सिनेमा:फिल्मी अदाकारों को पुनर्निर्माण का आव्हान करती कहानी ‘मोहन दास’/डॉ.विजय शिंदे

अपनी माटी             (ISSN 2322-0724 Apni Maati)              वर्ष-2, अंक-18,               अप्रैल-जून, 2015


1.  
चित्रांकन
संदीप कुमार मेघवाल
भारत युवकों का देश है। सबसे ज्यादा युवक भारत में हैं; अतः इनके बल पर भविष्य के भारत की कल्पना की जाती है। भारत के महाशक्ति बनने की कल्पना भी की जा रही है। भविष्य में भारत महाशक्ति बनेगा पर कितने सालों में इसका भरौसा नहीं। भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने 2020 का समय एक चर्चा के दौरान बताया था। लेकिन आज हम जिन स्थितियों में हैं वहां तो यह संभावनाएं नहीं दिख रही है कि भारत 2020 तक महाशक्ति का सरताज अपने सर पहने। इस लेख में भारतीय महासत्ता या विकास की गति का आकलन करना मेरा उद्देश्य नहीं है, मेरा उद्देश्य यह है कि भारत के पूर्ण विकास और शक्तिमान बनने के पूर्व और बनने के बाद क्या हमारे देश के युवक सुखी होंगे? समाधानी होंगे? सबके हाथों को काम मिलेगा? गरीबी दूर होगी? भ्रष्ट्राचार खत्म होगा? नौकरशाहों की दादागिरी खत्म होगी? देश की पुलिस समाजहित के लिए काम करेगी? भारतीय गांवों का दृश्य बदलेगा? शिक्षितों कि शिक्षा का उचित मूल्य होगा? शिक्षा व्यवस्था के ढांचे को बदला जाएगा? विद्यार्थियों पर शिक्षा के माध्यम से किए जाने वाले प्रयोग बंद होंगे? और एक स्थायी, ठोस शिक्षा व्यवस्था बनेगी?

अपने आस-पास को जब हम देखते हैं तब कई लोग चिंताओं में घिरे नजर आते हैं। सबकी चिंता हम पकड़ पाए या न पाए पता नहीं पर जो दिखता है वह भयानक है। एक वर्ग वह है जो कहीं न कहीं कोई नौकरी कर रहा है, महीने-दर-महीने उसके घर में पैसे आ रहे हैं। कोई उद्योग-व्यापार कर रहा है, छोटा-बढ़ा ही पर कर रहा है और उसके पास पैसे आ रहे हैं। अर्थात् जिनके पास किसी-न-किसी रूप में पैसे आ रहे हैं उनकी जिंदगी का गुजर-बसर हो रहा है। इन्हें शायद ही कोई शिकायत रहती है, अपने आस-पास की कमियों के लिए। अगर शिकायत रही भी तो वह उग्र-विद्रोहकारी नहीं होते, बस स्वर रहेगा शिकायत का। दूसरा वर्ग वह है जिन्हें रोज अपनी रोटी के लिए मेहनत करनी पड़ती है, पानी पीने के लिए रोज कुआं खोदना पड़ता है। अभावों से भरी जिंदगी, रोज की लड़ाई और संघर्ष के चलते दुनिया की ओर आस लगाए बैठे हैं, हाथ के लिए कुछ काम मिलेगा इसलिए। बेईमानी की रोटी ये खाना नहीं चाहते और अपने देश में इन्हें ईमानदारी से रोटी कोई खाने देता नहीं। क्या करें? किसी तरह जिंदगी घसिटती जा रही है। हजारों गालियां खाकर, अपमान सहकर, दयनीयता और पीड़ाओं का घुंट पीकर पेट के लिए, जिंदगी की ज्योत जलाए रखने के लिए सब सह रहे हैं। इनके भी परिवार हैं, बीवी-बच्चे हैं। कैसे रह रहे हैं? कैसे पढ़ रहे हैं? पढ़ने के बाद क्या करेंगे? क्या मिलेगा?

2.  हमारे देश में सामान्य और परंपरागत शिक्षा बहुत सस्ती हो गई है। जिस शिक्षा को पूरी करने के बाद जॉब की गॅरंटी हो ऐसी कर्मशिअल शिक्षा सस्ती नहीं है और सामान्य परिवारों के हाथ वहां तक पहुंचते भी नहीं है। सामान्य, गरीब और आम परिवारों के हाथ जहां पहुंचते हैं वह शिक्षा है परंपरागत ढांचे में बंधी हुई। दसवीं-बारहवीं तो आम बात बन गई है। बी.ए., बी.कॉम., बी.एस्सी. या इनके आगे जाकर पदव्युत्तर पढ़ाई करने वाले युवक जब पढ़ रहे होते हैं तब उनकी मानसिकता कौनसी होती है और पढ़ाई खत्म होने के बाद... उनका होता क्या है? पूरे भारतभर में कितने विश्वविद्यालय है? और इन विश्वविद्यालयों से पढ़ाई पूरी कर चुके युवक क्या कर रहे हैं? हर साल किताबी पढ़ाई पूरी करने के बाद बहुत बड़ी फौज बाजार में नौकरी की खोजबिन में निकल पड़ती है। ये युवक सामान्य परिवारों के होते हैं, गरीब घरों के होते हैं। जिनके आगे-पीछे कोई नहीं होता। अगर होता है तो केवल किताबी ज्ञान जिसका बेईमान दुनिया में कोई मूल्य नहीं होता। ठोकरें खाकर, अपमान सहकर, बाहरी दुनिया की वास्तविकताओं को देखकर, झुठ-फरेबों को देखकर, व्यापार-व्यावसायिक स्थितियों को देखकर, धांधलियां, अस्थिरता, विपदाएं और आफतों को देखकर यह पढ़ा-लिखा सामान्य परिवार का युवक, जिसकी बदौलत भारत महासत्ता बनने के सपने देख रहा है, वहीं भयभीत, डरा, आतंकित, निराश, उदासीन, पीड़ित, दुःखी है। पीछे मैंने उस वर्ग की बात की जिनके हाथों में काम है और जिनकी जेब में पैसे आ रहे हैं, उन्हें युवकों की इन स्थितियों से कुछ लेना-देना नहीं है। वे केवल कहेंगे कि ‘आपको कहीं-न-कहीं नौकरी मिलेगी हिम्मत हारियों मत अगर जरूरत पड़े तो हम आपके साथ खड़े हो जाएंगे।’ केवल कोरी साहानुभूति। इनके पास इन्हीं के कामों से फुर्सत नहीं, साथ कहां से देंगे। दूसरा वर्ग जो बहुत गरीब है, जिनकों रोज लड़ना पढ़ रहा है, वह इन पढ़े-लिखे युवकों को देखकर कह रहा है कि ‘हमारा क्या जिंदगी के दस पन्ने उलट गए पांच शेष है। जैसी आज-तक कटी वैसे कल भी कटेगी। एक-न-एक दिन मिट्टी तो होना ही है। भगवान ने जन्म दिया है भाई, जी रहे हैं पर आप अपना देखो आपकी पूरी जिंदगी पड़ी है। हम आपके लिए कुछ कर नहीं सकते और न ही आपका भार उठा सकते हैं। आप पढ़े हो तो माने कि हम जो काम करते हैं उसके लिए निक्कमे हो गए हो। कुछ काम अपने लिए ढुंढ़ों। नौकरी-वकरी करो।’

‘नौकरी-वकरी’ गाजर-मूली थोड़े ही है जो बाजार में बेची और खरीदी जाती हो? जो युवक पटल पर है, केंद्र में है वही आज भयभीत, पीड़ित और दुःखी है। भारतीय समाज का तीसरा बहुत बड़ा वर्ग बेकार युवकों (युवक और युवतियां भी) का है। जिनके परिवारजन इनको पढ़ते देख आस लगाए कहते हैं, ‘मेरे बच्चे दागतर बनेंगे..., कलक्तर बनेंगे..., इंजनर बनेंगे..., पोपिसर बनेंगे....’ इनको यह भी पता नहीं कि क्या पढ़ने से क्या बनता है और पढ़ाई खत्म करने के बाद कौनसे पापड़ बेलने पड़ते हैं। जो असल में बने हैं उन्हें जाकर पुछो कि आपने यह बनने के लिए कितना ‘इन्हेसमेंट’ किया है? किसके पास क्या-क्या पहुंचाया है? भारत में आज सरकारी नौकरियों की खुले आम मंड़ियां लग चुकी है, जौ पैसे, जाति, धर्म के आधार पर चलती है। इनमें सबसे बड़ी ताकत पैसों की है। क्लर्की से लेकर प्रोफसरी और प्रोफेसरी से लेकर कुलपति तक की नौकरियां लिफाफों में बंद होकर लाखों में बेची जा रही है। हां प्रायव्हेट सेक्टर के भीतर आपकी निपुणता, ज्ञान का सम्मान होता है; इसीलिए होता है कि उनको उनकी कंपनी मुनाफे में चलानी होती है। सरकार और सरकारी व्यवस्था अपनी होती नहीं और वह हमेशा घाटे में चलने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता यह धारणा बलवती बनी है। चलो आज अपने हाथों में हैं, लूट लो। अतः चारों ओर लूट मची है। खुले आम। इसे जो पहचानेगा, इस बाजारवादी नस को जो पकड़ेगा वही अपनी नाव को पार कर पाएगा, नहीं तो वह भी उदय प्रकाश का ‘मोहन दास’ होगा।

3. हाल ही में दो किताबें पढ़ी और मेरे आस-पास की दुनिया जो कभी-कभार गुंजा करती थी, आज जोर-जोर से चिल्लाने लगी, आक्रोश करने लगी। जिन परिस्थितियों से होकर मैं गुजर चुका सारा का सारा वास्तव एक ही झटके के साथ आंखों के सामने से गुजर चुका। बस फर्क इतना है कि मेरे पास बाजार की हवा पहचानने की चालाखी थी और ‘मोहन दास’ के पास वह नहीं थी। ऊपर जिन दो किताबों का जिक्र किया है उसे पहले लिखना जरूरी है। इन्हें ना केवल पढ़ा, देखा भी और महसूस भी किया। उदय प्रकाश की लंबी कहानी की किताब ‘मोहन दास’ और दूसरी असगर वजाहत का नाटक ‘गोड़से/गांधी.कॉम’ को पढ़ा भी और ‘मोहन दास’ को 2009 में बनी फिल्म के नाते  तथा असगर वजाहत जी के नाटक को प्रायोगिक नाटक के नाते देखा भी। एक में भारतीय समाज के युवा पीढ़ियों का दर्दभरा चित्रण और दूसरे में अद्भुत कल्पना के माध्यम से दो प्रवृत्तियों के बीच के वैचारिक संघर्ष का दर्शन। असगर वजाहत के नाटक पर आगे कभी लिखेंगे पर आज मेरी आत्मा को मथते जा रहा है दृ ‘मोहन दास’ जो गांधी जी के नाम का साधर्म रखता है। किताब के आरंभिक पृष्ठ पर उभरता एक वाक्य ष्काका, मुझे किसी तरह बचा लीजिए! मैं आपके हाथ जोड़ता हूं!... बाल-बच्चे है मेरे! उधर बाप मर रहा है टीबी से!... आप कहे तो मैं आपके साथ चलकर अदालत में हलफनामा देने के लिए तैयार हूं कि मैं मोहन दास नहीं हूं। मैं इस नाम के किसी आदमी को नहीं जानता! कोई और होगा मोहन दास! बस मुझे किसी तरह बचा लीजिए!ष् (पृ. 8) और किताब के अंतिम पन्ने पर लिखा गया वाक्य ष्मैं आप लोगों के हाथ जोड़ता हूं। मुझे किसी तरह से बचा लीजिए। मैं किसी भी अदालत में चलकर हलफनामा देने के लिए तैयार हूं कि मैं मोहन दास नहीं हूं। मेरे बाप का नाम काबा दास नहीं है। और वह मरा नहीं है, अभी जिंदा है। बहुत मारा है मुझे पुलिस ने बिसनाथ के कहने पर। सारी हड्डियां तोड़ डाली। सांस तक लेने पर छाती दुखती है।ष् (पृ. 85) भारत देश के सामान्य घरों में सड़ रहे सारे युवाओं की कहानी को बयान करती है। फिल्म के भीतर यह दृश्य आरंभ मे ऑफिस से शुरू होता है जहां मोहन दास चिल्ला-चिल्लाकर बोल रहा है। ष्हां गाढ़ दो, जिंदा गाढ़ दो! मगर मेरी पहचान नहीं मिटा सकते! मैं ही मोहन दास रहुंगा! एक नहीं पचास बार कहुंगा! मैं ही मोहन दास हूं!ष् और अंतिम दृश्य में जो हताश, पीड़ित और व्यवस्थाओं से पराजीत है वह कह रहा है, ष्आप शायद गलत जगह आई है! यहां कोई मोहन दास नहीं रहता!ष् की आवाज के साथ फटाक से बंध होता दरवाजा। क्या हमारा देश यहीं है, जिसमें सामान्यों, गरीबों, दलितों की कोई पहचान नहीं? यहां सवाल जाति-धर्म और वर्ग का तो उठता ही है उसके साथ युवकों का भी उठता है। हम पढ़े क्या और क्यों?

4. उदय प्रकाश ने कहानी में पात्रों के नाम और स्थानों का बड़ी चतुराई और जिम्मेदारी के साथ चमत्कार निर्माण किया है। लेकिन संपूर्ण कहानी में वे नाम और स्थान कोई मायने नहीं रखते अगर वे न होकर कोई दूसरे होते तो कहानी के सूत्र पर कोई भी असर नहीं पड़ता। यहां यह स्पष्ट करूं कि उदय प्रकाश की ‘मोहन दास’ इस कहानी को कहानी कहते और इस कहानी की किताब को किताब कहते मैं अपराधी महसूस कर रहा हूं।

पढ़ने वाले कहेंगे कि ‘भाई अपराध क्यों महसूस कर रहे हो?’

उदय प्रकाश जी 
‘अपराधी इसलिए महसूस कर रहा हूं कि यह किताब किताब नहीं, यह कहानी कहानी नहीं। समाज के भीतर की वास्तविकता है जिसे हम, आप और उदय प्रकाश रोज देखते हैं। हम और आप नजरंदाज करते हैं। उदय प्रकाश ने इसे लिख डाला। लिखने के बाद लंबी 87 पन्नों की कहानी बनी और कहानी किताब रूप में छपकर किताब बनी। पर मेरी आत्मा इसे स्वीकार नहीं कर पा रही कि मोहन दास की पीड़ा को कहानी मानकर पढ़े और छोड़ दे। किताब को पढ़कर टेबल पर रख दे। कहानी कहे तो पढ़कर आनंद उठाने की विधा है और किताब कहे तो पढ़कर रखने की विधा, वस्तु है। परंतु ‘मोहन दास’ एक ऐसी कहानी है जिसे पढ़कर मुझे आनंद नहीं मिला और मेरी आत्मा आनंद लेना नहीं चाहती और किताब कहकर उसे टेबल पर रखने का मन नहीं कर रहा है। इस कहानी को कहानी कहना और किताब को किताब कहना उदय प्रकाश के साथ भारत में मौजूद सारे मोहन दासों के जज्बातों, पीड़ाओं और दुःखों का अपमान होगा। हिंदी साहित्य में यह एक ऐसी किताब है जिसे किताब नहीं जीवित आत्मा माना जा सकता है, जो हमारे सामने जल रही है, तड़प रही है, छटपटा रही है। हिंदी साहित्य में यह एक ऐसी कहानी है, जो हमारे खुले हाथों में अंगारे छोड़ देती है। जिससे मोहन दास की तड़प, छटपटाहट हमारे भीतर उठती है। मेरा मन इसीलिए इसे कहानी और किताब मानने को तैयार नहीं है।’

उदय प्रकाश का यह लेखन साहित्य लेखन शैलियों को बदल सकता है। लिखने वालों के मुंह पर जबरदस्त तमाचा है कि ‘लिखो यह लिखो।’ इस कृति की गुंज साहित्य की दुनिया में हमेशा के लिए बनी रहेगी। हिंदी साहित्य की दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है इसका संकेत ‘मोहन दास’ से मिल जाता है।

5. जैसे किताब रूप में ‘मोहन दास’ का अस्तित्व वैसे ही फिल्म का भी है। 2009 में ‘मोहन दास’ पर फिल्म बनी और प्रदर्शित भी हो गई। बॉक्स ऑफिस पर वह छाप नहीं बना सकी जो छाप मनोरंजन की फिल्में बना लेती है। लेकिन यहां फिल्म के बारे में भी वहीं दोहराया जा सकता है, जो मैंने ‘मोहन दास’ किताब और कहानी के बारे में लिखा है। लेकिन इस समय मेरे दिमाग में इस फिल्म को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। पहले ही स्पष्ट लिखूं कि यह फिल्म मूल कहानी में कई परिवर्तनों के बावजूद जैसी की वैसी है। ‘मोहन दास’ की पीड़ा सार्थकता से व्यक्त करती है। जिन कलाकारों ने अभिनय किया और जिस टिम ने इसे बनाया वह काबिले तारिफ है। बिना सफलता की आशा किए लेखक की ईमानदार भावनाओं के साथ ईमानदारी निभाना सट्टा लगाने जैसा है, इसे अभिनेताओं ने, पूरा फिल्मांकन करने वाली टिम ने और फायनांसरों ने लगा दिया। यह फिल्म हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को हिंदी साहित्य की कृतियों पर फिल्में बनाने का आवाहन करती है। हॉलीहुड फिल्म इंडस्ट्री में एक के बाद एक धड़ाधड़ साहित्य की कृतियों पर फिल्में बनती है और हिट भी होती है। तो बॉलीवुड में हिंदी साहित्य की कृतियों को फिल्म का स्वरूप देने में भय क्यों? पहले जिन-जिन रचनाओं पर फिल्में बनी वह पिट चुकी कुछ अपवादों के साथ। कोई बात नहीं परंतु ऐसा तो नहीं कि पिट चुकने के भय से कृतियों को ही नकारे। बॉलिवुड के पास पैसा है, पॉवर है, इन्फ्रास्ट्रक्चर है, उत्कृष्ट अभिनेताओं और सपोर्टेड स्टाफ की फौज है... किसी को भी हीरा बनाने की क्षमता उनमें है। तो क्यों नहीं हिंदी साहित्य की कालजयी कृतियां बार-बार फिल्माई जाती? हिंदी फिल्म इंडस्ट्री यह भी सवाल उठाती है कि हिंदी के लेखक अपने लेखन में परिवर्तनों की इजाजत नहीं देते। पर अब वह युग गुजर चुका है। साहित्यकारों की मानसिकता बदल चुकी है। चेतन भगत जैसे अंग्रेजी में लिखने वाले युवा साहित्यकार ने इसके हिसाब से अपनी कृतियों को ढालने की इजाजत दी या गुलशन नंदा जी की बदौलत जिन हिट फिल्मों के मिल के पत्थर गाढ़े गए उसे और आगे बढ़ाने में क्या हर्ज है? यहां यह सवाल भी मेरे मन में उठता है कि बॉलिवुड और हिंदी साहित्य की दुनिया एक ही नाव पर सवांर होने से क्यों कतरा रही हैं? ‘मोहन दास’ को पढ़ने और देखने के बाद मेरे मन में यह सवाल भी उठा कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री के बिग स्टार अमिताभ बच्चन कहां है? सामाजिक दायित्वों से प्रेरित होकर ‘सत्यमेव जयते’ बनाने वाले अमीर खान कहां है? सफलता का सिक्का बने सलमान कहां है? जिन्हें किंग खान कहा जाता है, वह शाहरूख खान कहां है? स्टंट मॅन अक्षय कुमार कहां है?... सभी दिग्गजों को सवाल पुछा जा सकता है कि आप कहां है? इनके सामाजिक दायित्वों पर प्रश्नचिन्ह निर्माण करना मेरा उद्देश्य नहीं परंतु ‘मोहन दास’ जैसी कृति बॉलीवुड के दिग्गजों की पकड़ में क्यों नहीं आती? ‘धुम’, ‘दबंग’, ‘क्रिश’ जैसी फिल्में एक, दो, तीन बार बनेंगी, व्यावसायिक लाभ के लिए। कोई बात नहीं, परंतु सामाजिक दायित्व के साथ व्यावसायिक सफलता की असीम संभावनाएं रखने वाली ‘मोहन दास’ भी बार-बार बननी चाहिए। अमीर खान क्यों नहीं मोहन दास बन जाते? क्यों नहीं अक्षय कुमार बिसनाथ बन जाता है? भूमिका छोटी होगी परंतु फिल्म में ढालते वक्त उस पात्र को बढ़ाया और घटाया जा सकता है तो बिग बी अमिताभ काबा दास क्यों नहीं बन सकते? और जया बच्चन जी पुतली बाई क्यों नहीं बनती? सलमान, अक्षय और अन्य अभिनेताओं में वह दर्यादिली है कि वे इसमें से एकाध किरदार निभाए। ऐसा नहीं कि बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री के सारे लोग इसमें काम करे। परंतु जो व्यावसायिक जामा पहनाने के लिए जान लगा देते हैं, या जो ये मंशाएं रखते हैं, वे इस विषय को बड़ी सफलता के साथ समाज के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं। धर्मवीर भारती के उपन्यास शीर्षक से प्रेरणा लेकर ‘गुनाहों के देवता’ (1967) फिल्म बनी, भले ही उसका विषय एक जैसा नहीं हो। तो फिर ताकतवर रूप में कलाकारों के साथ ‘मोहन दास’ जैसी कृतियों को फिल्मांकित क्यों नहीं किए जा सकता? बॉलीवुड वालों के मन में कुछ भी आया तो वे बना सकते हैं। तो सवाल यह उठता है कि उनके मन में हिंदी साहित्य की ताकतवर कृतियां क्यों नहीं आती? प्रेमचंद, कमलेश्वर, राही मासूम रजा, मनोहर श्याम जोशी, गुलशन नंदा से लेकर गुलजार, जावेद अख्तर तक बड़े-बड़े लेखक पान थोड़े ही है, जो जब चाहे चबाए और जब चाहे थुंक दिए! इनमें से कुछ को थुंका और कुछ को गले से निचे उतार दिया यह तो बहुत बड़ी एहसान फरामोशी है भाई! 

ऊपर मेरी भाषा शायद कड़वी हो सकती है पर यहां बॉलीवुड पर तोहमत लगाने का कोई इरादा नहीं है और न हीं हिंदी साहित्यकारों का पक्ष ले रहा हूं। मुझे केवल इतना मालूम है कि ‘मोहन दास’जैसी कई कहानियां बॉलीवुड के लिए अच्छी स्क्रिप्ट है उसे नकारे नहीं स्वीकारें। बड़े अभिनेता डब फिल्मों में काम करने की अपेक्षा इमेज से बाहर आकर एक नजर इन रचनाओं को भी देखें। अनुपम खेर के एक शो में ओम पुरी और नसुरुद्दीन शाह ने एक बात कहीं थी ‘हमें जिंदगी में जो किरदार मिले उन्हें उन्हीं रूपों में निभाया। हमारे पास फिल्म इंडस्ट्री के अनुकूल कोई चेहरा नहीं था फिर भी हम किरदारों के चेहरों के साथ सफल बने। हम पर कोई भी चेहरा फिट होता है। इसीलिए हमारी नकल करना भी आसान नहीं है।’ सत्यजीत राय द्वारा बनी ‘सद्गति’ के दुखी चमार की भूमिका वाले ओम पुरी और ‘डर्टी पॉलिटिक्स’ वाले ओम पुरी कितने लंबे अंतरों वाला सफर है। कोई चेहरा नहीं, कोई इमेज नहीं। क्या ऐसा ही कोई प्रसिद्ध अभिनेता ‘मोहन दास’ बन सकता है?... इसीलिए मेरी भाषा ऊपर कड़वी और उपहासात्मक बनी है। बॉलीवुड अपनी व्यावसायिकता को न छोड़े परंतु साहित्य की उन कृतियों को एहमीयत दे जो व्यावसायिक कसौटियों पर खरी उतरती है। अर्थात् बॉलीवुड के दिग्गजों को इमेज से बाहर आकर काम करना पड़ेगा। हाल ही में हिंदी में आई बहुत अच्छी फिल्म‘रंगरसिया’(2014) मराठी के प्रसिद्ध लेखक रणजीत देसाई के ‘राजा रविवर्मा’उपन्यास पर आधारित है, उसे देखा। सारे मानदंड़ों को पार कर चरमसीमा तक सफल बनती फिल्म। इस उपन्यास को मैंने आकाशवाणी सांगली से सालों पहले क्रमशः सुना था, अब देखा। रंगों को भरने वाला वह कलाकार रंगों के माध्यम से कहानियां लिखता है; राजा कहलाता है। रवि वर्मा राजा बन अपने कमाई की पूंजी सिनेमा बनाने के लिए धोंडिराज गोविंद फाळके जी को देता है दृ हिदायत के साथ कि ‘इन पैसों को सोच समझकर इस्तेमाल करना।’ यहीं फाळके आगे चलकर हिंदी सिनेमा जगत् का दादासाहेब फाळके बनता है, राजा रविवर्मा की हिदायत और वाक्यों को याद रखकर। आज समय आ चुका है कि संपन्न हिंदी सिनेमा जगत् कलाकारों के प्रति उत्तरदायित्व निभाए, अपनी इमेज की पाबंदियों को तोड़कर। सिनेमा जगत् के कई कलाकार है जिनके घरों में साहित्यकार वास कर रहे हैं। अमिताभ जी हरिवंशराय जी की रचनाओं को कई बार दोहरा चुके हैं। अचला नागर जो अमृतलाल नागर की बेटी है, जिनके नाम ‘बागबान’ जैसी हिट फिल्म है३ क्या नहीं हो सकता अगर मन में हिंदी सिनेमा जगत् ठान ले तो!

6. ‘मोहन दास’ वह वास्तव है जिसने मेरे मन को मथ डाला। बहुत कुछ ऊलजलूल लिख डाला। किसी को अच्छा लगे बुरा लगे! मैंने तो लिख दिया। हिंदी सिनेमा जगत् के आसपास ‘मोहन दास’ जैसी हजारों कहानियां हैं, न केवल हिंदी में बल्कि बाकी भारतीय भाषाओं में हैं, बस आवश्यकता है आंखें खोल देखने की। मैंने पीछे लिखा है कर्मशिअल फिल्में तीन-तीन बार बनती है, तो इन कहानियों पर बार-बार फिल्में बनाकर सफलता और व्यावसायिकता को हासिल किया जा सकता है। पता नहीं यह आलेख हिंदी सिनेमा जगत् के दिग्गजों के पढ़ने में आएगा या नहीं आएगा? लेकिन मैं आशावादी हूं, यह उन तक किसी-न-किसी रूप में पहुंचे और अपने दिल-दिमाग पर चढ़े गलत नशे (पैसों के) को उतारकर फेंके और ‘इमेज’ को तोड़कर बाहर आए। मेरी कल्पना में यह भी आता है उदय प्रकाश जी कि अमीर खान कह रहे हैं ‘मैं मोहन दास बनुंगा’, अमिताभ जी ने विजयदान देथा कि ‘द्विविधा’ कहानी पर आधारित फिल्म ‘पहेली’ (2005) में गड़रिए की छोटी भूमिका निभाई है, तो वे भी कहते हैं कि ‘मैं काबा दास बनुंगा।’ खैर यह मेरी कल्पनाएं हैं। लेकिन यह भी सच है कि ‘मोहन दास’ को पढ़ते और देखते वक्त मेरी आंखों के सामने से फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े लोग गुजर रहे हैं और कह रहे हैं कि ‘मैं यह भूमिका अदा कर रहा हूं।’

अब मूल बात पर आ जाना चाहिए। अमीर खान या अमिताभ जी कहेंगे कि फिल्म के पिट जाने के बाद हमारा व्यावसायिक नुकसान होगा? लेकिन मैं यह कहुंगा कि व्यावसायिक नुकसान किसी भी अन्य फिल्म में भी हो सकता है। आपके लिए एक असफलता के बाद दूसरी सफलता लिखी है। अर्थात् आपके नफे-नुकसान से पहचान तो मिटेगी नहीं! लेकिन मोहन दास जैसे कई युवक है कि जिनकी पहचान को मिटाने का षड़यंत्र किया जाता है, कम-से-कम उनकी वास्तविकताओं को समाज सम्मुख रखा जाएगा। जाति, धर्म, गरीबी, पिछड़ापन, पैसा, भ्रष्ट्रता... के माध्यम से हमारे शिक्षित युवक को मिटाया जा रहा है, उसकी संपूर्ण पहचान भारतीय पटल से गायब की जा रही है, उनका यह दुःख, पीड़ा, दर्द कहां? और एक फिल्म की पिटाई का दर्द कहां? पिटाई बनने के बाद की, बनने से पूर्व, पुनर्निर्माण से पूर्व उसका भय क्यों? जिन वास्तविकताओं में ताकत है भला वह पिटे भी क्यों? एक पिट से हमारा अस्तित्व मिटने वाला नहीं है। तो भय किस बात का? एक तरफ रोजी-रोटी के लिए तरसता मोहन दास और दूसरी तरफ हमारी सारी चिंताएं मिट चुकी है, ऐसी सिनेमा जगत् की हस्तियां। कोई तुलना नहीं, कोई बराबरी नहीं। ‘मोहन दास’ वह कहानी है जो हिंदी सिनेमा जगत् और हिंदी साहित्य जगत् को क्लासिक और कर्मशिअलता के नाते जोड़ सकती है। अर्थात् फिल्मांकन के नाते फिल्मी अदाकरों को ‘मोहन दास’ कहानी पुनर्निर्माण का आवाहन करती है।

7. कहानी रूपी किताब और फिल्म के नाते सामाजिक यथार्थ का दर्दनाक चेहरा भी सामने आता है, जहां सत्ता-संपत्ति का घमंड़ अपनी सारी सीमाओं को लांघ चुका है। प्रतिभावान, ईमानदार और काबिल युवक को चींटी की भांति मसल दिया जाता है। विश्व की महासत्ता का सपना देखने वाले भारत देश के लिए कहीं से भी यह दृश्य हितावह नहीं है। इस कहानी और फिल्म के माध्यम से जैसे हिंदी सिनेमा जगत् कोई सूत्र पकड़ लें वैसे देश का सत्ता तंत्र भी कोई सूत्र पकड़ लें। हम कहां जा रहे हैं? हमारे खून में वह कौनसी मस्तियां, गर्मियां है कि काबिल युवकों का खात्मा करते जा रहे हैं? निजी क्षेत्र में काबिलों का सम्मान है पर सामान्य परिवार वाले इस काबिलीयत तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। वह काबिल पढ़ाई पाने के लिए उनके पास पैसा नहीं। अतः सस्ते में, स्कॉलरशिपों के साथ मिल रही सस्ती शिक्षा ये युवक ले रहे हैं, जिसका व्यावसायिक, बाजारवादी दुनिया में कोई मूल्य नहीं है। सरकारी नौकरियों में पैसों का लेन-देन खुलेआम होता है और पढ़ाई के बाद देने के लिए इनके पास पैसा नहीं है। खरीद-फरोख, जोड़-तोड़ कर जो बैठ सकता है वह बैठ जाता है और अपनी पीड़ा से मुक्ति पाता है। पर मैं देख रहा हूं कि विश्वविद्यालयों से झुंड़ के झुंड़ एम्.ए., एम्.फिल., पीएच्.डी., नेट जैसी कई परीक्षाओं को पास कर या अन्य सस्ती परंपरागत शिक्षा को स्कॉलरशिपों के साथ प्राप्त कर उपाधियों के साथ ठोकरे खा रहे हैं; इन सबका मोहन दास हो चुका है। उमर के तीस-पैंतीस-चालिस... साल गुजर चुके हैं और हम इटरव्यूह देते जा रहे हैं दृ सरकारी जॉब के लिए।

शिक्षा का चक्रव्यूह तो तोड़ दिया पर नौकरियों के चक्रव्यूह को न तोड़ पाने के कारण अभिमन्यु बन जीवन के कुरुक्षेत्र में चारों ओर से घिरे जान दे रहे हैं। बड़ी मिठी जबान के भीतर ‘स्थापित लोग’ आदर्शवादी स्वर में कहते हैं कि ‘भाई व्यवसाय करो, धंधा करो।’ उन्हें पूछना चाहते हैं कि ‘जिंदगी के चालिस साल पराजय, हार, अपमान की थपेड़े खाने के बाद हर युवक धंधा खोलने का जज्बा कहां से पाए? सलाह देना आसान है। जिसकी जलती है, उसे ही उसके दर्द का एहसास होता है।’

8. सरकार सरकारी शिक्षाओं से काबिल युवकों को ईमानदारी से सरकारी नौकरियां नहीं दे सकती है तो बंद करे सरकारी शिक्षा और सरकारी नौकरियां का यह पाखंड़। हजारों बिसनाथ कुर्सियों से लिपट चुके हैं और काबिल युवकों को नकारकर बिसनाथों की भर्ती किए जा रहे हैं। यह मैं देख रहा हूं, आप देख रहे हैं, कानून देख रहा है, सरकारें देख रही हैं; तो उचित कदम उठाने में घबराहट क्यों? ‘मोहन दास’ कहानी के भीतर गजानन माधव मुक्तिबोध जज बन अपनी पॉवर का इस्तेमाल करते हैं, तो देशी सरकारें और कानूनी व्यवस्था के पास मौजूद सारी ताकतें (पॉवरें) क्यों सड़ती जा रही हैं? किसी को भी लगता नहीं है कि इन दुर्व्यवस्थाओं को उलट देना चाहिए। मुझे लगता है, आपको लगता है; लेकिन सवाल यह उठता है हमारे लगने से क्या होगा दृ ‘बाबाजी का ठुल्लु।’ लगना उन मठाधिशों, सत्ताधिशों, राष्ट्राधिशों, राजनीतिधिशों, न्यायाधिशों... को चाहिए जिनके हाथों में हमने लोकतंत्र और अधिकारों की बागडौर दी है। सबको पता है रस्ते पर खड़ी पुलिस 50, 100, 500,... रुपए लेती है और कार्यालयों में बैठे बाबू के आंकड़े भी ऐसे ही होते हैं। संस्थाओं में बैठे संस्था चालकों के आंकड़े लाखों में। ‘न्याय पैसों पर खरीदा जाता है’ कहे तो... तो अंधी न्याय व्यवस्था की तौहिन होगी। मन में आता है कि तौहिन की ऐसी की तैसी, सब सड़ चुका है और दुर्गंध आ रही है। आज जो पुलिस आतंकवादियों से मुठभेड़ करती हैं, उन्हें पकड़ती है, वहीं साल-डेढ़ साल के भीतर पांच-पांच लाख की घुस लेते पकड़ी जाती है (औरंगाबाद महाराष्ट्र की एक घटना का संदर्भ है, जिसमें डेढ़ साल पहले एक पुलिस अधिकारी ने दो आतंकवादियों को पकड़ने में अहं भूमिका निभाई, वह आज पांच लाख लेते पकड़ा गया)। कहां की ईमानदारी? ऊपर से जो आदर्श दिखते हैं और दिखाए जाते हैं, वे वे होते नहीं। किसी को भी पूछे ‘आपको पुलिस पर भरौसा है?’,  श्आपको सरकारी डॉक्टर पर भरौसा है?’ श्आपको न्याय व्यवस्था पर भरौसा है?’, ‘आपको राजनेताओं पर भरौसा है?’, ‘आपको सरकारी तंत्र पर भरौसा है?’, ‘आपको सरकारी तंत्र में क्लास फोर से लेकर क्लास वन तक की कुर्सियों पर चिपके सरकारी बाबुओं पर भरौसा है?’,... तो एक ही उत्तर आएगा दृ ‘नहीं।’

डॉ. विजय शिंदे,
सहायक प्राध्यापक,
देवगिरी महाविद्यालय, 
औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र)
 08275354589 
drvtshinde@gmail.com
निष्कर्ष यह निकलता है कि हमारे देश की आत्मा भरौसा खोकर जिंदा है, इसका भरौसा ही नहीं होता है! देश का हर मोहन दास भरौसा खोकर चुप-मौन होकर आक्रोश कर रहा है, तड़प रहा है। जल्दि कुछ उपाय न हो पाए तो आज कल मीडिया में दिखाई दे रही किसानों की आत्महत्याओं की खबरें युवकों की बनने में देर न लगेगी। कृषि प्रधान देश में किसान की आत्महत्या होना विड़ंबना है और सबसे जवान देश, युवकों से भरे देश में युवकों की आत्महत्या भी विड़ंबना है। इन्हीं हत्याओं के बाद हमारा देश महासत्ता की सीढ़ियों पर चढ़ता है तो चढ़े! पर वह देश मेरा, आपका, हमारा नहीं रहेगा!

समीक्षा ग्रंथ 
मोहन दास (कहानी) उदय प्रकाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 
प्रथम संस्करण-2006, आवृत्ति 2013,पृष्ठ - 96, मूल्य  200 रु.
समीक्षा फिल्म 
मोहन दास (फिल्म - 2009), निर्देशक मजहर कामरान, स्क्रीन प्ले उदय प्रकाश, 
प्रमुख कलाकार  सोनाली कुलकर्णी, शरबानी मुखर्जी, नकुल वैद्य, सुशांत सिंग, गोविंद नामदेव, आदित्य श्रीवास्तव, अखिलेंद्र मिश्रा, उत्तम हलदरे, संगीत विवेक प्रियदर्शन, गीत वी.के. सोनकिया व यश मालवीय, सिनेमाटोग्राफी अजहर कामरान, निर्माण अभा सोनकिया आदि।

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