सिनेमा:फिल्मों में साहित्य गूंथने की कला का जानकार रितुपर्णो घोष/निकिता जैन

त्रैमासिक ई-पत्रिका 'अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati)वर्ष-2, अंक-16, अक्टूबर-दिसंबर, 2014
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छायाकार:ज़ैनुल आबेदीन
बंगाली सिनेमा की बात जब आती है तो मस्तिष्क में सबसे पहला नाम सत्यजित रे का आता है या अगर यह कहा जाए कि भारतीय सिनेमा के सबसे सफल निर्देशक, निर्माता वही माने जाते हैं तो इस बात से किसी को कोई आश्चर्य नहीं होगा. आज भारतीय सिनेमा में व्यावसायिक सिनेमा की एक गहरी छाप दिखाई पड़ती है इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय सिनेमा अब पश्चिम की चाल पर चल पड़ा है. पश्चिम की राह पर चलना कोई गुनाह नहीं है लेकिन आँख बंद करके फिल्मों को केवल व्यवसाय में लाभ की दृष्टि से बनाना और बिना सर पैर की कहानी को समाज के सामने बे-ढंगे रूप में प्रस्तुत करना इसमें पूरे समाज को तो नहीं पर समाज के विशेष वर्ग को ज़रूर आपत्ति है क्योंकि समाज का एक बौद्धिक वर्ग (अगर इक्तिफाक़ रखते हैं तो) ऐसा है जो सिनेमा केवल मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि उससे कुछ सिखने के लिए या उसमें अपनी ज़िन्दगी के मायनों को तलाश करने की कोशिश की दृष्टि  से देखता है. बंगाली सिनेमा भारतीय सिनेमा का एक महत्वपूर्ण अंग इसलिए है क्योंकि यहाँ पर बनने वाली अधिकाँश फिल्में मनोरंजन से हटकर एक नए लोक का निर्माण करती हैं. काल्पनिकता के साथ–साथ वास्तविक सत्य को जिस प्रकार पिरोकर दिखाया जाता है वह दिलो दिमाग की अन्तरंग गहराईयों को छू लेता है. बंगाली सिनेमा की रीढ़ ‘शक्ति सामंत, अपर्णा सेन, सुजोय घोष, प्रदीप सरकार, मृत्युंजय देब्रत, जैसे निर्देशक हैं और यह सब अपनी-अपनी कलात्मकता का परिचय दे चुके हैं. इनके द्वारा बनाये गए सिनेमा में समाज के अनदेखे, अनछुए पहलुओं के दर्शन होते हैं जो यह एहसास दिलाते हैं की हिंदी सिनेमा में फिल्में बड़ी तादाद में बनती तो हैं लेकिन इतनी गंभीरता या कलात्मकता के साथ नहीं.( कुछ फिल्मों और निर्देशकों को छोड़कर) बंगाली सिनेमा में एक स्वर्ण युग तब था जब सत्यजित रे जैसे निर्देशक ने ‘पाथेर पंचाली’ जैसी अविस्मरणीय फिल्मों का निर्माण करना शुरू किया और भारतीय सिनेमा को ऐसी ऑफ बीट फिल्में दीं जो समाज में रहने वाले विभिन्न तबकों का गहराई से विश्लेषण करती हैं, उसकी असली तस्वीर प्रस्तुत करती हैं. एक ऐसे ही स्वर्णिम युग के दर्शन भारतीय सिनेमा में (विशेषकर बंगाली सिनेमा में) रितुपर्णो घोष ने अपनी कलात्मक शक्ति के द्वारा कराये हैं. टालीवुड (बंगाली सिनेमा) में रितुपर्णो घोष ने ऐसी बेहतरीन फिल्मों का निर्माण किया है जिनको देखकर मन एक बार यह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है की वाकई में हम सिनेमा देख रहे हैं या उन पलों को जी रहे हैं. रितुपर्णों घोष की फिल्मों की यह खासियत है की उनकी फिल्मों की कहानी अपने समय से आगे की बात कहती हैं फिल्म में काल-क्रम चाहे जो भी दिखाया हो लेकिन उस समय की बंदिशों को तोड़ते हुए फिल्म का परिदृश्य कई ऐसी बातें कह जाता है जो कि शायद एक इंसान ( इसमें बुद्धिजीवी वर्ग भी शामिल है) के लिए सोचना भी मुश्किल है.

                   
रितुपर्णो घोष ने ज्यादातर फिल्में बंगला या अंग्रेजी भाषा में ही बनायीं हैं. हिंदी भाषा में उनकी पहली फिल्म ‘रेनकोट’ (2004 {कहीं –कहीं 2007 का भी ज़िक्र है}) और दूसरी  ‘सनग्लास’ (ताक-झाँक, (हिंदी वर्ज़न),2013, { रितुपर्णों घोष के मृत्यु के उपरांत अस्थायी तौर पर रिलीज़ हुई} ) हैं. इनकी पहली हिंदी फिल्म ‘रेनकोट’ को मीडिया ने काफी सराहा इसके साथ ही देश–विदेश में कई पुरस्कार से भी इसे सम्मानित किया गया. ‘रेनकोट’ की कहानी की बात करें तो ऐसा कुछ ख़ास नहीं है जो कि इससे पहले हमने हिंदी सिनेमा या साहित्य में देखा न हो या पढ़ा न हो. इस फिल्म को ख़ास बनाते हैं रितुपर्णो घोष का निर्देशन, उनका माइंड सेट, उनकी कलात्मकता. फिल्म में केवल छ: पात्रों का आवागमन होता है जिसमें से दो मुख्य पात्रों नीरू (ऐश्वर्या राय ) और मन्नू ( अजय देवगन) के संबंधों के इर्द-गिर्द यह कहानी घुमती है. कहानी का मुख्य परिदृश्य है नीरू के विवाह के बाद दोनों का कई सालों के बाद मिलना और अपनी खस्ता हालत को एक दूसरे से छिपाना और इस छिपाने की प्रक्रिया में एक के बाद एक झूठ की ईमारत खड़ी करना. दर्शकों की उत्सुकता वहां बढती है जहाँ पर दोनों ही एक दूसरी की असलियत से वाकिफ हैं लेकिन सामने ऐसे दिखाते हैं जैसे कि वह दोनों एक दूसरे के हालातों से अनजान हैं (इसका खुलासा फिल्म के अंत में होता है ) ताकि दोनों में से किसी को भी शर्मिंदगी न हो, न नीरू को जिसने बेहतर भविष्य की आस में अपनी मां के कहने पर अपने प्यार को छोड़कर किसी ओर से शादी कर ली और अब एक किराए के एक कमरे में रह रही है उस कमरे को भी फर्नीचर वाले को भाड़े पर दे रखा है और न मन्नू को जो पहले अपनी बेरोजगारी के कारण अपने प्यार को नहीं पा सका और अब भी वो ही हालत हैं कि लोगों से उधार मांग कर गुज़र –बसर करना पड़ रहा है. फिल्म में जो सबसे ज्यादा प्रभावित करता है वह हैं फिल्म के संवाद ‘गागर में सागर कैसे भरा जाता है’ यह टेक्निक रितुपर्णो दा को अच्छी तरह आती है. फिल्म का दूसरा पक्ष जो सबसे जायदा प्रभावित करता है वह है बीच-बीच में नीरू और मन्नू का अपनी पुरानी यादों में वापस जाना. पूर्वस्मरण पद्धति ( फ्लैशबैक ) का इस्तेमाल जिस तरह से किया गया है वह कहानी को जीवंत बनाये रखती है तथा दर्शकों को पटकथा को समझने में कोई परेशानी नहीं होती. रितुपर्णो घोष ने इस फिल्म में केवल तीन कमरों और एक सड़क की लोकेशन के बीच पूरी फिल्म को समेट कर ऐसे रख दिया जैसे एक थाली में दाल,रोटी ,चावल कोई परोस कर दे दे और मन उसी को देख कर खुश हो जाए. ऐसी सादगी पुरानी हिंदी फिल्मों की याद दिलाती है जिसमें अभिनेता और अभिनेत्री एक पोशाक में एक ही जगह पर खड़े होकर अपनी सारी ज़िन्दगी की कथा को एक ही दृश्य के माध्यम से दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर देते थे.

फिल्म का एक बेजोड़ पक्ष और है जिस पर ध्यान शायद बहुत ही कम लोगों का गया है वो है मन्नू के दोस्त और उसकी पत्नी के सम्बन्ध जिनका एहसास फिल्म के दो संवादों के माध्यम से हो जाता है. पहला संवाद जब मन्नू दोस्त की पत्नी से पूछता है कि – “लड़कियां अपने मायके से विदा होने के बाद इतना रोती क्यों हैं ( इस संवाद का अर्थ परिवार से बिछड़ना नहीं बल्कि अपने पुराने प्रेम को याद करना है) जैसे आप रोयीं थीं”१. और दूसरा “भाभी आप भी इन टेबलेट्स को लेती हैं”२. यह दो संवाद बता देते हैं कि हर किसी के जीवन में एक मन्नू और एक नीरू होते हैं फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ लोग उसको भूल नहीं पाते और कुछ भूलने का नाटक करते हैं. फिल्म की शुरुआत में नीरू दोषी लगती है कि उसने मन्नू को छोड़कर शादी कर ली और अपने हालात के बारे में भी झूठ बोल रही है और मन्नू पर तरस आता है जो कि उधार लिए रुपयों से नीरू के मकान का किराया चुकाता है लेकिन अगर दर्शकों को पहले ही ये पता लग जाए की आगे क्या होने वाला है तो फिल्म देखने का मज़ा ही क्या ? फिल्म के अंत में जिस तरह ‘रेनकोट’ में नीरू अपने गहनों के साथ एक चिट्ठी छोड़ देती है और मन्नू के प्रति अपने प्यार को बता देती है वो दृश्य फिल्म की पटकथा और निर्देशन की मजबूती का एहसास करा देते हैं और अभी तक जो दर्शक यह बैठे  सोच रहे थे कि फिल्म का नाम ‘रेनकोट’ क्यों रखा है उनको भी ये बात समझ में आ जाती है कि अगर रेनकोट बाबा नहीं होते तो आप सिनेमा हाल से बाहर फिल्म की तारीफ़ करते हुए न निकल रहे होते.

        रितुपर्णो दा के निर्देशन की यही खासियत है कि उनको पता है कि दर्शकों को कहाँ चौंकाना है,कहाँ उनके दिलोदिमाग में रोमांच पैदा करना है और कहाँ उन्हें झटका देकर ये बताना है कि भाईसाहब आप जो सोच रहे हैं और देख रहे हैं केवल वह सत्य नहीं है बल्कि सत्य उससे कहीं बड़ा है. रितुपर्णो घोष ने अपने करियर की शुरुआत सन् 1992 में ‘हिरेर अंग्ति’ बंगाली फिल्म से की थी३. यह बच्चों पर आधारित एक फिल्म थी. इस फिल्म के बाद रितुपर्णो ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. एक के बाद एक उनकी फिल्में आती रहीं और टोलीवुड (बंगाली सिनेमा) के इतिहास में क्लासिक फिल्मों का नाम दर्ज होता चला गया. रितुपर्णो घोष ने हिंदी सिनेमा में ख्याति अपनी बंगाली फिल्म ‘चोखेर बाली’ के कारण प्राप्त की. ‘चोखेर बाली’ सन् 2003 में बंगाल में रिलीज़ हुई थी लेकिन इसका हिंदी वर्ज़न 2004 में आया.‘चोखेर बाली’ मुख्य रूप से रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास (उपन्यास का नाम भी चोखेर बाली है) पर आधारित है. पुराने ज़माने में बंगाल में लड़कियां अपनी घनिष्ठ मित्र को एक सामान्य नाम से बुलाती थीं ‘चोखेर बाली’. यह फिल्म भी दो सहेलियों की कथा पर आधारित है और फिल्म में भी दोनों सहेलियां बिनोदिनी और आशालता (ऐश्वर्या राय और राइमा सेन) एक दूसरे को ‘बाली’ कहकर ही संबोधित करती हैं. वैसे तो पूरी फिल्म रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास पर ही आधारित है लेकिन इस फिल्म की नींव है फिल्म में दिखाए गए दृश्यों की मौलिकता.भले ही ये उपन्यास बंगाल के बंटवारे से पहले लिखा गया हो लेकिन इसमें जिन बातों को उठाया गया है वे बातें अपने समय से कहीं आगे की हैं. बल्कि यह कहा जाए कि इतने बोल्ड पात्र का निरूपण आज के साहित्यकार भी नहीं कर सकते तो गलत नहीं होगा. रवीन्द्रनाथ टैगोर के बारे में कहा जाता है कि उनके नारी पात्र बड़े सशक्त और मजबूत होते हैं, रितुपर्णो दा की फिल्म को देखकर ये बात बिलकुल 100 आने सच प्रतीत होती है. फिल्म में केवल विधवाओं की दशा को नहीं दिखाया गया है बल्कि उनके मन में चल रहे अंतर्द्वंद को बखूबी चित्रित किया गया है और खोखली परम्पराओं के आगे मन की इच्छाएं किस तरह दम तोडती हैं इसका चित्रण बखूबी किया गया है. बिनोदिनी का अपनी ही सहेली आशालता के पति के साथ सम्बन्ध बना लेना, महेंद्र ( आशालता का पति) का स्वार्थ, बेहारी (महेंद्र का दोस्त) का बिनोदिनी के शादी के प्रस्ताव को ठुकराना इन तीनों के आपसी संबंधों पर ही फिल्म केन्द्रित है जिसके बीच विधवाओं की दशा को  कर्मकांड के ढकोसलों, परम्पराओं, संवेदनाओं, उत्तेजनाओं आदि में बुना गया है. फिल्म का सबसे मजबूत पात्र है ‘बिनोदिनी’ जो अपनी काम-इच्छाओं को दबाने के सख्त खिलाफ है. यह ही वजह है कि वह महेंद्र के साथ सम्बन्ध बनाने में संकोच नहीं करती और बेहारी के पास जाकर अपने विवाह प्रस्ताव को भी पेश करने से नहीं हिचकिचाती. उसे इस बात की भी ग्लानि नहीं है कि वह बेहारी से विवाह केवल शारीरिक सुखों की प्राप्ति के लिए कर रही है. यहाँ पर शायद कुछ लोग कहेंगे कि यह सब बातें भारतीय स्त्री या भारतीय परम्परा के खिलाफ हैं लेकिन सच तो यह है कि एक विधवा के मन में जो भावनाएं उठती हैं फिल्म में उन्हीं भावनाओं और संवेदनाओं को दृढ़ता के साथ प्रस्तुत किया गया ये ही फिल्म की जीवंतता को बनाये रखता है. बिनोदिनी का चरित्र अपने अधिकारों के लिए प्रति भी सचेत है जभी फिल्म के अंत में वह बेहारी द्वारा दिए गए विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा देती है. फिल्म की शुरुआत में ही कहा गया है कि “रवीन्द्रनाथ को हमेशा इस बात का दुःख रहा कि उन्होनें अपने उपन्यास का अंत ऐसा किया जहाँ पर बिनोदिनी सबकी ज़िन्दगी से चली जाती है” ज़ाहिर सी बात है कि रवीन्द्रनाथ इस फिल्म का अंत सुखान्त रूप में भी कर सकते थे या फिर रितुपर्णो दा कहानी का अंत बदल सकते थे लेकिन तब कहानी क्या इतने सशक्त रूप में दर्शकों के ह्रदय को छू पाती? मेरी दृष्टि में नहीं क्योंकि यहाँ पर सवाल केवल किसी के साथ जीवन बिताने का ही नहीं था बल्कि अपने मान-सम्मान का भी था, जिसे बिनोदिनी ने अंत तक बनाये रखा. फिल्म के सभी कलाकार अपने –अपने किरदार के साथ पूरी तरह न्याय करते हैं. टेक्निकल रूप में फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष फिल्म के संवाद हैं जहाँ तर्क -वितर्क के जाल अच्छे से बुने गए हैं, एक दृश्य में बिनोदिनी समाज के द्वारा बनाये गए  न्याय और अन्याय के भेद को खारिज करते हुए कहती है कि – “ विधवा के लिए जब जीभ की इच्छाओं को पूरा करने में कोई पाप नहीं है तो देह की इच्छाओं को पूरा करने में न्याय और अन्याय कहाँ से आया?”४. इस तरह के कई संवादों ने फिल्म को सार्थकता प्रदान की है. रितुपर्णो ने 63 साल पहले लिखी गयी कहानी को उसी काल –क्रम में दर्शाते हुए आधुनिक स्त्री विमर्श के विभिन्न कोणों को प्रस्तुत किया है.

      रितुपर्णो दा ने अपने निर्देशन के साथ कई तरह के एक्सपेरिमेंट्स किये हैं भले ही वह सफल हुए हों या नहीं. एक दूरदर्शी और जिज्ञासु निर्देशक इस बात से नहीं डरता कि वह जिस फिल्म पर काम कर रहा है वह सफल होगी या असफल उसे चिंता इस बात की रहती है कि जो वह परदे पर दर्शकों को दिखाने जा रहा है उसमें कुछ नया है या नहीं और क्या दर्शक उसे समझ पायेंगे? यही गुण रितुपर्णो घोष में भी थे क्योंकि वह अपनी फिल्म की कहानियों का चुनाव बड़ी बारीकी से करते थे ऐसी ही उनकी एक फिल्म है ‘खेला’ (या खेल) इस फिल्म में एक डायरेक्टर की पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ को दिखने की कोशिश की गयी है. इस फिल्म में डायरेक्टर (प्रसन्नजीत) महात्मा बुद्ध पर एक फिल्म बनाने जा रहा है जिसके लिए उसे एक ऐसे बच्चे की तलाश है जिसमें उस रोल को निभाने की काबलियत हो तथा उसके चेहरे में एक तरह की मासूमियत तथा फॉर्स हो. डायरेक्टर को ऐसा बच्चा (अक्षनील दत्त) मिल जाता है लेकिन उसके माता-पिता एक्टिंग करवाने को मन कर देते हैं. बच्चा इसके लिए तैयार है इन्हीं सभी मुश्किलों के बीच डायरेक्टर की अपनी लाइफ में भी कुछ समस्याएं हैं वह केवल अपने बारे में सोचता है अपनी बीवी (मनीषा कोइराला) की इच्छाओं से उसका कोई मतलब नहीं. बीवी बच्चा चाहती है लेकिन उसे बच्चे नहीं चाहिए क्योंकि उसे लगता है कि इन सब जिम्मेदारियों के साथ वह अपने फ़िल्मी कैरियर की ओर ध्यान नहीं दे पायेगा, वहीँ दूसरी ओर वह अपनी फिल्म के लिए बच्चे की तलाश कर रहा है इन्हीं सब विरोधाभास के साथ कहानी आगे बढती है. फिल्म में फ्लैशबैक के द्वारा यह दिखाया गया है कि जिन चीज़ों के लिए वह अपनी पत्नी को बात-बात पर झिड़क दिया करता था कैसे शूटिंग के वक़्त वो ही सब बातें उसे एक-एक करके उसकी गलतियों का एहसास करा रही हैं. हालाकि इस फिल्म की कहानी को रितुपर्णो सही ढंग से एक सूत्र में पिरो नहीं पाए हैं लेकिन फिर भी उनकी फिल्म ‘खेला’ एक बार के लिए राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ की याद दिला देती है. उपन्यास में लेखक किसी बंधन में नहीं बंधना चाहता था और यहाँ पर डायरेक्टर अपने कैरियर में कोई रुकवाट न आये इसलिए शादी नहीं करना चाहता था और न ही रिश्तों को लेकर उसके मन में कोई संवेदनशीलता है लेकिन अंत में उसे पता लगता है कि उसने क्या खोया है. पूरी तरह से नहीं लेकिन उस उपन्यास की एक हल्की सी झलक फिल्म में दिखाई देती है. फिल्म में प्रसन्नजीत और मनीषा कोइराला ने अपने किरदार के साथ न्याय करने की कोशिश की है पर वह असफल रहे हैं लेकिन अभिरूप (अक्षनील दत्त यानी बच्चे का किरदार ) का काम सहरानीय है. निर्देशन, पटकथा ,संवाद में वो कसाव नहीं जो रितुपर्णो की और फिल्मों में देखने को मिला है. यहाँ एक बात ध्यातव्य है कि मूल रूप से यह फिल्म बांगला भाषा में है तो इसकी मुख्य समस्या हिंदी संवादों के साथ रही जो सही रूप से स्टोरी लाइन को कवर नहीं कर पाए. यही वजह है कि कुछ लोगों का मानना है कि किसी भी भाषा कि फिल्म को किसी अन्य भाषा में परिवर्तित करने पर वह मौलिकता नहीं रहती जो उसकी असली भाषा में प्रदर्शित होती है. इस बात से पूरा टोलीवुड इक्तिफाक रखता है लेकिन ऐसा नहीं है अगर पटकथा और निर्देशन मजबूत हैं तो संवाद पर भी मेहनत करके फिल्म को उसकी मौलिकता के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है. जिसका सबसे सशक्त उदहारण है ‘चोखेर बाली’ जिसने अपनी मौलिकता को बंगाली और हिंदी दोनों भाषाओं में बनाये रखा.

              रितुपर्णो के निर्देशन की एक सबसे बड़ी खासियत यह है कि उनकी ज़्यादातर फिल्में साहित्य से अभिप्रेरित हैं चाहे वह अंग्रेजी साहित्य हो या बांग्ला साहित्य. उनकी पहली हिंदी फिल्म ‘रेनकोट’ एक शोर्ट स्टोरी ‘ओ हेनरी’ द्वारा रचित कहानी ‘द गिफ्ट ऑफ़ द मेगी’ से प्रेरित है. ‘चोखेर बाली’ भी रवीन्द्रनाथ के उपन्यास पर आधारित है तथा एक अन्य फिल्म “कशमकश” रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास “नौकाडूबी” पर आधारित है. ‘कशमकश’ फिल्म का बंगाली वर्ज़न ‘नौकाडूबी’ के नाम से ही है. सुभाष घई के प्रोडक्शन ने इस फिल्म के हिंदी संस्करण को ‘कशमकश’ नाम से प्रस्तुत किया. साहित्य की खासियत यह है कि पाठक के सामने केवल पात्र और उनकी परिस्थितियां होती हैं और उसे उन्हीं के आधार पर एक अपना मनोलोक बनाना होता है अब यह पाठक पर निर्भर करता है कि वो साहित्य को किस प्रकार ग्रहण करता है उसकी सूझ-बूझ पर ही लेखक की रचना की सफलता और असफलता टिकी होती है. निर्देशक भी सबसे पहले पाठक के रूप में उस रचना को पढता है फिर उसे दर्शक तक पहुंचाने के लिए अपनी काल्पनिकता का प्रयोग करता है (अगर ज़रूरत पड़े तो) और फिर कहीं जाकर उसे परदे पर प्रस्तुत करता है. किसी रचना को परदे पर प्रस्तुत करना उसकी अस्मिता को बिना नुक्सान पहुंचाए यह बहुत ही मुश्किल काम है और इसी काम में माहिर थे रितुपर्णो दा, उन्हें भली-भाँती पता था कि किस रचना पर फिल्म बन सकती है और किस पर नहीं एवं किसी रचना की कलात्मकता से किस हद तक छेड़छाड़ करनी चाहिए. उनकी इसी समझदारी का परिणाम है फिल्म ‘कशमकश’ इस फिल्म में रितुपर्णो ने बाह्य वातावरण को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया है वो पात्रों की मनोस्थिति को समझने के लिए बिलकुल उपयुक्त सिद्ध होता है. फिल्म की कहानी उपन्यास “नौकाडूबी” से प्रेरित है कहानी में रमेश (जिशु सेनगुप्ता) ,हेमनलिनी (राइमा सेन) से प्यार करता है लेकिन अपने घर के दबाव के चलते उसे शादी किसी ओर लड़की से करनी पड़ती है, विदाई के वक़्त घर जाते समय नौका तूफ़ान में फंस जाती है और नौका में सवार सभी लोग लापता हो जाते हैं. जब रमेश को होश आता है उसके पास ही शादी के जोड़े में लड़की बेहोश मिलती है जिसे वह घर ले आता है. यहाँ तक कहानी बड़ी साधारण सी प्रतीत होती है. रमेश की पत्नी उसे बार- बार कहती है कि “आप मुझे सुशीला क्यों बुलाते हैं मेरा नाम तो कमला है” तब तक दर्शकों के मन में एक संशय बना रहता हैं कि आखिर हो क्या रहा है कमला (रिया सेन) अपने आपको सुशीला क्यों नहीं मान रही? भेद जब खुलता है जब सुशीला( जो वास्तविक में कमला थी) एक कागज पर अपने पति का नाम ‘नलिक्ष’ लिखकर देती है तब रमेश को पता चलता है कि जो तूफ़ान आया था उस तूफ़ान में उसकी बीवी मर चुकी है और यह किसी ओर की पत्नी है,जिसे वह अपने घर लाया है. बस यहीं से फिल्म एक नया मोड़ लेती है और अंत में जाकर हेमनलिनी को रमेश और कमला को अपने पति नलिक्ष मिल जाते हैं. कहानी साधारण  है लेकिन उसे प्रेजेंट करने का तरीका असाधारण है. ऐसा नहीं है कि इस कहानी पर पहले फिल्म नहीं बनीं, 1946 में ‘मिलन’ नाम से फिल्म बन चुकी है जिसमें दिलीप कुमार ने अभिनय किया था और 1960 में ‘घूँघट’ जिसमें बीना राय अभिनय कर चुकी हैं. तीनों फिल्मों को देखें तो हर फिल्म को देखने का एक अलग ही आनंद आता है, कहानी एक ही है लेकिन प्रदर्शित करने का तरीका सबका अपना - अपना है. यहाँ ही रितुपर्णो की निर्देशन पर पकड़ कितनी दृढ़ है इसका पता चलता है, इस कहानी पर दो बार फिल्म बन चुकी है अच्छे कलाकारों द्वारा काम भी किया जा चुका है लेकिन फिर भी उनकी इस फिल्म में एक अलग ही परिदृश्य सामने आता है जो हमें उस मनोलोक में ले जाता है जहाँ निर्देशक हमें ले जाना चाहता है. यहाँ बात केवल अभिनय की नहीं है यहाँ केंद्र में है दृश्य को प्रदर्शित की कला, कैमरा का सेट-अप, बाह्य वातावरण इत्यादि जिससे बिना संवाद के भी पात्रों के केवल हाव – भाव से ही फिल्म में जान आ जाती है. ‘कशमकश’ ने बॉक्स-ऑफिस पर चाहे सफलता प्राप्त की हो या नहीं लेकिन अपने आप में यह रितुपर्णो दा की बेहतरीन आर्ट मूवीज  में से एक है.

         
निकिता जैन
पीएच.डी शोधार्थी,
अम्बेडकर विश्वविद्यालय,दिल्ली
(''21वीं सदी की हिंदी पत्रिकाओं के 
स्त्री विशेषांकों का तुलनात्मक अध्ययन” 
विषय पर एम.फिल
संपर्क -09953058803
ई-मेल:nkjn989@gmail.com   
 रितुपर्णो घोष की फिल्मों से ये बात साबित हो जाती है कि साहित्य और सिनेमा का एक अटूट बंधन है. दोनों के बीच के भेद को बारीकी से परखा और जांचा जाए तब एक अच्छी कृति पर एक बेहतरीन फिल्म बनायी जा सकती है जैसा की रितुपर्णो दा ने अपने निर्देशन से साबित किया है. इसके लिए बहुत बड़े सेट्स या ज्यादा शोर शराबे की ज़रूरत नहीं बस कहानी को दर्शकों के दिल को छू कर वापिस आना होता है क्योंकि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जहाँ पर बिना पढ़े या बिना सुने भी बहुत कुछ समझा जा सकता है. बंगाली सिनेमा से हिंदी सिनेमा को अभी बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है (जो लोग बंगाली फिल्में देखते हैं अगर वो सहमत हैं तो) हिंदी सिनेमा की ख्याति अपने चरम पर  है और आज हिंदी सिनेमा की हवा में भी कुछ परिवर्तन दिखाई दे रहा है लेकिन अभी भी कहीं न कहीं हिंदी सिनेमा बंगाली सिनेमा की तरह पूरी तरह अपनी संस्कृति को एक धागे में पिरोने में पीछे दिखाई पड़ता है. इसके लिए ज़रूरत है कि बंगाली निर्देशक हिंदी में भी अपनी फिल्मों को बनायें क्योंकि केवल अंग्रेजी और बांगला में फिल्म बना देने से वो फिल्में  एक सीमित वर्ग द्वारा ही देखी जा सकती हैं.  (अब यहाँ पर यह मत सोचियेगा कि अंग्रेजी और बांगला सबको आती ही है ) रितुपर्णो जैसे निर्देशक से बस एक यह ही शिकायत है कि ‘रेनकोट’ जैसी उम्दा फिल्म के बाद वह कोई और फिल्म ( ताक-झाँक अभी स्थायी रूप से प्रदर्शित नहीं हुई) हिंदी सिनेमा को नहीं दे पाए.

सन्दर्भ :-

१.       ‘रेनकोट’ फिल्म, 2004, निर्देशन -रितुपर्णो घोष, निर्माता – श्री वेंकटेश फिल्म्स.
२.      ‘रेनकोट’ फिल्म, 2004, निर्देशन - रितुपर्णो घोष, निर्माता – श्री वेंकटेश फिल्म्स.
३.      ‘रितुपर्णो घोष’, विकिपीडिया,गूगल.कॉम
४.     ‘चोखेर बाली’,फिल्म 2003, निर्देशन- रितुपर्णो घोष                   

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