो’, ‘नई पौध’, जैसे उपन्यासों में जिस जटिल मानवीय संबंधों की कहानी कहते हैं, वह जातीय पहचान और क्षेत्रीय सांस्कृतिक पुंज दोनों ही के रूप में प्रकट होती है - ‘‘दरभंगा जिला तीन डिविजनों (तहसीलों) में बंटा हुआ है- सदर, समस्तीपुर और मधुबनी/सदर और मधुबनी अपने धान की अच्छी फसल के लिए मशहूर हैं। बरखा (बारिश) उधर बैशाख के अंत से ही शुरू हो जाती है। रोहनी नछत्तर (नक्षत्र) में कोसों फैले खेत धान के नए-नए पौधों से समुंदर की भांति लहराने लगते हैं। आंखों को तर करने वाली वैसी हरियाली तुम्हें और कहाँ मिलेगी।’’9 ऐसे व्यक्ति और क्षेत्र के समन्वित जातीयता को ‘टॉलकॉट पार्सन्स’ पारिभाषिक तौर पर ‘मानवीय सम्बन्धों की जटिल संरचना’ के रूप में देखते हैं- Society may be defined as total complex of human relationships in so for as they grow out at action in term of means-end relationships, intrinsic or symbolic **10

इस जातीय संस्कृति, लोक संस्कृति के प्रति मोह का व्यामोह से परे नागार्जुन उन स्याह पक्षों को प्रदर्शित करने के प्रति भी उतने ही ईमानदार है; जितने कहानी कहने के ग्रामीण जीवन के लोक परंपरा के भयावह विश्वासों एवं रूढ़ियों को बड़े सपाट रूप में उपन्यासकार इन रूपों दिखाते हैं- ‘‘इन्द्रमणि को अपनी तीन कन्याओं का भरण पोषण आजन्म करना पड़ा, क्योंकि चार में से तीन दामाद परम अभिजात, महादरिद्र और बिकौआ थे।’’11 उन्हें कहा जाता था जो अपनी कुलीनता बेच-बेच कर अपनी जीविका चलाते थे। एक-एक व्यक्ति बाईस-बाईस तक शदियाँ करते थे। उनका जीवन ससुरालों मे ंही कट जाता था। समाज में उनकी काफी इज्जत थीं आदरपूर्वक आमंत्रित करके लोग उनसे अपनी कन्या का पािणिग्रहण करवाते थे। तीन चार और पाँच दफे बिकने वाले बिकौआ अब भी मैथिल ब्राह्मणों में यदा कदा दिखाई पड़ जाते हैं। यह प्रथा अब मर चुकी है।’’12 

ग्रामीण अभौतिक संस्कृति की प्रकृति की स्वाभाविकता दरअसल मानवीय गुणों, समाज के अंतिम लक्ष्यों एवं सामूहिकता को सर्वाधिक महत्व देती है। यह संस्कृति तुलनात्मक रूप से कितनी सरल या कितनी जटिल है, इसका अनुमान गाँवों में विभाजित कार्यों एवं जातिगत उत्तरदायित्व से ही पहचाना जा सकता है। नागार्जुन ग्रामीण संस्कृति में लोकपक्षीय वैचारिकी और रूढ़ियों के तनाव के साथ एक पूरे ताने-बाने को जिस रूप में पिरोते हैं, वह ग्रामीण विश्वास एवं सांस्कृतिक समझ का सबूत बन जाता है- ‘‘यों तो भार का मतलब है बोझा, मगर सौगात में एक गाँव से दूसरे गाँव भेजे जाने वाले ये मार मामूल ढंग से नहीं होते। बाँस की लचकदार बहंगी कंधे पर होती है, उसके दोनों छो से लटकते छिक्कों पर दही के छाँछ, चिवड़ा से भरा चँगेरा, केले की घौदे, पकवानो या मिठाइयों से भरी डालियाँ, धोती, साड़ी, लहठी (लाख की चूड़ियाँ) या ऐसा ही और भी कुछ डाल दिया जाता है। बस यही भा कहलाता है। इसको लेकर चलने वाले भरिया कहलाते हैं-.... ’’13 

उपन्यासकार एक छोटे परिचय में कहानी के प्रवाह को बनाए रखते हुए बिना किसी विशेष संदर्भ को लाए क्षेत्रीय लोक मान्यता में ‘भार’ और ‘भरिया’ की जरूरत तथा गाँव की संस्कृति में उसकी अहमियत को उजागर कर देते हैं। यही लोक संस्कृति के शुभ-लाभ पक्ष के विवेचन का बेहतर अंदाज है। इस विवेचन का एक उपयुक्त स्थल यह भी है- ‘‘बात यह कि तिरहुतिया बाँभन बड़े खटकर्मी होते हैं। छोटी जातकालों का छुआ नहीं खाएंगे। अब तो खैर सब चलता है, मगर इस बात का काफी ख्याल रखा जाता है कि गांव-घरवालों को न मालूम हो। पोल सबकी सबको मालूम रहती है। लेकिन एक दूसरे के सामने सभी बाबू भैया पाक साफ बने रहते हैं।’’14 नागार्जुन जातिगत व्यवस्था में स्वयं उसी सवर्ण ब्राह्मण वर्ग से ताल्लुक रखते थे, जिस वर्ग की बलचनमा’ खिंचाई कर रहा होता है और नागार्जुन का कायावरोहण ‘बलचनमा’ के द्वारा इतना सटीक और विशुद्ध है कि वह ग्रामीण जीवन में परस्परर जुड़ाव और सम्बन्धों के दोहन के तौर तरीकों का विश्लेषण करते हुए उपन्यासकार कहीं से भी दर्शक नहीं होते हैं। वस्तुतः सम्पूर्ण सांस्कृतिक (लोकसांस्कृतिक) ढाँचे में संस्कृति तत्व वह सबसे छोटी इकाई है, जो कार्यात्मक दृष्टिकोण से तो महत्वपूर्ण होती है लेकिन उसको पुनः विभाजित नहीं किया जा सकता। समाजशास्त्रीय विश्लेषण में ये ही संस्कृति तत्व हमें छोटे-छोटे खंडों में लोक मानसिकता (विश्वास-अंधविश्वास और रूढ़ि) का परिचय देती है- ‘‘मैं भाई जी को मना कर दूंगी। नौकर चाकर जितना नासमझ रहे उतना अचछा भाभी। हमारे अजिया ससुर का कहना था कि छोटी जात वालों को जो एक आखर का ज्ञान देता है उसका अपना ही तेज घटता है, और जो कोई शूद्र को समूची पोथी दे उसके पितर स्वर्ग छोड़कर नरक में रहने को मजबूर होते हैं।’’15

इस पूरी संस्कृति-दर्शी परंपरा बोध में संस्कारों का विवेचन विवाह और वैवाहिक पद्धति से काफी बड़ी बोधक स्थितियाँ प्रदर्शित होती हैं। संस्कृति के विभिन्न अंगों एवं छोटी-छोटी इकाईयों में इन संस्कारों का बोध काफी अहम भूमिका अदा करता है। संस्कृति-तत्व, सांस्कृतिक प्रतिमान, संस्कृति-क्षेत्र और सांस्कृतिक संकुल में ‘संस्कारों’ का स्वरूप प्रतिमानों में परिगणित होता है- ‘‘सुबह गौने का महुरत था । महरफा (एक प्रकार की डोली) और चार कहार उन्हीं लोगों ने ठीक कर रखे थे। औरतों ने रोकर आसमान को माथे पर उठा लिया। गौने वाली का मानो कंठ ही फूट गया था। पीली साड़ी और लाल चोली। पीठ की ओर से साड़ी पर हथेलियों के लाल-लाल थप्पे पड़े हुए थे। तलवों में महावर के नाम पर लाल रंग अपनी गहरी लाली खिला रहा था। आँचल में धान-दूब-पान की पत्ती और साबित सुपारी और हल्दी बंधी थी। हथेलियों पर मेंहदी का निशान दिखाई पड़ा।’’16 

ठीक इसी तरह उच्च वर्ग में किसी संस्कार में पूरे लोकांचल की तन्मयता ग्रामीण संस्कृति का अपना अनिवार्य उपादान है- ‘‘अगले बैसाख में छोटी मलिकाइन के लड़कों का जनेऊ हुआ। काफी भोज-भात, खूब रमन-चमन।.... उपनैन (उपनयन) के रोज मुझे गुलाबीरंग में रंगी हुई दो धोतियाँ मिली; मलिकाइन के हाथों से, माँ को बारह हाथ (दस गज) की साड़ी मिली। सोलह ठो छागर ही बलि चढ़ थे, चार खस्सी पीटे गए। चार रोज तक हवेली मसुआइन महकती रही। भगवती की पिंडी के सामने देवाल (दीवार) पर खून के फौब्वारों की निशानी हवेली के अंदर तुम अब भी देखोगे। हमारे तिरहुतिया बराहमन, औकात रही तो, लड़के का जनेऊ, बड़ी धूमधाम से करते हैं। ढोल-ढाक, राशनचौकी (रोशनचौकी, ताशा), नटुआ-रंडी का नाच, कीर्त्तन, ठेरर (थियेटर), भेड़ों की लड़ाई जैसा पंडितों का शासत राथ (शास्त्रार्थ).... क्या-क्या नहीं होता?.......।’’17 

ऐसे ही लगभग सभी उपन्यासों में लोक सांस्कृतिक जीवन का केवल चित्रपट नहीं बल्कि नागार्जुन के द्वारा उनकी विवेचना और विश्लेषण पायी जाती है। संस्कृति के विश्लेषण में इसी -आन्तरिकतत्व’ (अभौतिक) की व्याख्या करते हुए राबर्ट बीरस्टीड’ ने उसमें ‘‘निहित विचारों एवं आदर्श नियमों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण’’ माना है। बीरस्टीड मानते हैं कि अभौतिक संस्कृति में ‘कुछ विशेष प्रकार के विचारों एवं विश्वासों का विकास होता है तथा उस समाज के सदस्यों से उसका पालन करने की आशा की जाती है। इन्हें हम प्राकृतिक जीवन से चुने गए ‘उपाख्यानिक नियम’ कह सकते हैं। विचारों की कोई संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती । तथापि अध्ययन की सरलता के लिए इन्हें आठ भागों में विभाजित किया जाता है- वैज्ञानिक सत्य, धार्मिक विश्वास, पौराणिक कथाएँ, उपाख्यान, साहित्य, अंधविश्वास, सूत्र तथा लोकोक्तियाँ एवं लोकगाथाएँ (लोकगीत) आदि। नागार्जुन ने उपन्यासों में लोकगीत के रूप में उस सूत्र का भी इस्तेमाल कर लिया है जो लोकसांस्कृति के मुखर पक्ष एवं लोकमिथकीय ज्ञान का सूत्र बन जाता है।

‘‘सखि हे मजरल आमक बाग!/कुछु चिकरए कोइलिया!/झींगुर गाबए फाग!/कंत हमर परदेश बसइ छथि!/बिसरि राग अनुरा !/बिधि भेल बाम, सील मेल बैरी!/फूटि गेला ई भाग!/सखि हे मजरल आमक बाग!....’’19

‘‘जिनगी भेल पहाऽऽऽऽड़, उमिर भेल काऽऽऽऽल!/नइ फेकऽ नइ फेकऽ आहे मोर
दिलचन,/नेहिया परीतिया के जोऽऽऽऽल !20

‘‘कबहूँ पकड़ में न आवे मछरिया!/ जुलमी मछरिया चलबल मछरिया!/कबहूँ पकड़ में न आवे मछरिया!/ताल में खेले तलइया में खेले/कुइयाँ में डुबकी लगावे मछरिया!/जुल्मी मछिरया !!/रात के बेरिया बिल्कुल लपत्ता!/ दिन में नजर मटकावे मछरिया!/कबहूँ पकड़ में न आवे मछरिया! जुल्मी मछरिया!!...21

‘‘सखि हम करमक हीन!/कोन विधि खेपब दीन!/कोन विधि खेपव राति!/निट्ठुर पुरूषक जाति!/कोन विधि काट काल!/हैत हमर की हाल।’’22
‘‘भनहि विद्यापति गौरा, /सुकुरी और दहौरा/.....‘भनहिं विद्यापति गोपी की अंगा की टोपी.....।’’23
‘‘ओ कोयला-देवता/कमला नदी के बीचोबीच/तैयार हो गया है बाँध/...... अर्जी किस फूल की ओढ़ती है ओढ़नी? किस फूल की बनती है परिधान कमला मैया?/और बिछावन होता है किस रंग के फूल का?/ अजी वह बेला ओढ़ती है, पहनती है-चमेली/ बिछाती है अड़हुल के फूल!! अजी कौन सा फूल वह जूड़े में बांधती है?/कौन से फूल होते हैं मैया के हार?/अजी जूड़ें में बाँधती है मधुरी का फूल!/हार होता है खिले कमलों का!/.....हंस पर चढ़कर आएगी कमला मैया!होकर मगर पर सवार चली जायेगी!/ तिरहुत (मिथिला) की तरफ बहाएगी धारा!’’24
‘‘बऊवा, खइयउ ने!/आव ने खइयउ बउवा जै सिड.् मोतीयूर मिठाई हओ!/ ....बबुआ, पियो! पियो न!/ अब तो पियो पियो जै सिड.् गंगा का निर्मल नीर; ओ!/ बबुआ चाबो! चाबो न!/ अब तो बो दुलारे जैसिड्., पीले पके पान का बीड़ओ!/ मैं नहीं खाता माँ मोतीचूर के तुम्हारे ये लड्डू/पियूँगा नहीं गंगा का निर्मल नीर/ओ सिंहनी माता, नहीं चाबूँगा पीले पके पान का बीड़ा/नहीं रहूँगा तेरे पट पर, मैनी मंडप में/....बाँधूगा इसी से बहन को/नहीं रहना मुझे तेरे मंडप में...../’’25

नागार्जुन के गँवई जीवन और लोक संस्कृति विषयक उनकी चेतना इसी सूत्र के सहारे आगे बढ़ती है। प्रश्न यह है कि ‘लोकजन’ जिस जीवन को रोजमर्रा जीता है उसके जीवन में तमाम मुश्किलों एवं संघर्षों के बीच से उसे जीवनी शक्ति प्रदाता कौन है? यह सवाल हमेशा से मौजूं रहा है। एक हद तक यह कौतूहल का भी कारण रहा है क्योंकि हम देखते हैं कि जीवन जीने के क्रम में अपनी जिजीविषा तथा ‘परिवेशमोह’ के अतिरिक्त भी कुछ है, जो अहम भूमिका अदा कर रहा होता है। यह ‘कुछ और ’ ही वह वस्तु है; जो आकाशवृत्ति से लेकर अनायासवृत्ति तक वालों को भी जीने मंे रस का आस्वाद देता है। यह ‘कुछ और’ और कुछ नहीं हमारे दैनिक जीवन में संघर्षों के बीच गा सकने का हौसला ही तो है।

लोकांचल में जन्म के बधावे से लेकर भोर की  ‘प्रातकी’ और संझागीतों तक, विवाह-संस्कार, ऋतुगीत, आदि सब कुछ जीवन में उतरे गीतों की गहराई देखी जाती है। समाजशास्त्रीय सिद्धांतों एवं दृष्टांतों पर तौले, तो समाज के अलग-अलग वर्गों का संस्कार, भाषा एवं दैनिक चर्चा, खान-पान, वेश-भूषा में केवल आर्थिक विषमता भर नहीं है बल्कि उन्हीं आधारों पर बँटे सामाजिक सरोकार भी देखते हैं। दरअसल ‘ग्राम संस्कृति’ की विशेषता से जुड़े समाज में स्थानीय परंपराओं एवं लोक मान्यताओं की एक नियत विशेषता उस एक क्षेत्र एवं संस्कृति विशेष को अपना निजी स्वरूप देती है। यहीं निजी सांस्कृतिक अभिलक्षण’ उसे एक मुकम्मल लोक संस्कृति का क्षेत्र बनाती है।

नागार्जुन इस ग्राम्य जीवन और उसकी संस्कृति को एक प्रवाह के साथ प्रदर्शित करते हैं। यह प्रवाह कथा का प्रवाह है तािा मिथिलांचल को दिखाने के कोण के अन्य सभी पूर्ववर्त्ती रचनाकारों के नजरिए से थोड़ा अलग है। वस्तुतः उपन्यासकार की नजर एक यथार्थ पर टिकी रही है- एक कठोर यथार्थ पर। दिलचस्प यह है कि उपन्यासकार जहाँ भी अपने निजी जातिगत परिवेश को कथाक्रम की भावभूमि बनाते हैं, वहाँ प्रमुख रूप से समस्याधर्मिता आगे है- वरूण के बेटे (वर्ष 1956-57 में प्रकाशित), उग्रतारा (वर्ष 1963) या गरीबदास (वर्ष 1979 में) जैसे उपन्यासों में गँवई जीवन का असली सौन्दर्य उभर कर आता है। यह ‘वरूण के बेटे’ उपन्यास की गालियों में हो- ‘‘राक्षस की नानी!’’ चुपचाप आकर पीछे से बड़ी बहन जिलेबिया ने उसका एक कान कसकर खींचा। गाल पर चपत लगाकर कहा ‘‘बुढ़िया रानी, घर आँगन की बातें यहाँ उड़ाई जाती हें? खबरदार, जीभ निकाल लूंगी!....

सिलेबिया ठुनक कर उठी और बहन को गालियाँ देने लगी- ‘‘राँड़ी! दगधी! निरासी! छुच्छी! सइयाँ डाही!..... ऊँगलियों में कोढ़ फूटेगी! हाथ गल-गल कर गिरेगाऽऽऽ....।’’26

या फिर ‘‘बाबा बटेसर नाथ’’ के दुसाध (निम्न जाति) के अपने आदि वीर पुरुष के प्रेमगीत में दीखता है- ‘‘उमर बीत गई/बाल पकने लगे/पिछले बारह वर्षों से/इस आंचल में गाँठ बाँध रखी है मैंने/आने का लेता है तो भी नहीं नाम/ निठुर मेरा दुसाध.../राजा सल्हेस प्रीतम मेरे/तेरे नाम पर गांठ बाँध रखी है/ अपने आँचल में मैंने/ओ निठुर! निर्मोही!!’’ गीत के ये पद जैकिसन ने आज तक नहीं सुने थे। यह तो उसे मालूम था कि सलहेस दुसाधों का वीर पुरुष था, महराज। कुसुम दोना उसकी प्रेयसी थी। लेकिन सलहेस के बारे में गाए जाने वाले पद इतने मार्मिक हो सकते हैं, जैकिसुन को इसकी कोई कल्पना नहीं थी।’’27

उपन्यासकार ने लोकवार्त्ता (फोकलोर) को अपने औपन्यासिक कथा सृजन का उपकरण भले ही न बनाया हो; परन्तु ‘‘लोकप्रिय लोक पुरातत्व’’ के रूप में लोकवार्त्ताओं का उपयोग और उसके असर को लगभग सभी नृशास्त्री और समाजशास्त्री समान रूप से स्वीकारते हैं। एरेलियों स्पिनोजा के अनुसार ‘‘ये फोकलोर किसी सभ्यता की पद्धति अथवा प्रकार को स्थायित्व प्रदान करता है तथा इसके अध्ययन से हम किसी सभ्यता के अभिप्राय (डवजप)ि तथा उसके वास्तविक अर्थ को समझ सकते हैं।’’28 इस वास्तविक अर्थ को डॉ. एलेन डण्डी समाज में प्रचलित सभ्यता के पुष्टिकरण तथा विभिन्न विधि विधानों तथा संस्थाओं को औचित्य प्रदान करने’29 के उद्देश्य से प्रेरित बताते हैं। जिसके सम्बन्ध में यह माना जाता है कि इसे ‘समाज के प्रचलित आचार तथा लोक व्यवहार की स्वीकृत शैली या रीति (च्ंजजमतद) की एकरूपता को दृढ़ बनाए रखना इसका ‘आदर्श’ बन जाता है। अध्ययन की सुविधा के लिए समाजशास्त्री इन आदर्श नियमों को चौदह भागों में विभाजित करते हैं- कानून, अधिनियम, नियम, नियमन, प्रथाएँ, जनरीतियाँ, लोकाचार, निषेध, फैशन, संस्कार, कर्मकाण्ड, अनुष्ठान, परिपाटी और सदाचार। इनमें विचार विश्वास, नियम, अधिनियम आदि अमूर्त्त है, इसलिए इनसे निर्मित सांस्कृतिक पक्ष अभौतिक माना जाता है जिसमें रीतियाँ, लोकाचार, विश्वास आदि पीढ़ियों की प्रथाएँ जिन्दा रहती हैं। इसपर प्रसिद्ध समाजशास्त्री ‘आँग्बर्न’ का कथन है- ‘‘जहाँ विश्लेषण के उद्देश्य से भौतिक और अभौतिक संस्कृति के बीच भेद करना उचित है, वहीं इस बात पर भी ध्यान रखना आवश्यक है कि ये दोनों विस्तृत सांस्कृतिक इकाई के ही परस्पर सम्बन्धित अंग है।’’30 उपन्यासकार विविध कर्मकाण्डों, धार्मिक क्रियाकलापों एवं तत्सम्बन्धी रूढ़ियों काजो चित्रण करते हैं, वे एक सम्पूर्ण ग्राम संस्कृति के वृहत् नाट्यांकनों के ही लघु खण्ड है पर ये उसे सच एवं वास्तविकता के करीब लाते हैं-‘रतिनाथ ने जल्दी जल्दी संध्या की तो कुल्ली राउत ने टोका-बबुआ, तुम नील माधव उपाध्याय के वंशधर हो। फिर अपने धर्म कर्म में इतनी हड़बड़ी क्यों दिखाते हो? कहीं कोई जान जायेगा तो शुभंकरपुर की हँसी होगी।’’

रत्ती ने जवाब दिया, ‘‘अरे यहाँ कौन देखता है? देखना चलकर तरकुलवा में, घंटा भर नाक दबाए न रहा, तो जो कहो।’’ राउत ने मुस्कराकर कहा, ‘‘लो, बाप का गुन सीख न गए।’’जयनाथ भी दूसरी जगह जाते हैं, तो चार-चार घंटे पूजा करते हैं।’’31 यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि उपन्यासकार एक क्रम से रूढ़ियों एवं धर्म के नाम पर अनर्गल बाध्यकारों को उसी फितरत से प्रदर्शित करने का उपक्रम करते हैं जो उनके लोकांचल में धर्म एवं आचार शास्त्र का मानक बना हुआ है- ‘‘बच्चा अब इन बातों का कोई विचार नहीं करता। बैल ठहरे शिवजी के वाहन। इनके चारों पैर धर्म के ही चार चरण हैं। इसलिए ब्राह्मण न हल जोतते हैं, न गाड़ी चलाते हैं। चढ़ना भी मना है।’’..... घोर कलियुग आ गया है, आज नहीं तो कल ब्राह्मण भी हल जोतेंगे, देख लेना। अंग्रेजी पढ़े लिखे ब्राह्मण, सुना है, प्याज लहसुन खाते हैं। मुर्गी का अंग खाते हैं....।’’32 यहीं रूढ़िगत विश्वास एवं कठोर से कठोरतम वर्जनाओं का एक अन्य रूप भी उसी शिद्दत से है, जहाँ आत्मदान भी उतना ही भीषण है- ‘‘बाइस साल हुए, पति के देहान्त के बाद कभी सुमित्रा ने रंग-बिरंगी या पाड़वाली साड़ी नहीं पहनी। न पान खाया, न दातों में मिस्सी लगाई। गहने पतोहुओं को दे दिए। मेले के दिनों में गंगा या और तीर्थों में नहीं गई। मारकीन की पतली धोती, गले में बारीक रूद्राक्षों की माला, कपार पर गंगौट (गंगा की मिट्टी) का ठोप-यही उनका भेस था। अकेले में किसी ने मर्द से बातें करते उन्हें कभी नहीं देखा। बहुत कम बोलती थीं, सो भी जमीन जायदाद या घरेलू मामलों की गुत्थियाँ सुलझाने के लिए ही।’’33

लोकजीवन एवं लोक संस्कृति का यह एक कठोर सत्य है कि यहाँ बाध्यतामूलकता हावी होती है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति से इसी के अनुसार व्यवहार की आशा की जाती है। अपने समाज के विश्वासों एवं स्थापित परिपाटी की अवहेलना पर लोकजन को एक प्रकार से सामाजिक अस्वीकृति, प्रताड़ना और ऐसे ही किसी सामाजिक दंड का सामना करना पड़ सकता है। नागार्जुन इन अर्थों में अधिक वामचेता रचनाकार हैं क्योंकि अपने तामामतर उपन्यासों में अपने अंचल के रूढ़ मान्यताओं में पिसनेवाले जन के दर्दों को खुद अपने तईं पात्रों में उतार कर जीने में विश्वास करते हैं; यद्यपि जीवन के कथा प्रवाह में आए अनायास मधुर क्षण भी हैं- ‘‘घूँघट हटा दी गई तो दुल्हन ने अपनी नजरों को चुरा लिया, होठों को जब्त किए रही। आखिर कब तक? कुछ जबाव नहीं, इशारा तक नहीं! वह प्रतिमा की तरह बैठी रही । पैर तख्तपोश से नीचे लटक रहे थे।

अच्छा आओ, दो बाजी ताश खेल लें। सुना है, खूब खेलती हो। ईह! ताश है 
कहाँ? है कि!
दूल्हे ने लाख कोशिश की मगर वह अपनी मुसकान को पचा नहीं पाया, उसे मुस्कुराते देख कर दुलहिन गरमा गई कि बिना ‘मुँह बजावन’’ के ही बाले पड़ी।’’34 

वस्तुतः ग्रामीण जीवन एवं लोक की संस्कृति तो प्रकृति से ही स्वाभाविक एवं सरल होती है। स्वाभाविकता एवं सरलता के मिश्रण से बनी संस्कृति में खान-पान वेष-भूषा, जीवन के संघर्षों के बीच से आस्था के बनते हुए मस्तूल तथा जीवन का दर्शन इसकी विशेषता बन जाती है। नागार्जुन अपने अंचल से बाहर के किसी सांस्कृतिक पक्ष को कभी भी जोड़ने या चुनने नहीं जाते। यहाँ उनके अपनी ही ग्रामीण जीवन की महिमा मानवीय गुणों, समाज के साध्य लक्ष्यों एवं एक सामूहिकता में नजर आती कार्याविधियों में प्रकट होती है। ‘‘दुखमोचन को मामी ने ही पान खाना सिखलाया था। चार-पाँच साल के अपने कलकत्ता प्रवास में उन्होंने कभी कभार ही पान खाया होगा। बंगाली या उड़िया पान से उन्हें विरक्ति थी। हाँ मगही पान का बनारसी विन्यास उन्हें अच्छा लगता था। मामी के मायके वाले जिला पूर्णिया के सुखी-सम्भ्रांत काश्तकार लोग थे, जिनके यहाँ पान जर्दा रोजाना की खुराक में शामिल था। इस परिवार में भी मामी ने पान खाने के कई चेले तैयार कर लिए थे।’’35 

इन्हीं सामूहिक कार्याविधियों में गाँव-जवार के वे चतुर, धूर्त्त और मक्खीचूस किस्म के लोगों की एक दूसरी फितरती चालों एवं उनके ढब को नागार्जुन जिस ढंग से व्यक्त करते हैं, उनका तरीका भी कुछ ऐसा है- ‘‘कमर के नीचे मैली-चीकट मरदानी धोती, कंधे पर चारखाना गमछा, सरसो के तेल से भीगे बाल। आप कौन है? बाबू त्रिजुगीनारायण चौधरी हैं। साठ हजार रूपये नकद जमा कर रखे हैं और कसम खा रखी है कि धोबी से कपड़े नहीं धुलवाऐंगे। आप कौन हैं? रामरख राय हैं। तीन हजार मन धान आपकी खेती आपको हर साल सौंपती है, लेकिन शक्ल-सूरत बना रखी है कि हफ्तों से हाजत में बंद मुजरिम भी क्या होगा?’’36 किसी भी चुने हुए मानक गाँव के सांस्कृतिक अध्यवसाय के ये तमामतर तत्व मिलकर सांस्कृतिक पिछड़ेपन के एक अपने और विशिष्ट स्वरूप का निर्माण करते हैं; जिस समाजशास्त्री ‘सांस्कृतिक विलम्बना’ (ज्ीमवतल व िबनसजनतंस संह) का नाम देते हैं। जहाँ संस्कृति का तात्पर्य मनुष्य द्वारा निर्मित सभी प्रकार के भौतिक और अभौतिक (Material and non-material) तत्वों से है, वहीं ‘विलम्बना’ का आशय ‘लंगड़ाना’ अथवा ‘पिछड़े रह जाना’ होता है। इस तरह से संस्कृतिक के भौतिक पक्ष की तुलना में जब अभौतिक पक्ष (व्यावहारिक क्रियाकलापों एवं मानसिकता) जब पीछे रह जाता है, तब सम्पूर्ण संस्कृति में एक प्रकार के असंतुलन की स्थिति कायम हो जाती है। इस स्थिति को समाजशास्त्री ‘सांस्कृतिक पिछड़ेपन’ का नाम देते हैं। यह ‘सांस्कृतिक पिछड़ापन’ समाजविज्ञानी के लिए एक शोध का विषय है, विचारकों के लिए चिंतन का तो एक साहित्यकार के लिए आरेखन का/समाज के गहरे अवचेतन में जातिगत एवं वर्णगत स्तर पर पैठ बनाकर बैठे हुए सदस्य के लिए खरे-खरे शब्दों में पूरी वस्तुस्थिति का अंकन स्वयं में एक आँकड़ाबद्ध अध्ययन का दृष्टांत प्रस्तुत करती है- ‘‘गौर से देखने पर छोकरी की पीठ पर तीन चार लम्बे-पतले निशान दिखाई पड़े। पूछा, ये कैसे दाग हैं? भुवनेसरी ने सहज भाव में कहा, ‘‘पिटाई के निशान हैं’’ ‘पिटाई के ?/‘हाँ बेंत के।’/‘‘किस राक्षस ने पीटा था?’’/

’बिना कुछ लिए मुँह से एक शब्द भी न निकालना’ (सुहागरात में) दुलहिन को सिखा दिया जाता है। दूल्हा नई नवेली दुल्हन को कोई वस्तु (या नकद) ‘बोलावन’ के तौर पर देता है, तभी वह मुँह खोलती है।

‘‘राक्षस नहीं था जीजी, बहुत बड़े महात्मा थे वे तो...... जितना ज्यादा खुश होते थे, उतनी ही अधिक पिटाई पड़ती थी! मेरी पीठ पर बाईस बार बेंत पड़ी थी न? बेहोश हो गई थी, मुझे मामा उठाकर ले आए थे....।’’37 नागार्जुन इस रूढ़िवादी मानसिकता और अंधविश्वास को कई स्थानों पर कई बार दिखाते हैं- ‘‘मुझे कई बार बतलाया गया कि पब्लिक आशीर्वाद की पिटाई को पसंद करती है, वह आग्रह करती है कि पीठ पर बेंत जरा जमकर पड़े और बाबा का आर्शीवाद फले। औरतें हठ करती हैं कि उन्हें जोर से पीटा जाय। मुसहर जाति की एक जवान औरत एक बार अड़के बैठ गई कि मस्तराम कम से कम पच्चीस बार उसकी पीठ पर बेंत फटकारे। मस्तराम ने पीठ पर, चूतड़ पर और जाँधों पर जमकर बेंत फटकारी। नीले नीचे निशान उभर आए, चमड़ी छिल गई..... औरतिया बड़ी खुश थी और जमनिया के हमारे उस दरबार में पाँच रोज रही। अगले वर्ष गोद में बच्चा लेकर मेरे पैर छूने आई।’’38 ये उदाहरण साबित करते हैं कि आज या कुछ दशक पूर्व के सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया में नागरिक एवं आँचलिक (ग्रामीण) दोनों भागों में समान गति से बदलाव नहीं हो रहा है। यही कारण है कि हेनरी लेफेब्रे, मिशेल फूको, डॉन मिशेल, अर्जुन अप्पदुरई सरीखे विमर्शकारों ने इसी ‘समकालीन इतिहास’ के गति को ‘‘काल के प्रवाह की संगतता में देखने के बजाय स्थान के परिप्रेक्ष्य’’39 में विश्लेषित करने की वकालत की है। नागार्जुन के इन उपन्यासों में दूसरे किसी अधिक शिक्षित या अधिक औद्योगिक या अधिक चलायमान एवं गतिशील अर्थव्यवस्था के चलते ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक तेजी से परिवर्त्तन की प्रक्रिया देखने को मिलती है। इसमें एक ही संस्कृतिक के क्षेत्र में रहने वाले लोगों में पारस्परिक निर्भरता एवं एक दूसरे से संबंध काफी अहम भूमिका निभाता है। उदाहरणस्वरूप उद्योग एवं शिक्षा संस्कृति के वे भाग हैं, जो एक दूसरे से कई अर्थों में अन्योन्यश्रित ढंग से सम्बन्धित है; इसलिए औद्योगिक वाणिज्यिक परिदृश्य में परिवर्तन होने पर शिक्षण पद्धति में भी परिवर्त्तन के द्वारा अभिनियोजन आवश्यक हो जाता है। किसी अविष्कार या खोज या प्रयोग के द्वारा हमारी संस्कृति का एक भाग पहले बदल जाता है, वहीं संस्कृति में ही शिक्षा एवं परंपरा के तौर पर थोड़े स्थायित्व भरे माहौल के लिए वही परिवर्त्तन विलम्बित होता है। नागार्जुन इसी ‘विलम्बित परिवर्त्तन प्रक्रिया’ को दिखाने के लिए ‘उग्रतारा’ उपन्यास में ग्रामीण रूढ़िवादी मानसिकता को दूसरे कोण से दिखाते हैं जिसमें, वैवाहिक सम्बन्धों एवं मृत्यु के बीच किसी अज्ञात सूत्र को बड़े ही कायल ढंग से प्रस्तुत किया गया है- ‘‘मैं पंद्रह की, वह बीस के....... कहने भर की यह उनकी दूसरी शादी थी, पहली बीबी की मौत शादी के चार महीने बाद ही हो गई थी। टायफाइड उठा ले गया था बेचारी को। फिर ऐसी अफवाह फैली कि उस नौजवान का ग्रह खराब है, जो भी लड़की उसका हाथ पकड़ेगी, जियेगी नहीं। छह महीने के अन्दर मर जायेगी।..... कोई उसे अपना दामाद बनाने के लिए तैयार नहीं था।’’40 

यदि लोक जीवन और लोकसंस्कृति में ऐसे कुछ जड़ पकड़े पीछे ठेलने वाले तत्व हैं तो वे ही इसके सांस्कृतिक विकास के संतुलन को बिगाड़ने का काम भी करते है। इसके प्रमुख कारण हैं जड़ पकड़ी हुई रूढ़िवादिता। नागार्जुन ‘दुखमोचन’ जैसे उपन्यास में एक समग्र ‘लोकसेवक’ चरित्र का सृजन खास उद्देश्य से करते देखते हैं जो वहाँ के हर असंतुलन, रूढ़ि एवं ठहराव की मानसिकता को अकेले दम तोड़ने तथा उसे नए सिरे से बजाने का दुरूह कार्य कर रहा है। परन्तु व्यक्ति अपने व्यवहारों, वेश-भूषा और जीवन की सामान्य परिस्थितियों को आसानी से छोड़ना नहीं चाहता। अधिकांशतः यही देखा जाता है कि अविश्वास और अफवाहों का बाजार लोक जीवन में बड़ा अहम रोल निभाता है- ‘‘उसने बताया-पहली अफवाह तो यह है कि गेहूँ ऐसे हैं कि मशीन से इनका सत निचोड़ लिया गया है। गेहूँ नहीं, गेहूँ की सीठी है यह! दूसरी अफवाह है कि जो कोई भी गेहूँ लेगा, उसे जबरन कोसी नदी के किनारे ले जायेंगे; अफसर लोग उससे महीनों बिना मजदूरी के काम लेंगे। तीसरी अफवाह है कि अगले साल सरकार चार गुना ज्यादा वसूल कर लेगी...।’’41 

ग्रामीणों के जीवन में विश्वास और अंधविश्वास के स्वरूप को देखते हुए ही हम कह सकते हैं कि संस्कृतिक का एक पक्ष जब दूसरे पक्ष से पीछे रह जाता है तब लोक जन की मनोवृत्तियों, व्यवहार के ढंगों और प्रविधियों पर इसका प्रभाव पड़ता है। लोकवार्त्ताओं के अध्ययन के सिलसिले में इसे एक रूप में ‘अर्थप्रवाद, अफवाह या किम्वदन्ती’42 से ही परिभाषित किया जाता रहा है। ग्रामीण जीवन में लोक सांस्कृति के सम्यक् अध्ययन के सिलसिले में ‘जनरीतियों’ रूढ़ियों एवं प्रथाओं का अध्ययन काफी महत्वपूर्ण है। ये सभी व्यवहार वे स्वीकृत ढंग हैं, जो केवल सामाजिक नियंत्रण की स्थापना में ही महत्वपूर्ण नहीं होते बलिक सामाजिक परिवर्तन के रूप को स्पष्ट करने में भी सहायक होते हैं। जनरीतियाँ, रूढ़ियाँ तथा प्रथाएँ सामाजिक आदर्श नियमों के ही वे बदले हुए स्वरूप हैं जो प्रत्येक पग पर हमारे विचार करने तथा करने के ढंगों को प्रभावित करती है। यह सच है कि सामाजिक परिवर्त्तन के साथ इनके प्रभाव में कभी अथवा वृद्धि होती रही है लेकिन मानव सभ्यता के सम्पूर्ण इतिहास में ऐसा कोई कालखण्ड खोजे नहीं मिलेगा जबकि इसका असर पूरी तरह से खत्म हो गया हो। ‘जनरीति’ शब्द का सबसे पहले प्रयोग पारिभाषिक तौर पर ‘समनर’ ने अपने पुस्तक ‘थ्ंसूंले’ में किया था। ॅण्ळण् ैनउदमत ने थ्ंसूंल में ‘जनरीति’ को इन शब्दों में परिभाषित किया है-‘‘थ्ंसूंले ंतम ेपउचसल जीम ंबबनउनसंजमक चंजजमतदे व िमगचंबजमक इमींअपवनत जींज ींअम ंतपेमद जव उममज जीम तमबनततमदज ेपजनंजपवद व िेवबपंस पदजमतंबजपवद‘‘ वस्तुतः जनरीतियों का तात्पर्य ही व्यवहार के उन पद्धतियों से है जो किसी समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी अनिवार्यतः निष्प्रयास हस्तांरित होती चली जाती है। नागार्जुन इसी जनरीति के एक दर्शक, भोक्ता और चितेरा तीनों नजरिए से मापते, तोलते और आँकते हैं। इनमें उपन्यासकार का एक रोचक काम टिप्पणीकार का भी है, जो कहीं दुःख और क्षोभ से भरा है तो कही गर्व और आहलाद से भी। मिथिला भूमि की अनन्य विशेषता - ‘‘पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल, मुस्की, मुख पान।।’’ की भावना भी पारिवारिक सामाजिक दोनों ही स्तरों पर चलती है- ‘‘मामी के बारे में मैं नहीं कहूँगा, क्योंकि उन्हें भाभी की तही तरह बहुत कुछ अधिकार स्वतः प्राप्त होता है। चाची, पीसी, मौसी, चचेरी, फुफेरी-मौसेरी बहनों का स्नेह भी ऐसा गीला होता है कि सुबह-सुबह ही आपके रखने की ताकत सबों को तो होती नहीं नहीं, इसलिए बेटा, भतीजा, जाउत या बहिनौत या फिर किसी अदने से लड़के का पैर भी वे लोग आग्रहपूर्वक अपने ही हाथों से दबा देती है। मातृवर्ग की ओर से ममता का ऐसा प्रदर्शन आपको और कहीं मिले न मिले, अपनी मिथिला में सभी जगह मिलेगा।’’43 इस अति सामान्य लोकचार के जरिए नागार्जुन अपने लगभग सभी उपन्यासों में मिथिला की संस्कृति एवं उसकी विशेषता का अन्यतम रूप उद्घाटित करते हैं। 

समाजशास्त्रीय नजरिए से देखें तो लोकाचार ही असली रूप में लोक जन संस्कृति के मुखपृष्ठ होते हैं और सबसे प्रथमतः रूप में अपनी पहचान, वैविध्य, विशेषता एवं स्मारणीयता में वे हस्ताक्षर का कार्य करते हैं। यहाँ लोकाचार से तात्पर्य दैनंदिन कार्यों के ऐसे तरीकों अथवा व्यवहारों से है जिन्हें समूह कल्याण के लिए अति आवश्यक समझा जाता है। यद्यपि इन्हें किसी राजनीतिक शक्ति के द्वारा लागू नहीं किया जाता लेकिन फिर भी ये उसके सदस्य को उसकी विशेष सामाजिक स्थिति के अनुरूप व्यवहार करने के लिए बाध्य करते हैं। साधारणतया ‘लोकाचार’ शब्द का अनुवाद ‘रूढ़ि’ के रूप में ही किया जाता है परन्तु ‘रूढ़ि’ शब्द से समूह कल्याण की भावना सही रूप से अभिव्यक्त न होने के कारण इसके स्थान पर ‘लोकाचार’ शब्द ही अधिक उपयुक्त है। प्रसिद्ध समजाशास्त्री ‘प्रो. ग्रीन’ भी मानते हैं कि ‘‘लोकाचार व्यवहार करने के वे सामान्य तरीके हैें जिन्हें जनरीतियों की तुलना में अधिक सही और उचित समझा जाता है तथा जिनकी अवहेलना करने पर व्यक्ति को दण्ड मिलने की अधिक संभावना रहती है।’’44 

स्पष्टतया जनरीतियों और लोकाचारों में केवल सामाजिक स्वीकृति की मात्रा का ही भेद रहता है। लोकाचारों की कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं- जैसे-समूह कल्याण की भावना, नैतिक नियमों की अनिवार्य सम्बद्धता, सामाजिक आदतों की समुच्चय प्रवृत्ति, बाध्येता के गुण, परंपरा के तर्क से परिपुष्टि  आदि। वैसे जनरीतियों की तुलना में लोकाचार अधिक स्थायी होते हैं। आशय यही है कि अनेक जनरीतियाँ जब उपयोगी या किसी कारणवश स्वीकृति या लेती हैं तब वे लोकाचार के रूप में बदल जाती हैं। इतना ही नहीं जनरीतियों एवं लोकाचारों के विकास की प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है। साधारणतया जनरीतियों में परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार परिवर्त्तन होता रहता है जबकि लोकाचार स्वयं में किसी अहम बदलाव की इजाजत नहीं देते या अगर हो भी तो वह बड़ा ही बारीक और मंथरगति वाला होता है। इसी तरह परंपरागत समाजों में व्यवहार के कुछ ऐसे नियमों को भी स्वीकृति मिली होती है, जो अभिलेखित नहीं होते पर उनका प्रभाव कानूनों से कम भी नहीं होता। इन नियमों की रूपरेखा लोकाचारों की तरह ही स्वाभाविक होती है लेकिन इनकी स्वीकृति कानूनों की तरह हढ़ होती है। इन्हीं नियमों को प्रथाएँ कहा जाता है। सामान्यतः प्रथाओं का सम्बन्ध सामाजिक मूल्यों से होता है; यह बात और है कि कोई समाज जिन ढंगों से एक विशेष अर्थ लगाकर इन्हें अपनी संस्कृति का अंग मानने लगता है, वे ही नियम प्रथाओं के रूप में विकसित हो जाते हैं। समाजशास्त्री ‘ऑगबर्न एवं निमकॉफ’ इसे ‘‘सुपरिभाषित लोकाचार (Well defined mores)

डॉ. प्रफुल्ल कुमार मिश्र
जर्नलिज्म एवं मॉस कम्युनिकेशन विभाग
एल.एस.कॉलेज, मुजफ्फरपुर,
मो0- 09572022923
ई-मेल mishra80prafull@gmail.com
लोक जनसंस्कृति में नियंत्रण एवं निर्देशन के एक प्रभावशाली साधन के तई लोकाचार, प्रथाएँ एवं जनरीतियाँ लोक जीवन में संरक्षक की भूमिका अदा करती आई हैं। कोई उपन्यासकार वास्तविक अर्थ में परिभाषा एवं दृष्टांतों के समीकरण बिठाने वाला समाजशास्त्री नहीं होता मगर जनरीतियों एवं लोकाचारों के साथ लोकजीवन के बनते बिगड़ते रिश्तों, परिस्थितियों और कमियों-खूबियों के सही-सही आख्यान के द्वारा एक बेहतरीन बैरोमीटर समाजशास्त्र, साहित्य और मानवशास्त्रीय अध्ययन के लिए जरूर पेश करता है। अपने लम्बी कहानीनुमा उपन्यासों में नागार्जुन यहाँ खरे हैं।

संदर्भ स्रोतः-
1. Robort Bierstedt; The social Border, p. 137.
2- A. L. Kraeber and C. Kluchohm; Culture : A Critical Review of concepts and  definition.
3. वही
4. रतिनाथ की चाची; पृ.-15; नागार्जुन रचनावली भाग-4; संपा. शोभाकान्त (राजकमल प्रकाशन)
5. वही; पृ. 19
6. वहीं; पृ. 87
7. Society-p-3- Machiver, R.M. and page; C.H. 11
8. Morris Ginsberg, Sociology, p.59
9. बलचनमा; पृ.140; नागार्जुन रचनावली भाग-4; संपा.-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)।
10.Talcott parsons, Encyclopaldia of social sciences, p.231; vol. XIV
11. रतिनाथ की चाची; पृ. 24; नागार्जुन रचनावली भाग-4; संपा. शोभाकांत (राजकमला प्रका.)
12. वही,
13. बलचनमा; पृ. 130ः नागार्जुन रचनावली भाग-4 संपा- शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
14. वही; पृ. 150
15. वही; पृ. 207
16. वहीं; पृ.-213
17. वही; पृ.-228
18.R. Bierstede; The social Order; p. 158-160
19. बलचनमा; पृ. 216; नागार्जुन रचनावली भाग-4, संपा-शोभाकान्त (राजकमल प्रकाशन)
20. वरूण के बेटे; पृ. 456; नागार्जुन रचनावली भाग-4, संपा-शोभाकान्त (राजकमल प्रकाशन)
21. वही; पृ. 459
22. पारो, पृ.-534-35; नागार्जुन रचनावली भाग-4 संपा-शोभाकान्त (राजकमल प्रकाशन)
23. वहीं; पृ.-535
24. वरूण के बेटे;- पृ. 482; नागार्जुन रचनावली भाग-4 संपा- शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
25. वही; पृ. 486
26. वही; पृ. 494
27. बाबा बटेसरनाथ; पृ.-364; नागार्जुन रचनावली भाग-4, संपा-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
28. मेरिया लीच- ‘दि स्टैंडर्ड डिक्शनरी ऑफ फोकलोर, भाग-1,माइथोलॉजी एण्ड लीजेण्ड; 
पृ.-399 
29. । ेजनकल व िथ्वसासवतम.म्कण् ।समद कवनदकपए चण् 294
30. व्तइनतद ंदक छपउांििय भ्ंदकइववा व िैवबपवसवहलए चण्24
31. रतिनाथ की चाची; पृ.-47; नागार्जुन रचनावली भाग-4; संपा.-शोभाकांत (राजकमल 
प्रकाशन)
32. वही, पृ. 51
33. वही, पृ. 98
34. नई पौध; पृ.-343; नागार्जुन रचनावली भाग-4; संपा.-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
35. दुखमोचन; पृ.-21, नागार्जुन रचनावली भाग-4; संपा.-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
36. वही; पृ.-49
37. कुम्भीपाक, पृ.132; नागार्जुन रचनावली भाग-5; संपा.-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
38. जमनिया का बाबा, पृ.-377; नागार्जुन रचनावली भाग-5; सं.-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
39. छंजपवद प्द । भ्मजतवहमदपवने ज्पउम . च्ह . च्ंतजीं ब्ींजंतरममण्
40. उग्रतारा- पृ. 360; नागार्जुन रचनावली भाग-5, संपा.-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
41. दुखमोचन; पृ.-37;नागार्जुन रचनावली भाग-5, संपा.-शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
42. लोक संस्कृति की रूपरेख; पृ.-21; कृष्णदेव उपाध्याय (लोकभारती प्रकाशन; संस्करण-2009)
43. पारो, पृ.-549; नागार्जुन रचनावली भाग-4, संपा- शोभाकांत (राजकमल प्रकाशन)
44. I.W. Green; Sociology, Pg-86
45- Ogburn and Nimlkoff; - A Handbook of Sociology; p.45

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