त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी' (ISSN 2322-0724 Apni Maati), वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन |
बच्चे, जवान, स्त्रियाँ सभी शामिल हैं। कोई जूट या लोहे के मिलों में काम करता है तो
कोई होटल का नौकर है, पुल बनाने वाले मजदूर, नक्सली समझकर मौत के घाट उतार दिए जाने वाले मजदूर,
दरजिन, स्कूल मास्टर, अगरबत्ती बनाने
वाले मजदूर आदि सभी उनकी कविताओं के विषय-वस्तु रहे हैं। ‘यात्रा’ कविता में कलकत्ते के कारखाने में काम करने वाला जलंधर का
मजदूर निहाल सिंह है जिसका अपना मुल्क बहुत दूर छूट गया है किंतु उसके तलवों में
पंजाब की थोड़ी-सी धूल अभी भी बाकी है। अपना घर छोड़कर रोजी-रोटी के लिए दूसरी जगह
जाने की बेबसी मजदूर निहालसिंह के ही शब्दों में, “कौन नहीं चाहता जहाँ जिस जमीन उगे/ मिट्टी बन जाय
वहीं,/ पर दोमट
नहीं, तपता हुआ रेत ही है घर/ तरबूज का,/ जहाँ निभे जिंदगी वही घर वही गाँव।”२
अरुण कमल की कविताओं की खास विशेषता यह है कि उनका
मजदूर चित्रण किसी विशेष वर्ग के मजदूरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि उनमें बूढ़े जिनके लिए अपना घर न होकर तपता हुआ रेत हो जाए उनके लिए घर छोड़कर जाना आवश्यक
है। पंजाबी मर्द,
पंजाबी लड़कियाँ, औरतें, बच्चे सभी काम
पर वापस लौट रहे हैं। यह सभी मजदूर अपने मिल मालिकों की कृपा-दृष्टि पर टिके हुए
हैं जिनमें कोई जूट के कारखाने में काम करता है तो कोई लोहे के कारखाने में किंतु,कोई नहीं जानता कब बंद हो जाएँगी कौन-सी मिलें/
किनकी होगी छँटनी, किनकी
कटेंगी तनखाहें,/ सब रह गए थे घर पर दो-एक दिन फाजिल।३
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiImyZFl8j5mbtykeci_7q9o5JdKjI3zTxRESdOciiLTSygr9kwEl0dwKsKjSHHrRdBIbR_vvMVHl6JZE9fjfvGp8boghyphenhyphenbdTqbESjJr3xD5x9Z_mp5wu8N9bXXf484g0Bamwu46bbGGI8/s1600/Arun-Kamal.jpg)
“धन-लोभ ने मानस-भावों को पूर्ण रूप अपने अधीन कर
लिया है। कुलीनता और शराफत, गुण
और कमाल की कसौटी पैसा, और केवल पैसा है। जिनके पास पैसा है, देवता-स्वरूप है, उसका अंत:करण कितना ही काला क्यों
न हो।”४ प्रेमचंद द्वारा
लिखित यह अत्यंत संवेदनशील पंक्तियाँ हैं। इसमें पूँजीवादी समाज की असलियत स्पष्ट
दिखाई दी है। आज चहुँओर धन संचय का लोभ ही सर्वोपरि हो गया है। मानव-जीवन की, उसकी इच्छाओं की मानों कोई कीमत ही
नहीं रह गयी है। इस संवेदनहीन जगत में ‘होटल’ में काम करने वाले लड़के को देखकर कवि का हृदय व्यथित हो उठता है और खाने
के लिए उठा हाथ वहीं जड़ हो जाता है। कवि लिखता है,जैसे ही कौर उठाया/ हाथ रूक गया।/ सामने किवाड़ से
लगकर/ रो रहा था वह लड़का/ जिसने मेरे सामने/ रक्खी थी थाली।५
‘मुक्ति’ में एक रिटायर्ड
स्कूल मास्टर की विवशता का चित्रण हुआ है जो जीवन संघर्षों से जूझता हुआ समयाभाव
के कारण अपने ही बेटे को पढ़ाने के लिए समय नहीं निकाल पाता है। उसने दूसरों के
बच्चों का जीवन सँवारा किंतु स्वयं अपने परिवार के लिए कुछ न कर पाने का गम उसे
सालता है,….आज मैं सेवा-मुक्त हूँ, आजाद;/ क्या किया मैंने इस जीवन
में/ सयानी लड़कियाँ, बच्चे, कच्ची गृहस्थी।६
‘दरजिन’ में शौकिया तौर पर
शुरू किए गए काम से अपनी रोजी-रोटी की समस्या को हल करने वाली दो बच्चों की माँ है
जो दर-दर भटककर अपने लिए काम माँगती है, फिर भी उसे काम नहीं मिलता
है। दरजिन की विवशता को कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है, तो बीबी जी बोलिए कब
आवें/ जिस वक्त हुक्म कीजिए/ सिलाई? बाहर से आधे पर तो/ सीती हूँ बीबी जी, छुपाना क्या है/ यह नहीं कि उनसे कम आपसे जादे/ जी? इससे कम? गुजारा नहीं होगा बीबी जी/ सोचिए केतना काम है/
टाँकते-टाँकते उँगली फट जाएगी/ क्या बेबी जी, क्या कहती हैं?/ नहीं!/ नया फैशन का?/ दरजी से? ठीक है बीबी जी।७
‘स्नान-पर्व’ में मजदूर स्नान का
स्वाभाविक चित्र खींचा गया है। कवि तनिक वाक्-पटुता का सहारा लेकर मजदूर के अभाव
और विवशता को नदी की धार की लटाई पर धागे-सा ढील देकर बांधने का प्रयास किया है, धो लेने दो/ मल-मल कर साफ कर लेने दो/ नदी की काली
मिट्टी से/ देह की मैल/ नदी, तुम
अपनी धार को/ लटाई पर धागे-सा ढील दो/ पटा दो उस मजदूर का शरीर/ उस खेत को पटा
दो।८
‘खुशबू रचते हैं हाथ’ में अगरबत्तियाँ बनाने वाले मजदूरों का चित्रण है जिनमें बूढ़े, बच्चे, जवान, स्त्रियाँ, बीमार आदि सभी तरह के
मजदूर हैं। ये मजदूर स्वयं गंदगी में रहते हैं किंतु अपनी मेहनत से खुशबूदार
अगरबत्तियाँ बनाते हैं ताकि इन गंदगी के बीच दुनिया में उसकी खुशबू फैला सके, यहीं इस गली में बनती हैं/ मुल्क की मशहूर
अगरबत्तियाँ/ इन्हीं गन्दे मुहल्लों के गंदे लोग/ बनाते हैं केवड़ा गुलाब कहास और
रातरानी/ अगरबत्तियाँ/ दुनिया की सारी गंदगी के बीच/ दुनिया की सारी खुशबू/ रचते
रहते हैं हाथ।९
कैसी विडम्बना है कि एक ओर तो दुनिया के सभ्य लोग इन गंदे मुहल्लों में रहने
वाले लोगों से घृणा करते हैं तो दूसरी ओर इन्हीं के द्वारा बनायी गयी अगरबत्तियों
को ईश्वर के सम्मुख जलाकर अपनी इच्छापूर्ति हेतु प्रार्थना करते हैं। ‘डेली पैसेंजर’
में एक कामगार औरत है जो हर रोज घर से काम पर निकलती है और फिर श्रमरत थका हुआ
शरीर लेकर शाम को वापस घर ताकि फिर अगले दिन काम पर लौट सके। वह औरत ट्रेन की भीड़
में सीकड़ पकड़े खड़ी है। कवि को उससे सहानुभूति होती है और वह उस औरत को बैठने की
जगह दे देता है। वह कवि के बगल में आकर बैठ जाती है। उसकी थकान का उल्लेख करते हुए
कवि लिखता है,सहसा मेरे कन्धे से/ लग गया/ उस युवती का माथा/ लगता
है बहुत थकी थी/ वह कामगार औरत/ काम से वापस घर लौट रही थी/ एक डेली पैसेंजर।१०
‘फिर वही आवाज’ में मजदूरों के
रोने की आवाज से कवि-हृदय उद्विग्न हो उठा है। कवि को लगता है कि ये रोने वाले
उसके अपने ही हैं। कृषक-मजदूरों को आवश्यकतानुसार ही रोजगार मिलता है, धान रोपाई एवं धान कटाई के समय। समयपरस्त राजनीतिज्ञ अपने लाभ के लिए इन पर
राजनीति करने से भी नहीं चूकते हैं। कवि को बोकारो पथड्डा पर मारे गये मजदूरों एवं
बच्चों से अपना कोई विशेष संबंध प्रतीत होता है। इसी प्रकार, ‘उत्सव’ कविता में संग्रामी मजदूरों को नक्सली कहकर उन
पर गोली चलाकर उनकी हत्या करने की दर्दनाक घटना का वर्णन हुआ है। ऐसी ही एक सच्ची
घटना संथाल परगना के अंतर्गत दुमका के काठीकुंड में घट चुकी है। संथाल परगना में
राज्य सरकार ने दस से अधिक करार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को किसानों से सीधे जमीन
लेकर उद्योग खोलने की छूट दे दी किंतु जब संथाल किसानों ने अपने हक के लिए इसका
विरोध किया तो पुलिस ने इन्हें नक्सली बताकर तथा बहुराष्ट्रीय कंपनी के पक्ष में
खड़े होकर संथाल किसानों पर गोली चलाई जिससे कई संथाली कृषक-मजदूर बेवजह मारे गए
तथा तत्कालीन सत्ता ने भी पुलिस कार्रवाई का ही बचाव किया। बहरहाल जो हो, राजनीति के इस घिनौने दाव-पेंच में बलि तो इन बेकसूर कृषक-मजदूरों की ही चढ़ी।‘महात्मा गाँधी सेतु और मजदूर’ में कवि लिखता है,उन मजदूरों का कहीं कोई जिक्र नहीं आज/ जो दुनिया के
सबसे बड़े पुल को बनाते हुए/ गंगा का ग्रास बने/ पृथ्वी के एक खंड को दूसरे खंड से
जोड़ते/ विलीन हुए-/ कितने ही घरों के पुल टूटे/ इस पुल को बनाते हुए/ पता नहीं
कहाँ से आये थे वे/ एक रोज लुप्त हो गये अचानक/ उनके माँ बाप पत्नी बच्चे किसी को
शायद/ पता भी नहीं-/ पत्थर डूबे तो आवाज होती है/ आदमी इस दुनिया में बेआवाज डूब
जाता है/ इस बार भी होली में घर पर उनका इन्तजार होगा।११
मानव जीवन ईश्वर की अतुलनीय एवं अनुपम भेंट है। जीवन
चाहे अमीर का हो या गरीब का, इसे
कमतर नहीं आँकना चाहिए। अगर पूँजीपति वर्ग मजदूरों से काम लेता है तो उनकी पूर्ण
सुरक्षा का दायित्व भी उसका अपना कर्तव्य होना चाहिए। कवि कहता है कि आज जब यह पुल
राष्ट्र को समर्पित हो रहा है तो उस पुल पर सबसे पहला कदम उन्हीं मजदूरों का पड़ना
चाहिए जिनके श्रम की बदौलत पुल का निर्माण संभव हो पाया है किंतु उन हजारों
मजदूरों का कहीं कुछ पता नहीं है; वे तो गए होंगे,फिर किसी काम की तलाश में/ फिर किसी ठेकेदार के
बँगले पर!१२
‘ओह बेचारी कुबड़ी बुढ़िया’ में एक बुढ़िया मजदूरिन है जो कोयला तोड़ती है, दूसरे के घरों में जूठे
बर्तन माँजती है और बदले में लोगों की उपेक्षा सहती है। अंत में इसी उपेक्षा को
सहते हुए एक दिन मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। वर्तमान में मानवीय संवेदना जड़ हो
चुकी है, मानो एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से कोई सरोकार ही नहीं है।
अगर कोई किसी से संबंध रखता भी है तो उसके पीछे कोई-न-कोई स्वार्थ अवश्य होता है।
प्रेमचंद ने सम्पूर्ण मानव-जाति को सावधान करते हुए कहा है कि, “धन-लिप्सा को इतना न बढ़ने दिया जाए कि वह मनुष्यता, मित्रता, स्नेह-महानुभूति सबको निकाल बाहर करे।”१३ इसी तरह की
चेतावनी कवि ने वर्तमान व्यवस्था के पालक पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि ‘शहंशाह मैकबेथ’ को देते हुए लिखा है,शहंशाह मैकबेथ, अब तुम बचोगे नहीं/ आदमी बढ़ा आ रहा है/ आदमी/ आदमी जैसे बर्नम
का जंगल।१४
अब शोषित वर्ग अपनी ताकत पहचान रहा है। अन्याय के विरूद्ध लड़ने की जो क्षमता
उनमें विद्यमान है, अरूण
कमल की इस तरह की कविताएँ उन्हें विषम परिस्थितियों से जूझने की प्रेरणा देती हैं।
‘जेल का गिलास’ में कवि को संथाल परगना
के सफाई मजदूर का अल्मुनियम का पिचका हुआ गंदा गिलास मिलता है जिस पर नाम लिखा
होता है-रामरतन। कवि सहित चौकीदार, बिजली मजदूर, शिक्षक, छात्र, नौजवान सभी उस
गिलास में पानी पीते हैं। यह समानता की दृष्टि है, जहाँ
ऊँच-नीच, जात-पॉत, शोषक-शोषित आदि किसी
में भेदभाव नहीं है, सभी एक समान है। इसी भाव को धारण करके
मानव जीवन सफल एवं सुखी बन सकता है। कवि लिखता है,एक ही नदी से पिया है जल सब ने/ एक ही रास्ते चले
सारे पाँव/ जिसने भी रक्खा इस रास्ते पर पाँव/ सागर से जा मिला।१५
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मनमीत कौर
(शोध-छात्रा)
विश्व-भारती, शांतिनिकेतन
मो.-08436798282
ई-मेल:manmeet630@gmail.com
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संदर्भ-
१. महात्मा गाँधी, हिंद स्वराज, शिक्षा भारती, दिल्ली, संस्करण-२०१२, पृ.२६
२. अरूण कमल, अपनी केवल धार, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण-१९९९, पृ.१३
३. वही, पृ.१३
४. मुंशी प्रेमचंद, महाजनी सभ्यता, हिंदी पाठ-संचयन, दीप प्रकाशन, कोलकाता, संस्करण- जुलाई २०१३, पृ.१९
५. अरूण कमल, अपनी केवल धार, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण-१९९९, पृ.१६
६. वही, पृ.३७
७. वही, पृ.४०-४१
८. वही, पृ.६७
९. वही, पृ.८०-८१
१०. वही, पृ.८५
११. अरूण कमल, सबूत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण-१९९९, पृ.४४
१२. वही, पृ.४५
१३. मुंशी प्रेमचंद,महाजनी सभ्यता,हिंदी पाठ-संचयन,दीप प्रकाशन,कोलकाता,संस्करण-जुलाई२०१३,पृ.२०
१४. अरूण कमल, अपनी केवल धार, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, तीसरा संस्करण-१९९९, पृ.८७
१५. अरूण कमल, सबूत, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण-१९९९, पृ.१४
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