अपनी माटी(ISSN 2322-0724 Apni Maati) वर्ष-2, अंक-19,दलित-आदिवासी विशेषांक (सित.-नव. 2015)
जंगल के दावेदार:आदिवासी संघर्ष
माजिद मिया
चित्रांकन-मुकेश बिजोले(मो-09826635625) |
इतिहास साक्षी है कि जब भी किसी देश, जाति या धर्म पर बाहरी
आक्रमण हुआ, उसके विरोध में कोई न कोई व्यक्ति मसीहा के रूप में आगे आया और अपने ऊपर होने
वाले दमन एवं शोषण के विरुद्ध जन आंदोलन का नेतृत्व किया। हमारे सभ्य और शिक्षित
समाज का इतिहास तो सहजता से सुलभ है।
परंतु हमारे इस सभ्य समाज के समानान्तर एक और समाज साँसे ले रहा है, जो आदि कल से ही हमसे
संपूर्णतया अपरिचित रहा है, तिरस्कृत रहा है, जो अपने अस्तित्व रक्षा के लिए लंबे अर्से से जीवन
संघर्ष करता आ रहा है। जिनका पड़ोसी होने के बावजूद भी हमने उसे सहारा देने के बजाय
सदा उनसे मुह फेरा है। उनका भी अपना एक गौरवमय इतिहास है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ मेरे
आदिवासी, वनवासी
जनजाति के भाई-बहनों की, जिनके दुख दर्द, पीड़ा वंचना को हारने हेतु मानो स्वयं ईश्वर इस धरती
पर महज पांच फुट चार इंच के मानव शरीर के साथ, सिने में हिमालय सा अदम्य साहस
एवं दृढ़ता लिए अवतरित हुए और इसी अवतार का नाम था, वीर विरसा मुंडा।
भारतीय भूखण्ड प्रागैतिहासिक काल से ही कोल, भील, मुंडा, सावताल आदि जंजातियों का
निवासस्थान रहा है। एक समय ऐसा था जब पुरा छोटानागपुर क्षेत्र घने वनों से
आच्छादित था। सर्वप्रथम कोल जाति के लोगों ने इन वनों को साफ किया और यहाँ अपना
गाँव बसाया। कोल जाति कई गोत्रों में बंटी हुई थी। इनहि में से एक गोत्र था ‘मुंडा’ वास्तव में कोल जाति का
जो गोत्र गाँव बसाता था, उसके बाद आनेवाले
कोलूसके अधीन हो जाते थे और इस तरह से पहला गोत्र मुंडा अर्थात शीर्ष स्थानीय की
पदवी से सम्मानित होता था। मुंडाओं द्वारा बसाये गए गाँव ‘खुटकट्टी’ के लोग पूरे जमीन से आय कराते थे
वे खुद ही उस जमीन के मालिक थे और इन्हे किसी प्रकार का लगान नहीं देना पड़ता था।
परंतु कालांतर में इन आदिवासी जनजातियों के सुखी जीवन पर ग्रहण लग गया। उनके जमीन
पर लालची मनुष्यों ने आक्रमण कर लिया। इन आदिवासियों की खेती बारी और ग्रामीण
व्यवस्था बिखरनेलगी। जंगलों को काट-काट आदिवासियों ने जिन खुटकट्टी गाओं की स्थापना
की थी। अब वह उनका नहीं रहा।
सुप्रसिद्ध
बंगला उपन्यासकार महाश्वेता देवी के अनुसार, छोटा नागपूर के राजा ने अपने निकट
स्वजनों को जमीन एवं गाँवो को देकर जब जागीरदार बना दिया, तब मुंडा लोग दक्षिण खुटकट्टी
एवं पश्चिम तमाण्ड के पर्वतीय जंगली क्षेत्रों की तरफ चले गए। 1831-32 में कोल विद्रोह के बाद
इन सब जगहों पर भी जमींदार और जागीरदार चले आए। ये लोग राजा और आदालतों के समक्ष
दाखल का कागज या पट्टे के कागजात दिखाकर मुंडाओं की जमीन पर दखल करने लगे। 1863 तक अंग्रेज़ सरकार ने
जमींदारों को पुलिसिया कारवाही करने की छुट दे रखी थी। जिसके चलते मुंडा अपनी
स्वाधीनता खो बैठे। उनकी ग्राम एवं समाज व्यवस्था दूत गई जमीन के ऊपर उनका दखल
खत्म हो गया। जमींदार उनके पास से खजाने के रूप में फसल लेते ही, ज़ोर जबर्दस्ती बिना मजदूरी के बेगारी भी करवाते थे। ये सभी
बाहरी अत्याचारी लोग ही मुंडा, सावताल एवं उराओं जातियों के समक्ष ‘दिकु’ के नाम से परिचित हो उठे।
गाँव-गाँव में बेगारी चलती थी। साल भर में बिना मजदूरी के मालिकों के खेतों में
काम करना पड़ता था। यही बैठबेगारी थी। उन्नीसवीं सदी के शुरू के दिनों में जब
छोड़ानागपुर में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आया तब 12500 वर्ग मील इलाके में एक अंग्रेज़
शासक था। हिन्दू और मुस्लिम कर्मचारियों को तो आदिवासियों पर तनिक ही दया माया
नहीं आती थी। इस लिए शोषण एवं अत्याचार बढ़ गए। साहब लोगों की आंखो में आदिवासी ‘चोर-चुहाड़ा एवं डकैत’
थे।
अंग्रेज़ के न्याय-व्यवस्था से आदिवासियों का और
ज्यादा नुकसान हुआ। अदालती भाषा दिँदै एवं उर्दू थी, इसे वे एकदम नहीं जानते थे और ना
ही समझते थे। उन्हे ठगने के लिए वकील तो थे ही। फलस्वरूप आदिवासियों के मन में
दिकु ब्रिटिश शासन और सभी के प्रति अविश्वास की भावना ने जन्म ले लिया। सुविधा
देकर असम के चाय बगानों में काम करवाने के लिए दलाल लोग भी वहाँ आ पहुंचे। दल के
दल हतभाग्य आदिवासी घर-द्वार छोड़कर जाने लगे। 1864-67 के बीच कुल मिलकर 6590 आदिवासी इसी तरह चले
गए। आदिवासी चावल से हँडिया बनाके पीते थे, उससे उनका उतना नुकसान नहीं होता
था। लेकिन तभी ब्रिटिश शासन ने आबकारी लाइसेन्स देकर पाँच-दस मिल की दूरी पर शराब
की दुकाने खोल दी। हँडिया आदिवासियों का पेय था, जो पूजा जैसे धार्मिक कार्यों
में लगाया था। किन्तु तब उनके बीच शराब का नशा नहीं पहुंचा था। ब्रिटिश सरकार ने
उन्हे नशेड़ी बना डाला इसी बीच हिन्दू राजा एवं जमींदारों के बदौलत असंख्य
साधु-सन्यासी आदिवासियों के बिच पहुँच गए। उन्होने मुंडाओं के टूट चुके
धर्म-विश्वास में विभिन्न तरह से प्रभाव विस्तार
किया इसी बीच 1844 में विभिन्न मिशनरी दल भी उनके समाज में आ पहुंचे। वे जैसे
स्कूल चलाते, लोगों की सेवा कराते वैसे ही आदिवासियों को ईसाई बनाने लगे। इस तरह मुंडाओं की
धर्म संस्कृति सभी विपन्न होने लगी। सभी तरफ प्रलय के आने से पहले का घोर अंधकार
दिखाई पड़ने लगा था। जितने भी कारण यहाँ बताए गए हैं बिरसा के विद्रोह के पीछे ये
सभी थे।
सरकारी नीतियों के कारण जंगल के वास्तविक अधिकारी
अपने जमीन से हाथ धो बैठे। अब उन्हे अपनी ही जमीन के लिए लगान देना पड़ रहा था और
इस लगान का भार वहाँ न करने के कारण उन्हे कर्ज लेना पड़ रहा था और कर्ज न चुका
पाने की वजह से वे अपने ही जमीन से बेदखल होते गए और जंगल के या आदिवासी, वनवासी मालिक दमन एवं
शोषण का शिकार हो गरीबी के गहरे कुएं में पहुँच गए। इतना ही नहीं उनकी संस्कृति
एवं धर्म पर भी प्रहार हुआ। ईसाई मिशनरी मुंडाओं को ईसाई बना रहे थे, फिर भी वे मुंडाओं और
उनकी संस्कृति को तुच्छ दृष्टि से देखते थे। इस प्रकार मुंडाओं के समक्ष अस्तित्व
का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। अपने अस्तित्व को संकट में देखकर यह लांक्षित, तिरस्कृत जनजाति विचार
करने लगी कि अपने हक की रक्षा के लिए कहाँ जाएँ? उन्हे सहारे की जरूरत थी,
परंतु कहीं से भी
उन्हे सहारा न हुआ और थक हार कर उन्हे किसी अपने आदमी की आवश्यकता जान पड़ी।
इसी संकट की घड़ी में उनका अपना आदमी बना बिरसा मुंडा। जी हाँ, बिरसा मुंडा, मुंडा और आदिवसीयों का
आबा यानि भगवान। जिसके हुंकार ने टूट चुके आदिवासियों में एक नया जोश, चेतना एवं प्राणशक्ति
फूँक दी। उन्नीसवीं सदी के अंत में हुए विद्रोह ‘उलगुलान’ का नेतृत्व बिरसा ने ही किया था।
बिरसा मुंडा के जीवन संघर्ष का प्रभाव महाश्वेता
देवी के ऊपर इस कदर पड़ा कि उन्होने ‘जंगल के दावेदार’ नमक उपन्यास ही लिख डाला। यह
बंगला उपन्यास ‘अरण्यर अधिकार’ का अनुवाद है। इस उपन्यास द्वारा उपन्यासकार ने लोगों के हृदय में अन्याय,
दमन एवं शोषण के
खिलाफ अग्निरूपी चेतना को प्रज्वलित करने की चेष्टा की है। महाश्वेता देवी ने इस
उपन्यास में 1817 और 1899-1900 ई॰ हुए इस विद्रोह की प्रासांगिकता, प्रस्तुति, गुण, दोषों की आलोचना की है। भले ही मुंडाओं की यह जनक्रांति
विफल हो गई, परंतु इसका मूल्य हमेशा-हमेशा के लिए बना रहेगा। ‘जंगल के दावेदार’ महज एक साहित्यिक आख्यान
नहीं बल्कि ऐतिहासिक मूल्य की दृष्टि से भी इसका अपना ही एक अलग महत्त्व है ।
उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और
उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस
करा देंगे। लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस
आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बल्कि ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई
जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से
निकाल दिया गया। फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए। 1886 से 1890 तक बिरसा का चाईबासा
मिशन के साथ रहना उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था। यही वह दौर था जिसने बिरसा
मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी। बिरसा मुंडा पर संथाल
विद्रोह, चुआर
आंदोलन, कोल
विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता
को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने मन ही मन यह
संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा
करेंगे।
महाश्वेता देवी से पूर्व की कथा साहित्य ‘दिवालिया युग’ के नाम से जाना जाता है।
इसका कारण यह था कि उस समय का उपन्यास सिर्फ मनोरंजन और आदर्शवाद की कल्पना करके
लिखा गया है। किन्तु बिरसा मुंडा के जीवन चरित्र ने बंगला और साथ ही साथ हिन्दी
साहित्य की दिशा ही बादल दी, उसे एक नई दिशा दी। ‘जंगल के दावेदार’ उपन्यास की रचना उस समय
हुई, जब
उपरे देश में आपातकाल की स्थिति बनी हुई थी और इस उपन्यास में तत्कालीन राष्ट्रीय एवं सामाजिक परिस्थितियाँ स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हुई है। ‘जंगल के दावेदार’
में महहाश्वेता
देसी ने बिरसा को नायक चुना है, जो दमन एवं शोषण के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक है। उसमें
नेतृत्व प्रदान करने की अपूर्व क्षमता है। वह आत्मविश्वास से भरा हुआ है। दुश्मनों
से लोहा लेने हेतु उसमें अदम्य साहस और सामर्थ्य है। अपनी ज़िम्मेदारी एवं कर्तव्य
का उसे भली भाँति ज्ञान है और वह अपने को मुंडा जाति का ‘भगवान’ या ‘आबा’ घोषित करता है।
बिरसा मुंडा के जीवन संघर्ष ने साहित्य को विशेषकर बंगला
साहित्य को इतना प्रभावित किया कि परवर्ती समय के साहित्य में सिर्फ काल्पनिक जगत
की कहानियाँ नहीं बल्कि वर्तमान भारत का जीता जागता विश्लेषणात्मक चित्रण है।
महाश्वेता देवी अपनी आत्मकथा में लिखती है कि सत्तर के दशक में साहित्यकारों एवं
बंगाल के बुद्धिजीवियों के मानसिक नपुंसकता और अंधकार के क्षय का सबसे भयानक
चेहरा हम देख सकते हैं। जहाँ देश और मनुष्य रक्ताक्त अभिज्ञता में जूझ रहे थे,
वहीं बंगला
साहित्य एक बड़े गंभीर दुख दर्द को छोड़कर परी देश के अलौकिक स्वप्न बाग में मिथ्या
फूल खिलाने का ‘व्यर्थ’ आत्मघाती खेल में व्यस्त रहा गया था। बिरसा मुंडा का जन्म 1875 में लिहातु, जो रांची में पड़ता है,
में हुआ था। यह
कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है। साल्गा
गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आए।
सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ
बचपन से ही विद्रोह था। बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था,
जब वह अपने स्कूल
में पढ़ते थे तब मुण्डाओं/मुंडा सरदारों की छिनी गई भूमि पर उन्हें दु:ख था या कह
सकते हैं कि बिरसा मुण्डा आदिवासियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे
वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ आदिवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत
करते थे।
1960-70 के मध्य पश्चिम बंगाल में
खाद्यभाव से जन्मे आक्रोश ने राजनैतिक आंदोलन का रूप ले लिया। इंदिरा गांधी ने
पूरे देशवासियों को खाद्यपूर्ति का आश्वासन दिया था परंतु बंगाल के निवासियों की
खाद्यपूर्ति नहीं हो पायी। परवर्ती समय में इस विरोध ने विकृत रूप धारण कर लिया।
वामपंथी दल में फुट पड़ गयी। एक दल ने अपने को नक्सल पंथी के रूप में घोषित किया।
यही से नक्सलवादी आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा। 1969 में पश्चिम बंगाल में भयंकर गृह युद्ध हुए और
ताकतवर शासक वर्ग क्रूरता पूर्वक इस नक्सल पन्थ को दबा रहा था, इससे जनता में भय की लहर दौड़
पड़ी। बंगाल की यह भूमि इस दमन नीति के दौरान रक्त से लाल हो उठी थी, किसी तरह 1972 में यहाँ कब्रस्तानी
शांति कायम हुई। 25 जून 1975 को आधी रात में देश में आपात काल की घोषणा की गई। इस बुरे वक्त में लेखकों को
दो दलों में विभक्त होते देखा गया। एक दल वह था जो अपनी कायरता को छुपाने के लिए
रेत के ढेर में अपना माथा घुसाकर किसी तरह इस संकट की घड़ी के बीत जाने की प्रतीक्षा
कर रहा था तो दूसरा दल, जिस में महाश्वेता देवी भी थी, आगे बढ़ जीवन की पीड़ा तिरस्कार,
दुख दर्द को
वास्तविक रूप देने का प्रयास करने लगा। स्वाधीनता को बचाने के क्रम में यह दल
स्वयं के लिए जा रहा था – तिरस्कृत, लांक्षित मानवता के पास। सत्या की खोज इन्हे पहुंचा रहा था।
भारतीय जनजीवन की अस्थि -मज्जा से ढँके हृदय के पास। इसी क्रम में साहित्य में
जिसमें नक्सलियों आदिवासियों के दर्द की टीस थी और साथ ही साथ इसमें सामंतवाद के
मृत्यु की प्रवाल कामना।
‘जंगल के दावेदार’ से पहले भी जनजातीय जीवन को
केंद्र कर दो उपन्यास उल्लेख के योग्य है। पहला है – संजीव चन्द्र चट्टोपाध्याय
द्वारा रचित ‘प्लामौ’ जो प्लामोन अंचल के कॉल जाति का रोजनामचा है और दूसरा है – विभूतिभूषण बंदोपाध्याय
द्वारा रचित ‘आरण्यक’ जिसमें मुंडों एवं सावताल आदि जतियों के दयनीय जीवन के प्रति तड़पती मानवीय
संवेदना का सजीव चित्र है। संजीवचन्द्र का यह उपन्यास्स जनजाति समाज के मनुष्यों
के गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
साहित्य की दुनियाँ में यह प्रथम बार ‘कुलीन वर्ग के चिंतन में कुली वर्ग का प्रवेश’
देखने को मलता है।
संजीवचन्द्र लिखते हैं – “कोलोन का सबसे महत्वपूर्ण उत्सव विवाह है। इस उपलक्ष में वे
बहुत खर्च करते हैं। उनके पास एक संचय नहीं है, कोई आमदनी का जरिया नहीं है,
इसलिए खर्च
निर्वाह करने के लिए वे कर्ज लेते हैं। दो चार गांवों के बीच एक हिन्दू महाजन रहते
हैं, वे ही
कर्ज देते हैं....। उनके निकट एकबार कर्ज लेने पर उनका और उद्धार नहीं होता था।
जिसने एक बार सिर्फ पाँच रुपया ऋण ले लिया, वह उस दिन के बाद अपने घर में और
कुछ लेकर नहीं जा सकता है, जो उपार्जन करेगा, उस पर महाजन का हक बन जाता है। ऋणी व्यक्ति तो
महाजनों के समक्ष ‘जो आज्ञा’ के सिवाय और कुछ कह नहीं सकता। सभी के ऊपर उसका बच्चों जैसा भोला विश्वास है।
महाजन अन्याय करेगा, यह उसकी बुद्धि में नहीं आया। इसलिए महाजन के जाल में फंस गया। इसके बाद
परिवार आहार नहीं पाता, फिर महाजन के पास खुराक के लिए कर्ज लेना आवश्यक हो गया,
जिसके फलस्वरूप
ऋणी कृषक जन्मों तक के लिए महाजन के हाथों विकृत हो गया। अब वह जो भी उपार्जन
करेगा, वह
सब महाजन का है। इसी कारण कुछ लोग ‘सामकनामा’ लिख महाजनों का पूरा गुलाम हो जाते। कृषक बिना वेतन उनका
सारा कार्य करता गठरी ढोता। उसका अपने संसार से कोई सम्बंध नहीं रहता। अन्नाभाव की
कमी के चलते उनका संसार भी बहुत जल्दी लुप्त हो जाता है। उनके पास सिर्फ एक उपाय
है – पलायन।
भाग कर ही बहुत सारे कोल बच पाये।
आरण्यक भी वर्णनात्मक उपन्यास है। मानवीय पीड़ा,
दर्द संवेदना के
प्रति सहानुभूति के लिए विभूतिभूषण ने इसे कहानी का रूप दिया है। आदिवासी, वनवासी लोग एक-एक अभावों
को चुन-चुन कर उपन्यासकार ने परिलच्छित किया है। जमींदारों द्वारा किए गए दमन-शोषण
तथा प्रकृति एवं वनवासी जनजातियों के मधुर, शत्रुताहीन सम्बन्धों को
विभूतिभूषण ने दादी जीवनतता के साथ प्रस्तुत किया है। उपन्यासकार विभूतिभूषण के
विश्वासानुसार आदिवासी, वनवासी मानव ही भारत उपमहाद्वीप के आदि वासिन्दे हैं।
हिन्दुस्तान की धरती पर समय-समय पर महान और साहसी लोगों ने जन्म लिया है। भारतभूमि
पर ऐसे कई क्रांतिकारियों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने बल पर अंग्रेजी हुकूमत
के दांत खट्टे कर दिए थे। ऐसे ही एक वीर थे बिरसा मुंडा बिहार और झारखण्ड की धरती
पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा अगर दिया जाता है तो उसके पीछे एक बहुत बड़ी वजह
भी है। मात्र 25 साल की उम्र में उन्होंने लोगों को एकत्रित कर एक ऐसे आंदोलन का संचालन किया
जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया। आदिवासी समाज में एकता लाकर
उन्होंने देश में धर्मांतरण को रोका और दमन के खिलाफ आवाज उठाई।
आदिवासी जंजातियों के ‘जीवन के प्रति बेचैन मानवीय
वेदना का चित्रण परम्परा’ को आगे बढ़ते हुए महाश्वेता देवी ने बिरसा की देन कही है।
उनका उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ बिरसा मुंडा के जीवन-संघर्ष की कहानी है। बिरसा ने संघर्ष किया था सामंतवाद के
विरुद्ध, साम्राज्यवाद
के विरुद्ध, अत्यधिक शोषित, लांक्षित गरीब मुंडाओं के समक्ष बिरसा ने आजादी के सपने को ला खड़ा कर दिया था।
बिरसा ने इसके लिए अपनी कुर्बानी दे दी, उसे मात्र 26 साल की उम्र में मारना पड़ा था, परन्तु उनकी यह लड़ाई कभी
रुकी नहीं। ‘जंगल के दावेदार’ उपन्यास का प्रारम्भ 9 जून 1900 की सुबह मुंडा विद्रोह के मुखिया बिरसा के मौत से होती है।
वैसे तो उसके मौत का कारण ‘हैजा’ बताया जाता है लेकिन लेखिका इस भ्रांति का विश्लेषण कर
स्पष्ट कर देती है की किस तरह सहबंदियों से दूर कर भोजन में जहर मिलाकर उसे
हमेशा-हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया जाता है। अपने जमीनी हक के लिए मुंडा
लोगों के संघर्ष के विरुद्ध ब्रिटिश हुकूमत का कुटिल अभियान, मुंडाओं के सहज स्वभाव
का सुयोग लेकर उन्हे युद्ध में हराना, उनमें अत्याचार आतंक का संचार कर एक सच्चे, सरल, मेहनती आदिम जनजाति के
चेतनायुक्त संग्राम को विनष्ट कर देने का उपनिवेशिक कौशल, सत्तर के दशक के भारत तथा पश्चिम
बंगाल के यथार्थ चित्र को मानस पटल पर उकेर देता है। साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे
मुखर नेताओं को रातों-रात जेलों में कैदी बना दिया गया। उन्हे अदालत के समक्ष
प्रस्तुत न कर पुलिस लोकप में उन पर जानवरों सा सुलूक किया जाता। लाठीयों से पीटकर
राजनाइतुक बंदियों को मार दिया जाता। ऐसी विषम परिस्थिति में 75-80 वर्ष पहले के मुंडा जन
आंदोलन के नायक बिरसा मुंडा के जीवन पर आधारित उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ लिखकर महाश्वेता देवी ने
साधारण जनता के मन में चेतना का तीव्र प्रकाश भर दिया। बिरसा मुंडा की गणना महान
देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने वनवासियों और आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें
अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने
भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का
विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं
संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र
के प्रति सचेत किया। अपने पच्चीस साल के छोटे जीवन में ही उन्होंने जो
क्रांति पैदा की वह अतुलनीय है। बिरसा मुंडा धर्मान्तरण, शोषण और अन्याय के विरुद्ध
सशस्त्र क्रांति का संचालन करने वाले महान सेनानायक थे।
बिरसा मुंडा न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में
संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति
पैदा करने का भी संकल्प लिया। बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प
बताया। उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (हमार देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका। उनकी गतिविधियां अंग्रेज
सरकार को रास नहीं आई और उन्हें 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग
केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उनके
शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण
रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। उन्हें उस इलाके
के लोग “धरती
बाबा” के
नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के
मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज
सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों
की नाक में दम कर दिया। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस
होकर खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं
से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के
बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुईं।
जनवरी 1900 में जहां बिरसा अपनी जनसभा संबोधित कर रहे थे,
डोमबाड़ी पहाड़ी
पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे। बाद में बिरसा
के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी। अंत में स्वयं बिरसा 3 फरवरी, 1900 को चक्रधरपुर में
गिरफ़्तार हुए। अंग्रेजों तथा जमींदारों के खिलाफ, उनके शोषण के खिलाफ तथा अपने
अधिकारों की मांग कराते हुए बिरसा ने 26 वर्ष की अल्पायु में ही प्राण निछावर कर दिया। बिरसा
प्रायः अपनी माँ से कहा करते थे – “इतने आदमियों के बीच मे तेरा बिरसा नहीं रे, माँ मैं धरती का आबा
हूँ। मैं तुम सब को राह दिखलौङ्गा’ सचमुच ! बीर बिरसा ! तुम आदिवासी जनजाति के भगवान हो। कहते
हैं कि वृहस्पतिवार के दिन जन्मे होने के कारण तुम्हारा नाम बिरसा रखा गया। लेकिन
मैं तो कहूँगा कि बिरसा तो ‘वीरता’ शब्द का ही पर्याय है। तुम्हारे जैसा वीर कभी मर नहीं सकता।
तुम हमेशा अमर रहकर हमारे हृदय में एक नए युग की स्थापना हेतु जोश भरते रहोगे।
तुम्हारे जैसे महावीर को हमारा कोटी-कोटी प्रणाम।
माजिद मिया,गांव व पोस्ट बागडोगरा,जिला दार्जलिंग पिनकोड-३४०१४,
ई-मेल:khan.mazid13@yahoo.com