बातचीत:थिएटर एक कलेक्टिव आर्ट है-राजेंद्र पांचाल

अपनी माटी             (ISSN 2322-0724 Apni Maati)              वर्ष-2, अंक-18,                   अप्रैल-जून, 2015

युवा रंगकर्मी राजेंद्र पंचाल से ओम नागर की बातचीत

राजेंद्र पांचाल, देश-प्रदेश में नाटक के क्षेत्र में अपना खास मुकाम बना चुके है। एनएसडी से नाट्यकर्म का विधिवत प्रशिक्षण लेने के बाद पांचाल ने महानगर की चकाचौंध में चमकदार पहचान की राह चुनने के बजाय कोटा में नाटक की अलख जगाई और कामयाबी भी मिल रही है। उनके निर्देशन में देश भर में कई नाटकों का मंचन किया गया और यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। आपके नाटक के प्रति समर्पण के चलते राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी, जोधपुर ने आपको युवा पुरस्कार से पुरस्कृत किया। प्रयोगधर्मी युवा नाटककार के रूप में देश-प्रदेश में पहचाने जा रहे कोटा के नाटककार राजेंद्र पांचाल के उनके रंगकर्म के अब तक के सफ़र पर बातचीत की युवा कवि ओम नागर ने

नाटक से आपका जुड़ाव कैसे हुआ और इस रंगकर्म के सफ़र की शुरुआत किस तरह हुई ?
कोटा में ही एक नाट्य कार्यशाला के जरिये इस विधा से परिचित हुआ। बचपन से ही संगीत और चित्रकला के प्रति लगाव था। साथ ही घर में पढ़ने -पढ़ाने का माहौल बचपन से देखता आया था। यही कारण रहा क़ि यह विधा मुझे अपनी-सी प्रतीत हुई। इसी समय मैं स्पिक मैके के अभियान से जुड़ गया जिसने मुझे एक दूसरी दुनिया देखने का मौका दिया। स्पिक मैके की गुरु शिष्य परम्परा के माध्यम से ही हबीब तनवीर का सानिध्य प्राप्त हुआ। ग्रेजुएशन के बाद राजस्थान विश्वविद्यालय से नाट्य कला में एक वर्षीय डिप्लोमा किया लेकिन वहां से उत्साह की जगह निराशा ही हाथ लगी। फिर बाद में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से मुझे चीज़ो को देखने-परखने की नई दृष्टि मिली। 

आपने शुरू -शुरू में बारां जिले के सहरिया जाति जैसी समाज की मुख्यधारा से बाहर समाज को अपने नाटकों विषय बनाया। यह विचार और प्रेरणा कहाँ से मिली ?
हबीब साहब के साथ रहकर ही इस बात की प्रेरणा मिली कि वो हर मनुष्य जो जीवित है उसे स्टेज़ पर लाया जा सकता है भले ही वो किसी भी जाति, धर्म, लिंग और समुदाय आदि का हो। इसी प्रेरणा से मैंने सहरिया आदिवासी लोगों के अलावा सुनने और बोलने में असमर्थ, भिखारियों, कैदियों, अनाथ बच्चों, वरिष्ठ नागरिकों आदि के साथ काम किया और उनसे इस दरमियाँ बहुत कुछ सीखा भी। 

आपकी दृष्टि और जीवन में थियेटर क्या है ?
जब से थियेटर से परिचित हुआ हूँ मै याद नहीं कर पाता कि ऐसा भी कोई दिन हो जब मैंने थियेटर के बारे में नही सोचा हो। यह तो मेरे जीवन का ही हिस्सा है। थियेटर है ही ऐसा माध्यम की यह एक तो कलेक्टिव आर्ट है दूसरा जानने समझने के लिए आपको अपने ऊपर बाहर से नज़र रखनी पड़ती है भले ही आपके जीवन में शोक हो या हर्ष, आपको बाहर से देखते रहना और पड़ताल करते रहना पड़ता है। मुझे लगता हर रंगकर्मी के लिए थियेटर उसका जीवन ही होता है केवल शौकिया तौर पर या सिर्फ व्यावसायिक तौर पर नही अपना सकते। 

आप एनएसडी है। आप ने माया नगरी मुंबई की ओर जाने के बजाय अपने ही शहर कोटा को अपनी नाट्यस्थली चुना, कोई खास कारण ?
जब एनएसडी से पास आउट हुआ था तब भी मेरा परिवार मुंबई में ही था लेकिन एक तो मै कोटा शहर में थियेटर गतिविधियों को देखने और सीखने के लिए तरसा करता था। उसकी भरपाई के लिए और दूसरा मुझे थियेटर से बहुत लगाव है। इतना लगाव की कई बार मैं अपने परिवार के साथ भी न्याय नही कर पाता। इस दरमियान मै यह भी जान पाया कि अपनी जगह पर रहकर अपनी तरह से ज्यादा बेहतर ढंग से काम क्या जा सकता है। अपनी भाषा, अपने रीति-रिवाज़, बातचीत और तौर तरीके, खान -पान आदि की ताकत पहचान कर आप एक छोटे क़स्बे-शहर में रहकर भी रंगकर्म कर सकते है। मेरे ग्रुप के सभी सदस्य मुझे बहुत प्रेम करते है। उनके पास एक अलग तरह की तमीज़ और तहज़ीब है जो मुझे उनसे अलग नही होने देती। सिमित संसाधनों में काम करने का लुत्फ़ वह पिछले कई सालों से ले रहे है। उसमे मैं भी शामिल हूँ। मै सोचता हूँ जीवन में मुझे इससे ज्यादा कुछ चाहिए था भी नही। 

आपके थियेटर ग्रुप ष्पैराफिनष् का मूल उद्देश्य क्या है, इस ग्रुप का अब तक सफर कैसा रहा ?
मुख्य उदेश्य तो थियेटर का प्रचार-प्रसार करना ही है लेकिन हमारी कोशिश है कि हम दर्शकों को एक अनुभूति से होकर गुजारे जिस तरह क्लासिक संगीत, क्लासिक नृत्य की अनुभूति होती है। सबसे ज़ुदा। हमारी कोशिश रहती है-कहानी अपनी जगह रहती है पर हम एक आनंद अपने दर्शकों से साँझा करने की कोशिश करते है। स्वादिष्ट खाना हो जैसे। हमने बड़े प्यार से खाने के सामान ख़रीदे, बड़े मन से पकाया और बड़े मन से ही परोसा भी। एक रिश्ता कायम होने लगता है हमारे और दर्शकों के बीच। वह हमे अपने सुझाव भी देते है। इस तरह हमे लगता है कि अपने शहर को जीवंत बनाने का यह भी तरीका हो सकता है। 

आपने हिंदी के साथ -साथ राजस्थानी भाषा में नाटकों के मंचन का एक नया रास्ता चुना है। इसकी ज़रुरत क्यों महसूस की आपने और अब तक कितने सफल रहे है। 
अभी हम महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण के कृतित्व और व्यक्तित्व पर आधारित नाटक के निर्माण में लगे हुए है। इसमें राजस्थानी के अलावा अंग्रेजी, संस्कृत, डिंगल और हिंदी भाषा का भी समावेश है। इस तरह से काम करते हुए राजस्थान की भाषा और संस्कृति को बेहतर समझ पा रहे है। एक लगाव-सा हो जाता है काम के साथ और अपने -आप को बहुत समृद्ध भी पाते है, यही तो जीवन है। 

एक कामयाब थियेटर और आर्टिस्ट के लिए किस तरह के समर्पण और  जुनून की ज़रूरत होती है ?
सबसे पहले हमे यह तय करना पड़ेगा कि हम कामयाबी किसे माने क्योंकि आज के कलाकार और लेखक इसी कामयाबी चलते अपने उदेश्यों से भटक रहे है। वह सहज नही रह पाते। मेरा मानना है कि हमे दूसरी कला विधाओं में झांकना होगा। जैसे साहित्य, विजुअल आर्ट, संगीत, सिनेमा, कविता या फोटोग्राफी जिसमे समर्पण और जुनून हो वो अपने भीतर ही झांके, पहचाने , तराशे। मुझे लगता है कला संस्थान, ग्रांट, पुरस्कार, सम्मान भी कलाकार को अपनी राह से भटकाते है। क्योंकि जब उसने यह रास्ता चुना था उसके ज़हन में यह सब नहीं थे। वह एक पवित्र इंसान था जो कला के लिहाज़ से सीखता रहा और भटकता गया तो हमे इनसे बचना चाहिए। 

थियेटर के विकास और इसे चलायमान रखने के लिए सरकारी स्तर पर कई तरह मदद दी जाती है। क्या सरकारी मदद के बिना अब थियेटर संभव नही है ?
सरकार मदद करे यह कौन नही चाहेगा। मदद तो मिलनी ही चाहिए लेकिन मेरा इशारा उन कलाकारों की तरफ है जो मदद पर ही आश्रित है। देखा जा रहा है कि वह नाटक और फेस्टिवल इसलिए ही कर रहे है कि उनको ग्रांट मिल रही है। उनका कोई सार्थक मकसद नज़र नही आ रहा। कुछ तो पैसा मिल जाने की मज़बूरी में ही कर रहे है।ऐसी परिस्थिति एक कलाकार के लिए खतरनाक है और चिंता का विषय भी। मेरा मानना है कि जैसे ही हम अपना बायोडेटा बनाते है हम भ्रष्ट हो जाते है। मैं यह नही कहता कि यह मत बनाओं पर आप कितने कम से कम भ्रष्ट हो सकते है हमे सोचना होगा,वरना जो नैसर्गिकता है आप में और कला में, वह नष्ट हो जाएगी। 

प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर साहब के सानिध्य में आपको सीखने का मौका मिला, कैसा अनुभव रहा उन दिनों का?
मैं अपन -आप को भाग्यशाली मानता हूँ कि तनवीर साहब के सानिध्य  में सीखने का अवसर मिला। भले ही कम समय के लिए ही लेकिन जो मैंने इतने कम समय में सीखा वो एनएसडी में तीन सालों में नहीं सीख पाया। इस अनुभव को शब्दों में बयान करना मुश्किल है फिर भी उनसे मैंने यह सीखा कि कला की रचनात्मकता के लिए अपने घर में ही झांक कर देखना होगा। वो महान थे। 

आपकी धीरे-धीरे एक प्रयोगधर्मी रंगकर्मी के रूप में पहचान बन रही है। युवा रंगकर्मी, वो भी प्रयोगधर्मी। कभी कोई आशंका नही जागती मन में कि प्रयोग मन मुताबिक सफल नही रहा तो..?
प्रयोगधर्मिता तो मनुष्य के साथ ही जुडी हुई है, हम देखते आएं है कि कला को देखने ,सुनने के तरीके कई सालों से बदलते रहे है। जो सब में समान रूप से मौजूद है वह है हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ। प्रयोग सफ़ल या असफ़ल एक दर्शक उसके अनुभव से गुज़रता तो है ही। मैं फिर से कहने से जोड़कर देखता हूँ कि एक रसोइया है जो खाने के साथ निरंतर प्रयोग करता है। घर वालों और दोस्तों को चखाकर, खिलाकर उसका स्वाद जांचने परखने की कोशिश करता है। वह यह सब सच्चाई के साथ कर रहा होगा तो एक दिन अच्छा खाना बनाना सीख ही लेगा। उसके हाथ और दिमाग में तालमेल होगा पर ज़रूरी चीज़ है सच्चाई। 



राजेंद्र पांचाल,पेराफिन ग्रुप,गोपाल विहार एन्क्लेव,कोटा,राजस्थान,
मो-9509958257] perafinsociety@gmail.com]www.perafin.com
ओमनागर,कोटा ,राजस्थान ,09460677638]omnagaretv@gmail-com

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